विचारणीय है शिशुओं का टीकाकरण

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। बयालिसवाँ अंश मई 2009 अंक से है।

● मनुष्य प्रकृति का एक अंश है। प्रकृति हमारे शरीरों को अपनी देखभाल करने, स्वयं को स्वस्थ रखने की शक्ति देती है।

प्रकृति में बहुत-सारे कीटाण हैं। हम में से प्रत्येक के मुँह में ही इतने कीटाणु होते हैं जितने पृथ्वी पर मुनष्य नहीं हैं। कीटाणुओं के हमारे शरीर के साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं, गतिशील रिश्ते हैं। मनुष्य के शरीर के साथ मिल कर कीटाणु शरीर की प्रक्रिया का संचालन करते हैं।

हमारे शरीर के अन्दर के तथा शरीर के बाहर के कौन-कौन से कीटाणु किन-किन मात्राओं में और कैसी स्थितियों में हमारे लिये हानिकारक हैं यह कोई सीधी-सरल बात नहीं है।

● ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और विशेषकर मण्डी-मुद्रा से जुड़े ज्ञान-विज्ञान अपनी नाक तक देखने के दौर में भी “अन्य” को शत्रु के तौर पर देखते थे। ज्ञानियों-विज्ञानियों की भाषा ही युद्ध की भाषा होती थी-है। यह लोग हमारे शरीर के सिपाही-कर्नल-जनरल को “आक्रमणकारियों” से लड़ते देखते थे-हैं।

आरम्भ में टीकाकरण कीटाणुओं को मात्र शत्रु मान कर चलता था। फिर इसमें मिले मुनाफे के पुट ने स्थितियाँ बहुत-ही विनाशकारी बना दी हैं।

सरकारें टैक्सों की वसूली के जरिये बिखरी हुई धन-सम्पदा को एकत्र करती हैं। इस तरह बनते लूट के ढेर के लिये, इस पर कब्जे के लिये गिरोहों के बीच युद्ध होते रहे हैं। इधर टैक्सों के इन अरबों-खरबों-नील-पदम में हिस्सा-पत्ती के लिये नेता और दल चुनावों में करोड़ों खर्च भी करने लगे हैं। टीकाकरण का सरकारी कार्यक्रम नेताओं, अफसरों, विशेषज्ञों, कम्पनियों के लिये दुधारू गाय भी है — भारत सरकार पोलियो अभियान पर ही हर वर्ष 1200 करोड़ रुपये खर्च कर रही है।

और, यह युद्ध की भाषा ही है कि सरकारें आज वास्तव में कीटाणुओं को हथियारों में बदलने पर अरबों खर्च कर रही हैं। प्रयोगशालाओं में कीटाणुओं में परिवर्तन कर उन्हें एटम बमों जैसा बनाना आज हजारों वैज्ञानिकों की नौकरी है।

● टीकाकरण के लिये बहुत भारी दबाव है, जबरन ही कह सकते हैं। प्रश्न हम सब के सम्मुख मुँह बाये खड़ा है :

जन्म लेते ही बच्चे के टीके लगाना शिशु का स्वागत करना है या फिर अत्याचार का आरम्भ? नियमित अन्तराल पर शिशुओं के अनेक प्रकार के टीके लगाने, बून्द पिलाने पर विचार करने के लिये कुछ तथ्यों पर गौर करें।

— शिशुओं को लगाये जाते अधिकतर टीके बिना परीक्षण के लागू कर दिये गये हैं। ऐसे में पहला कार्य तो यह बनता है कि टीकाकरण की उपयोगिता को जाँचा जाये। जाँच के दो पहलू होते हैं : क्या यह उपयोगी है? इसके प्रयोग से कोई अन्य नुकसान तो नहीं हैं? हालैण्ड में, और

हाल ही में जर्मनी में किये प्रयोगों में पाया गया है कि टीके नहीं लगे बच्चों से टीके लगे बच्चे अधिक बीमारियों से ग्रस्त होते हैं।

— बन्दरों और भेड़ों में टीके तैयार करने वाली क्रूरता अपने आप में एक अति महत्वपूर्ण सवाल है परन्तु उस पर चर्चा यहाँ नहीं करेंगे। शिशुओं को लगाये जाते टीकों में पारा और अल्युमिनियम को ही यहाँ देखें। विषैलेपन में पारा एटम बम में प्रयोग होते यूरेनियम से ही कम है। शरीर में पारा पहुँचने पर यह मस्तिष्क की अनेक बीमारियों का कारण बन सकता है। अल्युमिनियम गुर्दो और जिगर के लिये बहुत हानिकारक है। शिशुओं को जो टीके लगाये जा रहे हैं उन में पारा और अल्युमिनियम की घातक मात्रायें होती हैं। यह तो शरीर की प्रतिरोध की क्षमता है कि बड़ी संँख्या में बच्चे बीमार नहीं हो रहे।

— भारत सरकार के अपने आँकड़ों के अनुसार भी एक चौथाई से ज्यादा शिशु कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे बच्चों का टीकाकरण भद्दा-क्रूर मजाक है … बच्चों को 25 बार पोलियो की बून्द पिलाने के बाद भी वे पोलियो से ग्रस्त हुये हैं।

— करोड़ों बच्चों को टीके लगाने के अरबों-खरबों के धन्धे के अभिशाप के अहसास के लिये कृषि में दवाओं के धन्धे को देखें। कीटनाशक और खरपतवार नष्ट करते रसायन दवा कम्पनियों के लिये भारी मुनाफे लिये हैं। परन्तु , प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ती और खेतों, फसलों, भूजल को विषैला बनाती यह दवायें गाँवों में भी कैन्सर की महामारी ला रही हैं।

शिशुओं को टीके लगाने से होती अत्याधिक हानियों के बारे में अधिक जानकारी के लिये कृपया श्री जगन्नाथ चटर्जी का आलेख : “50 Reasons to Protect Infants from Vaccines” देखें । एक मित्र ने यह हमें भेजा। सम्पर्क के लिये ई-मेल <jagchato1@yahoo.com>

शिशु के लिये माँ का दूध पर्याप्त है। छह महीने तक तो सिर्फ और सिर्फ माँ द्वारा दूध पिलाना एक अनिवार्यता बनता है। अमर होने और चिरयौवन की अपनी हवस से कृपया बच्चों को बख्शें।

   (मजदूर समाचार, मई 2009)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (15)

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।

इकतिसवाँ अंश जनवरी 2009 अंक से है। इसमें फैक्ट्री मजदूर से ड्राइवर बने एक मित्र के जीवन की झलक है।

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# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अकसर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

49 वर्षीय ड्राइवर : सुबह साढे पाँच बजे उठता हूँ। नहा-धो लेता हूँ साढे छह तक। बेटी 7 बजे पढाने जाती है। बेटा अहमदाबाद में पेशेवर पढ़ाई कर रहा है। पत्नी से बातें करता हूँ और साढे चार बजे से उठी वह सो जाती हैं तो कोई किताब पढता हूँ। भाई लोग दो अखबार मँगाते हैं पर मैं उन्हें उठा कर भी नहीं देखता। अखबार देखने को मन नहीं करता क्योंकि उनमें बहत बरी-बुरी बातें होती हैं।

8 बजे साहब की गाड़ी साफ करने जाता हूँ। लौट कर नाश्ता कर साढे नौ तक तैयार हो जाता हूँ और साहब के फोन का इन्तजार करता हूँ। साढे नौ के बाद इन्तजार वाला तनाव ही रहता है।

सप्ताह में 3 दिन साहब दिल्ली में कार्यालय में रहते हैं और 3 दिन बाहर दौरों पर। कार्यालय जाना होता है तब साढे दस तक चल देते हैं। वहाँ ड्राइवरों वाले कमरे में बैठता हूँ …

माता-पिता की सगाई बन्नो, फ्रन्टियर (पाकिस्तान) में हुई थी और विवाह यहाँ फरीदाबाद आ कर। पिताजी साझेदारी में आरा मशीन और वर्कशॉप चलाते थे — बहुत शराब पीते थे और माँ दुखी रहती थी। पर मुझे कोई कमी नहीं थी। घर में नीम व अमरूद के पेड़ और अंगूर की बेल थी। दादी बकरी और मुर्गियाँ पालती थी। खेलने के लिये जगह ही जगह थी …

1974 में पिताजी का काम-धन्धा ठप्प हो गया। भाईयों में मैं बड़ा था — साढे सोलह वर्ष की आयु में मैं एक फैक्ट्री में लगा।

कार्यालय में रहते हैं तब साहब सामान्य तौर पर साँय 7 बजे फरीदाबाद लौट आते हैं। साहब वायुयान से दूर के दौरे पर जाते हैं तब सुबह पाँच-साढे पाँच बजे उन्हें हवाई अड्डे छोड़ने जाता हूँ और फिर उनके परिवार के पहले से तय कार्यक्रम निपटाता हूँ।

सड़क मार्ग से दौरे पर जाते हैं तब मुझे 12 घण्टे गाड़ी चलानी पड़ती है और उसी दिन लौटते हैं तब तो 15 घण्टे। गाड़ी चलाता हूँ तब दिमाग ड्राइविंग में होता है — सोचूँगा तो गड़बड़ हो जायेगी। दूसरों से बचने और बचाने में ही पूरा ध्यान रहता है। 2001 में फरीदाबाद से चण्डीगढ 4 घण्टे में पहुँच जाते थे। आज उससे अच्छी व बड़ी गाड़ी है, सड़कें चौड़ी व बढिया हैं, कई फ्लाई ओवर बन चुके हैं फिर भी 6 घण्टे लग जाते हैं क्योंकि यातायात बहुत ज्यादा हो गया है और बार-बार ब्रेक लगाने पड़ते हैं। राजमार्गों पर 120-150 किलो मीटर प्रति घण्टा की गति से चलते हैं — इस रफ्तार से नहीं चलायेंगे तो पीछे वाले हॉर्न देने लगते हैं, साइड करो या तेज चलाओ। कई एक्सीडेन्ट देख चुका हूँ। एक बार झटका लगता है। फिर थोड़ी देर बाद वही रफ्तार। साहब को जल्दी रहती है — मीटिंग फिक्स होती है।

