बातें … ज्यादा बातें … लेकिन कौनसी बातें?

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का पहला अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जनवरी 2002 अंक से है।

◆ ड्युटी पूरी होने पर फैक्ट्री से निकली। महीने के हिसाब से किराये पर किये ऑटो में बैठी। रोज की तरह बातें शुरू, खूब बातें। लालबत्ती पर ऑटो रुकी। एक कार टक्कर मार कर निकल गई। ऑटो पलट गई। एक बार तो सब बेहोश हो गई पर ठहरी हुई ऑटो थी इसलिये बड़ा हादसा नहीं हुआ। जिन्हें कम चोट लगी थी वे होशो-हवास में आते ही एक-एक करके अन्य ऑटो पकड़ कर अपने-अपने घर चल दी। घर पहुँचने के बाद भी पड़ोस में रहने वालियों के घरवालों को खबर नहीं की। जिनके ज्यादा चोट लगी थी और बेहोश थी उन्हें ऑटो ड्राइवरों ने अस्पताल पहुँचाया।

खूब बातें करते हैं लेकिन कुछ भी बात नहीं करते, टाइम पास करते हैं का यह एक उदाहरण मात्र है।
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— हम 7-8 लड़कियाँ इक्ट्ठी बैठती हैं। बहुत बातें करती हैं : अपनी सहेलियों की, अपने घर की, अपने दोस्तों की। खूब चुटकुले सुनाती हैं। शेरो-शायरी करती हैं। फैशन की बातें करती हैं। कभी-कभी किसी की बुराई करती हैं। कभी फिल्मों के बारे में चर्चा छिड़ती है तो सारी लड़कियाँ इस-उस फिल्म की बातें करती हैं। कभी छेड़खानी की बातें होती हैं तो सारी लड़कियाँ खूब गालियाँ देती हैं। सँसार के बारे में बातें होती हैं। कैसे-कैसे लोग हैं। गरीब-दुखी को देख कर : काश हमारे पास कुछ होता उन्हें देने के लिये। कम्पनियों की बातें होती हैं। मैनेजमेन्टों को गालियाँ देती हैं और मैनेजरों-सुपरवाइजरों के नाम रखती हैं। घर की समस्याओं, पड़ोसियों से परेशानियाँ, पानी भरने में झंँझट, नाली का चक्कर, गली में कूड़े पर लड़ाई की बातें। बच्चों के बारे में, अपने बचपने की मस्ती, विद्यार्थी जीवन की शरारतों के किस्से। आपस में खूब बातें करती हैं हम।

— दसवीं में थे तब पूरे-पूरे दिन स्कूल में बैठे रहने से मन ऊब जाता था और आगे पढ़ेंगे नहीं, कोई कोर्स कर लेंगे की बातें करते थे। अब 12 वीं में हम भविष्य की बातें करते हैं। खाने-पीने की, खेल की बातें करते हैं और हँसते बहुत हैं हम। बोर्ड परीक्षा तक कोर्स की किताबों की ही चर्चा। लड़कियों के बारे में बातें सिर्फ टाइम पास के लिये करते हैं — संग घूमने के लिये, शादी की बातें बहुत कम। दरअसल, लोग बातें कम करते हैं। अपनी बातें छुपाते हैं। एक-दूसरे से ईर्ष्या के कारण अपनी बातें पूरी तरह खुल कर नहीं कहते। ज्यादा बातें बाहरी दिखावे की करते हैं। सामान की बातें : टी वी है, फ्रिज है … मकान की बातें : इतना बड़ा … नौकरी की बातें : मोटी तनखा, बड़ी कम्पनी, कुर्सी पर बैठने का काम, साफ काम …। मोहल्ले-पड़ोस की बातों में एक-दूसरे की बुराई की बातों की ही ज्यादा चर्चायें होती हैं। मोहल्ले-भर में दूसरों की घरेलू बातें करते हैं। आपस में तनाव रहते हैं। पानी भरने पर ही लड़ाई हो जाती है।

— लोग अपने-अपने सर्कल में ही बातें करते हैं। सब से सब बात भी नहीं करते। हिसाब से बात करते हैं। लगता है कि रेखांकित किये रहते हैं कि इससे इतनी अथवा यह बातें ही करनी हैं। कुछ तो यह संस्कार की वजह से है और कुछ त्रुटि निकाले जाने व कुछ कह दिये जाने के भय की वजह से। अपने भाई तक से आई विपत्त को छिपाया जाता है अथवा चालाकी से कुछ लेने के लिये बढा-चढा कर बताया जाता है तो अन्य से …। हाल-चाल “ठीक है” कहने की परिपाटी है। अन्य की तुलना में अपनी स्थिति को बेहतर बताने का भी रिवाज-सा बन गया है। अपनी कमी तो कोई बताता ही नहीं। इस-उस कारण से यह हो गया, “मैंने” तो कोई कमी नहीं छोड़ी। अपने दुष्कर्मों का जिक्र ही नहीं किया जाता और जिक्र आ ही जाता है तो इन-उन हालात का हवाला दे कर अपने दुष्कर्मों को जायज ठहराते हैं। भले ही कितना ही छिपा कर की जाती हों, ज्यादातर बातें निजी से आरम्भ होती हैं, फिर बेशक समाज की बातें आ जायें। नेता-किस्म के लोग तो अपनी बात कभी नहीं करते, अपनी निजी बातें नहीं करते, वे तो सीधे समाज की, राजनीति की बातें करते हैं। निजी में घर-परिवार की बातें आती हैं, मोहल्ले की नहीं। घर-परिवार की बातों को अधिक उम्र वाले तो बेटा-बेटी-बहु की बातों से शुरू करते हैं। ज्यादातर 50-60 वर्ष आयु वाले परिवार में तँग हैं, अपने बच्चों की बुराई करते हैं।

— कटाक्ष ज्यादा होते हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाली बातें अधिक होती हैं। सही कहना नहीं, छिपाना, हेरा-फेरी से बात करने का चलन हो गया है। दूसरों को उन्नीस और अपने को इक्कीस दिखाने वाली बातों का बोलबाला है। दिखावा वाली, दिखावटी बातें अधिक होती हैं — रिश्तेदारी में तो यह बहुत-ही ज्यादा हो गई हैं। चुगली करना आम बात हो गई है। रेडियो-टी वी-अखबार में जो बातें होती हैं उन्हें ही दिन-भर दोहराने का सिलसिला चल पड़ा है।

— हमारे हिसाब से तो लोग आपस में कम बातें करते हैं क्योंकि मतलब से बातें करते हैं, जिनसे कोई मतलब निकले वो बातें करते हैं। प्रेम-व्यवहार आजकल है नहीं। यह इसलिये कि जमाने के हिसाब से आजकल लोग सिर्फ अपना मतलब सोचते हैं। रेडियो में सुन कर, टी वी में देख कर, सिनेमा देख कर, टेलिफोन से लोग ज्यादा चालाक हो गये हैं।

— फालतू की बातें समस्या बन गई हैं। इतनी ज्यादा बातें होती हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। छंँटाई नहीं करेंगे तो वर्तमान व्यवस्था की पोषक बातों के दलदल में डूब जायेंगे।

एक-दूसरे के दुख-दर्द को, परेशानियों को, दिक्कतों को सुनना और सुनाना से आरम्भ करना बनता है। अपनी तकलीफों को कम करने के लिये क्या-क्या कर सकते हैं पर चर्चायें केन्द्रित करना प्रस्थान-बिन्दू लगता है। (जारी)

(मजदूर समाचार, जनवरी 2002)

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उथल-पुथल, बढती उथल-पुथल

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।  इक्यावनवाँ अंश जुलाई 2009 अंक से है।

