कुछ पृष्ठभूमि आवश्यक है
● गेडोर हैण्ड टूल्स कम्पनी का मुख्यालय जर्मनी में। गेडोर कम्पनी की छह फैक्ट्रियाँ भारत में (फरीदाबाद में तीन और एक-एक कुण्डली, औरंगाबाद, तथा जालना में)। इन फैक्ट्रियों में 7300 वरकरों द्वारा वाहनों के टूल्स का उत्पादन। अमरीका की तीन प्रमुख वाहन निर्माता कम्पनियों, जनरल मोटर्स, फोर्ड, तथा क्रिसलर को गेडोर हैण्ड टूल्स किट का निर्यात। न्यू योर्क में गेडोर कम्पनी का गोदाम।
वाहनों की मण्डी में माँग घटी। चीन और कोरिया की हैण्ड टूल्स कम्पनियों की गेडोर कम्पनी को चुनौती। ऑटोमेशन। 1982 में गेडोर फैक्ट्रियों में ऑटोमेशन पूरा हुआ। और, 2300 मजदूर फालतू हो गये। भारत में वह फैक्ट्रियों में मजदूरों के परमानेन्ट होने का दौर था।
गेडोर कम्पनी से मान्यता प्राप्त सीटू यूनियन ने मजदूरों को नौकरी छोड़ने को तैयार करने के लिये बहुत पापड़ बेले। नौकरी छोड़ने को वरकर तैयार नहीं हुये।
फरीदाबाद में गेडोर मजदूरों ने सीटू यूनियन लीडरों को 1983 में भगा दिया। गेडोर कम्पनी की छँटनी योजना फँस गई।
फैक्ट्री में पुलिस के तम्बू। गेडोर मैनेजमेन्ट सीटू पठ्ठों को वापस लाई। पुलिस की छत्रछाया में गुण्डागर्दी द्वारा फरीदाबाद फैक्ट्रियों से 1500 मजदूर निकालने में गेडोर मैनेजमेन्ट को डेढ़ वर्ष और लग गया।
फरीदाबाद में 1500 और कुण्डली-जालना- औरंगाबाद से 800 वरकर निकालने के बाद 1986 में गेडोर कम्पनी ने पाया कि फैक्ट्रियाँ चलाना सम्भव नहीं है। तब, मुर्गी अण्डे देना बन्द कर दे तो काट-काट कर खा लो वाली बात हुई।
गेडोर कम्पनी के स्थानीय सहयोगी, झालानी बन्धुओं ने बागडोर सम्भाली और कम्पनी का नया नाम झालानी टूल्स।
सरकार द्वारा कम्पनी बीमार घोषित। रियायतें। बैंकों के कर्जों की किस्तें नहीं देना, मजदूरों के ग्रेच्युटी खाते से पैसे निकाल लेना, तनखायें आधी करना, तनखा में देरी, तनखा देना ही नहीं, कई महीनों की तनखायें बकाया हो जाना, ई.एस.आई. व पी.एफ. के पैसे जमा नहीं करना, टाटा स्टील से लिये मैटेरियल का भुगतान नहीं करना …
फरीदाबाद में झालानी टूल्स फैक्ट्रियों के मजदूरों ने मैनेजमेन्ट की बढती गुण्डागर्दी के बावजूद अपनी तनखाओं के लिये पाँच-सात की टोलियों में स्थानीय प्रशासन की नाक में दम किया। सब वैध रास्ते अपनाये। और, कानूनी राह का परिणाम : शून्य।
1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर वकील की राय : कोई कम्पनी तनखा नहीं दे तो कानूनी राहों से मजदूर तनखा नहीं ले सकते।
झालानी टूल्स मजदूरों ने तब फरीदाबाद में गत्तों पर अपनी बातें लिख कर शिफ्टों के समय सड़कों पर खड़े होना आरम्भ किया। सुबह और दोपहर को सड़कें बदल-बदल कर डेढ़ वर्ष यह किया। एक फैक्ट्री के मजदूरों के मामले को हजार फैक्ट्रियों का मामला बनाने के इस तरीके का प्रभाव पड़ा। विवरण मजदूर समाचार के 1996-98 अंकों में है।
गेडोर-झालानी टूल्स मजदूरों के अनुभव और विचार दिल्ली में ओखला औद्योगिक क्षेत्र में एक छोटी मैटल पॉलिश फैक्ट्री, माइकल आराम एक्सपोर्ट वरकरों के लिये 2005 में एक प्रस्थान बिन्दु बने।
दिल्ली के संग अमरीका में मजदूरों के गत्ते (3)
● समस्यायें इतनी बढ़ गई हैं और स्वयं को इतना कमजोर पाते हैं कि अक्सर चमत्कार में ही आस नजर आती है। मत्था टेकने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अध्यात्म की शक्तियों, विज्ञान की शक्तियों, सब शक्तियों के चमत्कारों के बावजूद हमारी समस्यायें बढती ही जा रही हैं।