बाहर साहब पाँच सितारा होटल में ठहरते हैं। एक रात के लिये एक कमरा 8 से 11 हजार रुपये में और यह नहीं मिलता तो 14 हजार का भी लेते हैं। मैं 150-200 रुपये वाला कमरा ढूँढता हूँ। लेकिन बड़ी दिक्कत तो तब होती है जब साहब चर्चाओं में होते हैं और ड्राइवर बाहर गाड़ी में इन्तजार करते हैं। साहब लोग बड़े चालाक होते हैं — कह देते हैं कि कीमती चीजें रखी हैं ताकि ड्राइवर गाड़ी छोड़ कर न जायें। इन बातों पर ड्राइवर आपस में हँस लेते हैं पर नौकरी करने की मजबूरी है। चित्त भी साहब की और पट भी साहब की। कभी-कभी इन्तजार में तीन-चार घण्टे अकेले गाड़ी में बैठना पड़ता है तब मन-मस्तिष्क में कई बातें आती हैं …

1977 में मैं गेडोर हैण्ड टूल्स में स्थाई मजदूर बना और एक धार्मिक संस्था से जुड़ा। ड्युटी के बाद साँय 5 बजे घर से साइकिल पर साथियों के साथ निकल जाता और रात 10-11 बजे लौटता। गुरु ग्रन्थ पढ़ते-पढाते और धार्मिक चर्चायें करते। अमृतसर से रोपड़ हो कर लौट रहा था जब 1984 के सिख-विरोधी दंँगे आरम्भ हुये। पीपली बस अड्डे से वापस रोपड़ लौट गया और 17 दिन वहीं रहा। नौकरी के लिये पटना जा रहे छोटे भाई पर ट्रेन में हमला हुआ — सत्तर टाँके आये। यहाँ फरीदाबाद में पिताजी के ढाबे को आग लगा दी गई। दिल्ली के शाहदरा में तीन खास दोस्त मार दिये गये। दिल्ली के ही झिलमिल क्षेत्र में एक रिश्तेदार को जिन्दा जला दिया गया। फरीदाबाद से दिल्ली जा रहे एक मित्र के पिता को तुगलकाबाद स्टेशन पर जिन्दा जला दिया। मुम्बई से आ रहे 10 मित्रों में से दो को मथुरा स्टेशन पर मार दिया गया। दिल्ली गये एक रिश्तेदार को पकड़ कर केश काट दिये। फैक्ट्री में कुछ लोग कहते कि इस काली पगड़ी वाले को भट्ठी में झोंक दो। कट्टरता पहले से थी, कत्लेआम ने सरकार और हिन्दुओं के खिलाफ नफरत बढाने का काम किया। मैं धार्मिक संस्था में और सक्रिय हो गया। 1987 में मेरा विवाह हआ। पत्नी और फिर बच्चों को भी मैंने सक्रिय किया। लेकिन 10 वर्ष पहले परिवर्तन आने आरम्भ हुये … अब किसी से बदला लेने की बात मन में नहीं आती। किससे बदला लेंगे? बात पूरी व्यवस्था की है। भाँवें लाम्बे केश कर, भाँवें सिर मुंँडाय — यह महत्वपूर्ण नहीं है।

जहाँ नौकरी करता था उस फैक्ट्री में बहुत-कुछ होता रहा पर मैं उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देता था। कम्पनी ने 1996 में तनखा देनी बन्द कर दी तब मैंने फैक्ट्री जाना छोड़ दिया। दो पैसे के लिये पत्नी के सहयोग से मैंने कई काम-धन्धों को आजमाया। दो जगह फ्रूट चाट की दुकान लगाई। घर पर मट्ठियाँ बना कर चाय की दुकानों पर सप्लाई की। किराना की दुकान की। रिक्शा पर ले जा कर सैक्टरों में चावल बेचे। घर पर ड्रिल मशीन लगा कर जॉब वर्क किया — 40 रुपये का काम हो जाता तब पत्नी और मैं नाश्ता करते … बच्चे छोटे थे और हम ऐसे में संस्था को समय नहीं दे पा रहे थे। मुझे 1999 में संस्था में काम करने को कहा गया — 1000 रुपये संस्था की तरफ से और 1000 रुपये एक पदाधिकारी की वर्कशॉप सम्भालने के लिये। वहीं ड्राइवरी सीख मैं संस्था के स्कूल की गाड़ी चलाने लगा। ड्राइवरी के संग-संग मैं संस्था के लिये सहायता राशि एकत्र करता। मैं सोचता था कि मैं सेवा भी करता हूँ पर हर कोई मुझे नौकर समझने लगा। सब काम मुझे देने लगे — 24 घण्टे की नौकरी। मैं अपने परिवार को भी समय नहीं दे पा रहा था। इसलिये 2007 में मैं एक कम्पनी के साहब का ड्राइवर लगा।

*मैं मजदूर हूँ। यह बात समझ में आई। धार्मिक संस्था से दूरी बढने लगी। अब भी बार-बार बुलाते हैं पर मैं दूरी बनाये हुँ। अब पिंजरे में नहीं रहूँगा। अब मैंने आकाश देख लिया है …

साहब दिल्ली में कार्यालय में होते हैं तो रात साढे सात घर पहुँच जाता हूँ। बेटी के साथ, पत्नी के साथ बाजार जाता हूँ।

दोरे से लौटता हूँ तब थका होता हूँ। आराम करता हूँ। कहीं नहीं जाता। रिश्तेदारी में जाना पड़ता है। यारी-दोस्ती लम्बी-चौड़ी नहीं है पर दुख-सुख में जाना पड़ता है। सिर्फ पेशेवर रह जाना गलत है क्योंकि इससे आपस में प्यार, हँसी, मस्ती खत्म हो जाती हैं। जो पेशेवर हो गये वो वहीं हँसेंगे जहाँ पैसे मिलेंगे।

रात 9 बजे भोजन के बाद थोड़ी देर टी.वी. और फिर रात 12 बजे सोना। रविवार को अन्य दिनों से पहले उठ कर जल्दी तैयार हो जाता हूँ। नाश्ता स्वयं बनाता हूँ। भोजन के लिये सब्जी खुद बनाता हूँ। बनाना और खाना-खिलाना मुझे पसन्द है।

   (मजदूर समाचार, जनवरी 2009)

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विरोध के स्वर

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चालीसवाँ अंश जनवरी 2009 अंक से है।

2008 की “विश्व मन्दी” के सन्दर्भ में एक फैक्ट्री रिपोर्ट यहाँ प्रस्तुत है।

बोनी पोलीमर्स मजदूर : “प्लॉट 37 पी सैक्टर-6 स्थित फैक्ट्री में 365 में 360 दिन काम होता था। मुख्य विभाग, मोल्डिंग में 12-12 घण्टे की दो शिफ्ट और अन्य विभागों में 12 घण्टे की एक शिफ्ट जिसे खींच कर 36 घण्टे कर देते। महीने में 150-200 घण्टे ओवर टाइम सामान्य और इससे अधिक अजूबा नहीं। ओवर टाइम के पैसे सिंगल रेट से भी कम, मात्र 12 रुपये 13 पैसे प्रति घण्टा। फैक्ट्री में हीरो होण्डा, यामाहा, मारुति सुजुकी, जे सी बी, टाटा मोटर, डेल्फी, स्वराज माजदा, मुंजाल शोवा तथा इटली निर्यात के लिये रबड़ के पुर्जे बनते हैं। फैक्ट्री में 4 स्थाई मजदूर, 100 कैजुअल वरकर, ठेकेदारों के जरिये रखे 400 मजदूर तथा 125 स्टाफ के लोग काम करते थे। उत्पादन के लिये बहुत ज्यादा दबाव — भोजन अवकाश अकसर देरी से। फैक्ट्री में जगह-जगह कैमरे। मोल्डिंग में 150-200 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान और चार मशीनों पर मात्र एक पँखा। पाँच सौ मजदूरों के लिये 5 लैट्रीन। पीने का पानी खारा। खाँसी सामान्य, फोस्फेटिंग-सैण्ड ब्लास्टिंग तो बीमारियों के घर। हाथ का जलना व कुचला जाना, उँगली कटना सामान्य और ऐसे में आम बात है मजदूर से माफीनामा लिखवाना। कागजों में फैक्ट्री दुर्घटना-मुक्त … बिजली के पैनल में आग लगी तब मैनेजिंग डायरेक्टर राज भाटिया ने फैक्ट्री में हवन करवाया था। लगातार काम करते कैजुअल वरकरों का कागजों में ब्रेक दिखा कर हर 6 महीने पर फण्ड राशि निकालने का फार्म भरना। दो ठेकेदारों के जरिये रखे 50 मजदूरों की तनखा 2500-3000 रुपये [हरियाणा सरकार द्वारा तब अकुशल श्रमिक के लिये निर्धारित न्यूनतम वेतन 3665 रुपये], ई.एस.आई. नहीं, पी.एफ. नहीं। गालियाँ …