बांग्लादेश में फिर मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा। बांग्लादेश के मध्य क्षेत्र में एक कारखाने में बकाया तनखा, वेतन वृद्धि और नौकरी पर बहाली के विवाद ने 27 जून को हिंसक रूप ले लिया। कुछ साहबों की पिटाई हुई। पुलिस ने मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिये आँसू गैस के गोले छोड़े। मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग बन्द कर दिया। पुलिस के सहायक बल (अन्सार) ने गोलियाँ चलाई। एक मजदूर की मृत्यु। कई फैक्ट्रियों के मजदूर सड़कों पर निकल आये। कुछ मैनेजमेन्टों ने डर से जल्दी छुट्टी कर दी। जहाँ से यह विवाद शुरू हुआ था उस कारखाने को मजदूरों ने आग लगा दी। मजदूर की हत्या के विरोध में 28 जून को बांग्लादेश में जगह-जगह प्रदर्शन हुये। और फिर 29 जून को मजदूरों के गुस्से का विस्फोट हुआ। राजधानी ढाका के औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों और पुलिस के बीच तीखी झड़पें हुई। आक्रोश से भरे मजदूरों की संँख्या पचास हजार हुई तो कारखानों की सुरक्षा के लिये बुलाये गये अतिरिक्त 400 पुलिस वाले भी एक तरफ हट गये। ढाका क्षेत्र में अधिकतर मजदूर सड़कों पर थे लेकिन कुछ फैक्ट्रियों में काम जारी था। वे फैक्ट्रियाँ मजदूरों के आक्रमण का निशाना बनी और पचास कारखानों में आग लगा दी गई। सरकार ने खुंँखार विशेष दस्तों को भेज कर मजदूरों के इस असन्तोष पर काबू पाया। (जानकारियाँ रॅट मारुट के इन्टरनेट पर लेख से <www.libcom.org>)

● जून माह में ही भारत में किसानों और दस्तकारों पर एक उल्लेखनीय क्षेत्र में सरकार ने हमला बोला। आठ महीने से पश्चिम बंगाल के लालगढ क्षेत्र में 30 गाँवों के गरीबों ने सरकार को ही नकार रखा था। इससे तिलमिलाई सत्ता ने सशस्त्र राज्य पुलिस, केन्द्र की सी आर पी एफ तथा बी एस एफ और विशेष दस्तों का गठजोड़ बनाया। और वायुसेना के गनों से लैस हैलीकोप्टरों की सहायता से लालगढ क्षेत्र में दस्तकारों-किसानों पर आक्रमण।

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● बद से बदतर होते हालात में उथल-पुथल, बढती उथल-पुथल स्वाभाविक है। समाज में यह पाँच-सात हजार वर्ष से हो रहा है। पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों से आरम्भ हुई यह प्रक्रिया इन पाँच सौ वर्ष में अधिकाधिक विश्व-व्यापी बनती आई है।

हिंसा और प्रतिहिंसा, जायज हिंसा और नाजायज हिंसा, शान्ति और अहिंसा के आवरण में बढती हिंसा के चक्रव्यूह में हम फँसे हैं। इससे एक व्यक्ति पचास व्यक्तित्वों में विभाजित होने को अभिशप्त है। आज प्रत्येक अपने तन व मन को काटने में लगा है। हर कोई अपने इर्द-गिर्द वालों को लहुलुहान करने में लगी है। पीड़ा के पहाड़ हर व्यक्ति को बम में बदल रहे हैं। इन दो सौ वर्षों में चक्रव्यूह के कसने की गति तीव्रतर और मारक क्षमता अधिकाधिक घातक होती आई है।

सम्पूर्ण विनाश की ओर हम सब धकेले जा रहे हैं, हम स्वयं को इस दिशा में धकेल रहे हैं। इसलिये आईये चक्रव्यूह की काट के लिये मन्थन बढायें, आदान-प्रदान बढायें।

● व्यक्ति का स्वयं से हर समय पाला पड़ता है। व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों से अनेकानेक प्रकार के सम्बन्ध सामान्य बात हैं। ऐसे में बद से बदतर होते हालात में स्वयं को दोष देना, अन्य व्यक्तियों को दोष देना स्वाभाविक है। परन्तु यह तो पीड़ित को, पीड़ितों को ही दोषी ठहराना है।

मेहनतकश तो दमन-शोषण का शिकार रहे ही हैं। परन्तु , ढाई हजार वर्ष पूर्व राजकुमार सिद्धार्थ भी भिक्षु गौतम बना था। और, सम्राट चन्द्रगुप्त हर रात को कमरा बदल कर सोता था। आज मैनेजरों का नौकरी से निकाले जाना, चेयरमैन-मैनेजिंग डायरेक्टरों का जेल जाना सामान्य बात होती जा रही है।

पद पर बैठे व्यक्ति बदलते रहते हैं। पद बने रहते हैं — समस्या पद हैं। इस-उस को थानेदार बनाना अथवा थानेदारों को बदलने में जुटना उलझते जाना है। थानेदारी को ही निशाने पर लाना बनता है। यह मेहनतकशों की मुक्ति के संग चन्द्रगुप्तों के लिये भी चैन की नींद के द्वार खोलेगा … और सिद्धार्थ भी भिक्षु नहीं बनेंगे, जीवन शाप नहीं रहेगा इसलिये जीवन से मुक्ति-मोक्ष की कामना नहीं रहेगी।

हमारे विचार से सामाजिक सम्बन्धों पर, सामाजिक प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना और पीड़ित-सहपीड़ित के आधार पर आचार-विचार चक्रव्यूह में दरारें डालेंगे।

● राजा-बादशाह की फौज में एक हजार सैनिक स्थाई तौर पर होना बड़ी बात थी। महल-किले वाले सम्राट भूदासों-किसानों-दस्तकारों द्वारा की जाती उपज का छठा हिस्सा सामान्य तौर पर लेते थे। भाप-कोयला आधारित कारखानों में मजदूरों द्वारा किये जाते उत्पादन का आधा हिस्सा हड़पे जाने ने सरकारों को 50 हजार की स्थाई फौज रखने की क्षमता दी। सन् 1890 में एक सरकार द्वारा एक लाख की स्थाई फौज बनाने के समाचार ने संसार में तहलका मचा दिया था। इधर पैट्रोल-डीजल, बिजली, इलेक्ट्रोनिक्स के दौर में मजदूर जो उत्पादन करते हैं उसका अठानवे प्रतिशत हड़पा जा रहा है। पृथ्वी के संग अन्तरिक्ष तक का सैन्यीकरण …

● आज जो किया जा रहा है उसका 95-98 प्रतिशत अनावश्यक, नुकसानदायक और खतरनाक है। पृथ्वी, अन्य जीव योनियों, स्वयं मानवों का दोहन-शोषण हमें इस हद तक ले आया है। यह परिणाम है सब के, सब कुछ के दोहन-शोषण पर आधारित “अच्छे जीवन” का — सभ्यता, प्रगति और विकास का। पशुओं को दुहने के लिये नाथने से आरम्भ हुआ, दासों को दागने से होता, धरती को चीरती कृषि की राह ऊँच-नीच वाला ताना-बाना फैक्ट्री-पद्धति तक पहुंँचा है। तीव्रतर गति, अधिकाधिक चमक-दमक, बढती मात्रा में उत्पादन … यह पैमाने हैं वर्तमान में “अच्छे जीवन” के। “अच्छा जीवन” जिसमें बढती संँख्या में लोग फालतू आबादी में, कूड़ा-करकट में बदले जा रहे हैं। “अच्छा जीवन” जिसके दायरे में बने रहने की शर्त तन को ताने रखना और मन को मारते जाना है। “अच्छा जीवन” जिसके दायरे में बना रहना है तो व्यक्ति को अपने स्वयं के लिये भी समय नहीं रखना …

इसलिये उथल-पुथल का स्वागत है। उथल-पुथल अन्य तरीकों से जीवन जीने के बारे में सोचने के अवसर प्रदान करती हैं। उथल-पुथल जीवन की नई पद्धति की सम्भावनायें बढ़ाती हैं।

नुकसानदायक और खतरनाक कार्य को बन्द करना कैसा रहेगा? खटने के समय के घटने से कैसा लगेगा? रेल बनों को मिली फुर्सत क्या गुल खिलायेगी? कार्य का अड़तालिसवें-उन्नचासवें हिस्से में सिकुड़ जाना हवा-पानी-मिट्टी तक की सेहत में तत्काल सुधार लायेगा!

