विरोध के स्वर

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चालीसवाँ अंश जनवरी 2009 अंक से है।

2008 की “विश्व मन्दी” के सन्दर्भ में एक फैक्ट्री रिपोर्ट यहाँ प्रस्तुत है।

बोनी पोलीमर्स मजदूर : “प्लॉट 37 पी सैक्टर-6 स्थित फैक्ट्री में 365 में 360 दिन काम होता था। मुख्य विभाग, मोल्डिंग में 12-12 घण्टे की दो शिफ्ट और अन्य विभागों में 12 घण्टे की एक शिफ्ट जिसे खींच कर 36 घण्टे कर देते। महीने में 150-200 घण्टे ओवर टाइम सामान्य और इससे अधिक अजूबा नहीं। ओवर टाइम के पैसे सिंगल रेट से भी कम, मात्र 12 रुपये 13 पैसे प्रति घण्टा। फैक्ट्री में हीरो होण्डा, यामाहा, मारुति सुजुकी, जे सी बी, टाटा मोटर, डेल्फी, स्वराज माजदा, मुंजाल शोवा तथा इटली निर्यात के लिये रबड़ के पुर्जे बनते हैं। फैक्ट्री में 4 स्थाई मजदूर, 100 कैजुअल वरकर, ठेकेदारों के जरिये रखे 400 मजदूर तथा 125 स्टाफ के लोग काम करते थे। उत्पादन के लिये बहुत ज्यादा दबाव — भोजन अवकाश अकसर देरी से। फैक्ट्री में जगह-जगह कैमरे। मोल्डिंग में 150-200 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान और चार मशीनों पर मात्र एक पँखा। पाँच सौ मजदूरों के लिये 5 लैट्रीन। पीने का पानी खारा। खाँसी सामान्य, फोस्फेटिंग-सैण्ड ब्लास्टिंग तो बीमारियों के घर। हाथ का जलना व कुचला जाना, उँगली कटना सामान्य और ऐसे में आम बात है मजदूर से माफीनामा लिखवाना। कागजों में फैक्ट्री दुर्घटना-मुक्त … बिजली के पैनल में आग लगी तब मैनेजिंग डायरेक्टर राज भाटिया ने फैक्ट्री में हवन करवाया था। लगातार काम करते कैजुअल वरकरों का कागजों में ब्रेक दिखा कर हर 6 महीने पर फण्ड राशि निकालने का फार्म भरना। दो ठेकेदारों के जरिये रखे 50 मजदूरों की तनखा 2500-3000 रुपये [हरियाणा सरकार द्वारा तब अकुशल श्रमिक के लिये निर्धारित न्यूनतम वेतन 3665 रुपये], ई.एस.आई. नहीं, पी.एफ. नहीं। गालियाँ …

“ऐसी बोनी पोलीमर्स ने नवम्बर 2008 के आरम्भ से मजदूर निकालने शुरू किये। रोज 2-3 को निकाला। फिर सप्ताह में दो दिन, सोम-मंगल को फैक्ट्री बन्द करने लगे। डेढ सौ से ज्यादा पुरुष मजदूरों को निकालने के बाद मैनेजमेन्ट ने महिला वरकरों पर हाथ डाला। दो को 17 दिसम्बर को निकाला और 4 को कहा कि रविवार तुम्हारी ड्युटी का अन्तिम दिन है। पर फिर भी सोम-मंगल की छुट्टी के बाद बुधवार, 24 दिसम्बर को एक महिला मजदूर ड्युटी के लिये फैक्ट्री पहुँची। अन्दर नहीं जाने दिया। भाई पहुँचा तो एक मैनेजर बोला कि ‘मन्दी है, काम नहीं है, नहीं रख सकते, काम आयेगा तो बुला लेंगे।’ ‘लिख कर दीजिये कि निकाल नहीं रहे, काम आने पर बुला लेंगे’ की कहने पर लिख कर देने से इनकार। भाई बच्चों को ले आया और सब फैक्ट्री के मुख्य द्वार पर धरने पर बैठ गये। मैनेजमेन्ट बौखला गई। भाई को धक्के दे कर अलग कर दिया पर महिला मजदूर बच्चों समेत धरने पर बैठी रही। मैनेजर : ‘तुम्हारे बाप की फैक्ट्री है जो जबरन काम करोगी!’ महिला मजदूर : ‘हाँ, मेरी फैक्ट्री है! हमारे खून-पसीने से फैक्ट्री बनी है!!’ भाई फोटो लेने लगा तो मैनेजमेन्ट के लोग मारने दौड़े और कैमरा छीनने की कोशिश की। भोजन अवकाश में मजदूर बाहर निकले। नारे लगे। मजदूर एकत्र हो गये। मैनेजमेन्ट वापस फैक्ट्री में। कम्पनी ने पुलिस बुला ली। ‘हमारे इलाके में हँगामा नहीं होने देंगे’ कह कर पुलिसवाले महिला मजदूर और उनके भाई को बातचीत के लिये फैक्ट्री में ले गये। मैनेजमेन्ट तब गाड़ी में श्रम विभाग ले गई। उप श्रमायुक्त और मैनेजर की मित्रता से कम्पनी की बात नहीं बनी। वापस फैक्ट्री — श्रम अधिकारी फैक्ट्री पहुंँचा और महिला मजदूर से एक महीने की अतिरिक्त तनखा ले कर मामला रफादफा करने को कहा। महिला मजदूर इनकार कर घर लौटी। अगले रोज, 25 दिसम्बर को महिला मजदूर ने अपनी बात गते पर लिखी और अपने बच्चों, महिला सहयोगी व पुरुष सहयोगियों के साथ बोनी पोलीमर्स के मुख्य द्वार पर जा कर धरने पर बैठ गई। खूब चमक-दमक वाली फैक्ट्री की मैनेजमेन्ट बहुत ज्यादा बौखला गई। पुरुष सहयोगियों को खदेड़ा, बच्चों को धकेला पर महिलायें डटी रही। पल्लियाँ लगा कर उन्हें ढकने के प्रयास हुये। गालियाँ और जेल की धमकियाँ। कम्पनी की दाल नहीं गली तो फिर पुलिस बुला ली। फिर श्रम -विभाग। ‘कम्पनी की नहीं बल्कि ठेकेदार की मजदूर है’ की बातें। अन्ततः कम्पनी द्वारा 11 हजार रुपये अतिरिक्त देने पर महिला मजदूर के सहयोगियों ने सहमति दे दी। कम्पनी ने 29 दिसम्बर को श्रम विभाग में महिला मजदूर को 6 हजार रुपये नकद और 5 हजार का चेक दिया। श्रम विभागऔर कम्पनी ने कागजी खानापूर्ति के लिये एक बिचौलिया खड़ा किया।”

(मजदूर समाचार, जनवरी 2009)

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