“ऐसी बोनी पोलीमर्स ने नवम्बर 2008 के आरम्भ से मजदूर निकालने शुरू किये। रोज 2-3 को निकाला। फिर सप्ताह में दो दिन, सोम-मंगल को फैक्ट्री बन्द करने लगे। डेढ सौ से ज्यादा पुरुष मजदूरों को निकालने के बाद मैनेजमेन्ट ने महिला वरकरों पर हाथ डाला। दो को 17 दिसम्बर को निकाला और 4 को कहा कि रविवार तुम्हारी ड्युटी का अन्तिम दिन है। पर फिर भी सोम-मंगल की छुट्टी के बाद बुधवार, 24 दिसम्बर को एक महिला मजदूर ड्युटी के लिये फैक्ट्री पहुँची। अन्दर नहीं जाने दिया। भाई पहुँचा तो एक मैनेजर बोला कि ‘मन्दी है, काम नहीं है, नहीं रख सकते, काम आयेगा तो बुला लेंगे।’ ‘लिख कर दीजिये कि निकाल नहीं रहे, काम आने पर बुला लेंगे’ की कहने पर लिख कर देने से इनकार। भाई बच्चों को ले आया और सब फैक्ट्री के मुख्य द्वार पर धरने पर बैठ गये। मैनेजमेन्ट बौखला गई। भाई को धक्के दे कर अलग कर दिया पर महिला मजदूर बच्चों समेत धरने पर बैठी रही। मैनेजर : ‘तुम्हारे बाप की फैक्ट्री है जो जबरन काम करोगी!’ महिला मजदूर : ‘हाँ, मेरी फैक्ट्री है! हमारे खून-पसीने से फैक्ट्री बनी है!!’ भाई फोटो लेने लगा तो मैनेजमेन्ट के लोग मारने दौड़े और कैमरा छीनने की कोशिश की। भोजन अवकाश में मजदूर बाहर निकले। नारे लगे। मजदूर एकत्र हो गये। मैनेजमेन्ट वापस फैक्ट्री में। कम्पनी ने पुलिस बुला ली। ‘हमारे इलाके में हँगामा नहीं होने देंगे’ कह कर पुलिसवाले महिला मजदूर और उनके भाई को बातचीत के लिये फैक्ट्री में ले गये। मैनेजमेन्ट तब गाड़ी में श्रम विभाग ले गई। उप श्रमायुक्त और मैनेजर की मित्रता से कम्पनी की बात नहीं बनी। वापस फैक्ट्री — श्रम अधिकारी फैक्ट्री पहुंँचा और महिला मजदूर से एक महीने की अतिरिक्त तनखा ले कर मामला रफादफा करने को कहा। महिला मजदूर इनकार कर घर लौटी। अगले रोज, 25 दिसम्बर को महिला मजदूर ने अपनी बात गते पर लिखी और अपने बच्चों, महिला सहयोगी व पुरुष सहयोगियों के साथ बोनी पोलीमर्स के मुख्य द्वार पर जा कर धरने पर बैठ गई। खूब चमक-दमक वाली फैक्ट्री की मैनेजमेन्ट बहुत ज्यादा बौखला गई। पुरुष सहयोगियों को खदेड़ा, बच्चों को धकेला पर महिलायें डटी रही। पल्लियाँ लगा कर उन्हें ढकने के प्रयास हुये। गालियाँ और जेल की धमकियाँ। कम्पनी की दाल नहीं गली तो फिर पुलिस बुला ली। फिर श्रम -विभाग। ‘कम्पनी की नहीं बल्कि ठेकेदार की मजदूर है’ की बातें। अन्ततः कम्पनी द्वारा 11 हजार रुपये अतिरिक्त देने पर महिला मजदूर के सहयोगियों ने सहमति दे दी। कम्पनी ने 29 दिसम्बर को श्रम विभाग में महिला मजदूर को 6 हजार रुपये नकद और 5 हजार का चेक दिया। श्रम विभागऔर कम्पनी ने कागजी खानापूर्ति के लिये एक बिचौलिया खड़ा किया।”

(मजदूर समाचार, जनवरी 2009)

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आज उत्पादन का एक लेखा-जोखा

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। उनतालिसवाँ अंश फरवरी 2009 अंक से है।

2008 में संकट-मन्दी के सन्दर्भ में मजदूर समाचार के अप्रैल 1998 अंक की सामग्री को फरवरी 2009 में फिर छापा था।

## (इधर संकट-मन्दी की चर्चा ने कुछ प्रश्नों को फिर से उठाना आवश्यक बना दिया है। इस सन्दर्भ में हम अप्रैल 1998 के अंक से “हकीकत का खाका” फिर छाप रहे हैं। किन से बचना चाहिये और क्या-क्या कर सकते हैं पर विचार में सहायता के लिये यह सामग्री फिर से छापी जा रही है।)

फैक्ट्री किसकी?

हर क्षेत्र में आज पैसों के जुगाड़ के लिये कर्ज की भूमिका बढ़ती जा रही है। कम्पनियों में लगे पैसों में तो 80 से 90 प्रतिशत तक पैसे कर्ज के होते हैं। जमीन, बिल्डिंग, मशीनरी, कच्चा व तैयार माल गिरवी रहते हैं। बैंक, बीमा, पेन्शन फन्ड, म्युचुअल फन्ड तथा अन्य वित्तीय संस्थायें कर्ज के मुख्य स्रोत हैं।

कम्पनी में लगे दस-बीस परसैन्ट पैसों का जुगाड़ शेयरों के जरिये होता है। शेयर होल्डरों में भी प्रमुख हैं बैंक, बीमा, म्युचुअल फन्ड जो कि पचास-साठ प्रतिशत तक के शेयरों पर काबिज होते हैं। बाकी के शेयर हजारों फुटकर शेयर होल्डरों के अलावा कुछ कम्पनियों के हाथों में होते हैं।

कम्पनी की मैनेजमेन्ट

कम्पनी के शीर्ष पर है बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स। इस टॉप मैनेजमेन्ट में दस-बीस डायरेक्टर होते हैं। कर्ज देने वाली संस्थाओं के नुमाइन्दे, शेयर होल्डर संस्थाओं के नुमाइन्दे, कम्पनियों के नुमाइन्दे, बड़े-बड़े रिटायर्ड सिविल-मिलिट्री-कम्पनी अधिकारी, नामी-गिरामी वकील तथा जानी-मानी हस्तियाँ बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में होते हैं। मैनेजिंग डायरेक्टर धुरी होता-होती है बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की। कम्पनी में मैनेजिंग डायरेक्टर के कुछ पैसे लगे भी होते हैं तो वह कुल पैसों के एक प्रतिशत से भी कम होते हैं।

बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स वाली टॉप मैनेजमेन्ट और जनरल मैनेजर वाली फैक्ट्री मैनेजमेन्ट के बीच की कड़ी है मैनेजिंग डायरेक्टर।

इस प्रकार बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स- मैनेजिंग डायरेक्टर-जनरल मैनेजर- मैनेजर-सुपरवाइजर कम्पनी की मैनेजमेन्ट का सीढीनुमा ढाँचा है।

उत्पादन में हिस्सा-पत्ती

● एक नम्बर में

टैक्सों के रूप में सरकारें उत्पादन का आधे से ज्यादा हिस्सा ले लेती हैं। मुख्य टैक्स हैं : एक्साइज ड्युटी, कस्टम्स ड्युटी, सेल्स टैक्स, कॉरपोरेट टैक्स। और फिर, पानी पर टैक्स, बिजली पर टैक्स, टेलीफोन टैक्स, सम्पत्ति कर, चुँगी कर, रोड़ टैक्स आदि-आदि-आदि कदम-दर-कदम टैक्स ही टैक्स हैं।

कम्पनी द्वारा लिये कर्ज पर ब्याज के रूप में उत्पादन का दस-पन्द्रह प्रतिशत हिस्सा बैठता है।

उत्पादन का चार-पाँच परसैन्ट शेयर होल्डरों को डिविडेन्ड के रूप में जाता है।

उत्पादन का एक उल्लेखनीय हिस्सा (दस प्रतिशत के करीब) उत्पादन की बिक्री के लिये एडवर्टाइजमेन्ट, मार्केटिंग और ट्रेडर मार्जिन में खप जाता है।

मैनेजमेन्ट के ताम-झाम तथा मैनेजमेन्ट के लोगों के वेतन-भत्तों पर उत्पादन का दस परसैन्ट हिस्सा खर्च होता है।

कम्पनी को बढाने के लिये उत्पादन का दो-तीन प्रतिशत हिस्सा प्रयुक्त होता है।

● दो नम्बर में

बड़े सौदों में मोटी कट-कमीशन बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स, खास करके मैनेजिंग डायरेक्टर, के खातों में जाती हैं।

जनरल मैनेजर के स्तर पर लाखों रुपयों के कट-कमीशन वाले सौदे होते हैं।

पर्चेज-मार्केटिंग-परसनल-इन्सपैक्शन आदि डिपार्टमेन्टों के अधिकारियों के कट-कमीशन हजारों रुपयों में होते हैं।

उत्पादन का एक हिस्सा नियम-कानूनों के जंजाल में से राह देने के लिये

— प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, विभाग अनुसार मंत्री, विभाग व पद अनुसार बड़े सरकारी अफसरों को देना;

— स्थानीय स्तर पर डी.सी., एस.पी., डी.एल.सी., एक्सीएन, क्षेत्रीय प्रोविडेन्ट फन्ड कमिश्नर, रीजनल ई.एस.आई. डायरेक्टर, लेबर इन्सपैक्टर, फैक्ट्री इन्सपैक्टर, थानेदार, बिजली बोर्ड जे ई, पी एफ इन्सपैक्टर, ई.एस.आई. इन्सपैक्टर को देना। …

उत्पादन का पन्द्रह प्रतिशत हिस्सा दो नम्बर में जाता है, कट-कमीशन-रिश्वत में खपता है।

● मजदूरों द्वारा किये जाते उत्पादन में से दो-तीन परसैन्ट ही मजदूरों के हाथ लगता है। और, उस पर भी यह-वह टैक्स की अनन्त छुरी चलती रहती है।

कम्पनियों की बैलेन्स शीटों पर गौर करने से उत्पादन की उपरोक्त हिस्सा-पत्ती नजर आती है।अलग-अलग कम्पनियों में मात्र उन्नीस-बीस वाला फर्क है।

 उत्पादन में भूमिकायें

मैनेजमेन्ट का रोल

जहाँ तक हो सके, मैनेजमेन्ट की कोशिश होती है कि कम्पनी चले ताकि वेतन-भत्ते, तामझाम और कट-कमीशन का सिलसिला चलता रहे। इसके लिये आवश्यक है कि टैक्स, ब्याज और कट-कमीशन में उत्पादन के प्रमुख हिस्से की खपत के उपरान्त कम्पनी के बही-खाते मुनाफा दिखायें। यह कम से कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन के चक्कर को अनिवार्य बना देता है। इसका मतलब है मजदूरों को कम से कम वेतन देना और उनसे अधिक से अधिक काम लेना मैनेजमेन्टों का कार्य है। …

लीडरी की भूमिका

मजदूरों की सतत कोशिश होती है कि कम से कम बोझा ढोना पड़े और अधिक से अधिक वेतन व अन्य सुविधायें हों। यह हकीकत मजदूरों और मैनेजमेन्टों को शत्रुतापूर्ण खेमों में बाँटती है। मजदूरों और मैनेजमेन्टों के बीच लगातार टकराव होना स्वाभाविक व अनिवार्य है। अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये मैनेजमेन्टें विभिषणों की जमात पालती हैं जिनका आधार-स्तम्भ है लीडरी।