उथल-पुथल को प्रोत्साहित करने के लिये शुरुआत स्वयं से भी कर सकते हैं। तन को खींचने की बजाय आईये शरीर की सुनें और आराम के लिये मौके ढूँढें-बनायें। मन को मारने की जगह मन की सुनें। अपने आप के साथ सहज होना दूसरों के साथ सम्बन्धों के लिये पुख्ता आधार प्रदान करता है। हर सम्बन्ध को समय की आवश्यकता है। समय होने से, समय प्राप्त करने से प्यार, लगाव, आदर, सम्मान वाले रिश्तों की सम्भावनायें बनती हैं, बढती हैं। और, ऐसे सम्बन्ध उथल-पुथल को नये धरातल पर ले जा सकते हैं।

दस्तकारों, किसानों, दुकानदारों की सामाजिक मौत और सामाजिक हत्या उथल-पुथल को बढाती जायेंगी। मजदूरों का तीव्रतर शोषण और बढती अनिश्चितता-असुरक्षा विश्व-भर में उथल-पुथल बढाती जायेंगी। नई समाज रचना के लिये उथल-पुथल आवश्यक हैं, स्वागतयोग्य हैं।

       (मजदूर समाचार, जुलाई 2009)

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ब्रिटेन में मजदूर

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।

   ब्रिटेन में मजदूर
        (मजदूर समाचार, मई 2009)

पचासवें अंश में इंग्लैण्ड से एक मित्र द्वारा भेजी दो फैक्ट्री रिपोर्टों के अनुवाद हैं। यह मई तथा जुलाई 2009 अंकों से हैं।

31 मार्च को फोर्ड/विस्टीओन कम्पनी ने ब्रिटेन में अपनी तीन फैक्ट्रियाँ बन्द करने और सब मजदूरों की नौकरी समाप्त करने की घोषण की। अगले रोज बेलफास्ट, बजिल्डोन तथा लन्दन स्थित फैक्ट्रियों पर मजदूरों ने कब्जा कर लिया।

सन् 2000 में वाहन निर्माता फोर्ड कम्पनी ने पुर्जों के लिये विस्टीओन नाम से नई कम्पनी खड़ी की। आज विस्टीओन की विश्व-भर में फैक्ट्रियाँ हैं — भारत में भिवाड़ी और चेन्नै में। ब्रिटेन में फोर्ड कम्पनी और यूनियन के बीच समझौता हुआ था जिसमें फोर्ड मजदूरों को नई कम्पनी में तनखा तथा पेन्शन पुराने ढर्रे पर जारी रखने का वायदा किया गया था। नये भर्ती मजदूरों के लिये शर्तें बदतर थी। वह समझौता अब धोखाधड़ी साबित हुआ है …

लन्दन फैक्ट्री में 250 मजदूर डैशबोर्ड जैसे वाहनों के प्लास्टिक मोल्डेड पुर्जे बनाते थे और मार्च-जुलाई 2008 के दौरान ओवर टाइम भी था। मन्दी की मार — अक्टूबर 2008 में एक झटके में 30 अस्थाई मजदूर नौकरी से निकाल दिये। और, 31 मार्च 2009 को सब स्थाई मजदूरों को एकत्र कर मैनेजमेन्ट ने नौकरियाँ समाप्त, पाँच मिनट में फैक्ट्री से निकलने को कहा — अपने निजी सामान अगले दिन आ कर ले जायें। पहली अप्रैल को मजदूरों ने फैक्ट्री बन्द पाई। पता चला कि विस्टीओन की बेलफास्ट स्थित फैक्ट्री पर मजदूरों ने कब्जा कर लिया है तो पिछले द्वार से 100 मजदूर लन्दन फैक्ट्री में घुस गये और पेन्ट शॉप तथा छत पर कब्जा कर लिया।

लन्दन फैक्ट्री के अधिकतर मजदूर 20-30 वर्ष से कार्यरत थे और इस दौरान उन्होंने अपनी सँख्या दो हजार से 250 में सिकुड़ते देखी थी। लन्दन से कार्य तुर्की, दक्षिण अफ्रीका आदि में भेजा गया था। लन्दन फैक्ट्री में आधे मजदूर भारत, श्री लंका, इटली, वैस्ट इंडीज से थे। कई मजदूर महिला। दसियों वर्ष से वे एकसाथ कार्य कर रहे थे और अब उन्हें अकेले-अकेले रोजगार केन्द्र से निपटना होगा, कर्ज पर लिये घर की किस्त नहीं चुका पाने का डर रहेगा, घटती नौकरियों के माहौल में नई नौकरी ढूँढनी पड़ेगी। फैक्ट्री पर कब्जे का निर्णय कर उन्हें अल्प काल में बहुत कुछ सीखना था : कानून कैसे कार्य करता है? यूनियन कैसे कार्य करती है? कब्जे का समर्थन करने वाले यह लोग कौन हैं? फोर्ड कम्पनी विश्व स्तर पर उत्पादन को कैसे जोड़ती है? संसार के दूसरे कोने में स्थित मजदूरों से सम्पर्क कैसे करें? कब्जे के लिये समर्थन और भोजन आदि का जुगाड़ कैसे करें? अपने को और अपने संघर्ष को संगठित कैसे करें?

यह प्रश्न आज विश्व-भर में मजदूरों के सम्मुख हैं। अप्रैल में ही फ्रान्स में 3 एम फैक्ट्री में मजदूरों ने छंँटनी के खिलाफ मैनेजरों को दो दिन दफ्तर में बन्द रखा। इसी समय जर्मनी में फॉक्स वैगन में नौकरी से निकाले गये 300 मजदूरों ने भूख हड़ताल की। और, इसी दौरान तीन महीने से वेतन नहीं दिये जाने पर यूक्रेन में मजदूरों ने एक हार्वेस्टर कम्बाइन फैक्ट्री तथा सरकारी इमारत पर कब्जे किये …

               ब्रिटेन में मजदूर-2

       (मजदूर समाचार, जुलाई 2009)

● डरावने निर्माण और ध्वंस के यन्त्रों की बड़ी निर्माता *जे सी बी* का मुख्यालय ब्रिटेन में है। जे सी बी की फरीदाबाद स्थित फैक्ट्री में स्थाई मजदूरों की संँख्या बहुत कम है — पुर्जे जोड़ कर मशीनें तैयार करने का अधिकतर कार्य कैजुअल वरकरों तथा ठेकेदारों के जरिये रखे जाते मजदूरों से करवाया जाता है और … और पुर्जे उन सैंकड़ों अन्य फैक्ट्रियों में बनवाये जाते हैं जहाँ मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता। जे सी बी की ब्रिटेन में कई फैक्ट्रियाँ हैं और उन में स्थाई मजदूरों की संँख्या कम नहीं। अक्टूबर 2008 में कम्पनी ने घोषणा की कि ब्रिटेन स्थित फैक्ट्रियों से 510 मजदूरों की छंँटनी जरूरी है पर अगर मजदूर तनखा कम करवाने को राजी हो जायें तो 150 को ही निकाला जायेगा। यूनियन ने नौकरियाँ बचाने के नाम पर तनखा में कटौती का समर्थन किया। परन्तु अन्त की बजाय यह आरम्भ था … वेतन कटौती और 150 को निकालने के कुछ दिन बाद, 13 नवम्बर को कम्पनी ने 399 अन्य मजदूरों को नौकरी से निकाला। फिर 12 जनवरी 2009 को 700 और मजदूरों को निकाला। और फिर 16 फरवरी को 97 मजदूरों की नौकरी खाई … यूनियन अफसोस व्यक्त करने से बहुत अफसोस व्यक्त करने तक पुहँची।

● *टाटा इन्डस्ट्रीज* ने अप्रैल 2008 में *फोर्ड मोटर* से ब्रिटेन स्थित *जगुआर लैण्ड रोवर* फैक्ट्रियों का नियन्त्रण प्राप्त किया और … और तत्काल 600 मजदूरों की छंँटनी की। फिर नवम्बर 2008 में 850 मजदूरों को नौकरी से निकाला। और फिर, 15 जनवरी 2009 को 150 वरकरों तथा 300 मैनेजरों को नौकरी से निकाला। काली का खप्पर भरता नहीं … टाटा मैनेजमेन्ट ने कहा कि तनखा में कमी के लिये सहमत हों अन्यथा 800 मजदूरों तथा 300 स्टाफ वालों की नौकरियाँ जायेंगी। इस पर मैनेजमेन्ट-यूनियन समझौता हुआ जिसका अर्थ है वर्ष में मजदूरों को 560 करोड़ रुपयों का नुकसान। और, ब्रिटेन में सरकार से 216 करोड़ रुपये की सहायता मिलने के बाद कम्पनी अध्यक्ष रतन टाटा ने 29 मार्च 2009 को कहा कि सरकार ने 4000 करोड़ रुपये का कर्ज नहीं दिया तो जगुआर लैण्ड रोवर की ब्रिटेन स्थित फैक्ट्रियाँ बन्द करनी पड़ेंगी, बची हुई बारह हजार नौकरियाँ खत्म होंगी …

● ब्रिटेन में *होण्डा* कम्पनी ने स्वीन्डन स्थित कार फैक्ट्री को फरवरी 2009 में चार महीने के लिये बन्द किया। मजदूर ले-ऑफ पर। जून में फैक्ट्री में कार्य आरम्भ करने से पहले कम्पनी ने कहा कि मजदूर तनखा में तीन प्रतिशत कटौती के लिये सहमत हों अन्यथा 490 मजदूरों की नौकरियाँ जायेंगी। यूनियन ने तनखा में कमी का पक्ष लिया है ..

