आईये अपने आप से कुछ बातें करें

अपने आप से बात करने के लिये समय चाहिये। और यहाँ मरने की फुर्सत नहीं है।

पर बात इतनी ही नहीं लगती। वास्तव में खुद से बात करने में डर लगता है। स्वयं से बात करने से बचने के लिये भागमभाग में लगे रहते हैं। कोशिश करते हैं कि खाली न हों। काम ढूँढते हैं, चिन्तायें ढूँढते हैं, गुस्सा-भड़ास की वजहें ढूँढते हैं – निकालने के जरिये ढूँढते हैं।

कारण? हर समय प्रत्येक का अत्यन्त नाजुक सन्तुलन में होना, सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति में होना।

ऐसा काफी समय से है। बल्कि, अनिश्चितता-अस्थिरता-असुरक्षा बढ़ती आई है।

● सड़क ही लें। सड़कें बढ़ती आई हैं। वाहनों की सँख्या और रफ्तार बढते आये हैं। भारत सरकार के क्षेत्र में ही अब प्रतिदिन 400 लोगों की सड़कों पर हादसों में अकाल मृत्यु हो रही है। और, गति-वाहन-सड़क-तनाव की चपेट में यहाँ हर रोज 5000 लोग बुरी तरह घायल हो रहे हैं। एक सड़क ही सब कुछ बिगाड़ने के लिये पर्याप्त है। सड़क कैसे छोड़ें?

● फरीदाबाद में फैक्ट्रियाँ लें। इन में हर रोज पावर प्रेसों पर 200 मजदूरों की उँगलियों के पोर, पूरी उँगलियाँ, अँगूठे, पहुँचे से हाथ कटते हैं। फैक्ट्री कैसे छोड़ें? नौकरी कैसे छोडें?

बहुत-ही बच कर चलते हैं। तन की तब ऐसी दुर्गत है। मन का तो और भी बुरा हाल है।

डर और लालच के छोटे-से अखाड़े में हम बींध दिये गये हैं। डर और लालच के संकीर्ण दायरे में हम स्वयं को हाँकने लगे हैं। हालात का बद से बदतर होना इसका परिणाम है।

कुछ करने से क्या होगा?

इस सन्दर्भ में आईये अपने कल, आज, और आने वाले कल को देखने का प्रयास करें। जो बीत गया उससे सबक लेना आसान होता है। पहले स्वयं को धोखा देने के लिये प्रयोग की गई दलीलें लें — यह आज भी व्यापक स्तर पर इस्तेमाल हो रही हैं।

अपने तन और मन के खिलाफ जाने के लिये “पापी पेट” की दलील दी गई। कहा कि बच्चों के लिये जलालत झेल रहे हैं। और, अचूक बाण : यह सब “जिम्मेदारियाँ निभाने के लिये” कर रहे हैं।

नकारते रहे हैं हम तथ्यों को। मुँह चुराते रहे हैं वास्तविकता से। “मेरे”-“हमारे” साथ ऐसा नहीं होगा का स्वप्न बार-बार धराशायी होने पर भी स्वप्न बना रहा है।

हम जो करते रहे हैं उसका असर पड़ा है — पर वह नहीं जो हम चाहते थे। पेट-बच्चों-जिम्मेदारियों की स्थिति और विकट हो गई है। हम जो करते रहे हैं उससे दोहन-शोषण पृथ्वी के गर्भ से अन्तरिक्ष तक फैल गया है। और तीव्र गति ने हमारी दुर्गत कर दी है।

इसलिये प्रश्न : “क्या फर्क पड़ता है?” नहीं है। बल्कि हमारे लिये सवाल यह हैं : “हम जो कर रहे हैं उससे कितना और कैसा फर्क पड़ेगा? हम जो कर रहे हैं वह नहीं करें तो क्या और कैसा फर्क पडेगा? हम जो परिवर्तन चाहते हैं उनके लिये क्या-क्या कर सकते हैं?”

छुट्टी-छुट्टी-छुट्टी

तन के लिये अच्छी, मन के लिये अच्छी, जीवन के लिये अच्छी है छुट्टी! और आज छुट्टी अपने संग भय-आशंका लिये है।

कितना हिसाब लगाते हैं हम एक दिन की छुट्टी के लिये। दिहाड़ी टूटने की बात। एक दिन की छुट्टी पर दूसरे दिन वापस भेज दिये जाने का भय। नौकरी से निकाल दिये जाने का डर। बहुत-ही मजबूरी में छुट्टी करते हैं। सोचते हैं कि छुट्टी करने में नुकसान ही नुकसान है, मजदूर को नुकसान है।

लेकिन तथ्य और ही कुछ बयान करते हैं। यह कम्पनियाँ हैं जो चाहती हैं कि मजदूर छुट्टी नहीं करें। पूर्ण उपस्थिति के लिये कम्पनियाँ पुरस्कार राशि देती हैं। और, अनुपस्थिति के लिये सजा के प्रावधान। हाँ, कम्पनियों को जब जरूरत नहीं होती तब जबरन छुट्टी करती हैं। जबरन छुट्टी सजा है, यह छुट्टी नहीं होती।

आईये मजबूरी में छुट्टी और जबरन छुट्टी के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलने की कोशिश करें। तन कहे तब छुट्टी करना। मन कहे तब छुट्टी करना। साथी कहे तब छुट्टी करना … उल्टी गँगा सीधी होने लगेगी।

विशाल कम्पनियों के दिवालिया होने, बड़े-बड़े बैंकों के बैठ जाने, दूसरों के भविष्य की गारन्टी देने वाली बीमा कम्पनियों के दिवालिया होने के इस दौर में अपने आप से बातें करना और भी जरूरी हो गया है। यह समय नये सिरे से प्रश्न करने का है। कम्पनी-बीमा-बैंक-सरकार पर भरोसे के स्थान पर नये भरोसों को स्थापित करने का वक्त है यह।

— (मजदूर समाचार, दिसम्बर 2008)

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