आप-हम क्या-क्या करते हैं … (3)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का आठवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह मार्च 2003 अंक से है।

42 वर्षीया महिला कर्मचारी : मैं बीस वर्ष से केन्द्र सरकार की नौकरी में हूँ। इस से पहले मैंने 5 साल अन्य नौकरियाँ की। दो पैसे के लिये ट्युशन तो मैं जब आठवीं में थी तभी से पढाने लगी थी । ग्यारहवीं करते ही मैं फैक्ट्री में लग गई थी। मैंने हिन्दुस्तान सिरिंज, एस्कॉर्ट्स 1 प्लान्ट, यूनिमैक्स लैब, बेलमोन्ट रबड़ और स्टेडकेम फैक्ट्रियों में नौकरी की। फैक्ट्रियों में काम करने के संग-संग मैंने पत्राचार से पढ़ाई जारी रखी और बी.कॉम. पूरी की। फिर मैं एक विद्यालय में शिक्षिका लगी और वहाँ पढाने के दौरान मेरी केन्द्र सरकार में नौकरी लगी।

मेरे पति भी सरकारी नौकरी में हैं और हमारे एक लड़का है। बोर्ड परीक्षा के कारण आजकल लड़के का स्कूल नहीं लगता और मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती इसलिये सुबह देर से उठती हूँ — 6:45-7 बजे। सात-आठ साल से साँस की तकलीफ है और इधर वर्ष-भर से एक बड़ा ऑपरेशन टला है, टाला है।

सरकारी नौकरी में भी बरसों सुबह 5 बजे उठना सामान्य रहा है। नाश्ता और दोपहर का भोजन बना कर लड़के को 7 बजे के स्कूल भेजना। फ्रिज ने रात को ही आटा गूंँथना और सब्जी काटना करवा कर उठना 5 की जगह साढे पाँच बजे कर दिया। बेटे को तैयार कर, झाडू-पोंछा व बर्तन साफ कर ड्युटी के लिये तैयार होती थी। धूल से बढती साँस की तकलीफ के कारण इधर तीन साल से घरों में काम करने वाली एक महिला झाडू-पोंछा करती है।

सोते-जागते हर समय ड्युटी की बात दिमाग में रहती है। सुबह उठने को मन नहीं करता पर उठना ही पड़ता है क्योंकि ड्युटी जाना होता है। दूध ला कर सुबह पति चाय बनाते हैं। मैं फिर नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाती हूँ। तैयार हो कर पौने नौ बजे दफ्तर के लिये निकल ही जाती हूँ। नौकरी तो नौकरी है — इसमें इच्छा वाली बात तो रहती ही नहीं। घर में कोई परेशानी हो चाहे स्वयं ठीक नहीं हो, ड्युटी तो पहुँचना होता है।

ड्युटी 9 से साढे पाँच बजे है। सबसे पहले तो हाजरी लगाने का रहता है। फिर अपना काम शुरू करना और उसी में लगे रहना। पहले पब्लिक डीलिंग थी, बीमारी के कारण अब तो मेरा सिर्फ टेबल वर्क है। इस से समय थोड़ा इधर-उधर कर सकती हूँ। इतना है कि आज मन नहीं है तो कल कर लेंगे पर ज्यादा नहीं टाल सकती।

दफ्तर में चाय पर कोई बन्दिश नहीं है, जब चाहो मँगा लो पर मेरी चाय पीने की आदत नहीं है। दोपहर का भोजन एक से डेढ और उस समय महिलायें व पुरुष अलग-अलग बैठते हैं। ऐसा ढर्रा बना हुआ है। महिला रैस्ट रूम में हम बच्चों की, घर-परिवार की, महँगाई की बातें करती हैं — कोई भजन सुना देती है। लेकिन हम में से 80 प्रतिशत 20 मिनट कमर सीधी करती हैं, झपकी
भी ले लेती हैं। इन बीस वर्षों में महिला कर्मचारी के नाते मुझे कोई दिक्कत नहीं आई है। अब तो दफ्तर में हम कई महिलायें हैं पर मैं पब्लिक डीलिंग में रही हूँ और उस समय पुरुष सहकर्मियों के बीच अकसर मैं अकेली महिला रही हूँ। परेशानी की बजाय महिला के नाते कई जगह तो मुझे विशेष ध्यान मिला है।

