शिशुओं की दुलत्तियाँ

● शिशु के सहज, स्वस्थ पालन-पोषण में साझेदारी वाले अलग-अलग आयु के पचास लोग आवश्यक हैं। अफ्रीका में प्रचलित एक कहावत अच्छे बचपन के लिये और अधिक लोगों के होने को जरूरी बताती है।

प्रगति और विकास के संग शिशु से लगाव रखते लोगों का दायरा सिकुड़ता जाता है। माता, पिता और बच्चा/बच्ची अब सामान्य बन गया है। मात्र माँ और शिशु प्रगति के शिखरों पर विचरने लगे हैं। एक-दो-तीन का होना माँ का पगलाना, पिता का पगलाना, शिशु में बम के बीज बोना लिये है।

● लगाव के बिना शिशु के संग रहते लोगों को भुगतना विगत में महलों में जन्म लेने वालों की त्रासदी थी। शिशु की देखभाल करने को मजबूर लोगों का स्वाभाविक अनमनापन, दिखावा, बेगानापन राजकुमार-राजकुमारी के टेढे-निष्ठुर-निर्मम-क्रूर व्यवहार का खाद-पानी था।

पति-पत्नी-बच्चे को सामाजिक इकाई बनाने के संग प्रगति और विकास पति के अलावा पत्नी द्वारा नौकरी करने की अनिवार्यता को बढाते हैं। नौकरी करती महिला द्वारा शिशु की देखभाल पैसों के लिये यह काम करने वालों को सौंपना मजबूरी है। बच्चों-युवाओं में टेढेपन-निष्ठुरता-निर्ममता-क्रूरता की उठती लहरें प्रगति का एक परिणाम हैं।

● घड़ी प्रगति और विकास का एक प्रतीक है। समय का अभाव तरक्की का पैमाना है — जितना कम समय आपके पास है उतनी ही अधिक प्रगति आपने की है,आप बेरोजगार हैं तो गर्त में हैं। विकास में सफलता और “क्वालिटी टाइम” एक-दूसरे के पूरक हैं। शिशु को समय नहीं दे पाने के अपराधबोध से ग्रस्त माता-पिता उसे “क्वालिटी टाइम” देते हैं … “क्वालिटी टाइम” माता-पिता का कवच है और जाने-अनजाने में बच्चे को टेढेपन में दीक्षित करता है।

● स्वाभाविक को नकारना-छिपाना-बाँधना प्रगति-विकास-सभ्यता के प्रतिबिम्ब हैं। “छी-छी नँगू”, “टट्टी-पेशाब गन्दे” के फिकरे सामान्य बन गये हैं। प्रगति और विकास शिशु को कपड़ों में लपेटना और टट्टी-पेशाब के लिये समय व स्थान निर्धारित करना लिये हैं। यह पहलेपहल माता-पिता की कुछ मजबूरी है और फिर क्रेच-विद्यालय का अनुशासन। टट्टी-पेशाब रोकना बच्चों को तन के अनेक रोग देता है। छी-छी की बातें मन के रोग लिये हैं।

● पक्के मकान, बिजली, इलेक्ट्रोनिक उपकरण, कुर्सी-मेज प्रगति-विकास-सभ्यता की देन हैं। शिशु के लिये ऐसे निवास यातनागृह हैं।

कच्चे घर में शिशु को चूल्हे की आग से बचाने पर ही विशेष ध्यान जरूरी होता है। पक्के घर में शिशु का हर कदम टोका-टोकी लिये है। चोट का डर, बिजली का भय, महँगी चीज तोड़ने की आशंका माता-पिता को चौकस-चिन्तित रखती हैं। टोका-टोकी शिशु में आक्रोश पैदा करती है और शिशु के क्रोध की अभिव्यक्ति पर रोक को सभ्यता ने एक अनिवार्यता बना दिया है … शिशु मन में यह बम के बीज बोना है। किराये के एक कमरे में रहने अथवा बड़े मकान में रहने से इसमें कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

वैसे, आज के देव, प्रभु विज्ञान के अनुसार भी सीमेन्ट-स्टील-पेन्ट वाले निवास तथा कार्यस्थल अत्यन्त हानिकारक हैं। यह इंग्लैण्ड के साठ प्रतिशत निवासियों की साँस की तकलीफों का प्रमुख कारण हैं।

● गति, तीव्र गति प्रगति और विकास का एक अन्य प्रतीक है। सड़क और वाहन सर्वग्रासी बने हैं। यातनागृह बने निवासों में बच्चों को बन्दी बना कर रखने का बाहरी कारण वाहन हैं, तेज रफ्तार वाहन। गये वह दिन जब साइकिल की रफ्तार को खतरनाक माना जाता था …

“बाहर” अब बच्चों के दायरे से बाहर है। सड़क पर बच्चों को कैसे खेलने दें … अन्य सार्वजनिक स्थान हैं नहीं अथवा अनेक शर्तें लिये हैं। ऐसे में बच्चे मनोरंजन के लिये टी वी देखें …

सभ्यता के संग आई पहलवानी, मुक्केबाजी, नाटक, नौटंकी की प्रायोजित पीड़ा – प्रायोजित आनन्द में इधर बहुत प्रगति हुई है। टी वी ने प्रायोजित पीड़ा – प्रायोजित आनन्द को जन-जन तक पहुँचा दिया है। प्रगति-विकास ने एकाकी भोग को, तन की बजाय मस्तिष्क द्वारा भोग को महामारी बना दिया है। आत्मघाती बम बनना, 10-12 वर्ष के बच्चों द्वारा विद्यालय में 18-20 को गोली मारना इसके लक्षण हैं।

● शिशुओं का माटी-रेत-गारा के प्रति आकर्षण देखते ही बनता है। बड़ों की रेत-मिट्टी-कीचड़ से नफरत चिन्ता के संग चिन्तन की बात है …

बच्चों के अच्छे भविष्य के नाम पर अपनी दुर्गत करने, बच्चों की दुर्गत करने पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।

— (मजदूर समाचार, नवम्बर 2007)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (14)

# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अक्सर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

26 वर्षीय मजदूर : सुबह 6 बजे की शिफ्ट के लिये चार-साढे चार बजे उठता हूँ। साइकिल नहीं है, 5 बजे तैयार हो कर 45-50 मिनट पैदल चल कर फैक्ट्री पहुँचता हूँ। देर होने पर दौड़ कर जाना — जाड़े में भी पसीना आ जाता है। सर्दियों में अन्धेरे में रेल लाइन और मथुरा रोड़ पार करना। सुबह 5 बजे सुनसान होता है। चलते-चलते दिमाग में आता है कि यह भी कोई जिन्दगी है …

हरियाली तीज पर फिरोजाबाद चूड़ी लाने गये पिताजी टूण्डला में लाइन पार करते समय रेल से कट गये थे। मैं तब पेट में था और माँ का निकाह चाचा के साथ कर दिया गया। मनिहारों में चार घार (पाट) हैं, गोत्र हैं और आमतौर पर ब्याह-शादी घार के अन्दर ही होती है। मथुरा जिले के एक गाँव के रहने वाले मेरे पिता व चाचा की शादी अहमदाबाद में दो बहनों से हुई थी। हादसे के बाद मौसी की फिर अहमदाबाद में शादी कर दी गई … दो साल में मौसी की आग लगने-लगाने से मृत्यु हो गई। इधर बचपन से ही घर में मैंने भारी कलह झेली है। कुछ तो ब्रज व गुजराती भाषाओं की दिक्कत थी और फिर दादी व बुआ की माँ से खटपट — मेरे दूसरे पिता जी माँ को बहुत ज्यादा पीटते, मुझे बहुत बुरा लगता पर मैं कुछ कर नहीं सकता था। नाना-नानी ने पंचायत की, माँ अहमदाबाद चली जाती और फिर आ जाती। माँ अब भी कहती है कि मैं तेरे कारण यहाँ रुकी अन्यथा …

छह बजे फैक्ट्री में पहुँच कर साथी मजदूरों से हाथ मिलाता हूँ। सामान लाते हैं और खाली पेट काम शुरू कर देता हूँ। नाश्ता तो कभी घर पर भी नहीं …

माँ ने माँटेसरी में दाखिल करवाया था। अहमदाबाद गई तो मुझे छिपा लिया और बकरियों के बच्चों की देखभाल में लगा दिया। दादी चूड़ी पहनाती थी, पिताजी बकरी चराते थे और चार महीने दूध बेचने के लिये बकरियों को आगरा के पास एक गाँव में ले जाते। लौट कर माँ ने मुझे पहली कक्षा में दाखिल करवाया। मैं दूसरी में, चौथी में, दसवीं में फेल हुआ … स्कूल में अध्यापक पिटाई बहुत करते थे, लड़कियों की भी। बच्चे छुआछूत और ऊँच नीच का व्यवहार करते थे इसलिये मुझे खेल पसन्द नहीं थी, नफरत थी खेलों से और अब भी इन में रुचि नहीं है। किताब खोले बैठा रहता …

फैक्ट्री में खड़े-खड़े काम करना पड़ता है। पहला ब्रेक साढे आठ बजे। तब तक खाली पेट। मैं चाय नहीं पीता और एक रुपये में नाश्ता करता हूँ, कभी-कभी वह भी नहीं करता, पानी पीता हूँ और फिर सीधा भोजन …

नकल तो पाँचवीं की बोर्ड परीक्षा में भी थी (अध्यापक करवाते थे) और दसवीं की परीक्षा में भी। दसवीं कर घर में क्लेश के कारण मैंने फरीदाबाद में फूफा व चाचा के जरिये नौकरी ढूँढी पर नहीं मिली। अहमदाबाद गया और वहाँ बुआ ने एक बेकरी, एस.वी. बेकर्स में लगवाया। वहाँ 25-30 लोग काम करते थे। बेकरी में ही सब रहते थे। काम सुबह 5 बजे शुरू होता और कम से कम रात 10 बजे तक होता था। आराम नाम की चीज तो उसमें थी ही नहीं। भोजन का प्रबन्ध बेकरीवाले ने किया था — खाना बनाने वाली आती थी। काम चलता रहता और भोजन हम बारी-बारी से करते। पैकिंग वालों को तो रात के एक-दो बज जाते। दिवाली पर 4-5 दिन तो सब को रात के 3 बज जाते, 24 घण्टे भी लगातार काम करना पड़ता — कुछ बेकरियों में तो नींद नहीं आने की दवाई देते थे। बेकरी वाला रोज रात 10 बजे बेकरी के बाहर से ताला लगा जाता, रात को फोन करके काम के बारे में पूछता, जाँच के लिये भी आ जाता। शनिवार शाम को खर्चा मिलता, रविवार को घूमने जाते। तीन महीने बाद वहाँ काम छोड़ कर 150 मजदूरों वाली एक वर्कशॉप में लगा जहाँ ड्युटी 12 घण्टे की थी। दो महीने बाद वह छोड़ कर फौज में भर्ती होने के लिये गाँव चला आया …

सुबह 6 बजे की शिफ्ट में हमारे साथ लड़कियाँ भी हैं। ब्रेक में लड़कियाँ अलग बैठती हैं, लड़के उल्टी-सीधी अश्लील बातें करते हैं। पौने नौ बजे सब फिर मशीनों पर। भोजन के लिये 11 बजे आधे घण्टे का समय … भोजन की व्यवस्था दूसरे प्लान्ट की कैन्टीन में है, 5 मिनट पहुँचने में लगते हैं, दौड़ कर जाता हूँ। दस रुपये में थाली, खाना धीरे-धीरे खाता हूँ …