# … (इधर इन दस वर्षों में फैक्ट्रियों में स्थाई मजदूरों की संँख्या सिकुड़ती आई है और अस्थाई व ठेकेदारों के जरिये रखे जाते मजदूरों की सँख्या बढती आई है। इससे फैक्ट्रियों के अन्दर लीडरी का महत्व घटता गया है। और, मजदूरों का बढता असन्तोष इस-उस फैक्ट्री की चारदीवारी से होते हुये समाज में व्यापक असन्तोष को बढा रहा है। फैक्ट्रियों के बाहर तीव्र होता व बढता-फैलता असन्तोष अनेक प्रकार की लीडरी को उभार रहा है। जब-तब कुछ प्रकार की लीडरी का दमन लीडरी की भूमिका को नहीं बदलता। लीडरी का काम ही है मजदूरों-मेहनतकशों की पहलों को रोकना-डुबोना।)

सरकार का काम

उत्पादन का आधे से ज्यादा हिस्सा टैक्सों के रूप में सरकारें लेती हैं। इसलिये हर जगह की सरकारों का काम है उत्पादन को जारी रखने में आती रुकावटों को दूर करना। इसके लिये हर सरकार लाखों की फौज, गली-गली में थाने, चप्पे-चप्पे पर खुफिया एजेन्सियाँ, नुक्कड़-नुक्कड़ सरकारी अमला तैनात रखती है। मजदूरों का रोज का अनुभव है कि

— पुलिस एवं अन्य हथियारबन्द दस्ते मैनेजमेन्टों तथा लीडरों की सुरक्षा करते हैं। साथ ही साथ यह मजदूरों में डर व दहशत पैदा करते हैं।

— प्रशासन एवं न्यायपालिका मैनेजमेन्टों को सुविधायें तथा राहत प्रदान करते हैं। साथ ही साथ यह आश्वासनों एवं तारीखों में उलझा कर मजदूरों को भटकाने का काम करते हैं।

— सरकारी तन्त्र मैनेजमेन्टों द्वारा पाली जाती लीडरी को मजबूत करने के लिये इसके भाव बढाता है एवं इसे मंच प्रदान करता है।

गौर से हम देखें तो सरकारों के हर कार्य की जड़ में मिलेगी उनकी उत्पादन जारी रखवाने तथा कम से कम लागत पर उत्पादन बढवाने वाली भूमिका।

ऐसे में …

मैनेजमेन्टों, लीडरी और सरकारों के हित एक हैं। यह त्रिमूर्ति मजदूरों के खिलाफ है। इसलिये इनमें से किसी पर भी आस लगाना, भरोसा करना नहीं बनता। तारीखों और आश्वासनों के चक्करों में पड़ कर भटकना नहीं बनता।

सरकारों के दमनतन्त्र तभी प्रभावी हो सकते हैं जब इन्हें टारगेट मिलें। (आमतौर पर) रेल व सड़क जाम, जलूस, पब्लिक मीटिंग तथा हिंसा के कार्य पुलिस, फौज व खुफिया तन्त्र को टारगेट प्रदान करते हैं। सरकारों के दमनतन्त्रों की विशालता व भयंकरता को देखते हुये टारगेट प्रदान करने वाले कदम उठाना नहीं बनता।

मैनेजमेन्ट, लीडरी, सरकार की विशाल व खुंँखार त्रिमूर्ति के खिलाफ भड़क कर कोई कदम उठाना, बहादुरी दिखाना, आर-पार की लड़ाई वाली मोर्चेबन्दी करना नहीं बनता।

… तो, फिर

हकीकत से हम सब का वास्ता पड़ता है। इसलिये आईये देखें कि हम खुद कदम उठाते हैं तब क्या करते हैं।

हम सब के उठ-बैठ के अपने-अपने दायरे होते हैं जहाँ “गैरबराबरी नहीं” वाली बात होती है। किसी भी समस्या से जब हमारा वास्ता पड़ता है तब हम साथ उठ-बैठ करने वाले पाँच-सात लोग सोच-विचार व नाप-तोल कर कदम उठाते हैं। हमारे यह कदम आसान, कम खतरे, कम खर्चे और काफी असर वाले होते हैं। पाँच-पाँच, सात-सात की हमारी इन टोलियों का इतना भारी असर पड़ता है कि मैनेजमेन्टों तथा सरकारों को हमारी टोलियों से निपटने के लिये लीडरी को पालना-पोसना पड़ता है।

हमारी दिक्कत यह है कि अपनी-अपनी टोलियों में ही हम अपनी बात कह पाते हैं, कदम तय कर पाते हैं तथा मिल कर कदम उठाते हैं। कोई मसला जो हमारी 50 या सौ की भी सँख्या को लपेटे होता है उसके बारे में हमें समझ में नहीं आता कि क्या करें। सँख्या हजार, लाख, करोड़ के दायरों में होती है तो मामला हमें बिलकुल ही अपने काबू से बाहर लगता है। दरअसल, आवश्यकता मात्र इतनी है कि हम अपनी टोलियों के बीच तालमेल के तरीके ढूँढें व रचें।

(मजदूर समाचार, फरवरी 2009)

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गोरखपुर और गुड़गाँव : कुछ प्रश्न

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। अड़तिसवाँ अंश नवम्बर 2009 अंक से है।

■ प्रश्नों को स्पष्ट करने के प्रयास में यहाँ कारखानों की, फैक्ट्रियों की ही बात करेंगे।

— फरीदाबाद, ओखला (दिल्ली), गुड़गाँव में फैक्ट्रियों में काम करते 70-75 प्रतिशत मजदूर “अदृश्य” हैं। कारखानों में काम कर रहे तीन चौथाई मजदूर कम्पनियों तथा सरकार के दस्तावेजों के अनुसार फैक्ट्रियों में होते ही नहीं। “ई.एस.आई. नहीं” का अर्थ यह है।

— अस्सी-पिचासी प्रतिशत फैक्ट्री मजदूरों को दिल्ली व हरियाणा सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन नहीं दिये जाते। फैक्ट्रियों में मजदूरों द्वारा 12 घण्टे प्रतिदिन कार्य करना सामान्य है। और, 98-99% “अतिरिक्त समय” उर्फ ओवर टाइम दिखाया नहीं जाता तथा भुगतान दुगुनी दर की बजाय सिंगल रेट से किया जाता है।

भारत सरकार के नियन्त्रण वाले अन्य क्षेत्रों में स्थिति उपरोक्त से भिन्न नहीं है।

यहाँ 15 अगस्त 1947 को फैक्ट्री मजदूरों के निवास का प्रबन्ध करने से सरकार स्वतन्त्र हुई।

——

रीको ऑटो इन्डस्ट्रीज, 38 किलोमीटर दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग, गुड़गाँव स्थित फैक्ट्री के एक स्थाई मजदूर से बातचीत के आधार पर : बड़ी फैक्ट्री है। लोहे तथा अल्युमिनियम की ढलाई के बाद मशीनिंग द्वारा वाहनों के अनेक पुर्जे बनते हैं। लुधियाना, धारूहेड़ा, मानेसर में भी कम्पनी की फैक्ट्रियाँ हैं। रीको ऑटो, कॉन्टिनेन्टल रीको, मैग्ना रीको, एफ सी सी रीको … में हीरो होण्डा, मारुति सुजुकी, होण्डा, फोर्ड, जनरल मोटर आदि का काम होता है। खड़े-खड़े काम और 8 घण्टे ड्युटी के बाद जबरन रोक लेते हैं। साप्ताहिक छुट्टी के दिन भी ए-शिफ्ट वालों की जबरन ड्युटी। ओवर टाइम का भुगतान सिंगल रेट से। निर्धारित उत्पादन बढाते रहते हैं और पूरा नहीं करने पर रोज चिकचिक से दुखी करते हैं। तनखा 5500 बताते हैं तो देते 4200 हैं। बेसिक बहुत कम और भाँति-भाँति के भत्ते। एल टी ए तथा बोनस के पैसे हर महीने तनखा से काट कर वर्ष में देते हैं। कैन्टीन में अधिक पैसों में घटिया भोजन। यातायात का प्रबन्ध नहीं। चक्कर काट कर थक जाते हैं, स्थाई मजदूरों में भी बहुतों को ई.एस.आई. कार्ड नहीं देते। ऐसे में स्थाई मजदूर नौकरी छोड़ते रहते हैं, नये स्थाई होते रहते हैं — आई टी आई और बी.एस सी./एम.एस सी. को ट्रेनी रखते हैं। स्थाई मजदूर दो-ढाई हजार। तीन ठेकेदारों के जरिये रखे मजदूर भी इतने होंगे, उनके बारे में पता नहीं … परेशानियों से पार पाने के लिये स्थाई मजदूरों ने एक-एक हजार रुपये दिये, बीस लाख रुपये एकत्र किये और एक यूनियन से जुड़े। यूनियन का बड़ा नेता मुख्य मन्त्री-प्रधान मन्त्री से बात करता है। अगस्त से हलचलें बढी। कम्पनी ने 21 सितम्बर को 16 स्थाई मजदूर निलम्बित किये तो कोई स्थाई मजदूर अन्दर नहीं गया … ठेकेदारों के जरिये रखे मजदूर भी बाहर रहे। जोश। भोजन पकाना, फैक्ट्री गेटों पर बैठना, भाषण देने आते नेता। कम्पनी द्वारा नई भर्ती, उत्पादन जारी, माल का आना-जाना जारी। धारा 144, गेटों से 50 मीटर दूर, पुलिस टैन्ट-दरी ले गई। गिरफ्तारी और जमानत। सनबीम और रीको फैक्ट्रियों में यूनियन के समर्थन में कई यूनियनों द्वारा मिल कर 25 सितम्बर को बड़ी सभा। कम्पनी की अन्य फैक्ट्रियों में सामान्य उत्पादन। बीतते समय और दिवाली के कारण फैक्ट्री के बाहर कम मजदूर — 18 अक्टूबर को कम्पनी ने हमला करवाया जिसमें एक मजदूर की मृत्यु हो गई और कई घायल हुये। यूनियनों द्वारा 20 अक्टूबर को 60 फैक्ट्रियों में हड़ताल, 80-90 हजार मजदूरों ने काम नहीं किया। तीन रोज फैक्ट्री में काम बन्द रहा, एक साहब की पिटाई। नेताओं ने राष्ट्रीय राजमार्ग बन्द नहीं करने दिया। कम्पनी ने मृत मजदूर के परिवार को 5-10 लाख रुपये दिये। हत्या के मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं। मुख्य मन्त्री ने श्रम विभाग के जरिये मैनेजमेन्ट और यूनियन के बीच समझौता वार्तायें 22 अक्टूबर से आरम्भ करवाई। कम्पनी द्वारा 23 अक्टूबर से नये लोगों के जरिये फैक्ट्री में पुनः उत्पादन आरम्भ। वार्तायें जारी हैं। नेता सबकुछ अपने तक ही रख रहे हैं, इस बार मजदूरों को कुछ बता नहीं रहे क्योंकि …1998 में यूनियन बनाने की कोशिश हुई थी तब नेता बिक गया था। माँग-पत्र में क्या है, शर्तें क्या हैं हमें पता नहीं … फैक्ट्री में उत्पादन जारी है। कम्पनी पर दबाव कम होता जा रहा है। वार्तायें जारी हैं। ठेकेदारों के जरिये रखे इधर-उधर हो गये, हम स्थाई मजदूर कहाँ जायें? हताशा, भरे बैठे हैं, भड़के हुये हैं, इस हफ्ते कुछ न कुछ … यूनियन 2 नवम्बर से क्रमिक भूख हड़ताल करवा रही है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र में 15 जून को अंकुर उद्योग के 600 मजदूरों ने सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन आदि के लिए काम बन्द किया। इसीलिये एक अन्य फैक्ट्री वी एन डायर्स के 300 मजदूरों ने 23 जून को तथा वी एन कपड़ा मिल के 300 मजदूरों ने 28 जून को काम बन्द किया। समझौते के बाद 13 जुलाई को इन तीन कारखानों में काम आरम्भ हुआ। क्षेत्र में संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा बना। मॉडर्न लेमिनेटर्स और मॉडर्न पैकेजिंग के एक हजार मजदूरों ने 3 अगस्त को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन, ई.एस.आई. आदि की माँग श्रम विभाग में की। दस दौर की वार्तायें — 21अगस्त की वार्ता के बाद रात को कम्पनी ने मजदूरों के लिये गेट बन्द कर दिये। मजदूर गेट पर। रात 10 बजे शिफ्ट छूटने पर अन्य फैक्ट्रियों के मजदूर भी वहाँ एकत्र होते। कचहरी परिसर में 11 सितम्बर को सैंकड़ों मजदूरों ने डेरा डाल कर भोजन बनाना आरम्भ किया। प्रशासन में हलचल। लिखित समझौते का आश्वासन। श्रम उपायुक्त के यहाँ मैनेजमेन्ट द्वारा न्यूनतम वेतन देने से साफ इनकार और “गैरकानूनी हड़ताल” बताती आई कम्पनी ने 13 सितम्बर को तालाबन्दी की सूचना टाँगी। अनेक फैक्ट्रियों के मजदूरों द्वारा 14 सितम्बर को प्रदर्शन कर कानून की किताबें जलाना। दस दिन का आश्वासन। निर्धारित दिन, 23 सितम्बर को वार्ता के लिये प्रशासन तथा कम्पनी उपस्थित नहीं हुये … सैंकड़ों मजदूर पाँच मील पैदल चल कर जिलाधिकारी कार्यालय पर भोजन बनाने की तैयारी करने लगे … 24 सितम्बर को समझौता। लेकिन, 25 सितम्बर को ठेकेदारों के जरिये रखे मजदूरों तथा अन्य 18 अधिक सक्रिय मजदूरों को काम पर लेने से इनकार। सब मजदूर गेट रोक कर बैठ गये। पुलिस, सशस्त्र पुलिस। समझौता। फिर पालन नहीं। जिलाधिकारी कार्यालय पर 14 अक्टूबर को अनशन — जबरन हटाया। बातचीत के लिये बुला कर प्रशासन ने 15 अक्टूबर को आन्दोलन में अत्याधिक सक्रिय चार लोगों की पिटाई कर जेल में डाल दिया। चौतरफा विरोध … 21 अक्टूबर से गोरखपुर में नागरिक सत्याग्रह की घोषणा। पाँच फैक्ट्रियों में मजदूरों द्वारा 20 अक्टूबर को हड़ताल, अगले दिन दो और फैक्ट्रियों के मजदूर हड़ताल में शामिल। प्रशासन ने 4 गिरफ्तार लोगों को 21 अक्टूबर की रात को रिहा कर दिया। अन्य कोई राह न देख कर मॉडर्न लेमिनेटर्स और मॉडर्न पैकेजिंग के मजदूरों ने सामुहिक इस्तीफे दे दिये हैं और यह दोनों कारखाने नवम्बर-आरम्भ तक बन्द पड़े हैं। विकल्पहीनता …