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पहचान और पहचान की जटिलतायें (3)

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। उनतालिसवाँ अंश, अप्रैल 2009 अंक से है।

“मैं” का उदय – “मैं कौन हूँ ?” – एक “मैं” में कई “मैं”- और “मैं” के पार

◆ इकाई और समूह-समुदाय के बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध समस्त जीव योनियों में हैं। मानव योनि में भी दीर्घकाल तक ऐसा ही था। चन्द हजार वर्ष पूर्व ही पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों में मानवों के बीच “मैं” का उदय हुआ। मनुष्यों के प्रयासों के बावजूद अन्य जीव योनियों के समूह-समुदाय में इकाई ने “मैं” के पथ पर प्रगति नहीं की है।

◆ एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय की इकाईयों में तालमेल सामान्य हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय के उस योनि के अन्य समूह-समुदायों के संग आमतौर पर सम्बन्ध मेल-मिलाप के होते हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। आपस की खटपटें घातक नहीं हों यह किसी भी योनि के अस्तित्व के आधारों में है। इसलिये प्रत्येक जीव योनि में यह रचा-बसा है। एक जीव योनि के अन्दर की लड़ाई में किसी की मृत्यु अपवाद है। मानव योनि के अस्तित्व के 95 प्रतिशत काल में ऐसा ही रहा है। इधर मनुष्य द्वारा मनुष्य की हत्या, मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की हत्यायें मानव योनि को समस्त जीव योनियों से अलग करती हैं।

◆ अपनी गतिविधियों के एक हिस्से को भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचित करना जीव योनियों में सामान्य क्रियायें हैं। बने रहने, विस्तार, बेहतर जीवन के लिये ऐसे संचय जीवों में व्यापक स्तर पर दिखते हैं। प्रत्येक जीव योनि में पीढी में, पीढियों के बीच सम्बन्ध इन से सुगन्धित होते हैं। मानव योनि में भी चन्द हजार वर्ष पूर्व तक ऐसा ही था। इधर विनाश के लिये, कटुता के लिये, बदतर जीवन के लिये भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचय के पहाड़ विकसित करती मानव योनि स्वयं को समस्त जीव योनियों से अलग करती है।

कीड़ा-पशु-जंगली-असभ्य बनाम सभ्य को नये सिरे से जाँचने की आवश्यकता है।

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लगता है कि निकट भविष्य में पहचान की राजनीति का ताण्डव बहुत बढेगा। मानव एकता और बन्धुत्व की सद्इच्छायें विनाश लीला को रोकने में अक्षम तो रही ही हैं, अक्सर ये इस अथवा उस पहचान की राजनीति का औजार-हथियार बनी हैं। हम में से प्रत्येक में बहुत गहरे से हूक-सी उठती हैं जिनका दोहन-शोषण सिर-माथों पर बैठे अथवा बैठने को आतुर व्यक्ति-विशेष द्वारा किया जाना अब छोटी बात बन गया है। सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की ही तरह पहचान की राजनीति में भी संस्थायें हावी हो गई हैं। संस्थाओं के साधनों और पेशेवर तरीकों से पार पाने के प्रयासों में एक योगदान के लिये हम यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

अंश द्वारा सम्पूर्ण पर आधिपत्य के प्रयास सभ्यता की जंजीरों का गठन करते हैं। पृथ्वी सौर मंडल का एक सामान्य ग्रह है और सूर्य ब्रह्मांड में एक आम तारा … अपने अस्तित्व के 95 प्रतिशत दौर में मानव योनि का व्यवहार प्रकृति के एक अंश वाला रहा है। परन्तु इन पाँच-सात हजार वर्ष के दौरान स्वयं के प्रकृति का एक अंश होने की वास्तविकता को मानव योनि अधिकाधिक नकारती आई है। नियन्त्रण, नियन्त्रण-दर-नियन्त्रण हमारी हवस बनती गई है। अपनी इंद्रियों पर नियन्त्रण, अपने आप पर नियन्त्रण एक छोर बना है तो “अन्य’ सबकुछ पर जकड़ दूसरा छोर।

— हालाँकि मानव योनि का नियन्त्रण आसमान पार कर रहा है, नाथना शब्द आज प्रचलन में नहीं है। नाथना मानी नियन्त्रण में करना …

बैल की नाक छेद कर उसमें से रस्सी पार करने को भी नाथना कहते हैं। और, बैल के नाक की रस्सी को नाथ कहते हैं। कन्द-मूल बटोरने और शिकार की अवस्थाओं में हमारे पुरखों का व्यवहार मुख्यतः प्रकृति के एक अंश वाला था। पशुओं को नाथने ने बहुत कुछ बदलना आरम्भ किया।

बैल को नाथना। गाय का शोषण। यह पशुओं पर ही नहीं रुका। पशुओं के नाथ, दासों के स्वामी बने। और, पति के पर्याय हैं स्वामी तथा नाथ …

— प्रकृति में एक स्त्री की यौन-सम्बन्धी क्षमता कई पुरुषों के बराबर है। एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन सन्तुष्टि नहीं कर सकता … इसलिये नाथना।

स्त्री और पुरुष के बीच सतत द्वन्द्व की स्थिति बनी। शक-शंका-क्रूरता की कोई सीमा नहीं रही। और तिरिया-चरित्तर के किस्से। आज पितृत्व निर्धारण के लिये डी एन ए परीक्षण …

यह तो शस्त्र के साथ शास्त्र की जुगलबन्दी रही कि नाथ-नथनी-नथनिया स्त्री का आभूषण बनी। और यही बात टूम-जेवर-गहनों में कड़ी-गोड़हरा वाली बेड़ी की।

पुरुषों को दोष देना आसान है। परन्तु यह उस प्रक्रिया को छिपा देना है जिसने अकस्मात् प्रारम्भ में पुरुष को “मैं” का वाहक वाहन बना दिया था। और, यह “मैं” की पीड़ा का ही कमाल रहा है कि एक पुरुष ने कई स्त्रियाँ-पत्नियाँ रखी।

● समुदायों की टूटन ने तत्काल समुदायहीनता को जन्म नहीं दिया। समुदायों की टूटन अनेक प्रकार के विकृत समुदायों का सिलसिला लिये रही है। ऐसे में “मैं’ के वाहक पुरुष की पीड़ा को कुछ हद तक विकृत समुदाय कम करते रहे हैं। परन्तु मण्डी-मुद्रा और मजदूरी-प्रथा के संग समुदायहीनता, अकेलापन छलाँगे लगाते आते हैं …

— विकृत से विकृत समुदाय भी व्यक्ति को कुछ सहारे प्रदान करते हैं। जबकि मण्डी-मुद्रा और विशेषकर मजदूरी-प्रथा पूर्णतः बेसहारा व्यक्ति की माँग करते हैं। ऐसे में पहचान की एक राजनीति ने नये गुल खिलाये। नारी के साथ भेदभाव, दुराचार, क्रूरता के तथ्यों को आधार बना कर विकृत समुदायों द्वारा प्रदत सहारों पर आक्रमणों का सिलसिला। मण्डी की बढती शक्ति के सम्मुख पुरुष की यह बढती कमजोरी है जो स्त्रियों को भी मजदूर बनने को मजबूर कर रही है। पहचान की एक राजनीति इस वास्तविकता पर पर्दा डाल कर इसे स्त्री-सशक्तीकरण प्रस्तुत करती है। नारी के मजदूर बनने को मुक्ति की राह पर कदम देखना-दिखाना …

— व्यक्ति को अपनी सामाजिक संरचना की इकाई बनाने को अग्रसर मण्डी-मुद्रा, मजदूरी-प्रथा के लिये विकृत समुदाय भी बाधा हैं। इसलिये अनेक प्रकार की पहचान की राजनीतियों के जरिये विकृत समुदायों का इस्तेमाल करती मण्डी-मुद्रा और मजदूरी-प्रथा विकृत समुदायों पर आक्रमण भी जारी रखे हैं। यह व्यक्ति को इकाई बनाना है जिसने नारी को भी मजदूर बना कर “मैं” के वाहक वाहन में बदल दिया है।