फौज में भर्ती के लिए अच्छी खुराक ली, दौड़, दण्ड-बैठक, बीम की। एक रिश्तेदार था इसलिये आगरे में 4 बार भर्ती के लिये गया। मेरठ, रुड़की, मथुरा, अल्मोड़ा, दिल्ली में भर्ती देखी … हर जगह भारी भीड़, जम कर हँगामा होता, आर्मी वाले लाठियों मारते। भर्ती में मिलती निराशा के कारण वृन्दावन में आईटीआई में दाखिला लिया। आईटीआई करने के बाद खाली बैठना पड़ा तब इन्टर में दाखिला ले लिया। आगरा में एक आईटीआई अध्यापक को 1700 रुपये रिश्वत दी तब उषा मार्टिन कन्स्ट्रक्शन स्टील फैक्ट्री में मुझे अप्रेन्टिस रखा। वहाँ रोज एक्सीडेन्ट होते — गर्म सरिया किसी के पैर में घुस जाता, कोई मशीन में फँस जाता, तेल-पानी के कारण फिसल कर गिर जाते, जल जाते … एक इंजिनियर कहता कि तुम कहीं भी नौकरी नहीं कर पाओगे क्योंकि तुम्हारी सोच नेगेटिव है। जब 7-8 साल का था तब से फिल्मों में रुचि है, आगरा में अप्रेन्टिस था तब यह शौक और बढा। साल-भर बाद वापस गाँव में और फिर खाली। घरवाले कहते कि वह 5 हजार कमा रहा है, वह दस हजार और यह कहीं जाता ही नहीं … थ्रेशर पर मूठा लगा कर मैंने 20 रुपये प्रति घण्टा में काम किया। दो बार गुड़गाँव के चक्कर लगाये पर काम नहीं मिला तब बहन के पास फरीदाबाद पहुँचा …

भोजन के बाद साढे ग्यारह बजे फिर काम शुरू। काम करते समय कुछ नहीं सोचता। सिर्फ यही देखना कि मोटर पास करनी है कि फेल करनी है। जल्दी, और जल्दी करो की कहते हैं तब स्थाई मजदूरों द्वारा दिखाई राह पर चल कर एक-दो खराबी को अनदेखा कर, बाइपास कर मोटर को पास कर देते हैं। एक बजे 15 मिनट के ब्रेक में बैठ जाते हैं …

जीजा ने यहाँ जेमी मोटर (जी.ई.मोटर) में ट्रेनी लगवाया। लालच और डर के जरिये ट्रेनी पर काम का बोझ लगातार बढाया जाता है। निकाल देंगे, 6 महीने बाद डेढ़ साल वाला ट्रेनी बना देंगे, शायद पक्का ही कर दें … और 6 महीने बाद सड़क पर, जैसे कि मैं आ गया हूँ …

ढाई बजे छुट्टी होने पर मैं पानी पी कर आराम से निकलता हूँ — कमरे पर पानी खारा है। बहन थी तब वह खाना बनाती थी। बहन बीमार रहती थी, भाई के साथ गाँव भेज दिया। जीजा भी नौकरी छोड़ कर चले गये। मैंने 550 रुपये किराये पर मुजेसर में कमरा लिया। भोजन बनाने का सामान लिया। मुझे खाना बनाना नहीं आता था, पड़ोसियों से पूछ-पूछ कर बनाना सीखा।

सुबह जल्दी-जल्दी आता हूँ और छूटने पर धीरे-धीरे जाता हूँ। रास्ते में कभी-कभार बाटा पुल के नीचे धरती पर दुकान लगाये रिश्तेदार के पास बैठ जाता हूँ, कभी फुटपाथ पर बटुये बेचते खुले विचारों वाले आदमी के पास, कभी मजदूर लाइब्रेरी में। रास्ते से सब्जी खरीद कर 5-6 बजे कमरे पर पहुँचता हूँ। दिमाग में यही रहता है कि जल्दी भोजन तैयार हो जाये ताकि खा-पी कर सोया जाये। सोने में साढे दस-ग्यारह बज जाते हैं। कभी-कभी ही सपना आता है और हर बार सपने में बहती हुई नदी, साफ पानी की नहरें, चारों तरफ हरियाली, उड़ते हुये पक्षी होते हैं।

ढाई से रात 11 तक की शिफ्ट बिलकुल अच्छी नहीं लगती पर फिर भी एक महीने करनी पड़ी। मिलने-जुलने का सर्दियों में तो समय ही नहीं बचता : 8 बजे उठना, 35-40 लोगों के बीच एक लैट्रीन है, लाइन लग जाती है इसलिये सुबह 5 बजे से पहले या फिर 9 बजे के बाद लैट्रीन जाता हूँ। दस बजे नहाना, भोजन बनाने-खाने में साढे बारह बज जाते हैं।

तीन हफ्ते रात 11 से सुबह 6 तक की शिफ्ट में काम किया। आलस्य रहता, 7 बजे कमरे पर पहुँच कर सो जाता। उठने, मंजन करने, नहाने में 12 बज जाते। भोजन बनाने की बजाय बाजार जा कर फल या गुड़-चना खाना और लौट कर पुनः सो जाना। फिर 4-5 बजे उठ कर सब्जी लाना, 6 बजे भोजन बनाना शुरू करना और खाने-बर्तन धोने में 9 बज जाते। दिन में कितना ही सो लो नींद पूरी नहीं होती। रात 3 से सुबह 5 के बीच तो नींद ज्यादा ही आती है — मशीन पर खड़े हो कर काम करते हुये उँघने लगते हैं। नींद आती इसलिये चाय पीता …

अब नये सिरे से काम ढूँढना होगा … वर्तमान को इस कदर भोगना पड़ रहा है कि मेरा स्वभाव ही नहीं है कि आगे की सोचूँ।

— (मजदूर समाचार, अप्रैल 2007 अंक)

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निर्भरता-आत्मनिर्भरता-परस्पर निर्भरता बनाम … बनाम क्या?

नये समाज के लिये नई भाषा भी आवश्यक लगती है। सामान्य तौर पर शासक समूह की, विद्यमान सत्ता की धारणायें-विचार-भाषा समाज में हावी होती हैं। ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों में पीड़ित-शोषित समूहों का विरोध भी आमतौर पर सत्ता की धारणाओं-विचारों-भाषाओं में व्यक्त होता है।

अब तक के ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों को इस अथवा उस सामाजिक सम्बन्ध पर मुख्यतः आधारित कह सकते हैं। समकालीन ऊँच-नीच मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन पर आधारित कही जायेगी।

सामाजिक सम्बन्ध जिस पर ऊँच-नीच आधारित है वह नाकारा हो जाता है तब नई समाज रचना के लिये गतिविधियाँ बढ जाती हैं। शासक समूह की धारणायें-विचार-भाषा लड़खड़ाने लगते हैं। नये सामाजिक सम्बन्धों का वाहक सामाजिक समूह नई धारणायें-विचार-भाषा उभारता है।

मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन की लड़खड़ाहट इधर बहुत बढ गई है। और, नये सामाजिक सम्बन्धों के वाहक की भूमिका में मजदूर, वैश्विक मजदूर, ग्लोबल वेज वरकर लगते हैं।

हमारे विचार से इस सन्दर्भ में मजदूर समाचार में इन तीस वर्षों में कुछ नई धारणायें-विचार-भाषा व्यक्त हुये हैं। उन में से एक यहाँ प्रस्तुत।

● शिशु की माँ पर निर्भरता को स्वयंसिद्ध माना जा रहा है। आईये इसकी थोड़ी पड़ताल करें।

स्तनपान को शिशु की माँ पर निर्भरता को साफ-साफ दर्शाने वाला कहा जा सकता है। परन्तु क्या बात वास्तव में ऐसी है?

स्तनपान माँ को आनन्द प्रदान कराता है। क्या इसे माँ की बच्चे पर निर्भरता कह सकते हैं?

वास्तव में जीवन बहु-आयामी है, जिन्दगी के कई पहलू हैं। इस अथवा उस पहलू को महत्वपूर्ण-अधिक महत्वपूर्ण करार देना और इन-उन आयामों को गौण बताना गड़बड़झालों की पूरी बारात लिये है।

● दरअसल समुदाय रूपी समाजों का टूटना और ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, बड़े-छोटे वाली समाज व्यवस्थाओं का उभरना-फैलना जीवन के विभिन्न पहलुओं में सामंजस्य को तोड़ता है। सम्पूर्णता में काट-छाँट कर कुछ पहलुओं को महत्वपूर्ण और अन्य को गौण बनाने की प्रक्रिया चलती है। मालिक जो करें वह महत्वपूर्ण, गुलाम जो करें वह गौण …

जीवन के आयामों में सामंजस्य का टूटना और कुछ पहलुओं का महत्वपूर्ण तथा अन्य का गौण बनना सब को सिकोड़ना-खंडित करना लिये है।
दासों की पीड़ा का बयान करने की आवश्यकता नहीं है। स्वामियों की पीड़ा की झलक के लिये महाभारत ही पर्याप्त है। भूदासों के दुख-दर्द के लिये उदाहरणों की जरूरत नहीं है। राजाओं की त्रासदी को शेक्सपीयर के नाटक बखुबी दर्शाते हैं।

● उपरोक्त को ध्यान में रखते हुये आईये निर्भरता-आत्मनिर्भरता-परस्पर निर्भरता पर कुछ चर्चा करें।

— वर्तमान की एक विशेषता यह है कि सहज के प्रति इसमें व्यापक असहजता है।

आयु का सन्दर्भ ही लें। जन्म-शैशव-युवावस्था-वृद्धावस्था-मृत्यु की स्वाभाविकता के प्रति चिर यौवन की लालसा को क्या कहेंगे?

— जवानी का एक अर्थ किसी पर निर्भर नहीं होना भी है। निर्भर मानी अधीन यानी दुखद! लौटें माँ-शिशु पर और विचार करें कि कैसे पूरक का अनर्थ निर्भर है।

— वर्तमान के एक और लक्ष्य आत्मनिर्भरता को देखिये।

यहाँ हम सरलीकरण के लिये समूह की बजाय व्यक्ति-केन्द्रित उदाहरण दे रहे हैं।

आत्मनिर्भरता आगे ही एकांगी जीवन को एकाकी बनाने की राह है। आत्मनिर्भरता आज निवास के ऐसे स्वरूप लिये है कि किसी से कोई मिलना-जुलना न हो। भोजन ऐसा कि अकेले निगल सकें। यात्रा के दौरान सामने किताब और कानों में संगीत। “अपना पैसा” यानी नौकरी-चाकरी आदर्श। नीरस जीवन पर मनन से बचने के लिये टी.वी., प्रायोजित-आनन्द और प्रायोजित-पीड़ा का एकाकी उपभोग।

— निर्भरता और आत्मनिर्भरता में तवे और चूल्हे के भेद के दृष्टिगत विकल्प के तौर पर परस्पर निर्भरता आकर्षक लगती है। आईये इसे थोड़ा देखें।

विस्तार का अभाव और सम्बन्धों का सतही-छिछला होना ऐसी दवा की माँग करता है जो इन्हें कुछ जीवन दे सके। व्यवहारिकता वह औषधि है।

सम्बन्धों का प्रबन्धन करना, रिश्तों को मैनेज करना नया सूत्र है। किसने किस के लिये कितना किया है और क्या-कब करना है का हिसाब-किताब रखना और नफे-नुकसान का आंकलन एक सतत् क्रिया बनती है। सम्बन्ध बनाये रखना है अथवा तोड़ना है, नये रिश्ते बनाने हैं अथवा पुरानों को भुनाना है की ऊहापोह हर समय रहती है। व्यक्ति हो चाहे समूह या संस्था या सरकार, रिश्तों को मैनेज करने का अर्थ यही है।

और, परस्पर निर्भरता सम्बन्धों को मैनेज करना ही है। निर्भरता का विकल्प आत्मनिर्भरता नहीं है और इन दोनों का विकल्प परस्पर निर्भरता नहीं है। तो क्या?