[जानकारियाँ सत्यम, कात्यायनी, तथा ‘बिगुल’ मासिक और सयुंक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा, बरगदवा, गोरखपुर से प्राप्त ।]

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● शिल्प-ट्रेड की, शिल्प संघ-ट्रेड यूनियन की संकीर्णता की जानकारी डेढ सौ वर्ष से है। मजदूरों के लिये शिल्प संघों-ट्रेड यूनियनों का नुकसानदायक-खतरनाक बनना आज से नब्बे वर्ष पूर्व व्यवहार में पता चला। ट्रेड की बजाय फैक्ट्री के आधार पर मजदूरों के संगठित होने को एक कारगर विकल्प समझा गया। इन्डस्ट्रीयल यूनियनें बनाई गई। लाइन सिस्टम के आधार पर उत्पादन में भारी वृद्धि के लिये इन्डस्ट्रीयल यूनियनें शीघ्र ही मजदूरों पर नियन्त्रण रखने का एक औजार बनी। यूनियन वाले और बिना यूनियन वाले मजदूरों के बीच वेतन-भत्तों में भारी भेद उत्पन्न हुये। अति अल्प सँख्या के यूनियन वाले डर और अकड़ के चक्रव्यूह में फंँसे । बहुसंँख्यक मजदूरों की स्थिति के बद से बदतर बनने में तीव्रता आई।

● ऑटोमेशन और विशेषकर इलेक्ट्रोनिक्स के आगमन ने बहुत कम समय में फैक्ट्री में कार्य करना सीखना सम्भव बनाया। उत्पादन कार्य के लिये आवश्यक मजदूरों की संँख्या में बहुत तेजी से कमी संग-संग आई। विश्व-भर में यूनियनवालों की संँख्या काफी ज्यादा सिकुड़ी।

● यहाँ फैक्ट्रियों में आमतौर पर स्थाई मजदूरों को ही यूनियनें सदस्य बनाती हैं। और इन बीस वर्षों में फैक्ट्रियों में स्थाई मजदूरों की संँख्या शून्य से दस-पन्द्रह प्रतिशत के बीच आ गई है। पुरानी फैक्ट्रियाँ जो बन्द नहीं हुई और जहाँ बहुत ज्यादा छंँटनी करने में कम्पनियाँ सफल नहीं हुई वे अपवाद मात्र हैं। आज यहाँ फैक्ट्रियों में अस्सी-नब्बे प्रतिशत मजदूरों का अस्थाई होना — कैजुअल वरकर होना, ठकेदारों के जरिये रखे होना, वास्तविकता का मुखर पहलू है।

●किसानों और दस्तकारों की सामाजिक मौत और सामाजिक हत्या करोड़ों को मजदूरों की पाँतों में अधिकाधिक तेजी से धकेल रही है। एक बड़ी संँख्या पैसों के लिये कुछ भी करने वालों की बनी है।

● गुड़गाँव में इन दस-पन्द्रह वर्षों में तेजी से नई-नई फैक्ट्रियाँ बनी हैं। इन फैक्ट्रियों में युवा मजदूरों की बहुतायत है। कहीं बहुत कम तो कहीं कुछ ज्यादा मजदूर स्थाई हैं। मजदूर होने पर जो पीड़ा होती है वह इन युवा स्थाई मजदूरों में भी उफन रही है। इन उबलते मजदूरों को चोटें मार कर नियन्त्रण में रखने लायक बनाने के लिये स्थापित यनियनें प्रयासरत हैं।

● फैक्ट्रियों में जो अस्सी-नब्बे प्रतिशत मजदूर हैं। जो दो महीने यहाँ तो छह महीने वहाँ काम करते हैं। जिन्हें सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते। ऐसे मजदूर इन्डस्ट्रीयल यूनियनों के खाँचों से बाहर हैं … नई समाज रचना के लिये कई प्रकार की बेड़ियों से यह मुक्त हैं।

गोरखपुर में नये संगठन के स्वरूपों, नये संघर्ष के तरीकों के सवाल दस्तक दे रहे हैं।

गुड़गाँव में होण्डा, सनबीम, रीको ऑटो के चर्चित मामलों में नहीं बल्कि डेल्फी में ठेकेदारों के जरिये रखे ढाई हजार मजदूरों द्वारा उठाये कदम;

— हीरो होण्डा की गुड़गाँव स्थित स्पेयर पार्ट्स फैक्ट्री में ठेकेदारों के जरिये रखे 4500 मजदूरों द्वारा चाणचक्क काम बन्द करना;

— होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर फैक्ट्री में ठेकेदारों के जरिये रखे तीन हजार मजदूरों द्वारा मैनेजमेन्ट-यूनियन समझौते के खिलाफ काम बन्द करना;

— ईस्टर्न मेडिकिट में कैजुअल वरकरों द्वारा तनखा में देरी पर काम बन्द करना … नई राहें खोजने-बनाने में मजदूर जुटे हैं।

इन हालात में हमारे सामने प्रश्न हैं: क्या-क्या नहीं करें? क्या-क्या करें? कैसे करें?

