आप-हम क्या-क्या करते हैं … (2)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का सातवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह फरवरी 2003 अंक से है।

मेरी आय 32 वर्ष है। मैं एक बड़ी कम्पनी में नौकरी करता हूँ। फरीदाबाद स्थित फैक्ट्रियों-दफ्तरों से भुगतान एकत्र कर दिल्ली कार्यालय में देना मेरा काम है। सप्ताह में 6 दिन ड्युटी है। महीने में 18-20 दिन दिल्ली जाना पड़ता है और उन दिनों सुबह 9 से रात साढे नौ बजे तक तथा अन्य दिनों 9 से 6 ड्युटीवश होता हूँ। कार्य ही ऐसा है कि शरीर बेढब होता जा रहा है। इधर 4 महीनों से मैं प्रतिदिन सुबह साढे पाँच बजे उठ जाता हूँ। ढेर-सारा पानी पीता हूँ और पेट साफ कर घूमने निकल जाता हूँ। आसपास के हम 5-7 लोग 4 किलोमीटर पैदल चलते हैं और आधा घण्टा व्यायाम करते हैं। घूमते समय रोज किसी-न-किसी विषय पर चर्चा होती है। यहाँ भी और अन्य जगहों पर भी मुझे बहुत तकलीफ होती है जब एक जैसे लोग आपस में ही बड़े होने के दिखावे करते हैं।

हम सब नौकरी करते हैं, सब स्टाफ में हैं — कोई परचेज में, कोई अकाउन्ट्स में, कोई सेल में। हम अपने को मजदूर नहीं मानते, हमारी परिभाषा में मजदूर वह है जो साइकिल पर जाता है, पीछे रोटी का डिब्बा टँगा होता है, मुँह में बीड़ी होती है। वैसे, ज्यादा काम और कम दाम से हम सब तँग रहते हैं — घर में कोई बीमार पड़ जाये तो हजार-डेढ हजार खर्च हो ही जाते हैं और ऐसे झटके से सम्भलने में कई महीने लग जाते हैं।

घूमने-व्यायाम से तरोताजा हो कर मैं सवा सात घर पहुँच जाता हूँ। पत्नी अकसर तब तक सोई होती है — साढे तीन और डेढ वर्ष के छोटे बच्चे हैं। पत्नी को उठाता हूँ और हम इकट्ठे चाय पीते व अखबार पढते हैं। महीने में 20 दिन चाय मैं बनाता हूँ। बच्चे जग जाते हैं तो हम चाय ही साथ पीते हैं और अखबार मैं अकेला ही पढता हूँ। साढे आठ बजे नहाता हूँ और तब तक बच्चे अमूमन उठ ही जाते हैं। उन्हें बहला-फुसला कर, कभी-कभी लड़की को रोती भी छोड़ कर पत्नी नाश्ता-खाना बनाती है। नाश्ता कर बैग उठा, बेटे को स्कूटर पर एक चक्कर लगवा कर 9 बजे मैं काम के लिये चल देता हूँ।

भुगतान लेना बहुत टेढा काम है — कहीं मशीन खराब है तो पहले मशीन ठीक करवाने की शर्त लगाते हैं; कई जगह कस्टमर के पैसे की तँगी होती है और बहाने पर बहाने बनाते हैं; कई जगह व्यवस्था इतनी लचर होती है कि पेमेन्ट उलझी रहती है। नववर्ष-दिवाली पर उपहार तो हर जगह माँगते हैं, कहीं-कहीं रिश्वत भी माँगते हैं। एक से दूसरी जगह, दिन-भर स्कूटर दौड़ाता हूँ। हर जगह जेन्टलमैन बन कर अन्दर जाना होता है — आजकल मफलर खोलना, दस्ताने उतारना, विन्डचीटर उतारना … टाई लगाना जरूरी है पर मैं लगाता नहीं, बैग में अवश्य रखता हूँ, दिल्ली ऑफिस में साँय 6 बजे जब घुसता हूँ तब टाई बाँधता हूँ। टाई वाला हम उसको मानते हैं जिसकी 20 हजार तनखा हो — मुझे 8 देते हैं, 20 देंगे तो टाई की सजा कुबूल है। जेन्टलमैन की परिभाषा है टाई।

