आप-हम क्या-क्या करते हैं … (14)

# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अक्सर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

26 वर्षीय मजदूर : सुबह 6 बजे की शिफ्ट के लिये चार-साढे चार बजे उठता हूँ। साइकिल नहीं है, 5 बजे तैयार हो कर 45-50 मिनट पैदल चल कर फैक्ट्री पहुँचता हूँ। देर होने पर दौड़ कर जाना — जाड़े में भी पसीना आ जाता है। सर्दियों में अन्धेरे में रेल लाइन और मथुरा रोड़ पार करना। सुबह 5 बजे सुनसान होता है। चलते-चलते दिमाग में आता है कि यह भी कोई जिन्दगी है …

हरियाली तीज पर फिरोजाबाद चूड़ी लाने गये पिताजी टूण्डला में लाइन पार करते समय रेल से कट गये थे। मैं तब पेट में था और माँ का निकाह चाचा के साथ कर दिया गया। मनिहारों में चार घार (पाट) हैं, गोत्र हैं और आमतौर पर ब्याह-शादी घार के अन्दर ही होती है। मथुरा जिले के एक गाँव के रहने वाले मेरे पिता व चाचा की शादी अहमदाबाद में दो बहनों से हुई थी। हादसे के बाद मौसी की फिर अहमदाबाद में शादी कर दी गई … दो साल में मौसी की आग लगने-लगाने से मृत्यु हो गई। इधर बचपन से ही घर में मैंने भारी कलह झेली है। कुछ तो ब्रज व गुजराती भाषाओं की दिक्कत थी और फिर दादी व बुआ की माँ से खटपट — मेरे दूसरे पिता जी माँ को बहुत ज्यादा पीटते, मुझे बहुत बुरा लगता पर मैं कुछ कर नहीं सकता था। नाना-नानी ने पंचायत की, माँ अहमदाबाद चली जाती और फिर आ जाती। माँ अब भी कहती है कि मैं तेरे कारण यहाँ रुकी अन्यथा …

छह बजे फैक्ट्री में पहुँच कर साथी मजदूरों से हाथ मिलाता हूँ। सामान लाते हैं और खाली पेट काम शुरू कर देता हूँ। नाश्ता तो कभी घर पर भी नहीं …

माँ ने माँटेसरी में दाखिल करवाया था। अहमदाबाद गई तो मुझे छिपा लिया और बकरियों के बच्चों की देखभाल में लगा दिया। दादी चूड़ी पहनाती थी, पिताजी बकरी चराते थे और चार महीने दूध बेचने के लिये बकरियों को आगरा के पास एक गाँव में ले जाते। लौट कर माँ ने मुझे पहली कक्षा में दाखिल करवाया। मैं दूसरी में, चौथी में, दसवीं में फेल हुआ … स्कूल में अध्यापक पिटाई बहुत करते थे, लड़कियों की भी। बच्चे छुआछूत और ऊँच नीच का व्यवहार करते थे इसलिये मुझे खेल पसन्द नहीं थी, नफरत थी खेलों से और अब भी इन में रुचि नहीं है। किताब खोले बैठा रहता …

फैक्ट्री में खड़े-खड़े काम करना पड़ता है। पहला ब्रेक साढे आठ बजे। तब तक खाली पेट। मैं चाय नहीं पीता और एक रुपये में नाश्ता करता हूँ, कभी-कभी वह भी नहीं करता, पानी पीता हूँ और फिर सीधा भोजन …

