पहचान और पहचान की जटिलतायें (2)

पहचान की राजनीति, Identity Politics विभाजित सामाजिक गठनों में अन्तर्निहित लगती है। सत्ता के लिये पहचान की राजनीति चीर-फाड़ का काम करती है।

ऊँच-नीच जिस सामाजिक सम्बन्ध पर आधारित होती है वह सम्बन्ध जब नाकारा होने लगता है तब विद्यमान सत्ता लड़खड़ाने लगती है। ऐसे में पहचान की राजनीति के ताण्डव बहुत बढ जाते हैं।

इधर मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन सवा-डेढ सौ साल से नाकारा है। इसलिये विश्व-भर में इस सम्बन्ध पर आधारित कानून के शासन अधिकाधिक लड़खड़ा रहे हैं। ऐसे में “देश” पर आधारित पहचान की राजनीति का प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों का महाविनाश हम भुगत चुके हैं।

इधर विद्यमान सत्तायें अपने को बचाये रखने के लिये अपने कवच के तौर पर अनेकानेक पहचान की राजनीतियों को पालपोस रही हैं।

पहचान और पहचान की जटिलतायें (2)
(मजदूर समाचार, सितम्बर 2007 अंक)

“मैं” का उदय – “मैं कौन हूँ ?” – एक “मैं” में कई “मैं” – और “मैं” के पार

◆ इकाई और समूह-समुदाय के बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध समस्त जीव योनियों में हैं। मानव योनि में भी दीर्घकाल तक ऐसा ही था। चन्द हजार वर्ष पूर्व ही पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों में मानवों के बीच “मैं” का उदय हुआ। मनुष्यों के प्रयासों के बावजूद अन्य जीव योनियों के समूह-समुदाय में इकाई ने “मैं” के पथ पर प्रगति नहीं की है।

◆ एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय की इकाईयों में तालमेल सामान्य हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय के उस योनि के अन्य समूह-समुदायों के संग आमतौर पर सम्बन्ध मेल-मिलाप के होते हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। आपस की खटपटें घातक नहीं हों यह किसी भी योनि के अस्तित्व के आधारों में है। इसलिये प्रत्येक जीव योनि में यह रचा-बसा है। एक जीव योनि के अन्दर की लड़ाई में किसी की मृत्यु अपवाद है। मानव योनि के अस्तित्व के 95 प्रतिशत काल में ऐसा ही रहा है। इधर मनुष्य द्वारा मनुष्य की हत्या, मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की हत्यायें मानव योनि को समस्त जीव योनियों से अलग करती हैं।

◆ अपनी गतिविधियों के एक हिस्से को भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचित करना जीव योनियों में सामान्य क्रियायें हैं। बने रहने, विस्तार, बेहतर जीवन के लिये ऐसे संचय जीवों में व्यापक स्तर पर दिखते हैं। प्रत्येक जीव योनि में पीढी में, पीढियों के बीच सम्बन्ध इन से सुगन्धित होते हैं। मानव योनि में भी चन्द हजार वर्ष पूर्व तक ऐसा ही था। इधर विनाश के लिये, कटुता के लिये, बदतर जीवन के लिये भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचय के पहाड़ विकसित करती मानव योनि स्वयं को समस्त जीव योनियों से अलग करती है।

कीड़ा-पशु-जंगली-असभ्य बनाम सभ्य को नये सिरे से जाँचने की आवश्यकता है।
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लगता है कि निकट भविष्य में पहचान की राजनीति का ताण्डव बहुत बढेगा। मानव एकता और बन्धुत्व की सद्इच्छायें विनाश लीला को रोकने में अक्षम तो रही ही हैं, अक्सर ये इस अथवा उस पहचान की राजनीति का औजार-हथियार बनी हैं। हम में से प्रत्येक में बहुत गहरे से हूक-सी उठती हैं जिनका दोहन-शोषण सिर-माथों पर बैठे अथवा बैठने को आतुर व्यक्ति-विशेष द्वारा किया जाना अब छोटी बात बन गया है। सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की ही तरह पहचान की राजनीति में भी संस्थायें हावी हो गई हैं। संस्थाओं के साधनों और पेशेवर तरीकों से पार पाने के प्रयासों में एक योगदान के लिये हम यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

