समझाना बनाम समुदाय-रूपी तालमेल (3)

■ हम मानवों ने विश्व-व्यापी जटिल ताने-बाने बुन लिये हैं। जाने-अनजाने में हमारे द्वारा निर्मित हावी ताने-बाने हम मानवों के ही नियन्त्रण से बाहर हो गये हैं। हावी ताने-बाने वर्तमान समाज व्यवस्था का गठन करते हैं।

■ जटिल और विश्व-व्यापी होने के बावजूद यह ताने-बाने स्थिर नहीं हैं, जड़ अथवा ठहरे हुये नहीं हैं बल्कि गतिमान हैं। हर पल, हर क्षण चीजें बदल रही हैं।

■ हावी तानों-बानों का योग, वर्तमान समाज व्यवस्था हम मानवों पर तो हिमालयी आकार का बोझ बन ही गई है, पृथ्वी की प्रकृति को भी यह व्यवस्था तहस-नहस करने में लगी है।

■ ज्ञानी-ध्यानी-बलशाली-बलिदानी- अवतारी मनुष्यों के प्रयास जाने-अनजाने में हालात को बद से बदतर बनाते, असहनीय वर्तमान तक ले आये हैं। धार्मिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पंथ-सम्प्रदाय वर्तमान समाज व्यवस्था से पार पाने में अक्षम लगते हैं।

■ गतिशील व विश्व-व्यापी दमन-शोषण वाली इस व्यवस्था से पार पाने और नई समाज रचना की क्षमता संसार में निवास कर रहे पाँच-छह अरब लोगों में लगती है। इस क्षमता को योग्यता में बदलने के लिये सामान्यजन की सहज गतिविधियों के महत्व को पहचानना – स्थापित करना प्रस्थान-बिन्दू लगता है।

■ ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की हावी भाषा की जगह नई भाषा की आवश्यकता है जिसके लिये विगत के समुदाय कुछ सामग्री प्रदान कर सकते हैं।
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● समझाने वाले कटघरे का निर्माण करते हैं। बातों-तर्को-दलीलों-आचरणों का अदृश्य कटघरा ऐसी परिस्थिति का निर्माण करता है कि आमतौर पर सोचने-निर्णय लेने — स्थिति परिवर्तन के लिये, समय सिकोड़ दिया जाता है। अक्सर तत्काल/अभी करना/फलाँ तारीख तक वाली बात रहती है, “हाँ” अथवा “नहीं” के बहुत-ही सीमित विकल्प रखे जाते हैं।

● कटघरे में इसलिये खड़े करते/खड़े हो जाते हैं क्योंकि समझाने वालों और समझने वालों, दोनों की हावी इच्छायें सामान्य तौर पर एक ही होती हैं। हावी सोच-विचार-इच्छाओं का निर्माण-रचना विद्यमान समाज व्यवस्था द्वारा होता है।

● मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन करना विद्यमान समाज व्यवस्था है। मण्डी और मुद्रा के दबदबे वाली वर्तमान समाज व्यवस्था हावी इच्छाओं की सृष्टि व पोषण करती है। विगत की ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की ही तरह वर्तमान की ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था भी अपने द्वारा रची व पाली जाती इच्छाओं में से कुछ को अच्छी-सकारात्मक और कुछ को बुरी-नकारात्मक घोषित करती है। यह भी सही है कि पूर्व की ऊँच-नीच वाली व्यवस्थाओं की तरह ही वर्तमान की ऊँच-नीच वाली व्यवस्था में भी उन इच्छाओं की भरमार है जिन्हें यह व्यवस्था ही नकारात्मक इच्छायें घोषित करती है।

— झूठ, फरेब, तिकड़मबाजी, हेराफेरी, चोरी-डकैती, घोटालों का आज संसार में सर्वत्र बोलबाला है।

— असन्तोष, अशान्ति, हिंसा, मारकाट ने पूरी दुनियाँ को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

— असमानता, भेदभाव-दुभान्त, अनादर, अपमान ने पृथ्वीवासियों को लपेट में ले लिया है।

— भ्रष्टाचार-बेईमानी से, अवैधानिक तरीकों से, गैरकानूनी ढंग से पैसा कमाने, सफल होने उर्फ ऊँच-नीच की सीढी चढने के प्रयासों का जगत में बोलबाला हो गया है।