डेढ बजे से फिर टेबल वर्क जो कि साढे पाँच तक चलता है। सारे दिन कुर्सी पर बैठने से और काम से थकावट हो जाती है।

दफ्तर से सीधी घर आती हूँ। थकी-हारी को पति चाय पिलाते हैं। मैं रात का खाना बनाने तथा सुबह के भोजन की तैयारी में लगती हूँ। खाना खा कर दस बजे तक फारिग हो जाते हैं और फिर टी.वी.।

बचपन से ही समय ही नहीं मिला कि कोई रुचियाँ विकसित हो सकें। सब कुछ ढर्रे में इस कदर बन्ध गया है कि ज्यादा छुट्टियाँ हो जाती हैं तब पता ही नहीं चलता कि क्या करें — एक-दो दिन की छुट्टी में तो घर के बकाया पड़े काम ही निपट पाते हैं।

कोशिश रही है कि बेटे को हमारे जैसी परेशानियाँ नहीं हों। हम बहुत-ही सादा जीवन व्यतीत करते हैं। हम पति-पत्नी दोनों सरकारी नौकरी करते हैं और हमारे एक ही लड़का है लेकिन फिर भी हम पर कर्ज है। बेटे की बोर्ड परीक्षा से भी ज्यादा चिन्ता हमें उसके आगे दाखिले की है। सीट के लिये भुगतान करना पड़ा तो कैसे होगा? कर्ज लेने का मतलब होगा हम दोनों द्वारा पूरी जिन्दगी कर्ज उतारने के लिये कमाना। और फिर मेरा ऑपरेशन! समस्या हैं और मैं उसे समस्या मानती हूँ जिसके समाधान का रास्ता न सूझे।

समस्याओं में ही जीवन बीता है इसलिये रोजमर्रा की समस्याओं को तो मैं समस्या ही नहीं मानती। अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की — नौकरी के दौरान मैंने ज्यादा काम किया है और छुट्टी के दिन भी आराम करने के बजाय घर के काम निपटाती रही। इन वजहों से शायद मानसिक दबाव ज्यादा रहा है और इस वक्त तो कुल मिला कर यह है कि मैं अपनी सेहत से ही परेशान हूँ।

बचपन से ही अपनों-दूसरों की मदद करना अच्छा लगता है। क्यों अच्छा लगता है इसका कारण मुझे नहीं मालूम। कुर्सी पर बैठे कागज काले करने की बजाय मुझे लोगों से जीवन्त सम्बन्ध अच्छे लगते हैं। यह स्वभाव-सा रहा है कि किसी के काम को रोकना नहीं है, मेरे कारण कोई परेशान नहीं हो। इतने वर्ष की नौकरी में यह इच्छा कभी मन में नहीं आई कि मैं जिनका काम कर रही हूँ वे बदले में मुझे कुछ दें। बीस वर्ष में किसी से उसका काम करने के बदले में एक पैसा नहीं लिया है। और, इस सब में मुझे बहुत सन्तुष्टि मिली है। लेकिन पब्लिक डीलिंग में बहुत ऊर्जा चाहिये — बहुत ज्यादा बातें तो करनी ही पड़ती हैं, कई ऐसे भी मिल जाते हैं जो मानते ही नहीं कि मैं उनका काम करना चाहती हूँ और ऐसे में तनाव हो जाता है। बीमारी के कारण अब में टेबल वर्क करती हूँ और यहाँ भी मैं अपने कारण किसी को परेशान होते नहीं देख सकती। लेकिन सरकार तो स्वयं ही समस्या है …

