आप-हम क्या-क्या करते हैं … (15)

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।

इकतिसवाँ अंश जनवरी 2009 अंक से है। इसमें फैक्ट्री मजदूर से ड्राइवर बने एक मित्र के जीवन की झलक है।

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# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अकसर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

49 वर्षीय ड्राइवर : सुबह साढे पाँच बजे उठता हूँ। नहा-धो लेता हूँ साढे छह तक। बेटी 7 बजे पढाने जाती है। बेटा अहमदाबाद में पेशेवर पढ़ाई कर रहा है। पत्नी से बातें करता हूँ और साढे चार बजे से उठी वह सो जाती हैं तो कोई किताब पढता हूँ। भाई लोग दो अखबार मँगाते हैं पर मैं उन्हें उठा कर भी नहीं देखता। अखबार देखने को मन नहीं करता क्योंकि उनमें बहत बरी-बुरी बातें होती हैं।

8 बजे साहब की गाड़ी साफ करने जाता हूँ। लौट कर नाश्ता कर साढे नौ तक तैयार हो जाता हूँ और साहब के फोन का इन्तजार करता हूँ। साढे नौ के बाद इन्तजार वाला तनाव ही रहता है।

सप्ताह में 3 दिन साहब दिल्ली में कार्यालय में रहते हैं और 3 दिन बाहर दौरों पर। कार्यालय जाना होता है तब साढे दस तक चल देते हैं। वहाँ ड्राइवरों वाले कमरे में बैठता हूँ …

माता-पिता की सगाई बन्नो, फ्रन्टियर (पाकिस्तान) में हुई थी और विवाह यहाँ फरीदाबाद आ कर। पिताजी साझेदारी में आरा मशीन और वर्कशॉप चलाते थे — बहुत शराब पीते थे और माँ दुखी रहती थी। पर मुझे कोई कमी नहीं थी। घर में नीम व अमरूद के पेड़ और अंगूर की बेल थी। दादी बकरी और मुर्गियाँ पालती थी। खेलने के लिये जगह ही जगह थी …

1974 में पिताजी का काम-धन्धा ठप्प हो गया। भाईयों में मैं बड़ा था — साढे सोलह वर्ष की आयु में मैं एक फैक्ट्री में लगा।

कार्यालय में रहते हैं तब साहब सामान्य तौर पर साँय 7 बजे फरीदाबाद लौट आते हैं। साहब वायुयान से दूर के दौरे पर जाते हैं तब सुबह पाँच-साढे पाँच बजे उन्हें हवाई अड्डे छोड़ने जाता हूँ और फिर उनके परिवार के पहले से तय कार्यक्रम निपटाता हूँ।

सड़क मार्ग से दौरे पर जाते हैं तब मुझे 12 घण्टे गाड़ी चलानी पड़ती है और उसी दिन लौटते हैं तब तो 15 घण्टे। गाड़ी चलाता हूँ तब दिमाग ड्राइविंग में होता है — सोचूँगा तो गड़बड़ हो जायेगी। दूसरों से बचने और बचाने में ही पूरा ध्यान रहता है। 2001 में फरीदाबाद से चण्डीगढ 4 घण्टे में पहुँच जाते थे। आज उससे अच्छी व बड़ी गाड़ी है, सड़कें चौड़ी व बढिया हैं, कई फ्लाई ओवर बन चुके हैं फिर भी 6 घण्टे लग जाते हैं क्योंकि यातायात बहुत ज्यादा हो गया है और बार-बार ब्रेक लगाने पड़ते हैं। राजमार्गों पर 120-150 किलो मीटर प्रति घण्टा की गति से चलते हैं — इस रफ्तार से नहीं चलायेंगे तो पीछे वाले हॉर्न देने लगते हैं, साइड करो या तेज चलाओ। कई एक्सीडेन्ट देख चुका हूँ। एक बार झटका लगता है। फिर थोड़ी देर बाद वही रफ्तार। साहब को जल्दी रहती है — मीटिंग फिक्स होती है।

बाहर साहब पाँच सितारा होटल में ठहरते हैं। एक रात के लिये एक कमरा 8 से 11 हजार रुपये में और यह नहीं मिलता तो 14 हजार का भी लेते हैं। मैं 150-200 रुपये वाला कमरा ढूँढता हूँ। लेकिन बड़ी दिक्कत तो तब होती है जब साहब चर्चाओं में होते हैं और ड्राइवर बाहर गाड़ी में इन्तजार करते हैं। साहब लोग बड़े चालाक होते हैं — कह देते हैं कि कीमती चीजें रखी हैं ताकि ड्राइवर गाड़ी छोड़ कर न जायें। इन बातों पर ड्राइवर आपस में हँस लेते हैं पर नौकरी करने की मजबूरी है। चित्त भी साहब की और पट भी साहब की। कभी-कभी इन्तजार में तीन-चार घण्टे अकेले गाड़ी में बैठना पड़ता है तब मन-मस्तिष्क में कई बातें आती हैं …

