निर्भरता-आत्मनिर्भरता-परस्पर निर्भरता बनाम … बनाम क्या?

नये समाज के लिये नई भाषा भी आवश्यक लगती है। सामान्य तौर पर शासक समूह की, विद्यमान सत्ता की धारणायें-विचार-भाषा समाज में हावी होती हैं। ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों में पीड़ित-शोषित समूहों का विरोध भी आमतौर पर सत्ता की धारणाओं-विचारों-भाषाओं में व्यक्त होता है।

अब तक के ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों को इस अथवा उस सामाजिक सम्बन्ध पर मुख्यतः आधारित कह सकते हैं। समकालीन ऊँच-नीच मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन पर आधारित कही जायेगी।

सामाजिक सम्बन्ध जिस पर ऊँच-नीच आधारित है वह नाकारा हो जाता है तब नई समाज रचना के लिये गतिविधियाँ बढ जाती हैं। शासक समूह की धारणायें-विचार-भाषा लड़खड़ाने लगते हैं। नये सामाजिक सम्बन्धों का वाहक सामाजिक समूह नई धारणायें-विचार-भाषा उभारता है।

मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन की लड़खड़ाहट इधर बहुत बढ गई है। और, नये सामाजिक सम्बन्धों के वाहक की भूमिका में मजदूर, वैश्विक मजदूर, ग्लोबल वेज वरकर लगते हैं।

हमारे विचार से इस सन्दर्भ में मजदूर समाचार में इन तीस वर्षों में कुछ नई धारणायें-विचार-भाषा व्यक्त हुये हैं। उन में से एक यहाँ प्रस्तुत।

● शिशु की माँ पर निर्भरता को स्वयंसिद्ध माना जा रहा है। आईये इसकी थोड़ी पड़ताल करें।

स्तनपान को शिशु की माँ पर निर्भरता को साफ-साफ दर्शाने वाला कहा जा सकता है। परन्तु क्या बात वास्तव में ऐसी है?

स्तनपान माँ को आनन्द प्रदान कराता है। क्या इसे माँ की बच्चे पर निर्भरता कह सकते हैं?

वास्तव में जीवन बहु-आयामी है, जिन्दगी के कई पहलू हैं। इस अथवा उस पहलू को महत्वपूर्ण-अधिक महत्वपूर्ण करार देना और इन-उन आयामों को गौण बताना गड़बड़झालों की पूरी बारात लिये है।

● दरअसल समुदाय रूपी समाजों का टूटना और ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, बड़े-छोटे वाली समाज व्यवस्थाओं का उभरना-फैलना जीवन के विभिन्न पहलुओं में सामंजस्य को तोड़ता है। सम्पूर्णता में काट-छाँट कर कुछ पहलुओं को महत्वपूर्ण और अन्य को गौण बनाने की प्रक्रिया चलती है। मालिक जो करें वह महत्वपूर्ण, गुलाम जो करें वह गौण …

जीवन के आयामों में सामंजस्य का टूटना और कुछ पहलुओं का महत्वपूर्ण तथा अन्य का गौण बनना सब को सिकोड़ना-खंडित करना लिये है।
दासों की पीड़ा का बयान करने की आवश्यकता नहीं है। स्वामियों की पीड़ा की झलक के लिये महाभारत ही पर्याप्त है। भूदासों के दुख-दर्द के लिये उदाहरणों की जरूरत नहीं है। राजाओं की त्रासदी को शेक्सपीयर के नाटक बखुबी दर्शाते हैं।

● उपरोक्त को ध्यान में रखते हुये आईये निर्भरता-आत्मनिर्भरता-परस्पर निर्भरता पर कुछ चर्चा करें।

— वर्तमान की एक विशेषता यह है कि सहज के प्रति इसमें व्यापक असहजता है।

आयु का सन्दर्भ ही लें। जन्म-शैशव-युवावस्था-वृद्धावस्था-मृत्यु की स्वाभाविकता के प्रति चिर यौवन की लालसा को क्या कहेंगे?

— जवानी का एक अर्थ किसी पर निर्भर नहीं होना भी है। निर्भर मानी अधीन यानी दुखद! लौटें माँ-शिशु पर और विचार करें कि कैसे पूरक का अनर्थ निर्भर है।

— वर्तमान के एक और लक्ष्य आत्मनिर्भरता को देखिये।

यहाँ हम सरलीकरण के लिये समूह की बजाय व्यक्ति-केन्द्रित उदाहरण दे रहे हैं।

आत्मनिर्भरता आगे ही एकांगी जीवन को एकाकी बनाने की राह है। आत्मनिर्भरता आज निवास के ऐसे स्वरूप लिये है कि किसी से कोई मिलना-जुलना न हो। भोजन ऐसा कि अकेले निगल सकें। यात्रा के दौरान सामने किताब और कानों में संगीत। “अपना पैसा” यानी नौकरी-चाकरी आदर्श। नीरस जीवन पर मनन से बचने के लिये टी.वी., प्रायोजित-आनन्द और प्रायोजित-पीड़ा का एकाकी उपभोग।

— निर्भरता और आत्मनिर्भरता में तवे और चूल्हे के भेद के दृष्टिगत विकल्प के तौर पर परस्पर निर्भरता आकर्षक लगती है। आईये इसे थोड़ा देखें।

विस्तार का अभाव और सम्बन्धों का सतही-छिछला होना ऐसी दवा की माँग करता है जो इन्हें कुछ जीवन दे सके। व्यवहारिकता वह औषधि है।

सम्बन्धों का प्रबन्धन करना, रिश्तों को मैनेज करना नया सूत्र है। किसने किस के लिये कितना किया है और क्या-कब करना है का हिसाब-किताब रखना और नफे-नुकसान का आंकलन एक सतत् क्रिया बनती है। सम्बन्ध बनाये रखना है अथवा तोड़ना है, नये रिश्ते बनाने हैं अथवा पुरानों को भुनाना है की ऊहापोह हर समय रहती है। व्यक्ति हो चाहे समूह या संस्था या सरकार, रिश्तों को मैनेज करने का अर्थ यही है।

और, परस्पर निर्भरता सम्बन्धों को मैनेज करना ही है। निर्भरता का विकल्प आत्मनिर्भरता नहीं है और इन दोनों का विकल्प परस्पर निर्भरता नहीं है। तो क्या?

स्वयं को, मानव को प्रकृति का एक अंश लेना, सम्पूर्ण का एक अंश लेना विकल्पों के लिये प्रस्थान-बिन्दु लगता है।

(मजदूर समाचार, दिसम्बर 2007 अंक)

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