● परेशानियाँ इस कदर बढ़ गई हैं कि हमें तत्काल समाधान चाहिये। इन्तजार अपने बस से बाहर लगता है। चुटकी बजा कर परेशानी दूर करने वालों को ढूँढने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अनेकानेक मसीहाओं को आजमाने में हम ने कोई कँजूसी नहीं बरती है। नेताओं-पार्टियों-दादाओं-सिद्धों की चुटकियों और गर्जन को हम ने हमारी परेशानियाँ बढाने वाली ही पाया है।
क्या करें? कहाँ जायें ? हताशा-निराशा में अपने-अपने में सिमटते हैं और समस्याओं-परेशानियों को बढते पाते हैं। मन नहीं करता, मस्तिष्क मना करता है फिर भी मजार और मसीहा के फेरे लगाना ही अक्सर नजर आता है। इस चक्रव्यूह में एक दरार डालने का प्रयास लगता है माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों द्वारा दिल्ली में गत्ते ले कर अन्य मजदूरों के बीच जाना, आम लोगों के बीच खड़े होना। सौ मजदूरों को प्रतिनिधियों/नेताओं के जरिये पाँच में बदल कर मुट्ठी में रखने की परिपाटी को चुनौती है 10 का 100-1000-10,000- … बनने की राह।
दिल्ली में मजदूरों के गत्तों की गमक-धमक अमरीका पहुँची। दमन-शोषण वाली विश्वव्यापी वर्तमान समाज व्यवस्था से पार पाने तथा नई समाज रचना के प्रयासों के लिये एक और शुभ संकेत है यह।
# मार्च 2005 से कम्पनी द्वारा काम देना बन्द कर फैक्ट्री में मजदूरों को खाली बैठाना, मई में नई फैक्ट्री खोल वहाँ वही काम करवाना, बाहर काम करवाना, तनखा में टालमटोल के बाद सितम्बर माह से वेतन देना ही नहीं, दबाव बढा कर गाजियाबाद और सी-82 ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्रियों के मजदूरों से इस्तीफे लिखवाना, अमरीका स्थित माइकल आराम ग्रुप की कम्पनी को माल का निर्यात जारी रखना … इस सब के विरोध में बी-156 डी डी ए शैड्स ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्री में अगस्त 2004 में 28 के निकाले जाने के बाद बाकी बचे बीस मजदूरों ने गत्तों पर अपनी बातें लिख कर 27 अक्टूबर 2005 से दिल्ली में अन्य मजदूरों के बीच जाना, लोगों के बीच खड़े होना आरम्भ किया था। इफ्टू यूनियन द्वारा श्रम विभाग में कार्रवाई, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों/समूहों से समर्थन-सहयोग के लिये सम्पर्क, पुलिस को सूचना, पार्षद व विधायक से मिलना और सांसदों से मिलने के प्रयास, पत्र-पत्रिकाओं-टी वी वालों से सम्पर्क, अमरीका में सहयोगी बनाने के लिये कोशिशें। इधर नवम्बर-दिसम्बर-जनवरी में दिल्ली में जगह-जगह गत्ते ले कर मजदूर खड़े हुये, विभिन्न प्रकार का सहयोग मिला और अमरीका में माइकल आराम समूह की कम्पनी से तथा ग्रुप का उत्पादन बेचते वितरकों से अमरीका सरकार के नागरिक प्रश्न पूछने लगे, विरोध जताने लगे (इन्टरनेट पर मजदूरों का पक्ष प्रस्तुत किया गया) … चौतरफा पड़ते दबाव के कारण 25 जनवरी 2006 को गत्ते वाले मजदूरों को माइकल आराम डिजाइन कम्पनी में स्थाई नौकरी के नियुक्ति-पत्र, बकाया तनखायें व बोनस दे दिये गये (जुलाई 2005 में श्रम विभाग से लौटते समय कार की टक्कर से मरे श्रमिक की विधवा को भी स्थाई नौकरी का नियुक्ति-पत्र)।
● स्थाई मजदूरों की जगह कैजुअल वरकर रखने, ठेकेदारों के जरिये मजदूर रखने के लिये हरकतें करना कम्पनियों की सामान्य क्रियायें हैं। स्थाई मजदूर की आधी, चौथाई, छठवें हिस्से की तनखा में उतना ही उत्पादन करवाना (बल्कि अधिक उत्पादन करवाना) यहाँ 15-20 वर्ष से सरकारों-कम्पनियों के क्रियाकलापों की मुख्य चारित्रिकता है। निगाहों को संसार के पटल पर रखें तो उत्पादन के संग लेखाजोखा व वितरण के कार्य को अमरीका-यूरोप से निकल कर दुनियाँ के अन्य क्षेत्रों में तीव्रतर गति से जाते पाते हैं। मैक्सिको-चीन-भारत-बंगलादेश- … का अर्थ है यूरोप-अमरीका में वेतन के दसवें, बीसवें, तीसवें, चालीसवें हिस्से में कार्य करवाना।