स्वयं को, मानव को प्रकृति का एक अंश लेना, सम्पूर्ण का एक अंश लेना विकल्पों के लिये प्रस्थान-बिन्दु लगता है।

(मजदूर समाचार, दिसम्बर 2007 अंक)

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कुछ बातें गुड़गाँव से

2000 में एक नारीवादी युवती और एक युवा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी मजदूर फरीदाबाद आये थे। जुलाई 2005 में होण्डा मानेसर फैक्ट्री मजदूरों और पुलिस की भिड़ंत अन्तर्राष्ट्रीय समाचार बनी थी। इस पृष्ठभूमि में अन्तर्राष्ट्रीयतावादी मजदूर मित्र 2007 में गुड़गाँव में एक कॉल सेन्टर में जर्मन भाषी के तौर पर वर्क वीजा पर आये थे। उन्होंने चक्रपुर में मजदूरों के एक निवास में कमरा लिया था। मजदूर समाचार को उन्होंने गुड़गाँव खींच लिया।

होण्डा, डेल्फी, मदरसन्स आदि फैक्ट्रियों के यूनियन लीडरों तथा सामान्य मजदूरों से जर्मन भाषी मित्र ने मिलवाया। इस सिलसिले में मारुति गुड़गाँव फैक्ट्री में सन् 2000 की हड़ताल में नेतृत्व में रहे और नौकरी से निकाल दिये गये एक व्यवहारकुशल वरकर से भी उन्होंने मिलवाया था। 1983 में मारुति फैक्ट्री में लगे और 2000 से 2003 की उठापटक में भुक्तभोगी रहे तथा न्यायालयों की तारीखें झेल रहे मजदूर की बातें फैक्ट्रियों में 1983 से 1992 की और फिर 1992 से 2000 के दौर की झलक दिखाती हैं। 1990 के बाद यहाँ इलेक्ट्रॉनिक्स का उत्पादन प्रक्रिया में प्रवेश जो तीव्र और अतुलनीय परिवर्तन लाया है उसका रेखांकन यहाँ दिखता लगता है।

मारुति कार मजदूर : “संजय गाँधी की छोटी कार योजना नहीं चली तो कम्पनी का सरकारीकरण कर सरकार ने सुजुकी कम्पनी को हिस्सेदार बनाया और दिसम्बर 1983 में फैक्ट्री से पहली कार निकली। पाँच किलोमीटर घेरे में फैले क्षेत्र में अब मारुति के तीन प्लान्टों के संग सहायक इकाइयाँ हैं और इधर मानेसर में इससे भी बड़े क्षेत्र में मारुति की नई फैक्ट्री शुरू कर दी गई है। आज प्रतिदिन 2200 मारुति गाड़ियाँ बन रही हैं और इस सँख्या में नई फैक्ट्री भारी इजाफा करेगी।

“मारुति उद्योग में 1983 में भारत सरकार का हिस्सा 76% और सुजुकी कम्पनी का 24% था। कार चल निकली तो 1987 में हिस्सेदारी 60 व 40 की गई और 1992 में आधी-आधी। सुजुकी कम्पनी का हिस्सा 54 प्रतिशत होने के साथ 1998 से उसका मारुति कम्पनी पर पूर्ण-सा नियन्त्रण हो गया।

“संचालन के लिये 1983 में सरकार ने बीएचईएल के एक बड़े साहब को मारुति उद्योग का चेयरमैन-मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया था। यह साहब अपने साथ प्रमुख अधिकारियों के संग इन्टक के एक यूनियन लीडर को भी लाया था। फैक्ट्री हरियाणा में स्थित है पर दिल्ली से 1983 में यूनियन का पंजीकरण करवाया गया और भर्ती-पत्र के साथ कम्पनी यूनियन की सदस्यता भी देती थी। यूनियन लीडर बड़े साहब के साथ अपने सीधे सम्बन्धों के कारण छोटे साहबों को भाव नहीं देता था, हड़का भी देता था। मैनेजरों ने विरोध में गुपचुप कुछ मजदूरों को नेताओं के तौर पर तैयार किया और 1986 में एचएमएस यूनियन के साथ 99 प्रतिशत मजदूर! चेयरमैन-मैनेजिंग डायरेक्टर बदला और नये बड़े साहब के नेतृत्व में मैनेजमेन्ट ने कुछ नये लीडरों को एचएमएस से इन्टक में कर यूनियन चुनाव करवाये। पहले वाले साहब से जुड़े इन्टक लीडर की जगह नये लोग लीडर चुने गये और उन्होंने फिर इन्टक से नाता तोड़ कर हरियाणा सरकार से एक स्वतन्त्र यूनियन का पंजीकरण करवाया। नई हरियाणा सरकार से जुड़ी एलएमएस यूनियन ने 1987 में मारुति कम्पनी में हाथ-पैर मारे पर चली नहीं …

“मारुति कम्पनी ने 1983 में अनुभवी मजदूरों की स्थाई भर्ती आरम्भ की थी। शुरू में सब-कुछ सुजुकी कम्पनी की जापान में फैक्ट्रियों से आता था और गुड़गाँव में उन्हें सिर्फ जोड़ा जाता था। कार के हिस्सों का यहाँ उत्पादन बढा और 1992 में मारुति फैक्ट्री में 4500 स्थाई मजदूर तथा 2000 विभिन्न प्रकार के स्टाफ के लोग हो गये। उत्पादन बढता गया है, कार के अधिकतर हिस्से भारत में ही बनने लगे हैं पर 1992 के बाद मारुति फैक्ट्री में स्थाई मजदूरों की भर्ती बन्द-सी है। बाहर काम करवाना बढा। लेकिन मारुति फैक्ट्री में उत्पादन से सीधे जुड़े काम में 1997 तक स्थाई मजदूर ही थे, ठेकेदारों के जरिये रखे कोई वरकर नहीं थे।

“मारुति फैक्ट्री में मजदूरों और साहबों की एक जैसी वर्दी, एक जैसा भोजन, बसों में साथ-साथ बैठना … सब का 15 मिनट पहले पहुँचना और शिफ्ट शुरू होने से पहले 5 मिनट सब द्वारा व्यायाम … सुजुकी कम्पनी के प्रभाव वाली इस समानता ने आरम्भ में हम मजदूरों को बहुत प्रभावित किया और हम लोगों ने इसे स्वीकार किया। लेकिन शीघ्र ही अनुभवों ने हमें बताया कि यह समानता दिखावे की समानता है। कम्पनी की इस-उस बात का मजदूर विरोध करने लगे। आरम्भ में इन्टक-एचएमएस-स्वतन्त्र यूनियन के मैनेजमेन्ट वाले लीडरों के जरिये हम ने कम्पनी का विरोध किया। फिर 1994 में एक किस्म के मैनेजमेन्ट-विरोधी लोग यूनियन चुनाव जीते और आगे के चुनाव भी जीतते गये। कम्पनी के हित और मजदूरों के हित, दोनों के हित की बात करने वाले इन यूनियन नेताओं से एक कम्पनी चेयरमैन ने समझौता किया तो उसकी जगह चेयरमैन बने दूसरे साहब ने वह रद्द कर दिया। मारुति मैनेजमेन्ट ने 1997 में उत्पादन से सीधे जुड़े कार्यों में भी ठेकेदारों के जरिये वरकर रखना शुरू कर दिया। फिर उकसाने वाली एक के बाद दूसरी हरकत कर कम्पनी ने सन् 2000 में हड़ताल करवाई …

“मारुति फैक्ट्री में हड़ताल। स्थाई मजदूरों की हड़ताल और ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों द्वारा फैक्ट्री में काम। दिल्ली में रात-दिन कई रोज स्थाई मजदूरों का परिवारों समेत जमघट। भाँति-भाँति के संगठनों का समर्थन। बड़ी-बड़ी यूनियनों के बड़े-बड़े लीडरों के भाषण। संसद सदस्यों के भाषण। पूर्व-प्रधान मन्त्री का भाषण। भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप और सरकारी रेडियो-टीवी पर समझौते की घोषणा। मारुति-सुजुकी कम्पनी द्वारा समझौते की बात से इनकार और भारत सरकार द्वारा असमर्थता व्यक्त। कितना कुछ नहीं देखा हम ने उस दौरान।

“अक्टूबर-दिसम्बर 2000 में स्थाई मजदूरों से हड़ताल करवा कर तथा हड़ताल कुचल कर मारुति कम्पनी ने स्थाई मजदूरों को नरम किया और फिर सन् 2001 में पहली वीआरएस लागू कर 1250 स्थाई मजदूरों की छंँटनी की। इस स्वैच्छिक कही जाती योजना को जबरन मजदूरों पर थोपा गया। फैक्ट्री में जबरदस्ती के संग घर-घर जा कर भी इस्तीफे लिखवाये गये। घर में जबरन इस्तीफा लिखवाने की फिल्म तक सबूत के तौर पर मजदूरों ने न्यायालय में पेश की और न्यायालय 6 साल से विचार कर रहा है! सन् 2003 में फिर वीआरएस के जरिये मारुति फैक्ट्री से 1250 स्थाई मजदूरों की छंँटनी की गई। ढाई हजार स्थाई मजदूरों को नौकरी से निकाल कर कम्पनी ने उत्पादन कार्य में ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों की संँख्या में भारी वृद्धि की है। आज मारुति कार की पहली फैक्ट्री में 1800 स्थाई मजदूर और ठेकेदारों के जरिये रखे 4000 वरकर उत्पादन कार्य में हैं। स्थाई मजदूर की तनखा 25 हजार रुपये और वही काम करते ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों को इसका पाँचवाँ-सातवाँ हिस्सा।”

(वैसे, मारुति कार का अधिकतर काम बाहर करवाया जाता है, फरीदाबाद-गुड़गाँव-ओखला-नोएडा में हजारों जगह करवाया जाता है। बहुत जगहों पर वहाँ की सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता। ऐसे मजदूरों की संँख्या भी कम नहीं है जिन्हें न्यूनतम वेतन का आधा भी नहीं दिया जाता, 800-1000 रुपये तनखा में मारुति कार का काम करवाया जा रहा है।)

— (मजदूर समाचार, जून 2007 अंक)

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कुछ छोटी-छोटी बातें

कई तरह की पेट की बीमारियों, विभिन्न प्रकार के उदर रोगों की भरमार है। “पापी पेट” का जिक्र और बहुत कुछ को व्यक्त करने के लिये किया जाता है परन्तु यहाँ हम स्वयं को उदर रोगों तक ही सीमित रखेंगे। व्यापक और सामान्य बन चुकी पेट की बीमारियों के उपचार के लिये किन्हीं गोलियों, घोलों, व्यायामों, प्रार्थनाओं-प्रवचनों का भी यहाँ जिक्र नहीं होगा हालाँकि पेट दर्द से राहत-छुटकारे के लिये इनका बहुत-ही ज्यादा प्रयोग हो रहा है। “मर्ज बढता गया ज्यों-ज्यों दवा की” का सन्दर्भ अन्य था परन्तु पेट की बीमारियों पर यह अक्षरशः लागू होता है। ऐसे में आइये उदर रोगों को कुछ हट कर देखने का प्रयास करें।

*भोजन का पेट से सीधा-सरल-सहज रिश्ता है। तो, टेढापन कहाँ-कहाँ से उपजता है?*

● भोजन का अभाव। भोजन खरीदना पड़ता है और पैसे नहीं हैं तो भूखे रहो। दुनियाँ में ऐसे लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही है जिनके पास पैसे नहीं हैं, कम पैसे हैं। पर्याप्त पौष्टिक भोजन का नहीं मिलना उदर रोगों का, इनके बढ़ने का एक बड़ा कारण है।

