ग्रामीण कथा-गाथा

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तेतालिसवाँ अंश,ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना के सन्दर्भ में, अप्रैल 2009 अंक से है।

दो सौ वर्ष से दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत और सामाजिक हत्या का सिलसिला जारी है। यह पूरी दुनिया की बात है। यूरोप और उत्तरी अमरीका से किसानों तथा दस्तकारों का सफाया-सा हो चुका है। आज अमरीका सरकार के क्षेत्र में आबादी का चार प्रतिशत ही खेतीबाड़ी में है और वह भी कम्पनियों में साहबों तथा मजदूरों के रूप में। फैक्ट्री उत्पादन ने पहले दस्तकारी को मिटाया और फिर कृषि में फैक्ट्री-पद्धति किसानी खेती की मौत लिये है। यूरोप में फैक्ट्री-उत्पादन के फैलाव ने दस्तकारों-किसानों के एक हिस्से को मजदूरों में बदला, दूसरा हिस्सा दुकानदारों में परिवर्तित हुआ, और बड़ा हिस्सा उत्तरी अमरीका-आस्ट्रेलिया आदि स्थानों को खदेड़ दिया गया – पलायन कर गया। इसका एक परिणाम अमरीका-आस्ट्रेलिया में रह रहे समुदायों को निर्ममता से मिटाना रहा। और, यूरोप में स्थापित हुआ फैक्ट्री उत्पादन विश्वव्यापी बनता आया है। फिर, व्यापार में फैक्ट्री-पद्धति दुकानदारों का सफाया करती है। और फिर, भाप-कोयले वाली मशीनों के दौर में फालतू मजदूरों की बड़ी सँख्या को इलेक्ट्रोनिक्स ने बहुत अधिक बढा दिया है। आज संसार में करोड़ों बेरोजगार मजदूरों के संग एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में तिल-तिल कर कट-मर रहे अरबों दस्तकार-किसान हैं … इन सब के लिये कहीं कोई जगह नहीं है। सामाजिक असंतोष अधिकाधिक विस्फोटक हो रहा है। “आतंकवाद” का शोर मचा कर सब देशों की सरकारें सामाजिक असन्तोष को आतंक के जरिये दबाने पर एकमत हैं, एकजुट हो रही हैं। भयभीत सरकारें ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में आ रही लोगों की बाढ को थामने के लिये खादी ग्रामोद्योग, किसानों की ऋण माफी, ग्रामीण रोजगार गारन्टी वाले रेत के बाँध भी खड़े कर रही हैं।

ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना मजदूर : “मथुरा जिले के एक गाँव के दस्तकार परिवार से हूँ। आई.टी.आई. की। अप्रेन्टिस की। नौकरी के लिये मथुरा,आगरा, अहमदाबाद, गुड़गाँव, फरीदाबाद के चक्कर काटे। फरीदाबाद में एक फैक्ट्री में लगा और 6 महीने बाद ब्रेक। फिर बेरोजगार … अब दो महीने से नोएडा में एक फैक्ट्री में लगा हूँ। पहली बेरोजगारी में बरसों की परेशानी से सबक ले कर दूसरी बेरोजगारी के समय मैंने ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना में काम करना तय किया। पहला काम जुलाई 2008 में ग्राम पंचायत के तहत तालाब से मिट्टी उठाने का मिला। फिर अगस्त-सितम्बर में सिंचाई विभाग से बम्बे से मिट्टी हटाने का काम मिला। कुल 21 दिन काम किया, कागजों में 22 दिन दिखाया। काम हम 35 मजदूरों ने किया पर कागजों में 50 दिखाये और 15 लोगों की घर बैठे हाजिरी लगी। खींच कर काम, भारी काम, मीटर से नाप कर — 50 की जगह 35 ने मिट्टी उठाई। भुगतान नवम्बर और दिसम्बर में जा कर। कहते हैं कि जीरो बैलेन्स पर बैंक खाता खुलेगा। खाता खोलने के 20-50 रुपये लिये। पहली किस्त दी तब 200 रुपये खाते में रखने के लिये रख लिये। दूसरी किस्त के समय भी 200 रुपये खाते के नाम पर रख लिये। पहली किस्त दी उस रोज सुबह 8 बजे हम सब को बैंक बुलाया और 3 बजे तक टरकाते रहे। फिर बोले कि कल आना। एतराज पर खर्चा माँगा और प्रत्येक से 20 रुपये लिये। हम से अंँगुठे-हस्ताक्षर करवा कर पैसे शिक्षा मित्र तथा ग्राम विकास अधिकारी को दिये जिन्होंने हम 35 को 800-800 रुपये और घर बैठे हाजिरी वालों को 400-400 रुपये दिये। यही सब दूसरी किस्त के समय हुआ … खर्चे के नाम पर 20 की बजाय 50 रुपये काटे तो हम ने विरोध किया जिस पर धमकी दी — दुबारा भी तो काम पड़ेगा। दूसरी बार भी हम 35 को 800-800 रुपये और घर बैठे हाजिरी वाले 15 को 400-400 रुपये दिये। हमारी पास बुक बैंक वालों के पास रहती हैं और जॉब कार्ड शिक्षा मित्र के पास। दिहाड़ी 100 रुपये कहते हैं पर काम करने वालों को 70 रुपये भी नहीं पड़ते और वह भी दिहाड़ी तोड़ कर परेशानी के संग कई महीने बाद। ऐसे में हम ने योजना से छुट्टी कर ली और जनवरी में बागवानी का काम आया तो गाँव के किसी मजदूर ने नहीं किया। शिक्षा मित्र और ग्राम विकास अधिकारी ने हमें समझाया था कि मण्डल, जिला, ब्लॉक अधिकारियों को पैसे देने होते हैं और तुम्हारे लिये हम मोटरसाइकिल पर आते-जाते हैं, इस सब पर खर्च होता है। नवम्बर-दिसम्बर में शिक्षा मित्र जब हमें पैसे बाँट रहा था तब उसे सरकार से दस महीनों की तनखायें नहीं मिली थी।”

 (मजदूर समाचार, अप्रैल 2009)

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