हर जगह मुझे गेट पर पूछताछ और रजिस्टर में नाम-पता-काम दर्ज करने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अकाउन्ट्स विभाग में डीलिंग क्लर्क से मिलना। चेक बना हो तो लेना अन्यथा अगली तारीख। तीस में से 20 जगह तो चाय की पूछ ही लेते हैं और एक कस्टमर के यहाँ आधा-पौन घण्टा लग जाता है। एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा … कभी 1 बजे तो कभी 2 बजे भोजन करता हूँ और फिर वही फैक्ट्री-दफ्तर के चक्कर। काम ऐसा है कि ढील देना और तेज दौड़ना कुछ-कुछ अपने हाथ में है इसलिये मूड और अन्य कार्य के लिये समय इधर-उधर करने की कुछ गुंँजाइश रहती है। लेकिन काम का दबाव इतना रहता है कि मन हो चाहे न हो, कस्टमरों के पास जाना ही होता है। प्रतिदिन औसतन 30 के यहाँ चक्कर लगाता हूँ। पैसे की जरूरत तन व मन को मारती है और कम्पनी ने इन्सेन्टिव का लालच भी दे रखा है।

दिल्ली जाना होता है तब साढे चार बजे ओल्ड, टाउन अथवा बल्लभगढ स्टेशन पर स्कूटर रख कर गाड़ी पकड़ता हूँ। फिर बस से कम्पनी कार्यालय पहुँचता हूँ। वहाँ 8-10 अपने जैसे मिल जाते हैं। काम की रिपोर्ट देने और साहब की इस-उस बारे में बातें सुनने में एक-डेढ-दो घण्टे लग जाते हैं। वापस बस और ट्रेन पकड़ना। स्टेशन से स्कूटर उठाना और रात नौ-साढे नौ बजे घर पहुँचना।

बच्चे कभी सोये तो कभी जगे मिलते हैं। हाथ-मुँह धो कर 10 बजे भोजन करता हूँ। भोजन के बाद पहले हम दोनों रात को टहलने जाते थे पर अब सर्दी के कारण यह बन्द है। अब दिन की किसी बात पर चर्चा करते हैं और कुछ टी.वी. देखते हैं — पढता था तब गाँव से फरीदाबाद आ कर फिल्म देखता था पर अब चार साल में हॉल में एक भी फिल्म देखने नहीं गया हूँ, मन ही नहीं करता। नौकरी से मन ऊब गया है, नौकरी छोड़ने को मन करता है पर कहाँ जाऊँ। रात 11 बजे हम सो जाते हैं।
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अभी मैं 35 वर्ष की भी नहीं हुई हूँ। पति और बड़ा लड़का नौकरी करते हैं। मैं घर सम्भालती हूँ और सिलाई-कढाई से दो पैसे भी कमाती हूँ। हर रोज सुबह 5 बजे उठती हूँ। बाहर जंगल जाना — अन्धेरा होता है, सूअर से और गन्दे आदमी से डर लगता है (आदमी छुप कर बैठ जाता है)। मजबूरी है, हिम्मत जुटानी पड़ती है। जंगल से आने के बाद पानी भरना — भीड़ नहीं हुई तो 20 मिनट अन्यथा घण्टा लग जाता है।

पानी लाने के बाद बर्तन साफ करना, झाडू लगाना। फिर सब्जी काटना, मसाला पीसना — सिलबट्टे पर पीसती हूँ, तैयार किया हुआ इस्तेमाल नहीं करती। पति की ड्युटी अब ओखला में है और उन्हें 7:40 की गाड़ी पकड़वानी होती है। गैस पर एक तरफ सब्जी रखती हूँ और दूसरी तरफ आटा गूंँथ कर रोटी बनाती हूँ। कभी-कभी स्टोव पर साथ-साथ पानी गर्म करना क्योंकि दो बच्चों को स्कूल के लिये तैयार करना होता है। सब्जी तैयार होते ही चाय रख देती हूँ। पति को गाड़ी पकड़ने के लिये सवा सात घर से निकलना पड़ता है। बच्चे पौने आठ बजे निकलते हैं। सुबह-सुबह रोटी-सब्जी का नाश्ता करते हैं और फिर चाय पीते हैं। पति रोटी ले भी जाते हैं, बच्चे एक बजे आ कर खा लेते हैं।