● जल और मछली जैसा ही पेट और पानी का रिश्ता है। कल-कारखानों का विस्तार, नगरों का बढ़ना, कृषि में रसायनों का प्रयोग सम्पूर्ण पृथ्वी पर जल के प्रदूषण को बढ़ा रहा है। संसार में प्रदूषित पानी पीने वाले मनुष्य तीव्र गति से बढ़ रहे हैं। दुनियाँ में आज शायद ही कोई हो जो प्रदूषित जल पीने से बचा है। जल-जनित पेट की बीमारियों ने महामारी का रूप ले लिया है।

● निश्चित समय पर भोजन। आधे घण्टे से कम समय में निगलना। खानपान निर्धारित अन्तराल पर। भूख-प्यास लगी होना अथवा नहीं लगी होना का बेमानी होते जाना। विश्व-भर से इच्छा पर भोजन का लोप-विलोप हो रहा है। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल द्वारा शौच का समय फिक्स! विद्यालय का एक अर्थ बचपन में ही पेट के रोगों के बीज बोने वाला स्थल भी है। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल का विस्तार, समय-सारणी उर्फ टाइम टेबल की बढती जकड़ उदर रोगों को बढाना लिये है।

● नींद का अभाव। रात की नींद का अभाव। शिफ्टों में ड्युटी और शिफ्ट परिवर्तन के संग भोजन-शौच का समय बदलना। कार्यस्थल पर लगातार खड़े रहना अथवा लगातार बैठे रहना। उत्पादन व वितरण का अधिकाधिक विश्वव्यापी आधार पर होना दिन और रात के भेद मिटा कर भोजन-पाचन के हमारे जैविक वृत को तहस-नहस कर रहा है। इसलिये रात को जागना थोपने वाली बिजली को पेट की बीमारियों की एक जननी कह सकते हैं। और, इलेक्ट्रोनिक्स-कम्प्युटर-सैटेलाइट उदर रोगों के रक्तबीज हैं, पौराणिक रक्तबीज के क्लोन हैं।

*तन और मन का निकट का रिश्ता है। और आज जैसे समाज में निकट जन का प्रिय जन होना नहीं रहा है वैसे ही मन में तन के प्रति कड़वाहट बढ़ रही है। मन द्वारा तन को हाँकना, मन द्वारा मन को मारना, तन द्वारा मन को नकारना हर व्यक्ति की नियति-सी बन गये हैं। मन की पीड़ा पेट को पेट नहीं रहने देती, मन की पीड़ा उदर रोगों की एक पूरी जमात लिये है। पैसे वाले भी मन की पीड़ा जनित पेट की बीमारियों से मुक्त नहीं हैं। संसार में सर्वत्र व सार्विक हैं मन से जुड़े उदर रोग :*

● खुशी का, मस्ती का अकाल पूरी पाचन-क्रिया को बिगाड़ने के लिये काफी है। पूरी दुनियाँ में भड़ास निकालना खुशी-मस्ती का स्थान ले रहा है। दिखावटी खुशी-मस्ती जटिल उदर रोग उत्पन्न करती है।

● वास्तविक प्रेम और आदर को दिखावटी प्रेम व आदर द्वारा प्रतिस्थापित करना। कदम-कदम पर अनादर, अपमान का सामान्य बात बनना। ऐसे में गुस्से का हर व्यक्ति में हर समय उपजना और
सामान्यतः गुस्से को दबाना-छिपाना, गुस्से को पी जाना तथा जब-तब गुस्से का विस्फोट पेट के लिये बमों की श्रृंँखला समान है।

● इच्छाओं व अनिच्छाओं के अनन्त दमन को वर्तमान की एक चारित्रिकता कह सकते हैं। तनाव हर जगह छाया है और तनाव से भूख ही नहीं लगना अथवा इसके विपरीत ज्यादा खा जाना वाली स्थितियाँ बनती हैं — उदर रोगों के लिये यह दोनों ही उपजाऊ जमीन प्रदत करती हैं।

● अवसाद उर्फ डिप्रेशन … पेट बेचारा क्या करे?

क्या खाते हैं? कैसे खाते हैं? किसके साथ खाते हैं? इन प्रश्नों का भोजन की पौष्टिकता, शरीर की आवश्यकता, मन की इच्छा के साथ रिश्ते कम ही बचे हैं। बल्कि, समाज में स्तर दर्शाते डण्डे-डँके इन्हें अधिकाधिक लोगों पर थोप रहे हैं। और, औपचारिकता का बोलबाला पेट का दिवाला निकाल देता है …

—(मजदूर समाचार, मार्च 2007 अंक)

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पहचान और पहचान की जटिलतायें (2)

पहचान की राजनीति, Identity Politics विभाजित सामाजिक गठनों में अन्तर्निहित लगती है। सत्ता के लिये पहचान की राजनीति चीर-फाड़ का काम करती है।

ऊँच-नीच जिस सामाजिक सम्बन्ध पर आधारित होती है वह सम्बन्ध जब नाकारा होने लगता है तब विद्यमान सत्ता लड़खड़ाने लगती है। ऐसे में पहचान की राजनीति के ताण्डव बहुत बढ जाते हैं।

इधर मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन सवा-डेढ सौ साल से नाकारा है। इसलिये विश्व-भर में इस सम्बन्ध पर आधारित कानून के शासन अधिकाधिक लड़खड़ा रहे हैं। ऐसे में “देश” पर आधारित पहचान की राजनीति का प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों का महाविनाश हम भुगत चुके हैं।

इधर विद्यमान सत्तायें अपने को बचाये रखने के लिये अपने कवच के तौर पर अनेकानेक पहचान की राजनीतियों को पालपोस रही हैं।

पहचान और पहचान की जटिलतायें (2)
(मजदूर समाचार, सितम्बर 2007 अंक)

“मैं” का उदय – “मैं कौन हूँ ?” – एक “मैं” में कई “मैं” – और “मैं” के पार

◆ इकाई और समूह-समुदाय के बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध समस्त जीव योनियों में हैं। मानव योनि में भी दीर्घकाल तक ऐसा ही था। चन्द हजार वर्ष पूर्व ही पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों में मानवों के बीच “मैं” का उदय हुआ। मनुष्यों के प्रयासों के बावजूद अन्य जीव योनियों के समूह-समुदाय में इकाई ने “मैं” के पथ पर प्रगति नहीं की है।

◆ एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय की इकाईयों में तालमेल सामान्य हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय के उस योनि के अन्य समूह-समुदायों के संग आमतौर पर सम्बन्ध मेल-मिलाप के होते हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। आपस की खटपटें घातक नहीं हों यह किसी भी योनि के अस्तित्व के आधारों में है। इसलिये प्रत्येक जीव योनि में यह रचा-बसा है। एक जीव योनि के अन्दर की लड़ाई में किसी की मृत्यु अपवाद है। मानव योनि के अस्तित्व के 95 प्रतिशत काल में ऐसा ही रहा है। इधर मनुष्य द्वारा मनुष्य की हत्या, मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की हत्यायें मानव योनि को समस्त जीव योनियों से अलग करती हैं।

◆ अपनी गतिविधियों के एक हिस्से को भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचित करना जीव योनियों में सामान्य क्रियायें हैं। बने रहने, विस्तार, बेहतर जीवन के लिये ऐसे संचय जीवों में व्यापक स्तर पर दिखते हैं। प्रत्येक जीव योनि में पीढी में, पीढियों के बीच सम्बन्ध इन से सुगन्धित होते हैं। मानव योनि में भी चन्द हजार वर्ष पूर्व तक ऐसा ही था। इधर विनाश के लिये, कटुता के लिये, बदतर जीवन के लिये भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचय के पहाड़ विकसित करती मानव योनि स्वयं को समस्त जीव योनियों से अलग करती है।

कीड़ा-पशु-जंगली-असभ्य बनाम सभ्य को नये सिरे से जाँचने की आवश्यकता है।
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लगता है कि निकट भविष्य में पहचान की राजनीति का ताण्डव बहुत बढेगा। मानव एकता और बन्धुत्व की सद्इच्छायें विनाश लीला को रोकने में अक्षम तो रही ही हैं, अक्सर ये इस अथवा उस पहचान की राजनीति का औजार-हथियार बनी हैं। हम में से प्रत्येक में बहुत गहरे से हूक-सी उठती हैं जिनका दोहन-शोषण सिर-माथों पर बैठे अथवा बैठने को आतुर व्यक्ति-विशेष द्वारा किया जाना अब छोटी बात बन गया है। सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की ही तरह पहचान की राजनीति में भी संस्थायें हावी हो गई हैं। संस्थाओं के साधनों और पेशेवर तरीकों से पार पाने के प्रयासों में एक योगदान के लिये हम यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

● हमारी भाषा-सम्बन्धी अक्षमता-अयोग्यता को क्षमा कीजियेगा।

जीवों-निर्जीवों से रची पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों वर्ष से चले आ रहे अनेकानेक प्रकार के सम्बन्धों के बोलबाले में चन्द हजार वर्ष पूर्व एक महीन दरार पड़ी थी जो कि आज सब-कुछ को विनाश की देहली पर ले आई है।

अनेकानेक प्रकार के सम्बन्धों को मात्र दोहन-शोपण के रिश्तों में समेटती-सिकोड़ती प्रवृति के मानवों के चन्द समूहों में उभरने को सभ्यता का जन्म कह सकते हैं। पौराणिक कथा के सुरसा के मुँह की तरह फैलती आई सभ्यता ने पृथ्वी के पार जा कर अब अन्तरिक्ष का भी दोहन-शोषण शुरू कर दिया है।

सभ्यता की प्रगति के संग पत्थर पर प्यार की थपकी से परे होते मनुष्य प्रेम करने से ही वंचित होते आये हैं। सभ्य मानवों में प्रेम की योग्यता-क्षमता ही नहीं रहती …

1900-1920 के दौरान भी सभ्यता से परे प्रशान्त महासागर के कुछ द्विपों में निवास करते मानव समुदायों के अनुसार घड़ी ने गोरों को प्रेम करने के अयोग्य बना दिया था। आज पृथ्वी पर शायद ही कोई हों जो “गोरे” नहीं हैं …

प्रेम का यह अकाल प्रेम-गीतों को लोकप्रियता प्रदान करता है, विकृत प्रेम को आधार प्रदान करता है। विगत के प्रेम के किस्से भी उस प्रेम की महिमा गाते हैं जो जीवन को विस्तार देने के उलट मनोरोगी सिकोड़ना, संकीर्ण बनाना लिये है। और आज मण्डी में प्रेम के भाव-तोल होते हैं, मण्डी में प्रेम-गीत बिकते हैं।

● जो मिले-जुले हैं, जो घनिष्ठ सम्बन्ध लिये हैं उन्हें अपने से अलग देखना, अपने से अलग करना, “अन्य” बनाना दोहन-शोषण के लिये प्रस्थान-बिन्दु बनता है। और, स्वयं को अपने से अलग देखना, खुद को अपने से अलग करना, स्वयं को हाँकना, खुद के तन का, मस्तिष्क का, मन का दोहन-शोषण “अन्य” से आरम्भ हुये दोहन-शोषण की परिणति है।

धरती को अपने से अलग मान कर धरती का दोहन, पेड़-पौधों को अपने से अलग कर उनका दोहन, पशु-पक्षियों व अन्य जीवों को अपने से अलग कर उनका दोहन-शोषण, एक मानव समुदाय द्वारा दूसरे मानव समुदायों को अपने से अलग मान कर, “वे-अन्य” बना कर उनका शोषण, एक मानव समुदाय में ही “मैं” और “वह” की रचना द्वारा एक-दूसरे के शोषण के आधार की स्थापना, और फिर “मैं” में विभाजन – कई विभाजन …