— फालतू बैठना, खाली घूमना, बेरोजगारी … करोड़ों सड़कों पर हैं और लाखों जेलों में।

● उपरोक्त के दृष्टिगत विद्यमान व्यवस्था द्वारा नकारात्मक घोषित इच्छाओं के पहाड़ों को वर्तमान व्यवस्था की प्रमुख समस्या कहा जा सकता है। लेकिन वास्तव में आज असल समस्या वर्तमान समाज व्यवस्था द्वारा घोषित सकारात्मक इच्छाओं में है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि कानून से परे शोषण अतिरिक्त परेशानियाँ लिये है परन्तु वास्तव में समस्या कानून अनुसार शोषण में है।

— अपना मकान, अच्छा मकान बनाना। अपना परिवार, अपने बच्चे, अपने बच्चों को स्थापित करना, अपने बच्चों की ब्याह-शादी करना। उन्नति-ऊपर उठना, प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सर्वोत्तम बनने के प्रयास करना। अच्छा खाना-पहनना-मनोरंजन के साधन प्राप्त करना। पैसों के लिये कुछ न कुछ करते रहना … बुढापे में समाज सेवा। प्रतियोगी बनना-बने रहना, प्रतियोगिताओं-कम्पीटीशनों में अव्वल रहने की कोशिशें करना। और, शान्ति-सत्य-नैतिकता …

◆ जिनकी न जमीन है और न आसमान, उन बढती संँख्या वाले डिब्बों-फ्लैटों की दोहरी (सकारात्मक-नकारात्मक) इच्छा की चर्चा की बजाय वर्तमान व्यवस्था में “अपने घर” की हावी सकारात्मक इच्छा ने मानव निवास की, हमारे निवास की जो गत बनाई है उन सीमेन्ट-लोहे के जँगलों अथवा झुग्गी बस्तियों को आईये देखने की कोशिश करें। निवास का प्रश्न, समुचित निवास की बात भी लगता है कि समुदायों, नये समुदायों के गठन के सन्दर्भ में ही देखी जा सकती है।

◆ परिवार का सिकुड़ना-टूटना, बचपन का सिमटना-दुर्गत, वृद्धों काअवांछनीय व्यक्ति बनना, परस्पर रिश्तों का अधिकाधिक कठिन होते जाना … “अपने परिवार” का चक्कर पीढियों के बीच सम्बन्धों को लील (गया) रहा है। नये समुदायों के गठन में ही मानव योनि का जीवन्त जीवन, पीढी में-पीढियों के बीच गहरे सम्बन्ध सम्भव लगते हैं।

◆ उन्नति-प्रतिष्ठा-अव्वल के फेर हर आयु में अकेलापन की सृष्टि कर पीड़ा के सागर उत्पन्न कर रहे हैं।

◆ पैसे और पैसों के लिये काम करना स्वयं अपने ही मन, मस्तिष्क और तन को पराया बना कर इन्हें अधिकाधिक तानने, लहुलुहान करने में लगे हैं।

◆ बासी – फटाफट भोजन, दिखावट के लिये पहनावा, “खुशी” खरीदने … की महामारी थके-हारे, ऊर्जाहीन तन और मन के लक्षण मात्र हैं।

◆ होड़-प्रतियोगिता- कम्पीटीशन … मण्डी-मुद्रा का यह मन्त्र प्रत्येक के लिये प्रत्येक के संग क्षणिक, सतही, छिछले सम्बन्धों की सौगात लिये है।

◆ *दमन-शोषण के दबदबे में, अत्याचार के बोलबाले में शान्ति का क्या अर्थ है?*

◆ *फायदा-लाभ, “शुभ लाभ” जहाँ धर्म और कर्म हैं वहाँ सत्य का क्या अर्थ है?*

◆ *होड़-प्रतियोगिता-कम्पीटीशन जिस समाज व्यवस्था की धुरी है वहाँ नैतिकता का क्या अर्थ है?*

हावी इच्छायें सहज-सामान्य इच्छाओं का दमन करती हैं। यह सही है कि सब सहज-सामान्य इच्छायें स्वयं में सकारात्मक नहीं होती परन्तु ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की हावी इच्छाओं से वे गुण में भिन्न हैं — यह चर्चा फिर करेंगे। (जारी)

—(मजदूर समाचार, अप्रैल 2006 अंक)

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