● हमारी भाषा-सम्बन्धी अक्षमता-अयोग्यता को क्षमा कीजियेगा।

जीवों-निर्जीवों से रची पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों वर्ष से चले आ रहे अनेकानेक प्रकार के सम्बन्धों के बोलबाले में चन्द हजार वर्ष पूर्व एक महीन दरार पड़ी थी जो कि आज सब-कुछ को विनाश की देहली पर ले आई है।

अनेकानेक प्रकार के सम्बन्धों को मात्र दोहन-शोपण के रिश्तों में समेटती-सिकोड़ती प्रवृति के मानवों के चन्द समूहों में उभरने को सभ्यता का जन्म कह सकते हैं। पौराणिक कथा के सुरसा के मुँह की तरह फैलती आई सभ्यता ने पृथ्वी के पार जा कर अब अन्तरिक्ष का भी दोहन-शोषण शुरू कर दिया है।

सभ्यता की प्रगति के संग पत्थर पर प्यार की थपकी से परे होते मनुष्य प्रेम करने से ही वंचित होते आये हैं। सभ्य मानवों में प्रेम की योग्यता-क्षमता ही नहीं रहती …

1900-1920 के दौरान भी सभ्यता से परे प्रशान्त महासागर के कुछ द्विपों में निवास करते मानव समुदायों के अनुसार घड़ी ने गोरों को प्रेम करने के अयोग्य बना दिया था। आज पृथ्वी पर शायद ही कोई हों जो “गोरे” नहीं हैं …

प्रेम का यह अकाल प्रेम-गीतों को लोकप्रियता प्रदान करता है, विकृत प्रेम को आधार प्रदान करता है। विगत के प्रेम के किस्से भी उस प्रेम की महिमा गाते हैं जो जीवन को विस्तार देने के उलट मनोरोगी सिकोड़ना, संकीर्ण बनाना लिये है। और आज मण्डी में प्रेम के भाव-तोल होते हैं, मण्डी में प्रेम-गीत बिकते हैं।

● जो मिले-जुले हैं, जो घनिष्ठ सम्बन्ध लिये हैं उन्हें अपने से अलग देखना, अपने से अलग करना, “अन्य” बनाना दोहन-शोषण के लिये प्रस्थान-बिन्दु बनता है। और, स्वयं को अपने से अलग देखना, खुद को अपने से अलग करना, स्वयं को हाँकना, खुद के तन का, मस्तिष्क का, मन का दोहन-शोषण “अन्य” से आरम्भ हुये दोहन-शोषण की परिणति है।

धरती को अपने से अलग मान कर धरती का दोहन, पेड़-पौधों को अपने से अलग कर उनका दोहन, पशु-पक्षियों व अन्य जीवों को अपने से अलग कर उनका दोहन-शोषण, एक मानव समुदाय द्वारा दूसरे मानव समुदायों को अपने से अलग मान कर, “वे-अन्य” बना कर उनका शोषण, एक मानव समुदाय में ही “मैं” और “वह” की रचना द्वारा एक-दूसरे के शोषण के आधार की स्थापना, और फिर “मैं” में विभाजन – कई विभाजन …

किसी स्वामी-मालिक के “मैं” की ही बात करें तो उस “मैं” के अन्दर इस कदर द्वन्द्व हैं कि उसे स्वामी-मालिक बनाये रखने के लिये अनेक भोगों के संग योग की आवश्यकता पड़ती है … टूटे को जोड़ना लक्षणों का उपचार करना है, बीमारी को छिपाना है। और, संकीर्ण अर्थ में स्वास्थ्य की ही बात करें तो भी प्रश्न है : स्वास्थ्य किस लिये? स्वास्थ्य से खिलवाड़ करती सामाजिक प्रक्रिया शोषण के लिये स्वास्थ्य के महत्व को बखूबी जानती है …