नकल तो पाँचवीं की बोर्ड परीक्षा में भी थी (अध्यापक करवाते थे) और दसवीं की परीक्षा में भी। दसवीं कर घर में क्लेश के कारण मैंने फरीदाबाद में फूफा व चाचा के जरिये नौकरी ढूँढी पर नहीं मिली। अहमदाबाद गया और वहाँ बुआ ने एक बेकरी, एस.वी. बेकर्स में लगवाया। वहाँ 25-30 लोग काम करते थे। बेकरी में ही सब रहते थे। काम सुबह 5 बजे शुरू होता और कम से कम रात 10 बजे तक होता था। आराम नाम की चीज तो उसमें थी ही नहीं। भोजन का प्रबन्ध बेकरीवाले ने किया था — खाना बनाने वाली आती थी। काम चलता रहता और भोजन हम बारी-बारी से करते। पैकिंग वालों को तो रात के एक-दो बज जाते। दिवाली पर 4-5 दिन तो सब को रात के 3 बज जाते, 24 घण्टे भी लगातार काम करना पड़ता — कुछ बेकरियों में तो नींद नहीं आने की दवाई देते थे। बेकरी वाला रोज रात 10 बजे बेकरी के बाहर से ताला लगा जाता, रात को फोन करके काम के बारे में पूछता, जाँच के लिये भी आ जाता। शनिवार शाम को खर्चा मिलता, रविवार को घूमने जाते। तीन महीने बाद वहाँ काम छोड़ कर 150 मजदूरों वाली एक वर्कशॉप में लगा जहाँ ड्युटी 12 घण्टे की थी। दो महीने बाद वह छोड़ कर फौज में भर्ती होने के लिये गाँव चला आया …

सुबह 6 बजे की शिफ्ट में हमारे साथ लड़कियाँ भी हैं। ब्रेक में लड़कियाँ अलग बैठती हैं, लड़के उल्टी-सीधी अश्लील बातें करते हैं। पौने नौ बजे सब फिर मशीनों पर। भोजन के लिये 11 बजे आधे घण्टे का समय … भोजन की व्यवस्था दूसरे प्लान्ट की कैन्टीन में है, 5 मिनट पहुँचने में लगते हैं, दौड़ कर जाता हूँ। दस रुपये में थाली, खाना धीरे-धीरे खाता हूँ …

फौज में भर्ती के लिए अच्छी खुराक ली, दौड़, दण्ड-बैठक, बीम की। एक रिश्तेदार था इसलिये आगरे में 4 बार भर्ती के लिये गया। मेरठ, रुड़की, मथुरा, अल्मोड़ा, दिल्ली में भर्ती देखी … हर जगह भारी भीड़, जम कर हँगामा होता, आर्मी वाले लाठियों मारते। भर्ती में मिलती निराशा के कारण वृन्दावन में आईटीआई में दाखिला लिया। आईटीआई करने के बाद खाली बैठना पड़ा तब इन्टर में दाखिला ले लिया। आगरा में एक आईटीआई अध्यापक को 1700 रुपये रिश्वत दी तब उषा मार्टिन कन्स्ट्रक्शन स्टील फैक्ट्री में मुझे अप्रेन्टिस रखा। वहाँ रोज एक्सीडेन्ट होते — गर्म सरिया किसी के पैर में घुस जाता, कोई मशीन में फँस जाता, तेल-पानी के कारण फिसल कर गिर जाते, जल जाते … एक इंजिनियर कहता कि तुम कहीं भी नौकरी नहीं कर पाओगे क्योंकि तुम्हारी सोच नेगेटिव है। जब 7-8 साल का था तब से फिल्मों में रुचि है, आगरा में अप्रेन्टिस था तब यह शौक और बढा। साल-भर बाद वापस गाँव में और फिर खाली। घरवाले कहते कि वह 5 हजार कमा रहा है, वह दस हजार और यह कहीं जाता ही नहीं … थ्रेशर पर मूठा लगा कर मैंने 20 रुपये प्रति घण्टा में काम किया। दो बार गुड़गाँव के चक्कर लगाये पर काम नहीं मिला तब बहन के पास फरीदाबाद पहुँचा …