किसी स्वामी-मालिक के “मैं” की ही बात करें तो उस “मैं” के अन्दर इस कदर द्वन्द्व हैं कि उसे स्वामी-मालिक बनाये रखने के लिये अनेक भोगों के संग योग की आवश्यकता पड़ती है … टूटे को जोड़ना लक्षणों का उपचार करना है, बीमारी को छिपाना है। और, संकीर्ण अर्थ में स्वास्थ्य की ही बात करें तो भी प्रश्न है : स्वास्थ्य किस लिये? स्वास्थ्य से खिलवाड़ करती सामाजिक प्रक्रिया शोषण के लिये स्वास्थ्य के महत्व को बखूबी जानती है …

● मानव समुदायों में से जो समुदाय स्वामी गण बने थे वे स्वाभाविक तौर पर समुदायों की गहरी छाप लिये थे। इसने सभ्यता के बारे में अनेक भ्रान्तियों को भी जन्म दिया है। स्वामी गण के दौर को सतयुग कहने वालों के लिये यह बात पर्याप्त होनी चाहिये कि दास-दासी गण के सदस्य नहीं थे, दास-दासियों का शोषण स्वामी गणतन्त्रों की चमक-दमक का आधार था।

स्वामी गण के “हम” में से “मैं” के उदय को पतन के तौर पर देखने की परिपाटी के लिये भी उपरोक्त पर्याप्त होना चाहिये। “हम” और “वे-अन्य” का अगला कदम “हम-मैं”, “मैं-हम”, “मैं” है …

“मैं” के संग “मेरा-मेरी” हैं। यहाँ हम स्वामियों-मालिकों के आचार-विचार की ही चर्चा कर रहे हैं क्योंकि दास-दासियों के “मैं” और “मेरा-मेरी” के लिये कोई स्थान ही नहीं था। लेकिन बँटे हुये समाज में सिर-माथों पर बैठों का प्रभाव नीचे वालों पर पड़ता – डाला जाता है। कहा है कि किसी दौर की हावी सोच उस दौर के शासक वर्ग की सोच होती है …

माँ शक्ति, देवी के गले में नर-मुण्डों की माला, पिता के आदेश पर माँ का सिर काटना वाली पौराणिक कथायें नर-नारी सम्बन्धों में हुये उलटफेर दर्शाती लगती हैं। यह न भूलते हुये कि स्वामी-मालिक की पत्नी-बेटी दास-दासियों के लिये स्वामी ही थी, बात आगे बढ़ाते हैं।

“मैं” और “मेरा-मेरी” का विस्तार नारी की – बच्चों की दुर्गत तो लिये ही है, यह पुरुषों का भी कचूमर निकालता है। “मैं” और “मेरा-मेरी” के लिये सुरक्षा का प्रश्न अपने संग सरकार और उसका बढता बोझ लिये है। “मेरा-मेरी” की सुरक्षा तथा इनके विस्तार की इच्छायें पहचान की राजनीति की खुराक तो बनती ही हैं।

सम्पत्ति और परिवार के रूप में “मेरा-मेरी” किसानी-दस्तकारी-दुकानदारी के विस्तार के दौरान महामारी का रूप ले लेती है। लेकिन इधर सम्पत्ति द्वारा संस्थागत रूप धारण करते जाना और बढती संँख्या में स्त्रियों का मजदूर बनना सभ्यता के विलोप तथा नये समुदायों की आवश्यकता की दस्तक लगती है …

संस्थाओं-कम्पनियों के बड़े घपलों-घोटालों के संग एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में सामाजिक मौत – सामाजिक हत्या से रूबरू दस्तकारों-किसानों-दुकानदारों की “मेरा-मेरी” की बदहवासी फुटकर भ्रष्टाचार की बाढ लाई है। और यूरोप-उत्तरी अमरीका में संस्थाओं ने “मेरा-मेरी” वाले आवरणों को हड़प कर “मैं” को पूरी वीभत्सता के साथ सामने ला दिया है।

प्रकृति में स्त्री की यौन सम्बन्धी क्षमता कई पुरुषों के बराबर है। एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन सन्तुष्टि नहीं कर सकता … ऐसे में एक पुरुष द्वारा कई स्त्रियाँ-पत्नियाँ रखना “मैं” की पीड़ा का ही कमाल रहा है। “मैं” के उदय के संग स्त्री-पुरुष में आरम्भ हुये सतत द्वन्द्व की चर्चा आगे करेंगे। (जारी)

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डेल्फी पैकॉर्ड इलेक्ट्रिक सिस्टम

डेल्फी पैकॉर्ड इलेक्ट्रिक सिस्टम वरकर : “42 मील पत्थर दिल्ली-जयपुर रोड़, गुड़गाँव स्थित फैक्ट्री में कारों का बिजली का ताना-बाना तैयार किया जाता है जिसे यहाँ मारुति, होण्डा, जनरल मोटर फैक्ट्रियों को दिया जाता है तथा अमरीका स्थित निसान की कार फैक्ट्री को निर्यात भी किया जाता है। डेल्फी की नोएडा में फैक्ट्री के संग 1995 में इस फैक्ट्री की स्थापना हुई। गुड़गाँव में उद्योग विहार में डेल्फी की एक छोटी फैक्ट्री और कार्यालय भी हैं। पुणे में नई फैक्ट्री की बातें …

“डेल्फी फैक्ट्री में उत्पादन कार्य के लिये युवा मजदूर भर्ती किये गये और स्थाई किये गये। सात वर्ष में, 2002 में फैक्ट्री में 750 स्थाई मजदूर काम करने लगे थे कि कम्पनी ने 15 महीने की तनखा ले कर इस्तीफा वाली वी आर एस लगाई। हम सब नौजवान थे पर फिर भी 50 मजदूरों ने भी नौकरी नहीं छोड़ी। ऐसे में माँग-पत्र पर यूनियन और कम्पनी में अखाड़ेबाजी हुई। यूनियन ने कहा कि कम्पनी दिवाली उपहार नहीं दे रही, मैनेजमेन्ट ने कहा कि उपहार दे रहे हैं। यूनियन ने कहा कि महिला मजदूरों के साथ मैनेजमेन्ट ने दुर्व्यवहार किया है और कम्पनी ने अनुशासनहीनता का आरोप लगा यूनियन प्रधान को निलम्बित कर दिया। बस उपलब्ध करवाई – बस उपलब्ध नहीं करवाई की जुगलबन्दी में 9 अक्टूबर 2002 की रात मजदूर फैक्ट्री के अन्दर रहे। फिर 10 अक्टूबर को यूनियन ने कहा कि मैनेजमेन्ट समझौता वार्ता के लिये तैयार हो गई है इसलिये घर जाओ। हम 11 अक्टूबर को फैक्ट्री पहुँचे तो गेट पर तालाबन्दी का नोटिस पाया। तीन महीने की तालाबन्दी के जरिये मजदूरों को नरम कर कम्पनी ने फिर वही वी आर एस पेश की और यूनियन प्रधान ने पहल कर बड़ी संँख्या में मजदूरों से इस्तीफे लिखवाये। हम नादान थे, कईयों ने तो देखा-देखी में नौकरी छोड़ दी। फिर भी इतने मजदूर नहीं गये जितने कम्पनी चाहती थी। सन् 2003 में ही कम्पनी ने तीसरी बार वही वी आर एस लगाई। इस प्रकार स्थाई मजदूरों की संँख्या 750 से 250 कर दी गई और उत्पादन कार्य में कम्पनी ने ठेकेदारों के जरिये वरकर रखने शुरू किये।

“2007 के आरम्भ में डेल्फी कम्पनी की इस फैक्ट्री में 4 ठेकेदारों के जरिये रखे मजदूरों की संँख्या 2500 हो गई। स्थाई मजदूरों की 8-10 हजार रुपये तनखा की तुलना में ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों का वेतन 2700 रुपये। फरवरी 2007 के आरम्भ में एक दिन अचानक चार ठेकेदारों के जरिये रखे वरकर फैक्ट्री में प्रवेश करने की बजाय फैक्ट्री के बाहर बैठ गये और तनखा बढाने को कहा। हम ढाई सौ स्थाई मजदूर यूनियन में हैं और हम फैक्ट्री में गये तथा हम ने काम किया। मजदूरों के दसवें हिस्से से, हम 250 स्थाई मजदूरों से उत्पादन क्या खाक होना था। ठेकेदारों के जरिये रखे ढाई हजार मजदूरों की चाणचक्क हड़ताल से कम्पनी हड़बड़ा गई। कम्पनी ने अन्य कम्पनियों से होड़, फैक्ट्री बन्द करने, फैक्ट्री अन्यत्र ले जाने की बातें की और यूनियन से हड़ताल फौरन खत्म करवाने को कहा। यूनियन लीडरों ने कहा कि हम ठेकेदारों के जरिये रखे मजदूरों के साथ भी हैं और कम्पनी के साथ भी। ठेकेदारों के जरिये रखे वरकर नये-नये लड़के हैं फिर भी दो दिन बाद मुश्किल से माने। दो दिन उत्पादन ठप्प रहने के बाद यूनियन उन सब को फैक्ट्री में लाई। इधर हम स्थाई मजदूरों में पुणे ट्रान्सफर की बातों ने छंँटनी का डर फिर पैदा कर दिया है।”

1978 में जनरल मोटर की अमरीका स्थित फैक्ट्रियों में उत्पादन कार्य में 4 लाख 66 हजार स्थाई मजदूर थे। कहावत बन गई थी कि जनरल मोटर कम्पनी को छींक आती है तो अमरीका सरकार को जुकाम हो जाता है। इस सब में काफी कुछ बदला है। स्थाई नौकरी और बड़ी संँख्या के कारण जनरल मोटर के मजदूरों की तनखा औरों से कुछ अधिक थी, उन से अमरीका में पार्ट्स सप्लायर कम्पनियों के वरकरों की तनखा 1980 में 15% कम थी (सन् 2000 में यह 31% कम)। पार्ट्स के लिये जनरल मोटर ने अपने में से डेल्फी नाम से कम्पनी खड़ी की —1999 तक डेल्फी जनरल मोटर कम्पनी का ही हिस्सा थी।

अमरीका में जनरल मोटर की फैक्ट्रियों में उत्पादन कार्य में स्थाई मजदूरों की संँख्या 1993 में 2 लाख 33 हजार कर जून 2006 में यह 70 हजार कर दी गई। डेल्फी कम्पनी ने अक्टूबर 2005 में स्वयं को दिवालिया घोषित कर अमरीका स्थित अपनी फैक्ट्रियों में मजदूरों के वेतन आधे से भी कम किये, छुट्टियाँ कम की, स्वास्थ्य तथा सेवानिवृति की स्थितियाँ बदतर की। जनरल मोटर-डेल्फी ने अमरीका में यह सब करने के लिये यूनियन को एक औजार बनाया है।

अमरीका में दिवालिया के प्रावधान और यूनियन को इस्तेमाल करती डेल्फी कम्पनी की 2005 में दुनियाँ-भर में 160 फैक्ट्रियों में एक लाख 80 हजार मजदूर काम करते थे। डेल्फी की अमरीका में 33 फैक्ट्रियाँ, मेक्सिको में, मोरोक्को में, स्पेन में, भारत में, चीन में … हर जगह कानून अनुसार शोषण के संग-संग कानून से परे शोषण भी — चीन में शंघाई नगर स्थित डेल्फी फैक्ट्री में मजदूर की तनखा 13 हजार रुपये, मोरोक्को में कानून सप्ताह में 44 घण्टे काम का और 4200 मजदूरों (3 हजार महिला मजदूर) वाली डेल्फी फैक्ट्री में हफ्ते में 72 घण्टे काम …

— (मजदूर समाचार, जून 2007 अंक)

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समझाना बनाम समुदाय-रूपी तालमेल (3)

■ हम मानवों ने विश्व-व्यापी जटिल ताने-बाने बुन लिये हैं। जाने-अनजाने में हमारे द्वारा निर्मित हावी ताने-बाने हम मानवों के ही नियन्त्रण से बाहर हो गये हैं। हावी ताने-बाने वर्तमान समाज व्यवस्था का गठन करते हैं।