● मानव समुदायों में से जो समुदाय स्वामी गण बने थे वे स्वाभाविक तौर पर समुदायों की गहरी छाप लिये थे। इसने सभ्यता के बारे में अनेक भ्रान्तियों को भी जन्म दिया है। स्वामी गण के दौर को सतयुग कहने वालों के लिये यह बात पर्याप्त होनी चाहिये कि दास-दासी गण के सदस्य नहीं थे, दास-दासियों का शोषण स्वामी गणतन्त्रों की चमक-दमक का आधार था।

स्वामी गण के “हम” में से “मैं” के उदय को पतन के तौर पर देखने की परिपाटी के लिये भी उपरोक्त पर्याप्त होना चाहिये। “हम” और “वे-अन्य” का अगला कदम “हम-मैं”, “मैं-हम”, “मैं” है …

“मैं” के संग “मेरा-मेरी” हैं। यहाँ हम स्वामियों-मालिकों के आचार-विचार की ही चर्चा कर रहे हैं क्योंकि दास-दासियों के “मैं” और “मेरा-मेरी” के लिये कोई स्थान ही नहीं था। लेकिन बँटे हुये समाज में सिर-माथों पर बैठों का प्रभाव नीचे वालों पर पड़ता – डाला जाता है। कहा है कि किसी दौर की हावी सोच उस दौर के शासक वर्ग की सोच होती है …

माँ शक्ति, देवी के गले में नर-मुण्डों की माला, पिता के आदेश पर माँ का सिर काटना वाली पौराणिक कथायें नर-नारी सम्बन्धों में हुये उलटफेर दर्शाती लगती हैं। यह न भूलते हुये कि स्वामी-मालिक की पत्नी-बेटी दास-दासियों के लिये स्वामी ही थी, बात आगे बढ़ाते हैं।

“मैं” और “मेरा-मेरी” का विस्तार नारी की – बच्चों की दुर्गत तो लिये ही है, यह पुरुषों का भी कचूमर निकालता है। “मैं” और “मेरा-मेरी” के लिये सुरक्षा का प्रश्न अपने संग सरकार और उसका बढता बोझ लिये है। “मेरा-मेरी” की सुरक्षा तथा इनके विस्तार की इच्छायें पहचान की राजनीति की खुराक तो बनती ही हैं।

सम्पत्ति और परिवार के रूप में “मेरा-मेरी” किसानी-दस्तकारी-दुकानदारी के विस्तार के दौरान महामारी का रूप ले लेती है। लेकिन इधर सम्पत्ति द्वारा संस्थागत रूप धारण करते जाना और बढती संँख्या में स्त्रियों का मजदूर बनना सभ्यता के विलोप तथा नये समुदायों की आवश्यकता की दस्तक लगती है …

संस्थाओं-कम्पनियों के बड़े घपलों-घोटालों के संग एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में सामाजिक मौत – सामाजिक हत्या से रूबरू दस्तकारों-किसानों-दुकानदारों की “मेरा-मेरी” की बदहवासी फुटकर भ्रष्टाचार की बाढ लाई है। और यूरोप-उत्तरी अमरीका में संस्थाओं ने “मेरा-मेरी” वाले आवरणों को हड़प कर “मैं” को पूरी वीभत्सता के साथ सामने ला दिया है।

प्रकृति में स्त्री की यौन सम्बन्धी क्षमता कई पुरुषों के बराबर है। एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन सन्तुष्टि नहीं कर सकता … ऐसे में एक पुरुष द्वारा कई स्त्रियाँ-पत्नियाँ रखना “मैं” की पीड़ा का ही कमाल रहा है। “मैं” के उदय के संग स्त्री-पुरुष में आरम्भ हुये सतत द्वन्द्व की चर्चा आगे करेंगे। (जारी)

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