● व्यक्ति के इकाई बनने के संग मानव योनि में सार्विक होता “मैं” सामान्य सम्बन्धों के लिये स्थान लीलता जाता है। पुरुष का “मैं” अपने वंश के प्रसार में अपनी पीड़ा कम करने के स्वप्न देखता था। इधर पुरुष के “मैं” के संग आन खड़ा स्त्री का “मैं” वंश के प्रचलन में “मैं” के बने रहने के भ्रम को समाप्त करता है। “बच्चे नहीं चाहियें” का एक कारण यह भी है। इसलिये आज जन्म के पश्चात मृत्यु की निश्चितता “मैं” को अधिकाधिक पगला रही है। इस सन्दर्भ में यौन सम्बन्धों को देखें। एक सहज, आनन्ददायक क्रिया के स्थान पर यह एकमेव (अंग्रेजी में THE) सम्बन्ध बन गया है। स्त्री हो चाहे पुरुष, सम्भोग की भूख हर समय बनी रहती है और अनेक प्रकार के सौदागर इसे भुनाते हैं। ऐसे में पीड़ा से एक राहत के स्थान पर यौन सम्बन्ध मनोरोगी पीड़ा का एक कारक बन गये हैं।

स्त्री हो चाहे पुरुष, बढता अकेलापन हम सब के सम्मुख मुँह बाये खड़ा है। इस सिलसिले में “मैं कौन हूँ?” पर चर्चा आगे करेंगे और अपने अंश होने के तथ्य को ध्यान में रखेंगे। (जारी)

       (मजदूर समाचार, अप्रैल 2009)

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सत्यम के लिये देखें एनरॉन के बहाने

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। अड़तालिसवें अंश, फरवरी 2009 अंक के सन्दर्भ में कुछ आवश्यक बातें यह लगती हैं :

मजदूर समाचार के अप्रैल 1998 अंक में “हकीकत का एक खाका” जिसे फरवरी 2009 अंक में दोहराया “आज उत्पादन का एक लेखा-जोखा” शीर्षक से। इसका अंश : हर क्षेत्र में आज पैसों के जुगाड़ के लिये कर्ज की भूमिका बढ़ती जा रही है। कम्पनियों में लगे पैसों में तो 80 से 90 प्रतिशत तक पैसे कर्ज के होते हैं। जमीन, बिल्डिंग, मशीनरी, कच्चा व तैयार माल गिरवी रहते हैं। बैंक, बीमा, पेन्शन फन्ड, म्युचुअल फन्ड तथा अन्य वित्तीय संस्थायें कर्ज के मुख्य स्रोत हैं।

कम्पनी में लगे दस-बीस परसैन्ट पैसों का जुगाड़ शेयरों के जरिये होता है। शेयर होल्डरों में भी प्रमुख हैं बैंक, बीमा, म्युचुअल फन्ड जो कि पचास-साठ प्रतिशत तक के शेयरों पर काबिज होते हैं। बाकी के शेयर हजारों फुटकर शेयर होल्डरों के अलावा कुछ कम्पनियों के हाथों में होते हैं।

उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अब विश्व में कम्पनी स्वरूप सामान्य है। ऐसे में भारत सरकार के क्षेत्र में 2008-2009 में सत्यम कम्प्यूटर्स कम्पनी घटना उद्योग में, मीडिया में छाई थी तब मजदूर समाचार के फरवरी 2009 अंक में अप्रैल 2002 अंक से “एनरॉन के बहाने” को ही पुनः छापा था।

कम्पनियाँ किसी की नहीं होती। कम्पनियों का कोई मालिक नहीं होता। ऐसे में कम्पनियों का सुचारू संचालन कैसे सुनिश्चित किया जाये? विद्वानों ने नुस्खा दिया : चेयरमैन, मैनेजिंग डायरेक्टर, चीफ एग्जेक्युटिव अफसर आदि बड़े अधिकारियों को वेतन के एक हिस्से के रूप में कम्पनी के शेयर दिये जायें ताकि कम्पनी को मुनाफे में रखना और मुनाफे को बढाना साहबों के निजी स्वार्थ में हो। विश्व की बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ विद्वानों के नुस्खे पर अमल कर रही हैं और इसका चलन छोटी कम्पनियों में भी तेजी से बढ़ रहा है।

स्वार्थ की कुँजी कमाल कर रही है। अधिकतर कम्पनियाँ अपने बही-खातों में हेरा-फेरी कर रही हैं। हिसाब-किताब में नटबाजी कर मनमाफिक मुनाफे दिखाये जाते हैं। और, महीने के लाखों लेते साहब लोग शेयरों की सट्टेबाजी में करोड़ों जेब में डालते हैं।

इधर बिजली क्षेत्र की विश्व की एक महारथी, एनरॉन कम्पनी द्वारा स्वयं को दिवालिया घोषित कर देने ने पर्दों की कुछ परतें उठाई हैं।

अमरीका के राष्ट्रपति, इंग्लैण्ड के युवराज को चन्दे देती एनरॉन कम्पनी द्वारा यहाँ नेताओं-अफसरों को पुचकार कर पर्यावरण का कबाड़ा करती डाभोल बिजली परियोजना और उसकी बिजली के ऊँचे रेट लेना अखबारों की खबरों में रहे हैं। एनरॉन के बही-खातों की जाँच की जिम्मेदार ऑडिट क्षेत्र की मशहूर एन्डरसन कम्पनी रही है। लगातार ऊँचे मुनाफे दिखाती एनरॉन के दिवालियेपन ने “घोटाला” के शोर-शराबे के बीच एनरॉन व एन्डरसन कम्पनियों की जाँच के लिये कई संसदीय समितियाँ बना दी गई हैं। और जिक्र कर दें, अमरीकी संसदों के 248 सदस्य जाँच समितियों में हैं — दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले इन 248 संसद सदस्यों में से 212 ने तो एनरॉन अथवा एन्डरसन कम्पनी से चन्दे लिये हैं!

खैर। मण्डी का भँवर महारथियों को नहीं पहचानता और एनरॉन को घाटे पर घाटा होने लगा। मुर्गी ने अण्डे देना बन्द कर दिया तो साहब लोगों ने मुर्गी को काट खाने का निर्णय लिया। एनरॉन और एन्डरसन के अधिकारियों ने बही-खातों की खिचड़ी में भारी मुनाफे दिखा कर एनरॉन शेयरों के सट्टा बाजार में भाव प्रति शेयर 4 हजार रुपये तक पहुँचा दिये। एनरॉन के 29 बड़े साहबों ने अपने शेयर बेच कर तब 5500 करोड़ रुपये अपनी जेबों में डाले। एनरॉन की एक शाखा के अध्यक्ष ने 1750 करोड़ रुपये और एनरॉन के चीफ एग्जेक्युटिव अफसर ने 500 करोड़ रुपये इस प्रकार प्राप्त किये। बुलबुला फूटने पर एनरॉन के शेयरों का भाव 4 हजार रुपये प्रति शेयर से लुढक कर दस-बारह रुपये प्रति शेयर पर आ गया।

कम्पनी के दिवालिया होने में भी साहबों ने चाँदी कूटी पर एनरॉन के हजारों कर्मचारियों की पेन्शनें भी डूब गई नौकरियाँ तो गई ही।

चन्द अन्य उदाहरण : कॉर्निग कारपोरेशन के अध्यक्ष ने कम्पनी के अपने शेयर बेच कर 70 करोड़ रुपये जेब में डाले जिसके बाद शेयरों के भाव 85 प्रतिशत गिर गये; जे डी एस यूनिफेज के सह-अध्यक्ष द्वारा शेयर बेच कर 115 करोड़ रुपये जेब में डालने के बाद कम्पनी के शेयरों के भाव 90 प्रतिशत गिर गये; प्रोविडेन्शियल फाइनैन्स के उपाध्यक्ष ने अपने शेयर बेच कर 70 करोड़ रुपये जेब में डालने के बाद बताया कि बही-खाते ठीक से हिसाब नहीं दिखाते और इस पर 3 हजार रुपये प्रति शेयर का भाव गिर कर 200 रुपये प्रति शेयर हो गया …

और, फ्रान्स में तो कम्पनियों के चेयरमैनों, मैनेजिंग डायरेक्टरों की भयंकर वित्तीय अपराधों में गिरफ्तारियाँ लगभग रुटीन, सामान्य बात बन गई है …

(उपरोक्त सामग्री मजदूर समाचार, अप्रैल 2002 से।)

(मजदूर समाचार, फरवरी 2009)

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क्या-क्या नहीं करना बेहतर होगा