■ जटिल और विश्व-व्यापी होने के बावजूद यह ताने-बाने स्थिर नहीं हैं, जड़ अथवा ठहरे हुये नहीं हैं बल्कि गतिमान हैं। हर पल, हर क्षण चीजें बदल रही हैं।

■ हावी तानों-बानों का योग, वर्तमान समाज व्यवस्था हम मानवों पर तो हिमालयी आकार का बोझ बन ही गई है, पृथ्वी की प्रकृति को भी यह व्यवस्था तहस-नहस करने में लगी है।

■ ज्ञानी-ध्यानी-बलशाली-बलिदानी- अवतारी मनुष्यों के प्रयास जाने-अनजाने में हालात को बद से बदतर बनाते, असहनीय वर्तमान तक ले आये हैं। धार्मिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पंथ-सम्प्रदाय वर्तमान समाज व्यवस्था से पार पाने में अक्षम लगते हैं।

■ गतिशील व विश्व-व्यापी दमन-शोषण वाली इस व्यवस्था से पार पाने और नई समाज रचना की क्षमता संसार में निवास कर रहे पाँच-छह अरब लोगों में लगती है। इस क्षमता को योग्यता में बदलने के लिये सामान्यजन की सहज गतिविधियों के महत्व को पहचानना – स्थापित करना प्रस्थान-बिन्दू लगता है।

■ ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की हावी भाषा की जगह नई भाषा की आवश्यकता है जिसके लिये विगत के समुदाय कुछ सामग्री प्रदान कर सकते हैं।
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● समझाने वाले कटघरे का निर्माण करते हैं। बातों-तर्को-दलीलों-आचरणों का अदृश्य कटघरा ऐसी परिस्थिति का निर्माण करता है कि आमतौर पर सोचने-निर्णय लेने — स्थिति परिवर्तन के लिये, समय सिकोड़ दिया जाता है। अक्सर तत्काल/अभी करना/फलाँ तारीख तक वाली बात रहती है, “हाँ” अथवा “नहीं” के बहुत-ही सीमित विकल्प रखे जाते हैं।

● कटघरे में इसलिये खड़े करते/खड़े हो जाते हैं क्योंकि समझाने वालों और समझने वालों, दोनों की हावी इच्छायें सामान्य तौर पर एक ही होती हैं। हावी सोच-विचार-इच्छाओं का निर्माण-रचना विद्यमान समाज व्यवस्था द्वारा होता है।

● मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन करना विद्यमान समाज व्यवस्था है। मण्डी और मुद्रा के दबदबे वाली वर्तमान समाज व्यवस्था हावी इच्छाओं की सृष्टि व पोषण करती है। विगत की ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की ही तरह वर्तमान की ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था भी अपने द्वारा रची व पाली जाती इच्छाओं में से कुछ को अच्छी-सकारात्मक और कुछ को बुरी-नकारात्मक घोषित करती है। यह भी सही है कि पूर्व की ऊँच-नीच वाली व्यवस्थाओं की तरह ही वर्तमान की ऊँच-नीच वाली व्यवस्था में भी उन इच्छाओं की भरमार है जिन्हें यह व्यवस्था ही नकारात्मक इच्छायें घोषित करती है।

— झूठ, फरेब, तिकड़मबाजी, हेराफेरी, चोरी-डकैती, घोटालों का आज संसार में सर्वत्र बोलबाला है।

— असन्तोष, अशान्ति, हिंसा, मारकाट ने पूरी दुनियाँ को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

— असमानता, भेदभाव-दुभान्त, अनादर, अपमान ने पृथ्वीवासियों को लपेट में ले लिया है।

— भ्रष्टाचार-बेईमानी से, अवैधानिक तरीकों से, गैरकानूनी ढंग से पैसा कमाने, सफल होने उर्फ ऊँच-नीच की सीढी चढने के प्रयासों का जगत में बोलबाला हो गया है।

— फालतू बैठना, खाली घूमना, बेरोजगारी … करोड़ों सड़कों पर हैं और लाखों जेलों में।

● उपरोक्त के दृष्टिगत विद्यमान व्यवस्था द्वारा नकारात्मक घोषित इच्छाओं के पहाड़ों को वर्तमान व्यवस्था की प्रमुख समस्या कहा जा सकता है। लेकिन वास्तव में आज असल समस्या वर्तमान समाज व्यवस्था द्वारा घोषित सकारात्मक इच्छाओं में है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि कानून से परे शोषण अतिरिक्त परेशानियाँ लिये है परन्तु वास्तव में समस्या कानून अनुसार शोषण में है।

— अपना मकान, अच्छा मकान बनाना। अपना परिवार, अपने बच्चे, अपने बच्चों को स्थापित करना, अपने बच्चों की ब्याह-शादी करना। उन्नति-ऊपर उठना, प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सर्वोत्तम बनने के प्रयास करना। अच्छा खाना-पहनना-मनोरंजन के साधन प्राप्त करना। पैसों के लिये कुछ न कुछ करते रहना … बुढापे में समाज सेवा। प्रतियोगी बनना-बने रहना, प्रतियोगिताओं-कम्पीटीशनों में अव्वल रहने की कोशिशें करना। और, शान्ति-सत्य-नैतिकता …

◆ जिनकी न जमीन है और न आसमान, उन बढती संँख्या वाले डिब्बों-फ्लैटों की दोहरी (सकारात्मक-नकारात्मक) इच्छा की चर्चा की बजाय वर्तमान व्यवस्था में “अपने घर” की हावी सकारात्मक इच्छा ने मानव निवास की, हमारे निवास की जो गत बनाई है उन सीमेन्ट-लोहे के जँगलों अथवा झुग्गी बस्तियों को आईये देखने की कोशिश करें। निवास का प्रश्न, समुचित निवास की बात भी लगता है कि समुदायों, नये समुदायों के गठन के सन्दर्भ में ही देखी जा सकती है।

◆ परिवार का सिकुड़ना-टूटना, बचपन का सिमटना-दुर्गत, वृद्धों काअवांछनीय व्यक्ति बनना, परस्पर रिश्तों का अधिकाधिक कठिन होते जाना … “अपने परिवार” का चक्कर पीढियों के बीच सम्बन्धों को लील (गया) रहा है। नये समुदायों के गठन में ही मानव योनि का जीवन्त जीवन, पीढी में-पीढियों के बीच गहरे सम्बन्ध सम्भव लगते हैं।

◆ उन्नति-प्रतिष्ठा-अव्वल के फेर हर आयु में अकेलापन की सृष्टि कर पीड़ा के सागर उत्पन्न कर रहे हैं।

◆ पैसे और पैसों के लिये काम करना स्वयं अपने ही मन, मस्तिष्क और तन को पराया बना कर इन्हें अधिकाधिक तानने, लहुलुहान करने में लगे हैं।

◆ बासी – फटाफट भोजन, दिखावट के लिये पहनावा, “खुशी” खरीदने … की महामारी थके-हारे, ऊर्जाहीन तन और मन के लक्षण मात्र हैं।

◆ होड़-प्रतियोगिता- कम्पीटीशन … मण्डी-मुद्रा का यह मन्त्र प्रत्येक के लिये प्रत्येक के संग क्षणिक, सतही, छिछले सम्बन्धों की सौगात लिये है।

◆ *दमन-शोषण के दबदबे में, अत्याचार के बोलबाले में शान्ति का क्या अर्थ है?*

◆ *फायदा-लाभ, “शुभ लाभ” जहाँ धर्म और कर्म हैं वहाँ सत्य का क्या अर्थ है?*

◆ *होड़-प्रतियोगिता-कम्पीटीशन जिस समाज व्यवस्था की धुरी है वहाँ नैतिकता का क्या अर्थ है?*

हावी इच्छायें सहज-सामान्य इच्छाओं का दमन करती हैं। यह सही है कि सब सहज-सामान्य इच्छायें स्वयं में सकारात्मक नहीं होती परन्तु ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की हावी इच्छाओं से वे गुण में भिन्न हैं — यह चर्चा फिर करेंगे। (जारी)

—(मजदूर समाचार, अप्रैल 2006 अंक)

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मसला यह व्यवस्था है (6)

इस-उस नीति, इस-उस पार्टी, यह अथवा वह लीडर की बातें शब्द-जाल हैं, शब्द-आडम्बर हैं

● राजे-रजवाड़ों के दौर में, बेगार-प्रथा के दौर में मण्डी-मुद्रा का प्रसार कोढ में खाज समान था। छोटे-से ग्रेट ब्रिटेन के इंग्लैण्ड-वेल्स-स्कॉटलैण्ड-आयरलैण्ड में भेड़ों ने, भेड़-पालन ने मनुष्यों को जमीनों से खदेड़ा। कैदखानों में जबरन काम करवाने, दागने, फाँसी देने के संग-संग बेघरबार किये गये लोगों को दोहन-शोषण के लिये दूरदराज अमरीका-आस्ट्रेलिया जैसे स्थानों पर जबरन ले जाया गया। उन स्थानों के निवासियों के लिये तो जैसे शामत ही आ गई हो। गुलामी जिनकी समझ से बाहर की चीज थी उन अमरीकावासियों के कत्लेआम किये गये। अफ्रीका से गुलाम बना कर लोगों को अमरीकी महाद्वीपों में काम में जोता गया।

● फैक्ट्री-पद्धति ने मण्डी-मुद्रा के ताण्डव को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया। मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली फैक्ट्री-पद्धति को भाप-कोयले ने, भाप-कोयला आधारित मशीनरी ने स्थापित किया। इसके संग दस्तकारी और किसानी की मौत, दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत आरम्भ हुई। छोटे-से ग्रेट ब्रिटेन के कारखानों में 6-7 वर्ष के बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम में जोता गया और … और बेरोजगार बने-बनते लाखों लोगों के लिये अनजाने, दूरदराज स्थानों को पलायन मजबूरी बने।

●फ्रान्स-जर्मनी-इटली … में फैक्ट्री-पद्धति के प्रसार के संग वहाँ भी आरम्भ हुई दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत लाखों को मजदूर बनाने के संग-संग यूरोप से बड़े पैमाने पर लोगों को खदेड़ना भी लिये थी। अमरीका … आस्ट्रेलिया … लोगों से “भर गये”।

● बिजली ने रात को भी काम के लिये खोल दिया। फैक्ट्री-पद्धति ने हमारी नींद ही नहीं उड़ाई बल्कि मारामारी का वह अखाड़ा भी रचा कि 1914-19 के दौरान ढाई करोड़ लोग और 1939-45 के दौरान पाँच करोड़ लोग तो युद्धों में ही मारे गये।

● अब फैक्ट्री-पद्धति में यह इलेक्ट्रोनिक्स का दौर है। फैक्ट्री-पद्धति का प्रसार पृथ्वी के कोने-कोने में और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। इस दौर में एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत तीव्र गति से हो रही है। भारत के, चीन के करोड़ों तबाह दस्तकार-किसान कहाँ जायें? इलेक्ट्रोनिक्स द्वारा दुनियाँ-भर में बेरोजगार कर दिये गये, बेरोजगार किये जा रहे करोड़ों मजदूर कहाँ जायें?