भाप-कोयला आधारित मशीनों द्वारा स्थापित मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था की मारक क्षमता को बिजली और इलेक्ट्रोनिक्स ने सातवें आसमान पर पहुंँचा दिया है। कृत्रिम उपग्रह-कम्प्युटर-इन्टरनेट ने सिर-माथों पर बैठों के लिये यूरोप-अमरीका में उत्पादन कार्य कम कर भयभीत मजदूरों को जकड़ में कसने का कार्य किया है तथा भारत-चीन में दस्तकारों-किसानों की सामाजिक मौत की रफ्तार बढा कर टके सेर इन्सान उपलब्ध होना सुनिश्चित किया है। बेरोजगारों की भरमार (अमरीका सरकार की जेलों में बीस लाख से ज्यादा लोग बन्द), भारत में सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के आधे से भी कम में काम करने के लिये कतारें …
जैसे ज्ञान को ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं का वाहक वाहन कह सकते हैं वैसे ही विज्ञान को मण्डी- मुद्रा का वाहक वाहन कह सकते हैं (देवताओं के वाहक वाहन बहुत पीछे छूट गये हैं)।
● ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था के गठन के संग आरम्भ हुई मानव योनि की त्रासदी इधर मण्डी-मुद्रा के दबदबे के संग समस्त जीवों के लिये, सम्पूर्ण पृथ्वी के लिये विनाशकारी बन गई है। सामाजिक बीमारी इस कदर भयावह रूप धारण कर चुकी है कि बीमारी का हर लक्षण
स्वयं बीमारी नजर आने लगा है। ऐसे में उपचार के नाम पर उन तरीकों की भरमार है जो क्षणिक राहत के आवरणों से बीमारी को ढकते हैं। जबकि, हमें राहत के वो तरीके चाहियें जो तात्कालिक समस्या से राहत लिये हों और बीमारी को उजागर कर उसके उपचार की राहें प्रदत करते हों।
राजनीति में राजा का स्थान जैसे चेहराविहीन सरकार ने लिया वैसे ही फैक्ट्री-उत्पादन में मालिक का स्थान बिना चेहरे वाली कम्पनी ने ले लिया। इन हालात में व्यक्ति-विशेष के गुण-अवगुण अधिकाधिक गौण होते गये हैं। अस्सी-सौ वर्ष पूर्व ही ईमानदार-असली-बलिदानी प्रतिनिधित्व की सीमा “शानदार पराजय” स्पष्ट हो गई थी। आज बेईमानी पर छाती पीटना विलाप की रस्म अदा करना है।
सरलीकरण के लिये उत्पादन क्षेत्र को ही लें।
कम्पनी;
कम्पनी की कई उत्पादन इकाइयाँ;
उत्पादन की एक शाखा में कई कम्पनियाँ;
कम्पनियों में लगते – कम्पनियों से निकलते पैसों के विभिन्न स्रोत – पड़ाव;
मण्डी की माँग से अधिक उत्पादन की क्षमता — उत्पादन इकाइयों द्वारा, उत्पादन की हर शाखा द्वारा सामान्य तौर पर अपनी क्षमता से कम, काफी कम उत्पादन करना;
उत्पादन इकाइयों के बन्द होने – कम्पनियों के दिवालिया होने का एक सामान्य प्रक्रिया बन जाना;
देश-विदेश की सीमाओं काअर्थहीन होते जाना; …
इन हालात ने कम्पनियों के उन कदमों को जिन्हें पिछली पीढ़ी के मजदूर आक्रमण मानते थे उन्हें आज कम्पनियों की सामान्य दैनिक क्रिया बना दिया है। इस सब से बहमुखी असन्तोष पनपा है — इसका कोई एक लक्ष्य नहीं है, कोई एक समस्या के समाधान वाली बातें नहीं रही हैं।
ऐसे माहौल से पार पाने के लिये तौर-तरीके क्या-क्या हो सकते हैं? आवश्यकता विश्वव्यापी संगठित प्रयासों की लगती है — उन्हें मूर्त रूप कैसे दें? पुर्जेनुमा की जगह मनुष्य-रूपी जोड़ों-तालमेलों के लिये संगठनों के स्वरूप कैसे हों? सामाजिक बीमारी के इस अथवा उस लक्षण से व्यापक-स्तर पर जूझ रही प्रत्येक व्यक्ति, जूझ रहा हर समूह इन प्रश्नों से रूबरू है, इन सवालों को सामने ला रही है। माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों की दिल्ली के संग अमरीका में गमक-धमक इन सवालों को नई मुखरता के साथ सामने लाई है।