 (मजदूर समाचार, नवम्बर 2009)

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लन्दन से पत्र

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। सैंतिसवाँ अंश दिसम्बर 2009 अंक से है। यहाँ एक सफाई कर्मी के अँग्रेजी में पत्र का अनुवाद प्रस्तुत है।

… मजदूर सप्लाई करने वाली एक एजेन्सी के जरिये मैं नगर परिषद में अस्थाई सफाई कर्मी के तौर पर लग गया हूँ। मेरा कार्य गलियों में झाड़ु लगा कर कूड़ा एकत्र करना है जिसे ट्रक पर लगा वैक्यूम क्लीनर फिर अपने में खींच लेता है।

सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम, साढे पाँच पाउण्ड प्रति घण्टा नौकरी पर रखते समय एजेन्सी ने लालच दिया कि नगर परिषद हमें अपना कर्मचारी बना सकती है। इस समय 8 घण्टे प्रतिदिन पर सप्ताह में 5 दिन कार्य करने पर मेरे महीने में करीब 750 पाउण्ड बनते हैं, वर्ष में 9000 पाउण्ड — जबकि नगर परिषद द्वारा रखे सफाई कर्मी को वर्ष में 18,000 से 20,000 पाउण्ड मिलते हैं। एजेन्सी ने कहा कि 6 महीने में वर्दी मिलेगी पर 2-3 वर्ष से कार्य कर रहों ने मुझे बताया है कि उन्हें अभी तक वर्दी नहीं मिली है। लन्दन में एक कमरे का किराया 80 से 100 पाउण्ड प्रति सप्ताह है, महीने का 400 पाउण्ड के करीब। ऐसे में मैं 750 पाउण्ड प्रतिमाह तनखा में मात्र जिन्दा रह सकता हूँ।

बहुत लोग सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं। कुछ लोग रोज दो शिफ्ट काम करते हैं। कल जिस ट्रक ड्राइवर के साथ मैंने काम किया वह पोलैण्ड में जन्मा था और उसने सप्ताह में 72 घण्टे कार्य किया — वह नशा करता है। लन्दन इस कम दिहाड़ी पर रखरखाव पर टिका है। बहुत बेरोजगारी है, प्रारम्भिक दिहाड़ी कम है, अपराध बहुत हैं। यह लोगों पर काफी दबाव बनाते हैं।

और, बेतुकियाँ भी : बस और मैट्रो रेल महँगी हैं इसलिये मैंने एक पुरानी साइकिल 50 पाउण्ड में ली है पर उसे बस स्टॉप पर खुले में सुरक्षित रखने के लिये मुझे 100 पाउण्ड का अच्छा ताला लेना होगा। मुख्य सड़क जिस पर मैं झाड़ु लगाता हूँ उस पर पिछले माह गिरोह युद्ध में, गरीबी से जुड़े अपराध में 5 युवकों को गोली मारी गई। जिस बस्ती में मैं रहता हूँ वहाँ शनिवार व रविवार को गरीबी से जुड़े अपराधों के लिये पकड़े गये युवाओं को चिन्हित करते कपड़े पहना कर उन से झाड़ु लगवाई जाती है।

जिस ट्रक ड्राइवर के साथ मैं सामान्य तौर पर काम करता हूँ उसका जन्म अल्जीरिया में हुआ था। वह लन्दन के बहुत व्यस्त यातायात में ट्रक चलाता है, साथ ही वह मैकेनिकल ब्रुशों और वैक्यूम क्लीनर को ऑपरेट करता है। संग-संग वह मोबाइल पर मित्रों से बात करता है जिनसे मिलने का समय उसके पास नहीं है। मैं झाड़ु लगाते हुये पैदल चलना चुनता हूँ क्योंकि यह विचार करने के लिये अधिक समय देता है। चूँकि सामान्य तौर पर आप अपने कमरे में ही झाड़ु लगाते हैं, अब झाड़ु लगाते समय मुझे महसूस-सा होता है कि मेरा कमरा फैल कर लन्दन नगर के हृदय तक आ गया है। पैदल चलना जाँचने-परखने के लिये भी अधिक समय देता है। लन्दन में भिखारी आमतौर पर बैंकों की नकद-भुगतान मशीनों की बगल में बैठते हैं। सफाई कर्मी को ‘नगर कर्मी’ होने का अहसास होता है और डाक कर्मी अथवा खुले में कार्य करते अन्य लोगों से अधिक आसानी से जुड़ सकते हैं। अकसर लोग रास्ता पूछते हैं। मुझे बहुत ज्यादा नहीं चलना पड़ता, दिन में कुल सात मील। कभी-कभी हमें ट्रक पर मैकेनिकल ब्रुश बदलने आदि कार्य करने होते हैं पर उनमें अधिक समय नहीं लगता। हम 8 घण्टे का कार्य 4 घण्टों में पूरा कर घण्टा-दो घण्टा कहीं बैठ लेते हैं और 6 घण्टे बाद मैं चल देता हूँ — पैसे 8 घण्टे के मिलते हैं। ट्रक ड्राइवर ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें ट्रक लौटाना पड़ता है — वे मशीन से बँधे हैं।

सब झाड़ु लगाने वाले 8 घण्टे पूरे होने से पहले चल देते हैं। जाँच दल लन्दन में चक्कर लगा कर सफाई के अंक देता है। हमारे क्षेत्र में 4 प्रतिशत कचरा बताया जो कि अच्छे अंक हैं पर मैनेजर लोगों के जल्दी चले जाने से नाराज है। एक मीटिंग जिसमें 30 झाड़ु लगाने वाले थे, मैनेजर बोला कि पिछले महीने आधे लोग समय से पहले चले जाते थे। मैनेजर ने पहले उत्पादन बोनस काटने की धमकी दी पर बोनस स्थाई मजदूरों को ही मिलता है। अनुशासनात्मक कार्रवाई की भी बात की। मुझे भय हुआ कि मैनेजर की बातों से ड्राइवर डर जायेगा पर वे मैनेजमेन्ट की बातें सुनने के आदी हैं। मीटिंग वाले दिन मैं और भी जल्दी चल दिया। भर्ती करने वाली एजेन्सी भी जल्दी चल देने की बात जानती है और इसे झाड़ु लगाने के कार्य को अच्छी नौकरी बताने के लिये इस्तेमाल करती है।

… लीड्स नगर में हर घर से कूड़े के डिब्बे उठाने वाले और झाड़ु लगाने वाले मजदूरों ने वार्षिक वेतन में 5000 पाउण्ड की कटौती की धमकी के खिलाफ 11 सप्ताह हड़ताल की … यूनियन ने उत्पादकता बढाने का समझौता किया है। ब्राइटन नगर में हर घर पर कूड़े के डिब्बे रखना समाप्त कर दिया है, अब 80 घरों को एक स्थान पर कचरा डालना पड़ता है। संकट के दृष्टिगत डाकखानों में उत्पादकता बढाने के विरोध में डाक कर्मियों ने हड़ताल की। टेस्को सुपरमार्केट में कैशियरों की आवश्यकता खत्म कर दी है — ग्राहक स्वयं सामान की जाँच कर मशीन से भुगतान करें — एक सुपरवाइजर 5 मशीनें देखती-देखता है। अधिक बेरोजगारी, वेतन घटाने के लिये ज्यादा दबाव, अधिक अपराध।

… लन्दन में इस समय 80 हजार फ्लैट खाली पड़े हैं। बेघर लोग समूहों में कब्जे करने लगे हैं …

(2009 में एक पाउण्ड करीब 80 रुपये के बराबर।)

(मजदूर समाचार, दिसम्बर 2009)

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— जर्मनी से —

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। छत्तीसवाँ अंश जुलाई 2008 अंक से है।

सन् 2000 में जर्मन भाषी एक युवा फरीदाबाद मिलने आये थे। वे फिर 2007 में एक कॉल सेन्टर में वर्क वीजा पर गुड़गाँव आये तब उनके साथ नियमित बातचीतें हुई। जर्मनी लौट कर वे एक फैक्ट्री में लगे थे। उन्होंने जून 2008 में जो पत्र भेजा था उसका हिन्दी में अनुवाद मजदूर समाचार में छापा था। यहाँ पुनः प्रस्तुत है।

 … मर्सीडीज वाले परिसर में ही थिसेन-क्रुप फैक्ट्री में काम करने लगा हूँ। हम शीट मैटल का काम करते हैं, प्रेस शॉप में सब प्रकार के धातु के पुर्जे बनते हैं। हम मर्सीडीज के संग ऑडी, फॉक्स वैगन, स्कोडा, फोर्ड, रिनोल्ट कारों के पुर्जे भी बनाते हैं।

हम मैटल ग्राइन्डिंग का कार्य करते हैं और आपूर्ति की स्थानीय लड़ी में हमारा विभाग प्रारम्भिक स्तर का है। आधिकारिक तौर पर हम जैड ए ए द्वारा रखे गये हैं पर थिसेन में अन्य जैड ए ए अस्थाई मजदूरों को दिया जाने वाला 94 सेन्ट प्रतिघण्टा वाला बोनस हमें नहीं दिया जाता क्योंकि मैटल ग्राइन्डिंग विभाग थिसेन ने जैड ए ए को कार्य करवाने के लिये दिया हुआ है। हम ठेकेदार के जरिये रखे भी गये हैं और नहीं भी रखे गये हैं!

कर-पूर्व साढे छह से कुछ कम यूरो प्रतिघण्टा हमारा वेतन है जो कि 800 यूरो प्रतिमाह से कम पड़ता है अगर हम प्रतिमाह दो सप्ताह रात पाली में काम नहीं करें। यदि मैं रोज बीस सिगरेट पीता हूँ (सब मजदूर यह करते हैं!) तो सिगरेटों पर मेरा खर्च 130 यूरो प्रतिमाह हुआ। अगर एक कप कॉफी और एक समय का भोजन कैन्टीन में लेते हैं तो यह महीने में 150 यूरो के हुये।

काम सख्त है, ढेरों शोर — कान बन्द करने के लिये हमें प्लग मिलते हैं पर फिर भी शिफ्ट समाप्ति पर हमारे कान गूंँजते रहते हैं। धातु की धूल बहुत रहती है — हमें मास्क मिलते हैं पर दो घण्टे बाद थूक काला निकलता है और कुछ मजदूरों की नाक से रक्त बहता है।

एक शिफ्ट में हर मजदूर को 700 के करीब मैटल पार्ट ग्राइन्ड करने पड़ते हैं। भारी औजार के साथ कलाईयों को 8 घण्टे मोड़ने और घुमाने से हमारे जोड़ सूज जाते हैं।

सूचना-पटल पर मैनेजमेन्ट प्रतिदिन का उत्पादन दर्शाती है और कहती है कि निर्धारित उत्पादन पूरा नहीं हुआ तो हमें शनिवार को भी आना होगा। ऐसा होने पर 13 दिन बिना किसी छुट्टी के हमें लगातार काम करना होगा क्योंकि तब हम शनिवार को दोपहर 2 बजे तक काम करेंगे और फिर रविवार को रात 10 बजे हमारी रात पाली आरम्भ होती है जो कि आगामी शनिवार की सुबह 6 बजे तक रहती है। हम लोगों ने तालमेल से शनिवार को काम करने से इनकार कर दिया है।

काम बुरा है इसलिये कुछ लोग तो दो दिन में छोड़ जाते हैं। मैं लगा तब विभाग में हम 20 थे और अब हम 12 हैं। जैड ए ए मैनेजर और थिसेन का एक इंजिनियर अकसर इर्द-गिर्द खड़े रहते हैं और हमारे द्वारा प्रति पीस लिये जाते समय को लिखते रहते हैं ताकि शिफ्ट के टारगेट को बढा सकें।