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। सैंतालिसवाँ अंश जून 2009 अंक से है।

◆ पहली मई। लखानी चप्पल फैक्ट्री (122 सैक्टर-24) में इंजेक्शन मोल्डिंग, हवाई, कोल मोल्डिंग (अपर वाली चप्पल) विभागों में चप्पलों का निर्माण। चौबीसों घण्टे कार्य। तीन मंजिल — कब्र में सोल कटाई व घिसाई। कार्टन। पैकिंग विभाग। रसायन ही रसायन चारों तरफ। इंजेक्शन मोल्डिंग बड़ा विभाग। कोल मोल्डिंग में ही 600 मजदूर … पूरी फैक्ट्री में 4500 होंगे। तीन महीने से कोल मोल्डिंग में कार्य कर रहे और पेट दर्द के कारण ड्युटी नहीं जाने से बचे मजदूर द्वारा बताई सँख्या क्या अतिश्योक्तिपूर्ण है? पता नहीं। कम्पनी चुप। सरकार चुप। कुछ मजदूर पक्षधर लोग सँख्या 1500 बताते हैं — आग लगी तब 425 या 600 कार्यरत थे तथा 150 लोग ओवर टाइम के पैसे लेने की पंक्तियों में। ज्यादातर मजदूरों की हाजिरी कागज के फर्रों पर। अधिकतर मजदूर पैदल फैक्ट्री पहुँचते थे। डेढ सौ जली साइकिलें। जो घायल अस्पतालों में पहुँचे वे आग लगने के समय कार्यस्थलों पर नहीं थे, पानी-पेशाब के लिये इधर-उधर फैक्ट्री की चारदीवारी में थे। अस्पताल पहुँचाये गये 38 में 5 के ही ई.एस.आई.आई.पी. नम्बर थे और एक बाहर से आया हुआ ड्राइवर … इस पर चौतरफा चुप्पी। फार्म 86 — पीछे की तारीख डालने के लिये। तीन कंकाल और 12 अस्पतालों में मरे। अधिकतर मजदूर दसवीं-बारहवीं कर दूरदराज से आये और किराये के कमरों में रहते लड़के। फरीदाबाद में रहते परिजनों ने 5 के लापता होने की शिकायत दर्ज करवाई। दो महीने यहाँ, चार महीने वहाँ के कारण दूर रहते परिजनों को पता ही नहीं होता कि उनके बच्चे किसी समय कहाँ काम कर रहे हैं। 21 मई को काम ढूँढने व्हर्लपूल जा रहे मोहन ने बताया : गाँव से आया हूँ — भाई रामपाल 3-4 महीने से उस फैक्ट्री में था, लौटा नहीं, पता ही नहीं लगा, कागज हैं और कम्पनी ने कहा है कि बाद में देखेंगे, बड़े भाई को यहाँ बुलाया है … 22 मई को ड्युटी जाते एक मजदूर : मेरे 5 मित्र वहाँ काम करते थे, उस दिन 3 ड्युटी नहीं गये थे तथा एक ओवर टाइम के पैसे ले कर लौट आया था पर जो ड्युटी पर था वह नहीं लौटा और अस्पतालों में भर्ती लोगों में भी नहीं था … मुजेसर में एक मकानमालिक : ड्युटी गये तीन लड़के नहीं लौटे, कमरों पर ताले लगे हैं …◆

गति, अधिक गति तथा चमक-दमक, अधिक चमक-दमक का उत्पादन ऐसी खतरनाक स्थितियाँ उत्पन्न करता है कि सुरक्षा के कोई प्रबन्ध हो ही नहीं सकते। और फिर, प्रतियोगिता का बोलबाला, बढता बोलबाला तथाकथित सुरक्षा प्रबन्धों का धड़ल्ले से उल्लंघन लिये है। मण्डी-मुद्रा के पक्षधर अपने स्वयं द्वारा निर्धारित “सुरक्षा” पैमानों के पालन में बुरी तरह असफल हैं — इनकी असफलता इनकी इच्छा से परे की चीज है, यह एक अनिवार्यता है।

● नियमों-कानूनों की वास्तविकता हिस्सा-पत्ती के लिये खींचातान और मजदूरों पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसाने के समय के लिये है।

— राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, दिल्ली-गुड़गाँव-फरीदाबाद-नोएडा स्थित फैक्ट्रियों में काम करते 70-75 प्रतिशत मजदूर दस्तावेजों में होते ही नहीं। कम्पनियों-मैनेजमेन्टों के मुताबिक और हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा केन्द्र सरकारों के अनुसार फैक्ट्रियों में काम कर रहे तीन-चौथाई मजदूर वहाँ काम नहीं कर रहे होते।

— फरीदाबाद स्थित फैक्ट्रियों में हर वर्ष हजारों मजदूरों की उँगलियाँ कटती हैं …

— राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सब फैक्ट्रियों में ओवर टाइम काम करवाया जाता है। कम्पनियाँ 98 प्रतिशत ओवर टाइम को दिखाती ही नहीं। और, कानून अनुसार दुगुनी दर से भुगतान तो अपवाद है।

— फैक्ट्रियों में कार्य करते मजदूरों में पेशेगत बीमारियों की भरमार है। फरीदाबाद में लाखों मजदूर इन बीमारियों से पीड़ित हैं …

दो और दो चार के संकीर्ण दायरे वाला विज्ञान भी यह गिनतियाँ कर सकता है पर मण्डी-मुद्रा का वाहक विज्ञान निहित स्वार्थवश यह करेगा नहीं। मन की बात करें तो प्रत्येक मजदूर का मन प्रतिदिन सौ बार तो मरता ही है और आज शायद ही कोई हों जिनके मन दिन में कई-कई बार नहीं मरते।

● भारत सरकार के क्षेत्र में ही सड़कों पर वाहनों की चपेट में आ कर ही हर वर्ष एक लाख लोग मर रहे हैं और आठ-दस लाख लोग बुरी तरह घायल हो रहे हैं …

कभी भी कुछ भी हो सकता है। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में हर समय हर कोई खतरे में है। प्रत्येक क्षण प्रत्येक का दाँव पर लगे होना वाले हालात हैं। अनिश्चितता और असुरक्षा का बोलबाला है। और, प्रत्येक बहुत-कुछ करती-करता है। किसलिये करते हैं? यह अधिक मूल प्रश्न है और इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे। आईये साँस लेने – साँस लेते रहने के बारे में यहाँ कुछ तात्कालिक बातें करें। एक की जहाँ माँग है वहाँ एक सौ उपस्थित हैं के हालात में चर्चा करें।

● अधिक हाथ ओवर टाइम के दौरान कटते हैं। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल साँस की तकलीफों और पेट के रोगों के घर हैं। एक स्थान, एक अवस्था में रहना तन की पीड़ा के संग मन के रोग लिये हैं। अत: ओवर टाइम किसी प्रकार की राहत पहुँचाने की बजाय परेशानियाँ बढाता है। जबरन रोकते हैं तब भी बचने के प्रयास करना बनता है। जहाँ कुछ छूट हो वहाँ दो पैसे अतिरिक्त के फेर में ओवर टाइम पर रुकना स्वयं अपने हाथ काटना है। और, ओवर टाइम प्राप्त करने के लिये चुगली व चमचागिरी करना अपना आज तथा कल, दोनों खराब करना है।

● देर से पहुंँचने पर डाँटेंगे, वापस कर देंगे, निकाल देंगे के डर से ट्रेन के आगे से भाग कर निकलना अथवा चलती ई एम यू में चढना अपने हाथ-पैर के संग जान को दाँव पर लगाना है। स्वयं इन से बचना और दूसरों को चेताना बनता है।

● अरजेन्ट कम्पनियों का सूत्र है। इसे अपना मन्त्र नहीं बनाना। माल जाना ही है — शिपमेन्ट के चक्कर में स्वयं को झौंक देना अपनी कब्र खोदना है। धमकी और पुचकार की काट में दिमाग लगाना चाहिये। अरजेन्ट का जाप करती कम्पनियाँ स्वयं दिवालिया हो रही हैं।

● थोड़े लाभ अथवा हानि कम करने के फेर में सहकर्मियों-पड़ोसियों के संग चालाकियों में बहुत समय व ऊर्जा व्यय की जाती है। यह चालाकियाँ हमारे आगे ही अत्याधिक सिमटे जीवन को और सिकोड़ती हैं। स्वयं नहीं करना और सहकर्मियों-पड़ोसियों की चालाकी को तूल नहीं देना हम सब के लिये राहत लिये होता है। छोटे नुकसान जानते हुये स्वीकार करना हँसने-बोलने के लिये जमीन बचाये रखता है, बढाता है।