● कोई मन्त्र नहीं है। कोई सूत्र नहीं है। बल्कि, ऐसे अनेकानेक सहज-सरल कदम हैं जो स्थाई मजदूर हों चाहे बढती संँख्या वाले कैजुअल व ठेकेदारों के जरिये रखे जाते वरकर, सब उठा सकते हैं। प्रत्येक कदम तिनके समान है पर तिनकों का योग उल्लेखनीय प्रभाव लिये है। अपने में सिमटते-सिकुड़ते जाने की बजाय अन्यों के बीच बातों को ले जाना, अन्यों से जुड़ना सार्थक कदमों की चारित्रिकता लगती है :
— स्थानीय, प्रान्तीय, केन्द्रीय स्तर पर श्रम विभाग, कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई.एस. आई.), भविष्य निधि संगठन (पी.एफ.), स्वास्थ्य विभाग, प्रदूषण निकाय आदि के पते प्रत्येक मजदूर के पास होना बनता है। “सब बिके हुये हैं”, “छापे के वक्त खा-पी कर मामले रफा-दफा कर देते हैं” के आधार पर इन्हें अपनी बातें कहना ही नहीं का आधार तिनके से चमत्कार की आस पूरी नहीं होने में लगता है। हाँ, पहचान से – निशाना बनने से बचने के लिये एक फैक्ट्री के मजदूर अपनी बातें दूसरी फैक्ट्री के मजदूरों से लिखवा सकते हैं।
— पार्षद, विधायक, सांसद, श्रम मन्त्री (प्रान्तीय व केन्द्रीय), मुख्य मन्त्री, प्रधान मन्त्री, राष्ट्रपति के सन्दर्भ में भी उपरोक्त बातें ही।
— ऑडिट – बायर के आगमन के समय फैक्ट्री में सफाई, उस दिन के लिये वर्दी-दस्ताने-मास्क-चश्मे-टोपी देना, पूछें तो 12 घण्टे की ड्युटी को 8 घण्टे की बताना, आमदनी ज्यादा बताना आदि की मजदूरों को सख्त हिदायतें … फैक्ट्री संचालकों की कमजोरी को इंगित करते हैं — ऊँच-नीच वाली वर्तमान व्यवस्था में सिर-माथों पर बैठे लोग वास्तविकता की बजाय अपनी छवि के बारे में बहुत चिन्तित रहते हैं। इसलिये फैक्ट्री के उत्पादन के खरीददारों और बेचने वालों के पतों की जानकारी प्राप्त करना बनता है। और, फैक्ट्री का माल खरीदने-बेचने वालों को फैक्ट्री हालात की वास्तविक स्थिति पत्रों में लिखना दबाव के लिये एक और तिनका बनता है।
— उत्पादन के आपस के जोड़ (पुर्जों का निर्माण और उन्हें जोड़ने का काम) विश्वव्यापी हैं, उत्पादन का वितरण भी ऐसा ही है। उत्पादन-वितरण का दायरा चूँकि अधिकाधिक विश्वव्यापी हो रहा है, दुनियाँ के विभिन्न क्षेत्रों में मित्रों-सहयोगियों के लिये प्रयास मजदूरों के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता बन गये हैं। इसे ध्यान में लेना-लाना और भाषा-सम्पर्क की दिक्कतों से पार पाने के प्रयास प्राथमिक कदम हैं, महत्वपूर्ण तिनकों की रचना हैं।
— सहयोगियों की मदद से अपनी-अपनी फैक्ट्री की रोजमर्रा की हकीकत को हाथ से लिखे पोस्टर जगह-जगह चिपका कर अधिकाधिक सार्वजनिक करना एक और तिनका बनता है।
— अखबारों को फैक्ट्री में सामान्य हालात के बारे में बार-बार लिखना — नहीं छापना अथवा बहुत थोड़ा छापना उनके चरित्र में है पर अखबारों को मजदूरों के पत्र तिनके तो बनते ही बनते हैं।
— अपने पड़ोसियों-परिचितों को फैक्ट्री/दफ्तर/कार्यस्थल की दैनिक वास्तविकता से अवगत कराते रहना बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत-ही आसान भी है। खट्टे-मीठे अनुभवों को एक-दूसरे से साँझा करना हर एक के लिये एक सहज क्रिया बन सकती है। एक-दूसरे की टाँग खींचने की बजाय एक-दूसरे की थोड़ी-थोड़ी सहायता …
समय के साथ यह तिनकों के गट्ठर बनते हैं।
और, जो आसानी से कर सकते हैं उसे नहीं करने के लिये बहाने ढूँढना-गढना बद से बदतर हो रहे हालात की गति तीव्र करना लिये है।
(मजदूर समाचार, फरवरी 2006 अंक)