शिशुओं की दुलत्तियाँ

● शिशु के सहज, स्वस्थ पालन-पोषण में साझेदारी वाले अलग-अलग आयु के पचास लोग आवश्यक हैं। अफ्रीका में प्रचलित एक कहावत अच्छे बचपन के लिये और अधिक लोगों के होने को जरूरी बताती है।

प्रगति और विकास के संग शिशु से लगाव रखते लोगों का दायरा सिकुड़ता जाता है। माता, पिता और बच्चा/बच्ची अब सामान्य बन गया है। मात्र माँ और शिशु प्रगति के शिखरों पर विचरने लगे हैं। एक-दो-तीन का होना माँ का पगलाना, पिता का पगलाना, शिशु में बम के बीज बोना लिये है।

● लगाव के बिना शिशु के संग रहते लोगों को भुगतना विगत में महलों में जन्म लेने वालों की त्रासदी थी। शिशु की देखभाल करने को मजबूर लोगों का स्वाभाविक अनमनापन, दिखावा, बेगानापन राजकुमार-राजकुमारी के टेढे-निष्ठुर-निर्मम-क्रूर व्यवहार का खाद-पानी था।

पति-पत्नी-बच्चे को सामाजिक इकाई बनाने के संग प्रगति और विकास पति के अलावा पत्नी द्वारा नौकरी करने की अनिवार्यता को बढाते हैं। नौकरी करती महिला द्वारा शिशु की देखभाल पैसों के लिये यह काम करने वालों को सौंपना मजबूरी है। बच्चों-युवाओं में टेढेपन-निष्ठुरता-निर्ममता-क्रूरता की उठती लहरें प्रगति का एक परिणाम हैं।

● घड़ी प्रगति और विकास का एक प्रतीक है। समय का अभाव तरक्की का पैमाना है — जितना कम समय आपके पास है उतनी ही अधिक प्रगति आपने की है,आप बेरोजगार हैं तो गर्त में हैं। विकास में सफलता और “क्वालिटी टाइम” एक-दूसरे के पूरक हैं। शिशु को समय नहीं दे पाने के अपराधबोध से ग्रस्त माता-पिता उसे “क्वालिटी टाइम” देते हैं … “क्वालिटी टाइम” माता-पिता का कवच है और जाने-अनजाने में बच्चे को टेढेपन में दीक्षित करता है।

● स्वाभाविक को नकारना-छिपाना-बाँधना प्रगति-विकास-सभ्यता के प्रतिबिम्ब हैं। “छी-छी नँगू”, “टट्टी-पेशाब गन्दे” के फिकरे सामान्य बन गये हैं। प्रगति और विकास शिशु को कपड़ों में लपेटना और टट्टी-पेशाब के लिये समय व स्थान निर्धारित करना लिये हैं। यह पहलेपहल माता-पिता की कुछ मजबूरी है और फिर क्रेच-विद्यालय का अनुशासन। टट्टी-पेशाब रोकना बच्चों को तन के अनेक रोग देता है। छी-छी की बातें मन के रोग लिये हैं।

● पक्के मकान, बिजली, इलेक्ट्रोनिक उपकरण, कुर्सी-मेज प्रगति-विकास-सभ्यता की देन हैं। शिशु के लिये ऐसे निवास यातनागृह हैं।

कच्चे घर में शिशु को चूल्हे की आग से बचाने पर ही विशेष ध्यान जरूरी होता है। पक्के घर में शिशु का हर कदम टोका-टोकी लिये है। चोट का डर, बिजली का भय, महँगी चीज तोड़ने की आशंका माता-पिता को चौकस-चिन्तित रखती हैं। टोका-टोकी शिशु में आक्रोश पैदा करती है और शिशु के क्रोध की अभिव्यक्ति पर रोक को सभ्यता ने एक अनिवार्यता बना दिया है … शिशु मन में यह बम के बीज बोना है। किराये के एक कमरे में रहने अथवा बड़े मकान में रहने से इसमें कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

वैसे, आज के देव, प्रभु विज्ञान के अनुसार भी सीमेन्ट-स्टील-पेन्ट वाले निवास तथा कार्यस्थल अत्यन्त हानिकारक हैं। यह इंग्लैण्ड के साठ प्रतिशत निवासियों की साँस की तकलीफों का प्रमुख कारण हैं।

● गति, तीव्र गति प्रगति और विकास का एक अन्य प्रतीक है। सड़क और वाहन सर्वग्रासी बने हैं। यातनागृह बने निवासों में बच्चों को बन्दी बना कर रखने का बाहरी कारण वाहन हैं, तेज रफ्तार वाहन। गये वह दिन जब साइकिल की रफ्तार को खतरनाक माना जाता था …

“बाहर” अब बच्चों के दायरे से बाहर है। सड़क पर बच्चों को कैसे खेलने दें … अन्य सार्वजनिक स्थान हैं नहीं अथवा अनेक शर्तें लिये हैं। ऐसे में बच्चे मनोरंजन के लिये टी वी देखें …

सभ्यता के संग आई पहलवानी, मुक्केबाजी, नाटक, नौटंकी की प्रायोजित पीड़ा – प्रायोजित आनन्द में इधर बहुत प्रगति हुई है। टी वी ने प्रायोजित पीड़ा – प्रायोजित आनन्द को जन-जन तक पहुँचा दिया है। प्रगति-विकास ने एकाकी भोग को, तन की बजाय मस्तिष्क द्वारा भोग को महामारी बना दिया है। आत्मघाती बम बनना, 10-12 वर्ष के बच्चों द्वारा विद्यालय में 18-20 को गोली मारना इसके लक्षण हैं।

● शिशुओं का माटी-रेत-गारा के प्रति आकर्षण देखते ही बनता है। बड़ों की रेत-मिट्टी-कीचड़ से नफरत चिन्ता के संग चिन्तन की बात है …

बच्चों के अच्छे भविष्य के नाम पर अपनी दुर्गत करने, बच्चों की दुर्गत करने पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।

— (मजदूर समाचार, नवम्बर 2007)

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