24 वर्षीय कैजुअल वरकर : मैं 1997 में पहली बार फरीदाबाद आया था। ठेकेदार के जरिये पहले-पहल ऑटोपिन फैक्ट्री में लगा था। पहले महीने मैंने 13-14 दिन 16-16 घण्टे काम किया। मैंने 9 महीने ऑटोपिन फैक्ट्री में काम किया तथा बाद के महीनों में 6-7-8 दिन 16-16 घण्टे काम किया। फिर एक अन्य ठेकेदार के जरिये मैं टालब्रोस फैक्ट्री में लगा। यहाँ भी महीने में 6 दिन तो 16-16 घण्टे काम करने को मजबूर करते ही थे। सर्दियों में आने-जाने में बहुत दिक्कत होती थी — कुहासे में रेलवे फाटक पर और मथुरा रोड़ पर 3-4 एक्सीडेन्टों में खूनखच्चर देख कर मेरा मन खराब हो गया। ठण्ड में रात की ड्युटी और एक्सीडेन्टों के दृष्टिगत मैंने 4 महीने काम करने के बाद टालब्रोस में नौकरी छोड़ दी। फिर एक जान-पहचान वाले के जरिये मैं अनिल रबड फैक्ट्री में लगा। यहाँ पहली बार ऐसा हुआ कि भर्ती के समय मुझ से कोरे कागज पर हस्ताक्षर करवाये गये। यह भी सुना कि भर्ती के लिये अधिकारी 200 रुपये रिश्वत लेते हैं। अनिल रबड़ में महीने में 4 दिन ही 16-16 घण्टे काम किया। छह महीने बाद अनिल रबड़ में ब्रेक देने के बाद मैं एक्सप्रो फैक्ट्री में लगा। यहाँ महीने में 5 दिन 16- 16 घण्टे काम करना पड़ता था — 12 घण्टे बाद छोड़ने का तो सवाल ही नहीं था। एक्सप्रो में काम करने के दौरान मैंने आई.टी.आई. के बारे में सुना। छह महीने बाद एक्सप्रो में ब्रेक देने पर जून 1999 में मैं गाँव चला गया। उस साल आई.टी.आई. में दाखिला नहीं हो पाया, सन् 2000 में हुआ। जुलाई 2002 में आई.टी.आई. कर मैं लौटा हूँ और अब ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स में कैजुअल वरकर हूँ।

इस समय मेरी रात की शिफ्ट है। फैक्ट्री में तो बस लैट्रीन जाता हूँ। पैदल कमरे पर आता हूँ। हाथ-मुँह धो कर स्नान करता हूँ। चाय नहीं पीता। तब तक 9 बज जाते हैं और नाश्ते के लिये रोटी व आलू या मटर या गोभी की भुजिया बनाता हूँ। कभी-कभी ज्यादा थकान होती है तब सीधे भोजन बनाता हूँ — चावल, दाल के संग कुछ और। सामान्य तौर पर मैं 11 बजे सो जाता हूँ और शाम को साढे चार-पौने पाँच बजे उठता हूँ। नाश्ता करके सो गया तो दोपहर का खाना गायब। हाथ-मुँह धो कर सब्जी मण्डी जाता हूँ और वहाँ हल्का नाश्ता करता हूँ — अधिकतम 5 रुपये का। पाँच रुपये की सब्जी लेता हूँ और लौट कर बाल काटने की दुकान पर एक-डेढ घण्टे अखबार पढता हूँ। फिर कमरे पर एक-दो घण्टे पढाई करता हूँ — सामान्य ज्ञान, सामान्य विज्ञान, रेफ्रिजरेशन के अपने विषय से सम्बन्धित। रात नौ-साढ़े नौ तक भोजन बना लेता हूँ और खाने के बाद एक घण्टा आराम कर ड्युटी के लिये चल देता हूँ।

जाते ही फैक्ट्री गेट पर हाजरी। विभाग में सुपरवाइजर काम बताता है और दस्ताने व पेन्सिल इश्यु करता है। तीन ऑपरेटरों का उत्पादन मुझे चेक करना पड़ता है — कहीं दरार, कहीं गड्डे, कहीं बगल में नुक्स … ऑपरेटरों का दबाव रहता है कि रिजेक्ट कम करूँ और नौकरी का दायित्व है कि हिसाब से काम करूँ। यह काम पूरी रात लगातार चलता है, सुबह साढे सात बजे तक। ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स में रात की शिफ्ट में कोई लन्च ब्रेक नहीं, कोई चाय ब्रेक नहीं — लगातार 8 घण्टे काम! नींद का सवाल ही नहीं। मेटेरियल खराब हुआ तो 10-15 मिनट भी नहीं निकलते, माल का ढेर लग जाता है। मैटेरियल ठीक होता है तो दस-पाँच मिनट आराम मिलता है और इसी में टट्टी-पेशाब करते हैं अन्यथा साढे सात बजे शिफ्ट छूटने पर ही।

ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स फैक्ट्री में 500 मजदूर काम करते हैं परन्तु कैन्टीन नहीं है। चाय पीने बाहर नहीं जा सकते, प्रतिबन्ध है। दो-चार मिल कर सुपरवाइजर से गेट पास के जरिये एक बन्दे को भेज कर रात-भर खुली रहती ईस्ट इण्डिया चौक की दुकानों से चाय मँगवाते हैं। सुपरवाइजर भी चाय पीने बाहर नहीं जा सकते। यही हाल टालब्रोस फैक्ट्री में भी रात की शिफ्ट में था — कोई लन्च ब्रेक नहीं, कोई चाय ब्रेक नहीं और कैन्टीन थी पर वह रात में बन्द रहती थी।

सप्ताह में शिफ्ट बदलती है। पिछले हफ्ते सुबह की शिफ्ट में था। तब सुबह 5 बजे उठता। लैट्रीन बाहर खुले में जाना। फिर नाश्ता-भोजन बनाना — 2 रोटी खाना और 4 बाँध लेना। सर्दी में सुबह नहाता नहीं। सुबह साढे सात से फैक्ट्री में रात की ही तरह काम। हाँ, दिन की शिफ्ट में साढ़े ग्यारह से बारह बजे लन्च होता है।

साढे तीन बजे छूट कर सीधा कमरे पर आना और पानी ला कर स्नान करना — सप्लाई का पानी ज्यादा ठण्डा नहीं होता। कुछ बचा हो तो नाश्ता करना अन्यथा कुछ बनाना। फारिग हो कर शाम की हवा खाने निकलना। एक नम्बर में एक पुस्तकालय में एक घण्टे 4-5 हिन्दी-अंँग्रेजी के अखबार पलट कर 7 बजे लौटना और फिर 1-2 घण्टे अपने विषय की पुस्तकें पढना। रात 9 बजे भोजन बना, खा-पी कर रात 11 बजे सो जाना।

अभी 15 दिन से सब काम खुद करना पड़ता है। पहले एक परिचित के परिवार को 600 रुपये महीना खुराकी के देता था।

सबसे ज्यादा गड़बड़ बी-शिफ्ट होती है। अब तो इसे भी अकेले ही भुगतना पड़ेगा। बी-शिफ्ट में फैक्ट्री से रात 12 बजे कमरे पर लौटता हूँ। नौ बजे का बना ठण्डा खाना इतनी रात गले उतरता नहीं और आहिस्ता-आहिस्ता खाने में एक बज जाता। फिर रात 2 बजे तक नींद नहीं आती। सुबह सात-साढे सात नींद खुलती है और देर के कारण खुले में लैट्रीन जाने में अतिरिक्त परेशानी। स्नान करते-करते 10 बज जाते हैं। नाश्ते के बाद तबीयत भारी हो जाती है और एक-डेढ घण्टे सो जाता हूँ। उठ कर साढे बारह-एक बजे भोजन और फिर ऐसे ही समय काटना। बी-शिफ्ट में अपना सब कुछ गड़बड़ा जाता है। शारीरिक क्षमता एकदम ढीली पड़ जाती है। यह सुस्ती साढे चार-पाँच बजे तक रहती है — ड्युटी करते घण्टा हो जाता है तब शरीर चुस्त होता है। बी-शिफ्ट में घूमना-पढ़ना सब बन्द हो जाता है।

मुझे बहुत ज्यादा अखरता है : फैक्ट्री में रहना, सुपरवाइजर का ज्यादा नुक्स निकालना और अतिरिक्त उपदेश देना। सहकर्मी पूछने पर बताने से इनकार करते हैं, उल्टा-सीधा जवाब देते हैं, अपने बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं तब मुझे बुरा लगता है। अफसरों का तो बोलने का ढंँग ही निराला है — वो लोग हमें इन्सान नहीं समझते, सी एन सी मशीन से भी तेज रफ्तार से हम से काम लेना चाहते हैं।

बाहर भी समस्या ही समस्या हैं। पानी के लिये, डाकखाने में, रेलवे स्टेशन पर … सब जगह लाइन ही लाइन। मुझे बहुत अखरती है लाइन।

यहाँ फिलहाल कोई दोस्त नहीं है, टेम्परेरी जैसे हैं — थोड़ी जान पहचान, थोड़ी बोलचाल। कभी-कभी बहुत अकेलापन महसूस होता है।

उत्सुकता वाला काम, घूमना, जानकारियाँ लेना मुझे अच्छे लगते हैं। लेकिन इस जमाने में ये कहाँ … (जारी)

(मजदूर समाचार, मार्च 2003)

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