● अच्छे, गहरे, व्यापक सम्बन्ध जीवन का रस हैं। रिश्ते हमें पगलाने से, अधिक पगलाने से बचाते हैं। सम्बन्धों के लिये प्राथमिक आवश्यकता पैसे नहीं बल्कि समय है। अपने स्वयं के लिये समय, अपने बनाने के लिये समय निकालने के जुगाड़ करना हमारी बुद्धि के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होना चाहिये। पैसा हमारे समय को निगलता है।

● अपने को इक्कीस और दूसरों को उन्नीस दिखाने के लिये हम कितना-कुछ करते हैं। इन सब से बचना बोझ तो घटायेगा ही, हमें बेहतरी की राह पर बढायेगा भी।

मनहूस माहौल में आईये अपनी बेवकूफियों पर हँसें। आईये हँसे ताकि मनहूसियत कम हो।

         (मजदूर समाचार, जून 2009)

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निकट भविष्य की कुछ आशंकायें और कुछ आशायें

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। छियालिसवाँ अंश मार्च  2009 अंक से है।

विगत-वर्तमान-भविष्य के जोड़ महत्वपूर्ण हैं। जो बीत गया उसके अनुभवों व विचारों से हम वर्तमान को प्रभावित करने के प्रयास करते हैं। और, आज हम अपने आने वाले कल को बदलने की कोशिशें करते हैं। इस सन्दर्भ में यहाँ हम आने वाले पाँच-दस-पन्द्रह वर्ष को देखने का एक प्रयास कर रहे हैं। विभिन्न कोणों से – दृष्टियों से ऐसे प्रयास करना हमें आज क्या करें और क्या नहीं करें यह तय करने में सहायता करते हैं। लक्ष्य है आशंकाओं की सम्भावनाओं को घटाना। मकसद है आशाओं की सम्भावनाओं को बढ़ाना।

                    आशंकायें

● टेढापन बढेगा। डर है कि चौतरफा बढती परेशानियाँ टेढापन बढायेंगी। बढ़ती झूठ-फरेब, छल-कपट सहज सम्बन्धों को डुबो देंगी। आशंका है कि टेढापन तालमेलों पर घातक चोट मारेगा।

● कुण्ठा बढेगी। डर है कि स्वयं को दोष देने की प्रवृति बढेगी। आशंका है कि अपने आप को काटना बढेगा, स्वयं को पीड़ा पहुँचाना व्यापक बनेगा, आत्महत्यायें बढ़ेंगी।

● घुटन बढेगी। डर है कि अपने जैसों को दोषी ठहराना बढेगा। आशंका है कि “अन्य” को, “दूसरों” को दोषी करार देने की प्रवृति महामारी बनेगी। भय है कि अपने जैसों के बीच, एक जैसों के बीच मार-काट बढ़ेगी।

● हिंसा, संगठित हिंसा बढेगी। डर है कि अत्याधिक हिंसा समस्याओं को ढंँक देगी। आशंका है कि सुरक्षा की मृगमरीचिका हिंसा की दलदल को सर्वत्र फैला देगी। भय है कि भारत सरकार की सेनायें “शान्ति-स्थापना” के लिये पाकिस्तान-अफगानिस्तान-बांग्लादेश-ईरान में होंगी।

● एटम बमों से युद्ध। डर है कि सरकारों के बीच गिरोहबन्दियाँ बढेंगी। आशंका है कि सार्विक बनी हिंसा के उपचार के नाम पर एटम बमों से युद्ध होंगे। भय है कि अमरीका सरकार और भारत सरकार के बीच गिरोहबन्दी विनाश की राह पर रफ्तार बढायेगी।

● प्रदूषित पर्यावरण। डर है कि कोयले-तेल-रसायनों-संकेन्द्रित पदार्थों के प्रदूषण में परमाणु बिजलीघरों और एटम बमों के प्रदूषण का जोड़ पृथ्वी को जीवन के अयोग्य बना देगा। आशंका है कि मनुष्यों का ताण्डव अपने संग अन्य जीवों को भी पृथ्वी से मिटाने की सम्भावना को बढायेगा। भय है कि पर्यावरण की क्षतिपूर्ति की सीमायें पार हो जायेंगी।

                   आशायें

◆ सीधापन बढेगा। आशा है कि झूठ-फरेब-तिकड़मबाजी-कपट से लहुलुहान मन सहज सम्बन्धों के लिये अधिकाधिक तड़पेंगे। उम्मीद है कि यह तड़प सीधे-सच्चे रिश्तों को बढायेगी। आशा है कि भरोसे बढ़ेंगे और अनेकानेक प्रकार के तालमेल बनेंगे।

◆ स्वयं के लिये आदर बढेगा। आशा है कि अपने व्यक्तित्व में एक नहीं बल्कि अनेक विभाजन के वास्तविक कारण : हर समय पड़ते चौतरफा दबावों की पहचान बढेगी। उम्मीद है कि स्वयं के लिये आदर अपने तन-मन पर अत्याचारों को समाप्त करने की राहों पर हमें बढायेगा।

◆ दूसरों के लिये आदर बढेगा। आशा है कि स्वयं के लिये आदर दूसरों के लिये आदर का आधार बनेगा। उम्मीद है कि हर समय प्रत्येक पर चौतरफ दबावों की पहचान बढेगी। आशा है कि अपने और दूसरों के लिये बढता आदर प्रेम में फलीभूत होगा।

◆ सहज आदान-प्रदान बढ़ेंगे। आशा है कि बार-बार का विस्थापन, बढता विस्थापन विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों को दफन करेगा। उम्मीद है कि सहज आदान-प्रदान त्रासदी की जड़ों को उजागर करेंगे। आशा है कि इससे प्रत्येक के लिये सम्भव आसान गतिविधियों का महत्व स्थापित होगा।

◆ दिवालिये बढेंगे। आशा है बढती संँख्या में बैंकों का दिवाला निकलना जारी रहेगा। उम्मीद है कि फैक्ट्रियाँ बन्द होने की गति तीव्र होती जायेगी। आशा है कि सरकारों की डगमगाहट बढेगी और भरभरा कर सरकारों का गिरना सामान्य बनेगा। उम्मीद है कि रुपये-पैसे में राहत ढूँढना दम तोड़ेगा। आशा है सरकारों पर भरोसे समाप्त होंगे। उम्मीद है मजदूरी-प्रथा पर सवाल उठाना व्यापक बनेगा।

◆ सामाजिक प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित होगा। आज 20-22 वर्ष की आयु वाले मजदूरों द्वारा 5-6 कार्यस्थलों का अनुभव प्राप्त करना सामान्य बनता जा रहा है। आशा है कि यह इस-उस व्यक्ति अथवा संस्था-विशेष तक सीमित रहने की प्रवृति को तोड़ेगा। उम्मीद है कि यह सामाजिक प्रक्रिया को अखाड़े में खींच लेगा। आशा है कि समस्याओं का ताना-बाना उजागर होगा और उससे पार पाने के लिये जो आवश्यक हैं उन से परिचय बढेगा।

◆ आवागमन तालमेलों को जोड़ेगा। आशा है कि पृथ्वी पर एक से दूसरे स्थान पर बढता आवागमन स्थानीय तालमेलों को एक-दूसरे से जोड़ेगा। उम्मीद है कि तालमेलों के विश्व व्यापी ताने-बाने की रचना होगी। आशा है कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैले और आपस में जुड़े सहज तालमेल नई समाज रचना के लिये संगठित प्रयासों के आधार बनेंगे।

आईये, ऊँच-नीच, मण्डी-मुद्रा, मजदूरी-प्रथा वाली वर्तमान समाज व्यवस्था के स्थान पर गैरबराबरी नहीं, उपहार, समुदाय-प्रथा वाली नई समाज रचना के लिये कर्म व वचन में आदान-प्रदान बढायें।

  (मजदूर समाचार, मार्च 2009)

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रफ्तार और स्वास्थ्य (2)

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।

इस सन्दर्भ में अंश भेजते रहेंगे। पैंतालिसवाँ अंश में सन्दर्भ गति और मन का स्वास्थ्य है। यह सितम्बर 2009 अंक से है।