1977 में मैं गेडोर हैण्ड टूल्स में स्थाई मजदूर बना और एक धार्मिक संस्था से जुड़ा। ड्युटी के बाद साँय 5 बजे घर से साइकिल पर साथियों के साथ निकल जाता और रात 10-11 बजे लौटता। गुरु ग्रन्थ पढ़ते-पढाते और धार्मिक चर्चायें करते। अमृतसर से रोपड़ हो कर लौट रहा था जब 1984 के सिख-विरोधी दंँगे आरम्भ हुये। पीपली बस अड्डे से वापस रोपड़ लौट गया और 17 दिन वहीं रहा। नौकरी के लिये पटना जा रहे छोटे भाई पर ट्रेन में हमला हुआ — सत्तर टाँके आये। यहाँ फरीदाबाद में पिताजी के ढाबे को आग लगा दी गई। दिल्ली के शाहदरा में तीन खास दोस्त मार दिये गये। दिल्ली के ही झिलमिल क्षेत्र में एक रिश्तेदार को जिन्दा जला दिया गया। फरीदाबाद से दिल्ली जा रहे एक मित्र के पिता को तुगलकाबाद स्टेशन पर जिन्दा जला दिया। मुम्बई से आ रहे 10 मित्रों में से दो को मथुरा स्टेशन पर मार दिया गया। दिल्ली गये एक रिश्तेदार को पकड़ कर केश काट दिये। फैक्ट्री में कुछ लोग कहते कि इस काली पगड़ी वाले को भट्ठी में झोंक दो। कट्टरता पहले से थी, कत्लेआम ने सरकार और हिन्दुओं के खिलाफ नफरत बढाने का काम किया। मैं धार्मिक संस्था में और सक्रिय हो गया। 1987 में मेरा विवाह हआ। पत्नी और फिर बच्चों को भी मैंने सक्रिय किया। लेकिन 10 वर्ष पहले परिवर्तन आने आरम्भ हुये … अब किसी से बदला लेने की बात मन में नहीं आती। किससे बदला लेंगे? बात पूरी व्यवस्था की है। भाँवें लाम्बे केश कर, भाँवें सिर मुंँडाय — यह महत्वपूर्ण नहीं है।

जहाँ नौकरी करता था उस फैक्ट्री में बहुत-कुछ होता रहा पर मैं उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देता था। कम्पनी ने 1996 में तनखा देनी बन्द कर दी तब मैंने फैक्ट्री जाना छोड़ दिया। दो पैसे के लिये पत्नी के सहयोग से मैंने कई काम-धन्धों को आजमाया। दो जगह फ्रूट चाट की दुकान लगाई। घर पर मट्ठियाँ बना कर चाय की दुकानों पर सप्लाई की। किराना की दुकान की। रिक्शा पर ले जा कर सैक्टरों में चावल बेचे। घर पर ड्रिल मशीन लगा कर जॉब वर्क किया — 40 रुपये का काम हो जाता तब पत्नी और मैं नाश्ता करते … बच्चे छोटे थे और हम ऐसे में संस्था को समय नहीं दे पा रहे थे। मुझे 1999 में संस्था में काम करने को कहा गया — 1000 रुपये संस्था की तरफ से और 1000 रुपये एक पदाधिकारी की वर्कशॉप सम्भालने के लिये। वहीं ड्राइवरी सीख मैं संस्था के स्कूल की गाड़ी चलाने लगा। ड्राइवरी के संग-संग मैं संस्था के लिये सहायता राशि एकत्र करता। मैं सोचता था कि मैं सेवा भी करता हूँ पर हर कोई मुझे नौकर समझने लगा। सब काम मुझे देने लगे — 24 घण्टे की नौकरी। मैं अपने परिवार को भी समय नहीं दे पा रहा था। इसलिये 2007 में मैं एक कम्पनी के साहब का ड्राइवर लगा।

*मैं मजदूर हूँ। यह बात समझ में आई। धार्मिक संस्था से दूरी बढने लगी। अब भी बार-बार बुलाते हैं पर मैं दूरी बनाये हुँ। अब पिंजरे में नहीं रहूँगा। अब मैंने आकाश देख लिया है …

साहब दिल्ली में कार्यालय में होते हैं तो रात साढे सात घर पहुँच जाता हूँ। बेटी के साथ, पत्नी के साथ बाजार जाता हूँ।

दोरे से लौटता हूँ तब थका होता हूँ। आराम करता हूँ। कहीं नहीं जाता। रिश्तेदारी में जाना पड़ता है। यारी-दोस्ती लम्बी-चौड़ी नहीं है पर दुख-सुख में जाना पड़ता है। सिर्फ पेशेवर रह जाना गलत है क्योंकि इससे आपस में प्यार, हँसी, मस्ती खत्म हो जाती हैं। जो पेशेवर हो गये वो वहीं हँसेंगे जहाँ पैसे मिलेंगे।

रात 9 बजे भोजन के बाद थोड़ी देर टी.वी. और फिर रात 12 बजे सोना। रविवार को अन्य दिनों से पहले उठ कर जल्दी तैयार हो जाता हूँ। नाश्ता स्वयं बनाता हूँ। भोजन के लिये सब्जी खुद बनाता हूँ। बनाना और खाना-खिलाना मुझे पसन्द है।

   (मजदूर समाचार, जनवरी 2009)

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