सब को निपटाने के बाद चाय बचती है तो उसे गर्म करती हूँ अन्यथा फिर बनाती हूँ। चाय पीती हूँ, नाश्ते को मन नहीं करता। पानी गर्म कर नहाना। फिर बर्तन साफ करना, झाडू लगाना, बिस्तर ठीक करना। काम मैं बहुत जल्दी करती हूँ पर फिर भी 10-11बज जाते हैं, मेहमान आने पर और समय लग जाता है। एक-डेढ घण्टा आराम करती हूँ।

दोपहर को फिर पानी भरना — पानी तो तीनों टाइम भरना पड़ता है। फिर निनानवे का चक्कर : दस रुपये में पैजामा, पाँच में कच्छा, दस में पेटीकोट सीलती हूँ। फैक्ट्रियों से ठेकेदार कपड़े लाते हैं उन पर पीस रेट से कढाई करती हूँ। चार-पाँच बज जाते हैं। दूध और मण्डी से सब्जी लाती हूँ तब तक खाना-पानी के जुगाड़ में चौका-बर्तन का समय हो जाता है। सब मिला कर यह कि अपने शरीर का ध्यान नहीं रख पाती। अपने लिये समय नहीं मिलता।

बड़े लड़के की महीने में 15 दिन रात की ड्युटी भी रहती है। आज रात की ड्युटी है, रात 8 बजे घर से जाना है। मुझे 7 बजे तक भोजन तैयार करना है क्योंकि तुरन्त खा कर जाने में पेट दर्द करता है — एक घण्टा पहले खा कर, कुछ आराम करके जाता है। वह इस समय बीमार भी चल रहा है। उसकी ड्युटी 12 घण्टे की है : आज रात साढे आठ से कल सुबह साढे आठ बजे तक। लड़का 17 साल का है, हर रोज 12 घण्टे प्लास्टिक मोल्डिंग मशीन पर खड़ा रहता है। मुझे बहुत दुख होता है, मन करता है कि नौकरी छुड़वा दूँ पर मजबूरी है — घर पर कहाँ बैठा कर रखूँगी।

रात साढे नौ तक फारिग हो कर सब बिस्तर में और टी.वी. देखते हैं।

चिन्ता के कारण मुझे कभी-कभी रात-भर नींद नहीं आती। बीमार हो जाती हूँ तो सोचती रहती हूँ कि कौन मेरे लिये करेगा — सब तो ड्युटी वाले हैं, बच्चे स्कूल जाते हैं। किसी से मदद लो तो अड़ोसी-पड़ोसियों द्वारा गलत इल्जाम लगा दिये जान का डर रहता है। लड़की सयानी हो रही है, उसकी सोचती रहती हूँ। इतना बोझ ले कर चलना है। कैसे चलूँ? अभी तो आधी उम्र भी नहीं निकली। रक्तचाप-ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, बुरे-बुरे विचार आते हैं। मैं मर गई तो मेरे बच्चों का क्या होगा? अब किसी से मेलमिलाप को मन नहीं करता जबकि पहले मैं बहुत मेलजोल रखती थी। वैसे अब बेटी का बहुत सहारा हो गया है।

12-13 वर्ष की थी तब विवाह हो गया था और हम पति-पत्नी दो दोस्तों की तरह रहते हैं। बच्चे हमारा आदर करते हैं। मैं बार-बार अपने मन को समझाती हूँ कि बच्चे साथ देंगे — औरों की तरह शादी के बाद लड़के हमें नहीं छोड़ेंगे। लेकिन बुढापे में अकेले रह जाने का डर बना रहता है — पेट काट कर दो पैसे अलग से बचाने के चक्कर में रहती हूँ ताकि पैसे के लालच में ही सही, बच्चे बुढापे में हमारा ख्याल रखेंगे।

ज्यादा थक जाती हूँ तब चिड़चिड़ी भी हो जाती हूँ और सोचती हूँ कि जिन्दगी क्यों दी, इससे तो मौत भली। (जारी)

(मजदूर समाचार, फरवरी 2003)

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