## विद्यालय-शिक्षा की बुनियादी इकाइयाँ अक्षर व अंक लिखित आदान-प्रदानों के आधार व जरिय ही नहीं है बल्कि एकरूपता-स्टैन्डर्डाइजेशन-मानकीकरण के माध्यम के रूप में यह व्यक्ति को संकीर्ण व्यवहार में धकेलने और व्यवस्था की निरंकुशता के साधन भी हैं। औजार सहायक की बजाय अभिशाप बन गया है। अक्षर-अंक का व्यापक प्रसार, विद्यालयों का पृथ्वी-व्यापी जाल मण्डी के विस्तार के संग-संग चला है। अक्षर-अंक और मण्डी एक-दूसरे के पूरक-से साबित हुये हैं। ऐसे में आइये अक्षर-अंक को कुछ और कुरेद कर देखें।

— अक्षर-अंक के निश्चित रूप। इन रूपों की पहचान और प्रयोग। अक्षर व अंक के नियम-उपनियम। यह स्वयं में अनुशासन लिये हैं। अनुशासन अपने में संकीर्ण व्यवहार लिये है। अनुशासन साहबों का, प्रबन्धकों का प्रिय शब्द है।

— निश्चित रूप, एकरूपता, स्टैन्डर्डाइजेशन अक्षर-अंक की ही तरह प्रोडक्ट और उत्पादन-प्रक्रिया में क्षेत्र व उद्योग विशेष से आरम्भ हो कर सर्वत्र व सार्विक बन, विश्व स्टैन्डर्ड बन कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर मजदूरों/मनुष्यों को निश्चित आकार-प्रकार के पुर्जों में बदलने को अग्रसर है। दस्तकार की मनमर्जी पर रोक, कुशल मजदूर की मर्जी पर पाबन्दी वास्तव में व्यक्ति/व्यक्तित्व के लिये स्थान सिकोड़ना है। व्यक्ति/व्यक्तित्व के महत्व का विलोप …

— “निरंकुशता का अन्त” इतिहास के पाठ के तौर पर पढाया जाता है। राजा-बादशाहों की मनमर्जी के किस्से और उन पर लगाम के लिये नियमों-कानूनों के महत्व की बातें की जाती हैं। व्यक्ति की निरंकुशता को नियमों-कानूनों के तानों-बानों में जकड़ कर समाप्त कर दिया गया … विद्यालयों के “सर्व शिक्षा अभियानों” द्वारा अक्षर-अंक की पहचान-प्रयोग में सब को खींच लेना प्रत्येक को क्रेता-विक्रेता में तब्दील करने, हरेक को बेचने-खरीदने वाले में बदल देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मण्डी के नियम-कानून “व्यक्ति की निरंकुशता का अन्त” और … और समाज व्यवस्था की निरंकुशता लिये हैं। सामाजिक प्रक्रिया की निरंकुशता ने जगन्नाथ के रथ को बहुत बौना बना दिया है।

— अक्षर व अंक की जुगलबन्दी व्यक्ति को समाज की इकाई के तौर पर स्थापित करने में उल्लेखनीय रोल अदा करती है। विद्यालय में रोल नम्बर, उपस्थित/अनुपस्थित की दैनिक क्रिया मण्डी-मुद्रा-फैक्ट्री पद्धति की व्यक्ति
को अपनी आधारभूत इकाई स्थापित करने की प्रक्रिया को पुष्ट करती है। उत्पादन और वितरण में व्यक्ति का इकाई बनना प्रत्येक का अक्षर-अंक से परिचित होना तो अनिवार्य बनाता ही है, यह व्यक्ति को महिमामण्डित भी करता है। पुरुषों के संग महिलाओं को नौकरी-चाकरी में धकेलने के लिये सिद्धान्त की चाशनी भी …

— समुदाय के टूटने पर उभरी ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में आमतौर पर पुरुष-केन्द्रित परिवार उनकी इकाई बने। विश्व मण्डी की स्थापना के आरम्भिक दौर में निजी व परिवार के श्रम द्वारा मण्डी के लिये उत्पादन वाले सरल माल उत्पादन में भी परिवार प्राथमिक इकाई बना रहा। फैक्ट्री-पद्धति, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था परिवार को छिन्न-भिन्न कर व्यक्ति को ऊँच-नीच का एक स्तम्भ बनाने को अग्रसर है। संयुक्त परिवार का विलोप-सा हो गया है। पति-पत्नी-बच्चे वाले परिवार लड़खड़ा रहे हैं, टूट रहे हैं …

— व्यक्ति/व्यक्तित्व को एक तरफ गौण-दर-गौण बनाती और दूसरी तरफ व्यक्ति का महत्व स्थापित करती वर्तमान समाज व्यवस्था वास्तव में गौण को महत्वपूर्ण बना रही है। छवि की महामारी … नये समुदाय आधारित समाज रचना के प्रयासों के लिये यह एक पुकार भी है।

नीति, पार्टी, नेता बदलने से इस सब में कोई फर्क पड़ेगा क्या?

ऊँच-नीच। आधुनिक ऊँच-नीच। अखाड़ा — मण्डी। विश्व मण्डी। होड़-प्रतियोगिता-कम्पीटीशन का सर्वग्रासी अभियान। स्वयं मनुष्यों का मण्डी में माल बन जाना। यह है वर्तमान समाज व्यवस्था।

—(मजदूर समाचार, जनवरी 2005 अंक)

 

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दिल्ली के संग अमरीका में मजदूरों के गत्ते (3)

कुछ पृष्ठभूमि आवश्यक है

● गेडोर हैण्ड टूल्स कम्पनी का मुख्यालय जर्मनी में। गेडोर कम्पनी की छह फैक्ट्रियाँ भारत में (फरीदाबाद में तीन और एक-एक कुण्डली, औरंगाबाद, तथा जालना में)। इन फैक्ट्रियों में 7300 वरकरों द्वारा वाहनों के टूल्स का उत्पादन। अमरीका की तीन प्रमुख वाहन निर्माता कम्पनियों, जनरल मोटर्स, फोर्ड, तथा क्रिसलर को गेडोर हैण्ड टूल्स किट का निर्यात। न्यू योर्क में गेडोर कम्पनी का गोदाम।

वाहनों की मण्डी में माँग घटी। चीन और कोरिया की हैण्ड टूल्स कम्पनियों की गेडोर कम्पनी को चुनौती। ऑटोमेशन। 1982 में गेडोर फैक्ट्रियों में ऑटोमेशन पूरा हुआ। और, 2300 मजदूर फालतू हो गये। भारत में वह फैक्ट्रियों में मजदूरों के परमानेन्ट होने का दौर था।

गेडोर कम्पनी से मान्यता प्राप्त सीटू यूनियन ने मजदूरों को नौकरी छोड़ने को तैयार करने के लिये बहुत पापड़ बेले। नौकरी छोड़ने को वरकर तैयार नहीं हुये।

फरीदाबाद में गेडोर मजदूरों ने सीटू यूनियन लीडरों को 1983 में भगा दिया। गेडोर कम्पनी की छँटनी योजना फँस गई।

फैक्ट्री में पुलिस के तम्बू। गेडोर मैनेजमेन्ट सीटू पठ्ठों को वापस लाई। पुलिस की छत्रछाया में गुण्डागर्दी द्वारा फरीदाबाद फैक्ट्रियों से 1500 मजदूर निकालने में गेडोर मैनेजमेन्ट को डेढ़ वर्ष और लग गया।

फरीदाबाद में 1500 और कुण्डली-जालना- औरंगाबाद से 800 वरकर निकालने के बाद 1986 में गेडोर कम्पनी ने पाया कि फैक्ट्रियाँ चलाना सम्भव नहीं है। तब, मुर्गी अण्डे देना बन्द कर दे तो काट-काट कर खा लो वाली बात हुई।

गेडोर कम्पनी के स्थानीय सहयोगी, झालानी बन्धुओं ने बागडोर सम्भाली और कम्पनी का नया नाम झालानी टूल्स।

सरकार द्वारा कम्पनी बीमार घोषित। रियायतें। बैंकों के कर्जों की किस्तें नहीं देना, मजदूरों के ग्रेच्युटी खाते से पैसे निकाल लेना, तनखायें आधी करना, तनखा में देरी, तनखा देना ही नहीं, कई महीनों की तनखायें बकाया हो जाना, ई.एस.आई. व पी.एफ. के पैसे जमा नहीं करना, टाटा स्टील से लिये मैटेरियल का भुगतान नहीं करना …

फरीदाबाद में झालानी टूल्स फैक्ट्रियों के मजदूरों ने मैनेजमेन्ट की बढती गुण्डागर्दी के बावजूद अपनी तनखाओं के लिये पाँच-सात की टोलियों में स्थानीय प्रशासन की नाक में दम किया। सब वैध रास्ते अपनाये। और, कानूनी राह का परिणाम : शून्य।

1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर वकील की राय : कोई कम्पनी तनखा नहीं दे तो कानूनी राहों से मजदूर तनखा नहीं ले सकते।

झालानी टूल्स मजदूरों ने तब फरीदाबाद में गत्तों पर अपनी बातें लिख कर शिफ्टों के समय सड़कों पर खड़े होना आरम्भ किया। सुबह और दोपहर को सड़कें बदल-बदल कर डेढ़ वर्ष यह किया। एक फैक्ट्री के मजदूरों के मामले को हजार फैक्ट्रियों का मामला बनाने के इस तरीके का प्रभाव पड़ा। विवरण मजदूर समाचार के 1996-98 अंकों में है।

गेडोर-झालानी टूल्स मजदूरों के अनुभव और विचार दिल्ली में ओखला औद्योगिक क्षेत्र में एक छोटी मैटल पॉलिश फैक्ट्री, माइकल आराम एक्सपोर्ट वरकरों के लिये 2005 में एक प्रस्थान बिन्दु बने।

दिल्ली के संग अमरीका में मजदूरों के गत्ते (3)

● समस्यायें इतनी बढ़ गई हैं और स्वयं को इतना कमजोर पाते हैं कि अक्सर चमत्कार में ही आस नजर आती है। मत्था टेकने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अध्यात्म की शक्तियों, विज्ञान की शक्तियों, सब शक्तियों के चमत्कारों के बावजूद हमारी समस्यायें बढती ही जा रही हैं।

● परेशानियाँ इस कदर बढ़ गई हैं कि हमें तत्काल समाधान चाहिये। इन्तजार अपने बस से बाहर लगता है। चुटकी बजा कर परेशानी दूर करने वालों को ढूँढने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अनेकानेक मसीहाओं को आजमाने में हम ने कोई कँजूसी नहीं बरती है। नेताओं-पार्टियों-दादाओं-सिद्धों की चुटकियों और गर्जन को हम ने हमारी परेशानियाँ बढाने वाली ही पाया है।

क्या करें? कहाँ जायें ? हताशा-निराशा में अपने-अपने में सिमटते हैं और समस्याओं-परेशानियों को बढते पाते हैं। मन नहीं करता, मस्तिष्क मना करता है फिर भी मजार और मसीहा के फेरे लगाना ही अक्सर नजर आता है। इस चक्रव्यूह में एक दरार डालने का प्रयास लगता है माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों द्वारा दिल्ली में गत्ते ले कर अन्य मजदूरों के बीच जाना, आम लोगों के बीच खड़े होना। सौ मजदूरों को प्रतिनिधियों/नेताओं के जरिये पाँच में बदल कर मुट्ठी में रखने की परिपाटी को चुनौती है 10 का 100-1000-10,000- … बनने की राह।

दिल्ली में मजदूरों के गत्तों की गमक-धमक अमरीका पहुँची। दमन-शोषण वाली विश्वव्यापी वर्तमान समाज व्यवस्था से पार पाने तथा नई समाज रचना के प्रयासों के लिये एक और शुभ संकेत है यह।