भोजन के बाद साढे ग्यारह बजे फिर काम शुरू। काम करते समय कुछ नहीं सोचता। सिर्फ यही देखना कि मोटर पास करनी है कि फेल करनी है। जल्दी, और जल्दी करो की कहते हैं तब स्थाई मजदूरों द्वारा दिखाई राह पर चल कर एक-दो खराबी को अनदेखा कर, बाइपास कर मोटर को पास कर देते हैं। एक बजे 15 मिनट के ब्रेक में बैठ जाते हैं …

जीजा ने यहाँ जेमी मोटर (जी.ई.मोटर) में ट्रेनी लगवाया। लालच और डर के जरिये ट्रेनी पर काम का बोझ लगातार बढाया जाता है। निकाल देंगे, 6 महीने बाद डेढ़ साल वाला ट्रेनी बना देंगे, शायद पक्का ही कर दें … और 6 महीने बाद सड़क पर, जैसे कि मैं आ गया हूँ …

ढाई बजे छुट्टी होने पर मैं पानी पी कर आराम से निकलता हूँ — कमरे पर पानी खारा है। बहन थी तब वह खाना बनाती थी। बहन बीमार रहती थी, भाई के साथ गाँव भेज दिया। जीजा भी नौकरी छोड़ कर चले गये। मैंने 550 रुपये किराये पर मुजेसर में कमरा लिया। भोजन बनाने का सामान लिया। मुझे खाना बनाना नहीं आता था, पड़ोसियों से पूछ-पूछ कर बनाना सीखा।

सुबह जल्दी-जल्दी आता हूँ और छूटने पर धीरे-धीरे जाता हूँ। रास्ते में कभी-कभार बाटा पुल के नीचे धरती पर दुकान लगाये रिश्तेदार के पास बैठ जाता हूँ, कभी फुटपाथ पर बटुये बेचते खुले विचारों वाले आदमी के पास, कभी मजदूर लाइब्रेरी में। रास्ते से सब्जी खरीद कर 5-6 बजे कमरे पर पहुँचता हूँ। दिमाग में यही रहता है कि जल्दी भोजन तैयार हो जाये ताकि खा-पी कर सोया जाये। सोने में साढे दस-ग्यारह बज जाते हैं। कभी-कभी ही सपना आता है और हर बार सपने में बहती हुई नदी, साफ पानी की नहरें, चारों तरफ हरियाली, उड़ते हुये पक्षी होते हैं।

ढाई से रात 11 तक की शिफ्ट बिलकुल अच्छी नहीं लगती पर फिर भी एक महीने करनी पड़ी। मिलने-जुलने का सर्दियों में तो समय ही नहीं बचता : 8 बजे उठना, 35-40 लोगों के बीच एक लैट्रीन है, लाइन लग जाती है इसलिये सुबह 5 बजे से पहले या फिर 9 बजे के बाद लैट्रीन जाता हूँ। दस बजे नहाना, भोजन बनाने-खाने में साढे बारह बज जाते हैं।

तीन हफ्ते रात 11 से सुबह 6 तक की शिफ्ट में काम किया। आलस्य रहता, 7 बजे कमरे पर पहुँच कर सो जाता। उठने, मंजन करने, नहाने में 12 बज जाते। भोजन बनाने की बजाय बाजार जा कर फल या गुड़-चना खाना और लौट कर पुनः सो जाना। फिर 4-5 बजे उठ कर सब्जी लाना, 6 बजे भोजन बनाना शुरू करना और खाने-बर्तन धोने में 9 बज जाते। दिन में कितना ही सो लो नींद पूरी नहीं होती। रात 3 से सुबह 5 के बीच तो नींद ज्यादा ही आती है — मशीन पर खड़े हो कर काम करते हुये उँघने लगते हैं। नींद आती इसलिये चाय पीता …

अब नये सिरे से काम ढूँढना होगा … वर्तमान को इस कदर भोगना पड़ रहा है कि मेरा स्वभाव ही नहीं है कि आगे की सोचूँ।

— (मजदूर समाचार, अप्रैल 2007 अंक)

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