अधिकतर मजदूर युवा हैं, बीस-बाइस वर्ष के हैं और अपने माता-पिता के साथ रहते हैं। अधिकतर ने प्रशिक्षण लिया है पर उन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिली … मैकेनिक बनने के लिये तीन वर्ष सीखने के बाद अब वे दिन में, रात में सैंकड़ों बार 30 सैकेन्ड वाली क्रिया दोहराते हैं और हताश-निराश हैं।

हर शिफ्ट में हर एक द्वारा किया उत्पादन लिख कर मैनेजर को देने का प्रावधान है। कुछ मजदूर 300 पीस तो कुछ 1200 पीस एक शिफ्ट में तैयार करते हैं फिर भी दो शिफ्टों के लोगों ने अलग-अलग सँख्या नहीं लिखने और औसत लिखने का निर्णय किया। यह चर्चाओं के बाद हुआ — “फिर तो मैं उसके लिये काम करता हूँ क्योंकि वह इतनी बार सिगरेट पीने जाता है” आदि बातों के बाद अन्ततः हम ने निर्णय किया कि अलग-अलग सँख्या नहीं देंगे।

समय की गणना करने वालों के आने पर हम ने पशुओं की आवाजें निकालनी भी शुरू कर दी हैं क्योंकि हमें लगता है कि हम चिड़ियाघर में हैं — वैसे भी शोर रहता है और हम मास्क पहने होते हैं।

यह आश्चर्य की बात है पर जब मैं इन युवाओं और इनके गुस्से को देखता हूँ तो अकसर मुझे गुड़गाँव में डेल्फी फैक्ट्री में पश्चिम बंगाल के युवा मजदूरों के बारे में सोचना पड़ता है जिनसे हम उनके कमरों पर मिले थे। और मुझे लगता है कि एक पराई दुनियाँ के प्रति भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं का एक जैसा होना मेरे मस्तिष्क के भ्रम नहीं हैं। मैं आशा करता हूँ कि यहाँ काम के दौरान मैं थिसेन मजदूरों के सम्पर्क में आऊँगा …

(2008 में 1 यूरो = 68 रुपये)

      (मजदूर समाचार, जुलाई 2008)

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रात को जागना

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।

इस सन्दर्भ में अंश भेजते रहेंगे। पैंतिसवाँ अंश मार्च 2008 अंक से है।

सूर्योदय से सूर्यास्त वाला प्राकृतिक दिन महत्व खोता जा रहा है। बढती रोशनी रात को रात नहीं रहने दे रही।

रात्रि के अन्धेरे में मानव शरीर सामान्य तौर पर मेलाटोनिन हारमोन का उत्पादन करता है। यह हारमोन शरीर में रसोलियाँ नहीं बनने देने में एक भूमिका अदा करता है। इसलिये शरीर में मेलाटोनिन की कम मात्रा कैन्सर की सम्भावना बढा सकती है।

रात को काम करने वालों, रात को जागने वालों में मेलाटोनिन कम होती है क्योंकि रोशनी शरीर में इसके उत्पादन को रोक देती है। पूर्ति के लिये ऊपर से मेलाटोनिन लेना समाधान नहीं है क्योंकि यह इस हारमोन के प्राकृतिक उत्पादन को बन्द करने की प्रवृति लिये है।

रात की पाली में काम करती महिलाओं में स्तन कैंसर अधिक पाया गया है। रात्रि शिफ्ट में काम करते पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रन्थी का कैन्सर अधिक पाया गया है।

सूर्यास्त के बाद भी फैक्ट्रियों, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, मीडिया, होटलों में काम, ड्राइवरों-सेक्युरिटी गार्डो द्वारा काम विश्व-भर में सामान्य बात बन गई है। और ऐसा काम बढता जा रहा है। इधर यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया से भारत में स्थानान्तरित कॉल सेन्टरों, बी पी ओ का बढ़ता कार्य रात को ही काम करने को लाखों की नियति बना रहा है। देर रात तक टी.वी. के जरिये प्रायोजित आनन्द – प्रायोजित पीड़ा का उपभोग दुनियाँ में महामारी बन गया है। टशन के तौर पर जागते हुये रात के दो बजाना … खालीपन से भागने के लिये नाइट क्लब-नाइट लाइफ।

लाखों वर्ष के दौरान हमारा शरीर रात को सोने के लिये ढला है। कब सोते हैं यह महत्वपूर्ण है। कब जागते हैं और कब सोते हैं यह हमारे शरीर द्वारा अपनी मरम्मत करने पर प्रभाव डालते हैं। दिन में सोने पर भी रात्रि में जागने वालों की नींद पूरी नहीं होती … नींद की कमी शरीर की प्रतिरोध क्षमता घटा कर कैन्सर के खतरे बढा देती है।

हमारे शरीर की प्रकृति के विरुद्ध रात को जागना, रात्रि को काम करना हृदय रोग की आशंका भी बढाता है। अतिरिक्त थकावट तथा चिड़चिड़ापन रात को जागने से जुड़े हैं और यह स्वयं में सम्बन्धों को बिगाड़ना लिये हैं।

रोशनी हमारे जीवन का विस्तार नहीं कर रही। रात को जागना तन की पीड़ा व रोग और मन के अवसाद लिये है।

(2008 में जानकारी “The People” <www.slp.org> से ली थी)

(मजदूर समाचार, मार्च 2008)

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 दोस्तों के नाम एक खत

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चौंतिसवाँ अंश फरवरी 2008 अंक से एक मित्र का पत्र है।

मजदूर समाचार में आ रही अधिकतर मजदूरों की बातें मजदूर पहचान के इर्द-गिर्द हो रही हैं। तनखा, पी.एफ., ई.एस.आई., काम के घण्टे, कार्यस्थलों की हालात मजदूरों की बातों में मुख्य तौर पर हैं। लगता है कि अच्छे अथवा बुरे जीवन को आँकने के यही पैमाने हैं। ऐसे में बेहतरी-बदलाव के प्रयासों का इन्हीं की दिशा में धकेले जाने का खतरा है।

मित्रो, मेरे विचार से, हमें ऐसी बातचीत बढानी चाहियें जिनमें “जीवन क्या है? अच्छा जीवन कैसा हो?” जैसे प्रश्न भी हों। बुनियादी बदलाव की बातें हमारी रोजाना की सोच का हिस्सा बनें तभी बात बनेगी।

गहरे और व्यापक रिश्तों वाला जीवन अच्छा जीवन है। जबकि, क्षणिक-सतही-छिछले सम्बन्धों वाला जीवन बुरा-खराब जीवन है।

विस्फोटक हो सकता है हम में से प्रत्येक द्वारा खुद से सवाल पूछना :

— स्वयं के साथ कभी बैठ पाते हैं क्या? खुद के लिये समय का अकाल और स्थान का अभाव तो नहीं है? या फिर, खाली दिमाग शैतान का घर मान कर अकेले बैठने से परहेज करते हैं और इसे फालतू समझते हैं। मेरे विचार से, अधिक चिन्ता की बात स्वयं के जीवन पर चिन्तन-मनन करने से इनकार करना है : “ दिमाग खराब हो जाता है। सोचना ही नहीं है!”

— स्वयं के जीवन को महत्वहीन तो नहीं मानते? या, सिर्फ खुद को ही तो सबकुछ नहीं मानते? मेरे विचार से, न कोई शून्य है और न कोई पूर्ण है। इन अतियों के फेर में हर व्यक्ति सिकुड़ जाता-जाती है। इन अतियों से पैदा होने वाले दुख, खुशी, तनाव बेमतलब के हैं। हर व्यक्ति का महत्व है और अपने महत्व से आरम्भ करके ही हम दुख-दर्द मिटा कर वास्तविक खुशी की रचना कर सकते हैं।

अपने स्वयं से सवाल करने जितना ही महत्वपूर्ण है औरों से सम्बन्धों के बारे में विचार करना।

— “रिश्ते अब हैं ही कहाँ? कोई किसी का नहीं होता!” यह बातें इतनी सामान्य हो गई हैं कि फिकरे बन गई हैं। क्या ऐसे लोग हैं जिन से हमारे अच्छे, गहरे सम्बन्ध हैं? संग रह रहे लोगों, सहकर्मियों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों, दोस्तों के लिये हमारे पास समय है क्या? ऊर्जा है क्या? मन है क्या? विचारणीय बात हैं। मेरे विचार से, निकट भविष्य के लिये ही नहीं बल्कि अपने आज को बेहतर बनाने के लिये भी सम्पर्क में रहते लोगों के साथ अच्छे-गहरे सम्बन्ध बनाने के प्रयास करना बनता है।

— मित्र/दोस्त/सहेली इस घुटन भरे माहौल में ताजा हवा के झोंके हैं। बनते हैं, बनाने और बनाये रखने की जरूरत है। दोस्ती डिगा देती है लाभ-हानि की दीवारें। अजनबी और दोस्त दो छोर नहीं हैं। कितनी बार होता है कि कल जो अजनबी थे वे आज हमारे गहरे दोस्त हैं। माहौल आज अनजान लोगों से डरने का बनाया जा रहा है, अजनबी को लाभ-हानि के खाँचे में फिट नहीं कर पाना भी एक बाधा है। क्या अनजान-अजनबी से अच्छा व्यवहार नहीं करना अथवा उन्हें अनदेखा करना हमारे द्वारा अपने ताजा हवा के झरोखों को पाटना नहीं है?

आज बेशक इच्छा से नहीं बल्कि जबरन हम बाँधे गये हैं पूरी दुनियाँ से। हालात ऐसे हो गये हैं कि कुछ ऐसी ही बातें ब्याह-शादी, बच्चों, वृद्धों के सन्दर्भ में हो गई हैं। ऐसे में प्यार-मोहब्बत के बारे में सोचने की जरूरत तो है ही, नई दुनियाँ के लिये इस दुनियाँ के बारे में भी सोचने-विचारने की जरूरत है।

दोस्तो, “समय बलवान है, काल से कौन बचा है” की बातें अपनी जगह, पर विचारणीय बात यह है कि घड़ी ने हमें कहाँ ला पटका है। कैसे हैं आज हमारे समय से रिश्ते? हर समय भागमभाग लगी रहती है! आराम करना किसे अच्छा नहीं लगता? क्या आपको आराम करने का समय मिलता है? क्या आप सिर के बल खड़े हो कर आराम को हराम तो नहीं मानते?