# मार्च 2005 से कम्पनी द्वारा काम देना बन्द कर फैक्ट्री में मजदूरों को खाली बैठाना, मई में नई फैक्ट्री खोल वहाँ वही काम करवाना, बाहर काम करवाना, तनखा में टालमटोल के बाद सितम्बर माह से वेतन देना ही नहीं, दबाव बढा कर गाजियाबाद और सी-82 ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्रियों के मजदूरों से इस्तीफे लिखवाना, अमरीका स्थित माइकल आराम ग्रुप की कम्पनी को माल का निर्यात जारी रखना … इस सब के विरोध में बी-156 डी डी ए शैड्स ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्री में अगस्त 2004 में 28 के निकाले जाने के बाद बाकी बचे बीस मजदूरों ने गत्तों पर अपनी बातें लिख कर 27 अक्टूबर 2005 से दिल्ली में अन्य मजदूरों के बीच जाना, लोगों के बीच खड़े होना आरम्भ किया था। इफ्टू यूनियन द्वारा श्रम विभाग में कार्रवाई, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों/समूहों से समर्थन-सहयोग के लिये सम्पर्क, पुलिस को सूचना, पार्षद व विधायक से मिलना और सांसदों से मिलने के प्रयास, पत्र-पत्रिकाओं-टी वी वालों से सम्पर्क, अमरीका में सहयोगी बनाने के लिये कोशिशें। इधर नवम्बर-दिसम्बर-जनवरी में दिल्ली में जगह-जगह गत्ते ले कर मजदूर खड़े हुये, विभिन्न प्रकार का सहयोग मिला और अमरीका में माइकल आराम समूह की कम्पनी से तथा ग्रुप का उत्पादन बेचते वितरकों से अमरीका सरकार के नागरिक प्रश्न पूछने लगे, विरोध जताने लगे (इन्टरनेट पर मजदूरों का पक्ष प्रस्तुत किया गया) … चौतरफा पड़ते दबाव के कारण 25 जनवरी 2006 को गत्ते वाले मजदूरों को माइकल आराम डिजाइन कम्पनी में स्थाई नौकरी के नियुक्ति-पत्र, बकाया तनखायें व बोनस दे दिये गये (जुलाई 2005 में श्रम विभाग से लौटते समय कार की टक्कर से मरे श्रमिक की विधवा को भी स्थाई नौकरी का नियुक्ति-पत्र)।

● स्थाई मजदूरों की जगह कैजुअल वरकर रखने, ठेकेदारों के जरिये मजदूर रखने के लिये हरकतें करना कम्पनियों की सामान्य क्रियायें हैं। स्थाई मजदूर की आधी, चौथाई, छठवें हिस्से की तनखा में उतना ही उत्पादन करवाना (बल्कि अधिक उत्पादन करवाना) यहाँ 15-20 वर्ष से सरकारों-कम्पनियों के क्रियाकलापों की मुख्य चारित्रिकता है। निगाहों को संसार के पटल पर रखें तो उत्पादन के संग लेखाजोखा व वितरण के कार्य को अमरीका-यूरोप से निकल कर दुनियाँ के अन्य क्षेत्रों में तीव्रतर गति से जाते पाते हैं। मैक्सिको-चीन-भारत-बंगलादेश- … का अर्थ है यूरोप-अमरीका में वेतन के दसवें, बीसवें, तीसवें, चालीसवें हिस्से में कार्य करवाना।

भाप-कोयला आधारित मशीनों द्वारा स्थापित मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था की मारक क्षमता को बिजली और इलेक्ट्रोनिक्स ने सातवें आसमान पर पहुंँचा दिया है। कृत्रिम उपग्रह-कम्प्युटर-इन्टरनेट ने सिर-माथों पर बैठों के लिये यूरोप-अमरीका में उत्पादन कार्य कम कर भयभीत मजदूरों को जकड़ में कसने का कार्य किया है तथा भारत-चीन में दस्तकारों-किसानों की सामाजिक मौत की रफ्तार बढा कर टके सेर इन्सान उपलब्ध होना सुनिश्चित किया है। बेरोजगारों की भरमार (अमरीका सरकार की जेलों में बीस लाख से ज्यादा लोग बन्द), भारत में सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के आधे से भी कम में काम करने के लिये कतारें …

जैसे ज्ञान को ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं का वाहक वाहन कह सकते हैं वैसे ही विज्ञान को मण्डी- मुद्रा का वाहक वाहन कह सकते हैं (देवताओं के वाहक वाहन बहुत पीछे छूट गये हैं)।

● ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था के गठन के संग आरम्भ हुई मानव योनि की त्रासदी इधर मण्डी-मुद्रा के दबदबे के संग समस्त जीवों के लिये, सम्पूर्ण पृथ्वी के लिये विनाशकारी बन गई है। सामाजिक बीमारी इस कदर भयावह रूप धारण कर चुकी है कि बीमारी का हर लक्षण

स्वयं बीमारी नजर आने लगा है। ऐसे में उपचार के नाम पर उन तरीकों की भरमार है जो क्षणिक राहत के आवरणों से बीमारी को ढकते हैं। जबकि, हमें राहत के वो तरीके चाहियें जो तात्कालिक समस्या से राहत लिये हों और बीमारी को उजागर कर उसके उपचार की राहें प्रदत करते हों।

राजनीति में राजा का स्थान जैसे चेहराविहीन सरकार ने लिया वैसे ही फैक्ट्री-उत्पादन में मालिक का स्थान बिना चेहरे वाली कम्पनी ने ले लिया। इन हालात में व्यक्ति-विशेष के गुण-अवगुण अधिकाधिक गौण होते गये हैं। अस्सी-सौ वर्ष पूर्व ही ईमानदार-असली-बलिदानी प्रतिनिधित्व की सीमा “शानदार पराजय” स्पष्ट हो गई थी। आज बेईमानी पर छाती पीटना विलाप की रस्म अदा करना है।

सरलीकरण के लिये उत्पादन क्षेत्र को ही लें।

कम्पनी;

कम्पनी की कई उत्पादन इकाइयाँ;

उत्पादन की एक शाखा में कई कम्पनियाँ;

कम्पनियों में लगते – कम्पनियों से निकलते पैसों के विभिन्न स्रोत – पड़ाव;

मण्डी की माँग से अधिक उत्पादन की क्षमता — उत्पादन इकाइयों द्वारा, उत्पादन की हर शाखा द्वारा सामान्य तौर पर अपनी क्षमता से कम, काफी कम उत्पादन करना;

उत्पादन इकाइयों के बन्द होने – कम्पनियों के दिवालिया होने का एक सामान्य प्रक्रिया बन जाना;

देश-विदेश की सीमाओं काअर्थहीन होते जाना; …

इन हालात ने कम्पनियों के उन कदमों को जिन्हें पिछली पीढ़ी के मजदूर आक्रमण मानते थे उन्हें आज कम्पनियों की सामान्य दैनिक क्रिया बना दिया है। इस सब से बहमुखी असन्तोष पनपा है — इसका कोई एक लक्ष्य नहीं है, कोई एक समस्या के समाधान वाली बातें नहीं रही हैं।

ऐसे माहौल से पार पाने के लिये तौर-तरीके क्या-क्या हो सकते हैं? आवश्यकता विश्वव्यापी संगठित प्रयासों की लगती है — उन्हें मूर्त रूप कैसे दें? पुर्जेनुमा की जगह मनुष्य-रूपी जोड़ों-तालमेलों के लिये संगठनों के स्वरूप कैसे हों? सामाजिक बीमारी के इस अथवा उस लक्षण से व्यापक-स्तर पर जूझ रही प्रत्येक व्यक्ति, जूझ रहा हर समूह इन प्रश्नों से रूबरू है, इन सवालों को सामने ला रही है। माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों की दिल्ली के संग अमरीका में गमक-धमक इन सवालों को नई मुखरता के साथ सामने लाई है।

● कोई मन्त्र नहीं है। कोई सूत्र नहीं है। बल्कि, ऐसे अनेकानेक सहज-सरल कदम हैं जो स्थाई मजदूर हों चाहे बढती संँख्या वाले कैजुअल व ठेकेदारों के जरिये रखे जाते वरकर, सब उठा सकते हैं। प्रत्येक कदम तिनके समान है पर तिनकों का योग उल्लेखनीय प्रभाव लिये है। अपने में सिमटते-सिकुड़ते जाने की बजाय अन्यों के बीच बातों को ले जाना, अन्यों से जुड़ना सार्थक कदमों की चारित्रिकता लगती है :

— स्थानीय, प्रान्तीय, केन्द्रीय स्तर पर श्रम विभाग, कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई.एस. आई.), भविष्य निधि संगठन (पी.एफ.), स्वास्थ्य विभाग, प्रदूषण निकाय आदि के पते प्रत्येक मजदूर के पास होना बनता है। “सब बिके हुये हैं”, “छापे के वक्त खा-पी कर मामले रफा-दफा कर देते हैं” के आधार पर इन्हें अपनी बातें कहना ही नहीं का आधार तिनके से चमत्कार की आस पूरी नहीं होने में लगता है। हाँ, पहचान से – निशाना बनने से बचने के लिये एक फैक्ट्री के मजदूर अपनी बातें दूसरी फैक्ट्री के मजदूरों से लिखवा सकते हैं।

— पार्षद, विधायक, सांसद, श्रम मन्त्री (प्रान्तीय व केन्द्रीय), मुख्य मन्त्री, प्रधान मन्त्री, राष्ट्रपति के सन्दर्भ में भी उपरोक्त बातें ही।

— ऑडिट – बायर के आगमन के समय फैक्ट्री में सफाई, उस दिन के लिये वर्दी-दस्ताने-मास्क-चश्मे-टोपी देना, पूछें तो 12 घण्टे की ड्युटी को 8 घण्टे की बताना, आमदनी ज्यादा बताना आदि की मजदूरों को सख्त हिदायतें … फैक्ट्री संचालकों की कमजोरी को इंगित करते हैं — ऊँच-नीच वाली वर्तमान व्यवस्था में सिर-माथों पर बैठे लोग वास्तविकता की बजाय अपनी छवि के बारे में बहुत चिन्तित रहते हैं। इसलिये फैक्ट्री के उत्पादन के खरीददारों और बेचने वालों के पतों की जानकारी प्राप्त करना बनता है। और, फैक्ट्री का माल खरीदने-बेचने वालों को फैक्ट्री हालात की वास्तविक स्थिति पत्रों में लिखना दबाव के लिये एक और तिनका बनता है।

— उत्पादन के आपस के जोड़ (पुर्जों का निर्माण और उन्हें जोड़ने का काम) विश्वव्यापी हैं, उत्पादन का वितरण भी ऐसा ही है। उत्पादन-वितरण का दायरा चूँकि अधिकाधिक विश्वव्यापी हो रहा है, दुनियाँ के विभिन्न क्षेत्रों में मित्रों-सहयोगियों के लिये प्रयास मजदूरों के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता बन गये हैं। इसे ध्यान में लेना-लाना और भाषा-सम्पर्क की दिक्कतों से पार पाने के प्रयास प्राथमिक कदम हैं, महत्वपूर्ण तिनकों की रचना हैं।

— सहयोगियों की मदद से अपनी-अपनी फैक्ट्री की रोजमर्रा की हकीकत को हाथ से लिखे पोस्टर जगह-जगह चिपका कर अधिकाधिक सार्वजनिक करना एक और तिनका बनता है।

— अखबारों को फैक्ट्री में सामान्य हालात के बारे में बार-बार लिखना — नहीं छापना अथवा बहुत थोड़ा छापना उनके चरित्र में है पर अखबारों को मजदूरों के पत्र तिनके तो बनते ही बनते हैं।

— अपने पड़ोसियों-परिचितों को फैक्ट्री/दफ्तर/कार्यस्थल की दैनिक वास्तविकता से अवगत कराते रहना बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत-ही आसान भी है। खट्टे-मीठे अनुभवों को एक-दूसरे से साँझा करना हर एक के लिये एक सहज क्रिया बन सकती है। एक-दूसरे की टाँग खींचने की बजाय एक-दूसरे की थोड़ी-थोड़ी सहायता …

समय के साथ यह तिनकों के गट्ठर बनते हैं।

और, जो आसानी से कर सकते हैं उसे नहीं करने के लिये बहाने ढूँढना-गढना बद से बदतर हो रहे हालात की गति तीव्र करना लिये है।

(मजदूर समाचार, फरवरी 2006 अंक)

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