थोड़ा ठहर कर देखते हैं तो : कितना कुछ

खो रहे हैं हम जीवन में! धूल-धुंँआ-गर्द व फ्लैट-खोखे एक तो चाँद-सितारों को यों ही ओझल कर रहे हैं, और फिर, किसे फुर्सत है तारों को निहारने की। मर-सी गई है रात की नीरवता।जानवरों और पेड़-पौधों को गमलों में रखना तो बहुत दुखद है ही, और भी तकलीफ की बात इनका हमारे दैनिक जीवन से गायब होते जाना है। क्या घूमने-फिरने को समय मिलता है? क्या आस-पास घूमने के लिये जगह है? कहीं घूमने की इच्छा ही तो नहीं मर गई है?

दोस्तो, रुपया-पैसा आज हमारी एक मजबूरी तो है, पर मुझे लगता है कि हम सब रुपये के फेर में अपना पूरा जीवन ही लगाये जा रहे हैं। रुपये कमाने-रुपये बचाने-रुपये खर्च करने में तो हम बहुत समय लगाते ही हैं, रुपये-पैसे के बारे में सोचते रहने में भी हम बहुत समय खर्च करते हैं।

अन्त में, मैं तो यही कहूँगा कि तनखाऔर काम के घण्टों के दायरे से बाहर के बारे में विचार करना और कदम उठाना नये जीवन के लिये जरूरी हैं।

 — अमित (जनवरी 2008)

 (मजदूर समाचार, फरवरी 2008)

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इन सौ वर्षों में

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तेतिसवाँ अंश  नवम्बर 2008 अंक से है।

व्यवस्था, संकट, मन्दी, महामन्दी भारी-भरकम शब्द हैं। इनकी व्याख्या का प्रयास हम यहाँ नहीं करेंगे। लेकिन इधर इन शब्दों की चर्चा कुछ ज्यादा ही है। और, जब-जब ऐसा हुआ है तब-तब इन सौ वर्षों में सत्ता ने, सरकारों ने हथियारों तथा सैनिकों की वृद्धि में अत्यन्त तीव्रता लाई है। नतीजे रहे हैं :

● 1914-1919 की महा मारकाट जिसे पहले महायुद्ध कहते थे और अब प्रथम विश्व युद्ध कहते हैं। ढाई करोड़ लोग तो युद्ध में ही मारे गये।

● 1939-1945 वाली और भी बड़ी मारकाट जिसे द्वितीय विश्व युद्ध कहते हैं। इसमें पाँच करोड़ लोग युद्ध में मारे गये।

ऊँच-नीच, लूट-खसूट, अमीर-गरीब की स्थितियों में युद्ध तो लगातार चलते ही रहे हैं। इधर 1890 से संकट की जो बातें आई उन्होंने युद्धों की संँख्या व तीव्रता को बढाया और शिखर था 1914-19 का महायुद्ध। और, 1929 की महामन्दी ले गई 1939-45 के दूसरे विश्वयुद्ध में। उन दौरानों में जो अनुभव हुये उन्हें जानने, समझने तथा उन पर मनन कर आज क्या-क्या करें और क्या-क्या नहीं करें यह तय करना आवश्यक है। इधर फिर संकट और मन्दी की हावी चर्चा ने इसे हमारे लिये अर्जेन्ट बना दिया है।

— मण्डी-मुद्रा के दबदबे में बेरोजगारी तो रहती ही है, संकट-मन्दी के दौर में बेरोजगारी बहुत बढ़ जाती है।

— मजदूरों-मेहनतकशों के लिये तो संकट-मन्दी सीधे-सीधे जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा कर देते हैं। असंतोष बहुत बढ़ जाता है। मजदूरों को, किसानों को बाँधे रखने के प्रचलित तौर-तरीके नाकाफी साबित होते हैं।

— सत्ता के इर्द-गिर्द के लोगों की अनिश्चितता-अस्थिरता के संग-संग असुरक्षा व उसकी भावना बढ़ जाती हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों पर “कुछ करो” के लिये दबाव तेजी से बढता है।

— जेलें बढ़ाई जाती हैं, पुलिस बल में भारी वृद्धि की जाती है और सेना सर्वोपरि स्थान लेने लगती है।

— सरकारें तथा कम्पनियाँ आज मण्डी-मुद्रा की प्रतिनिधि हैं। इसलिये संकट-मन्दी की मार से मण्डी-मुद्रा को बचाने के लिये सरकारें तथा कम्पनियाँ अनेकानेक हथकण्डे अपनाती हैं।

मजदूरों, किसानों, दस्तकारों को शिकार बनाने के लिये पापड़ बेले जाते हैं। मजदूरों-किसानों के विरोध-विद्रोह को दबाने के लिये निर्मम दमन के संग-संग लोक लुभावने नारे उछाले जाते हैं। मेहनतकशों में से ही कुछ को “अन्य” बताया जाता है, “शत्रु” कहा जाता है।

— सरकारें तथा कम्पनियाँ संकट-मन्दी की मार को अन्य सरकारों व कम्पनियों पर धकेलने के लिये गिरोह बनाती हैं। और, मजदूरों-मेहनतकशों को दबाने-पुचकारने में सफलता आगे ही दो महायुद्धों को जन्म दे चुकी है।

आज अन्तरिक्ष तक युद्ध-क्षेत्र और युद्ध के लिये क्षेत्र बन गया है। एटम बमों और प्रक्षेपास्त्रों के भण्डार तो हैं ही। ऐसे में हमारे लिये सर्वोपरि महत्व की बात तो यह है कि सरकारों के गिरोहों के बीच तीसरा विश्व युद्ध नहीं हो। इसके लिये जरूरी है कि मजदूरों-मेहनतकशों के असन्तोष, विरोध, विद्रोह हर जगह बढें।

## सरकारों और कम्पनियों पर भरोसा बर्बादी की राह है। कुर्बानी की घातकता दर्शाने के लिये उदाहरणों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। आज उँगली माँगने वाले कल पहुँचा माँगेंगे, परसों पूरा हाथ और फिर धड़। शहीद को दूर से सलाम! हर कदम पर और जहाँ तक हो सके – जिस प्रकार का हो सके विरोध करना बनता है। ताकत के बल पर इस-उस जगह कम्पनियाँ अपनी शर्तें थोप देती हैं तो भी हमारी सहानुभूति अधिक चोट खाये मेहनतकशों के प्रति होनी बनती है। छंँटनी जैसी चीजों के लिये मौन सहमति-स्वीकृति खतरनाक है। पीट दिये अथवा पिट गये पर हँसना, मजाक उड़ाना अपनी बारी नजदीक लाना है। सरकार और बैंकों पर भरोसा करके अमरीका में जो डूब गये, सड़क पर आ गये उन से यह सीख लेना बनता है कि जहाँ तक हो सके बैंकों से अपने पैसे निकाल लें, बैंकों में पैसे जमा नहीं करायें। पेट काट कर दो पैसे बचाना और उन्हें कम्पनियों के शेयरों में लगा कर डुबाना … दरअसल समस्या पैसों पर भरोसे में है। अनेकानेक समस्याओं से पार लगाने के लिये पैसों पर भरोसा किया जाता है। इस सन्दर्भ में यह याद रखने की आवश्यकता है कि साठे-क वर्ष पहले जर्मनी में, जापान में थैला भर कर पैसे ले जाना और मुट्ठी में सब्जी लाना सामान्य हो गया था। इधर विश्व के कई क्षेत्रों में स्थानीय मुद्रा थैले-मुट्ठी वाली स्थिति में आ गई है। आज की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा, डॉलर के साथ कब यह हो जाये किसी को पता नहीं — विशेषज्ञ मौन हैं। वास्तव में रुपयों-पैसों पर भरोसा करना सरकारों पर भरोसा करना है। और, विश्व-भर में सरकारें डगमगा रही हैं … इसलिये भरोसा आपस में! थोड़ा ठहर कर देखिये कि इतनी सारी जलन-चुगली के बावजूद हम अभी भी एक-दूसरे पर कितना भरोसा करते हैं, कितनी प्रकार के भरोसे करते हैं। हाँ, भरोसे तो चाहियें ही चाहियें — आपस में भरोसा बढाना बनता है।

## बढती बेरोजगारी बढती संँख्या में सेक्युरिटी गार्ड, पुलिसकर्मी, सैनिक की नौकरी लाती है। इनकी भर्ती मेहनतकशों की कतारों से होती है। मेहनतकशों में से किसी को “अन्य-दूसरे-शत्रु” बना कर अपने गुस्से का टारगेट बनाना गर्त की राह है। गार्ड का रुख और गार्ड के प्रति रुख महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। बढिया गार्ड बनने के फेर में नहीं पड़ना … सिपाही को शत्रु नहीं लेना। दोनों तरफ से खानापूर्ति, महज खानापूर्ति और आपस में टकराव से बचना बनता है। सशस्त्र संघर्ष और विद्रोह की स्थिति में भी आपस में मरने-मारने से बचना बनता है। वर्दी वाले मेहनतकश बच कर निकलना खूब जानते हैं, इसे बढाने की आवश्यकता है। प्रेरणा 1914-19 और 1939-45 के सैनिकों से लेनी चाहिये। बरसों खन्दकों-मोर्चों पर रहे 95 प्रतिशत सैनिकों ने गोली ही नहीं चलाई या फिर गोली हवा में चलाई और बमों को निर्जन स्थानों पर डाला। हक्की-बक्की सरकारों और जनरलों ने वीरों के, शहीदों के किस्से गढे तथा चन्द सिरफिरों को महिमामंडित किया। और फिर, युद्ध के दौरान 1917 में रूस में सिपाहियों ने बन्दूकें जनरलों की

ओर मोड़ कर नई समाज रचना के लिये हालात बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इस समय संकट-मन्दी की बात हो रही है पर यह प्रक्रिया इधर हर समय चल रही है। बात डर-भय की नहीं है, डर को बढाने की नहीं है। हम तो यूँ भी दिन में सौ बार मन को मारते हैं, रोज ही कई-कई बार मरते हैं । पर फिर भी जीवन की लालसा है! इसलिये जीवन को सिकोड़ती-संकीर्ण बनाती-दुखदायी बनाती ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, मण्डी-मुद्रा को दफा करना है …

    (मजदूर समाचार, नवम्बर 2008)

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