जल्दी का आज बोलबाला है। गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति का महिमामण्डन सामाजिक पागलपन का स्वरूप ग्रहण कर चुका है। थल, जल, नभ और इन सब के पार अन्तरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से भी परे के लिये तीव्र से तीव्रतर वाहनों का निर्माण आज मानवों की प्रमुख गतिविधियों में है। शीघ्र तैयार होती फसलें और पशु-पक्षियों का माँस जल्दी बढाना आम बात बन गये हैं … मानव अपने स्वयं के शरीरों की रफ्तार बढ़ाने में जुटे हैं। और मस्तिष्क की गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति ने मुक्ति-मोक्ष का आसन ग्रहण कर लिया है।

प्रकृति के पार जा कर हम गति के उत्पादन में जुट गये हैं। रफ्तार की कई किस्में हैं। हर प्रकार की गति का उत्पादन एक अनन्त तांडव है। रफ्तार बढाना तांडवों की वीभत्सता बढाना लिये है। गति के उत्पादन पर विचार करने की अति आवश्यकता को महसूस करने के लिये स्वास्थ्य पर पड़ते रफ्तार के प्रभावों के कुछ पहलू देखें। यहाँ कुछ बातें मानसिक स्वास्थ्य की।

● निर्णय लेना। कई निर्णय लेना। प्रतिदिन अनेक प्रकार के अनेक निर्णय लेना। यह प्रत्येक की आज जीवनचर्या बन गई है। हर क्षेत्र में गति, तीव्रतर गति शीघ्र निर्णय को क्षण के विभाजन (अंग्रेजी में स्प्लिट सैकेण्ड) के चरण में ले आई है। और गति बढ़ रही है …

अनगिनत चीजें आपस में जुड़ी हैं। और, गतिशील हैं। किसी भी समय एक अत्यन्त अस्थिर संतुलन बनता है। ऐसे में व्यक्ति हो चाहे संस्थान, निर्णय तुक्के की श्रेणी में आते हैं। इसलिये स्पष्टीकरणों की भरमार रहती है।

यह गति, तीव्रतर गति द्वारा रची-बुनी सामाजिक हालात हैं कि प्रत्येक को प्रतिदिन हजारों निर्णय करने होते हैं। ऐसे में आशा और निराशा का स्थान अति आशा और अति निराशा ने ले लिया है। कभी-कभार की बजाय प्रत्येक एक ही दिन में कई-कई बार इन दो अतियों के बीच झूलता-झूलती है। एक तरफ “मैं ही बेवकूफ हूँ” तो दूसरी तरफ “मेरे सिवा सब पागल हैं” दो छोर बने हैं।

गति, तीव्रतर गति ने सूचनाओं-जानकारियों की बाढ ला दी है। व्यक्ति को कुछ का ही पता रहता है, कुछ को ही ध्यान में रख सकती है। और फिर आंकलन, तुलनात्मक आंकलन, महत्व के प्रश्न। जल्दी-जल्दी हजारों फैसले रोज लेने की मजबूरियाँ ही हैं कि “गलती किस से नहीं होती?” आज इतना प्रचलित वाक्य है। परन्तु बात इतनी ही नहीं है।

निर्णय-दर-निर्णय। तुक्के-दर-तुक्के। गलतियाँ-दर-गलतियाँ। आज की यह अनन्त प्रोसेस प्रत्येक को प्रतिदिन अनेक भूमिकाओं में धकेलती है। रोज ही हम अनेक मुखौटे लगाने को अभिशप्त हैं। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति अनेक व्यक्तित्वों का अखाड़ा बना है। एक “मैं” में पचासों “मैं” हैं। और, ज्ञानी लोग व्यक्तित्व में एक विभाजन को मनोरोग कहते हैं।

● बच्चे जल्दी बड़े हों। यानी, वर्तमान में गति की तीव्रता के अनुरूप बच्चे स्वयं को शीघ्र ढालें। विद्यालय। मस्तिष्क की गति बढायें। परिणाम है दस वर्ष के बच्चों में भी चिड़चिड़ापन, सुस्ती व उदासी … आत्महत्या तक।

मानसिक रोगों ने महामारी का रूप ले लिया है। ऐसे में मनोचिकित्सकों में एक प्रवृति यह भी उभरी है कि 15 प्रतिशत मानसिक रोगों को मनोरोग मानना ही बन्द करो।

भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य प्रोग्राम का आंकलन है कि भारत में 10-20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगी है। चिकित्सकों के अनुसार भारत में 50-60 प्रतिशत लोग मनोरोगी हैं। स्वयं डॉक्टरों में आधे से अधिक रोगी हैं और 6-7 प्रतिशत तो गम्भीर रूप से मनोरोगी हैं। भारत में तीव्रतर गति के व्यापक ताण्डव को अधिक समय नहीं हुआ। यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया में गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति की उपज अकेलापन की भयावहता का अन्दाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अन्य विषयों के विशेषज्ञों पर अनेक पाबन्दियाँ लगाती यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया की सरकारों ने भारत से मनोचिकित्सकों के लिये दरवाजे पूरे खोल रखे हैं।

● अकेलापन। भीड़ में अकेलापन। यह तीव्र से तीव्रतर गति की विशेष फसल है, खास उपज है।

आज कामकाजी रिश्तों का बोलबाला है। और, इतनी तेजी के होते हुये भी कामकाजी सम्बन्धों के लिये भी किसी के पास पर्याप्त समय नहीं है। वैसे, यह कहना बनता है कि गति इतने काम पैदा कर देती है — बढा देती है कि समय कम पड़ता है। ऐसे में आमतौर पर “समय नहीं है” का रोना कामकाजी रिश्तों के लिये समय कम पड़ने का रोना होता है।

जबकि, कामकाजी रिश्तों से परे वाले सम्बन्ध ही वह सम्बन्ध हैं जो जीवन को रस देते हैं, जीवन्तता प्रदान करते हैं। कामकाजी रिश्तों में परिचित बनते हैं और इन से परे वाले सम्बन्धों में … मित्र-दोस्त-फ्रेन्ड बनते हैं (शब्दों के अर्थों में भारी उलट-फेरें हुई हैं और परिचित को मित्र कहना चलन में है फिर भी मजबूरी में यह शब्द पुराने अर्थ में यहाँ प्रयोग किये जा रहे हैं)।

किसी भी सम्बन्ध के लिये समय प्राथमिक आवश्यकता है। आज कामकाजी रिश्ते ही सब समय हड़प रहे हैं। इसलिये परिचित बहुत हैं, दोस्त शायद ही कोई। यह स्थिति मानसिक रोगों का एक आधार तो बनती ही है, यह मनोरोंगों के उपचार को असम्भव भी बना देती है।

● थोड़ा मुड़ कर देखें। डर, गुस्सा, असहायता, जलन, कुंठा, लालच व्यापक थे। परन्तु फिर भी मानसिक रोगों को रोकने, उनका उपचार करने के लिये झाड़-फूंक, मन्दिर-दरगाह-थान के अलावा एक प्रकार की सामाजिकता भी थी। रफ्तार, बढती रफ्तार उसे पूरी तरह निगल गई है अथवा उसका बाजारीकरण कर दिया गया है।

उपमहाद्वीप में इन सौ वर्षों में व्यक्ति की मृत्यु पर उससे सम्बन्धित गतिविधियों का एक महीने से 13 दिन, फिर 3 दिन और अब एक घण्टे की होना। एक महीने की होली 6-8 घण्टे की हो गई है। सावन का महीना दो दिन का बन गया है — तीज का दिन और रक्षाबन्धन का दिन। ब्रज में भी कृष्ण जन्माष्टमी से बलदेव छठ वाला 20 दिन का भादों मास मात्र जन्माष्टमी रह गया है। दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, गरबा, ओणम, बिहू, दिवाली का बाजारीकरण वीभत्स रूप ग्रहण कर चुका है। दादा, नानी, दोस्त, गली-मोहल्ले के रिश्ते अब गायब हो रहे हैं और निजता-प्राइवेसी की माँग मुखर हो रही है।

इसलिये भारत में भी मानसिक रोगों का उपचार एक बहुत बड़ा धन्धा बनने की राह पर है।

● गति की पहली दस्तक आमतौर पर सेना में होती है। गति और दूर-दूर प्रस्थान व निवास स्थाई सेना को मानसिक रोगों के लिये उपजाऊ स्थान बनाते हैं। उपमहाद्वीप की ही बात करें तो पहला पागलखाना 1787 में कोलकाता में खोला गया था। फिर 1794 में चेन्नई में, 1795 में रांची में, 1806 में मुम्बई में, 1858 में आगरा में, 1862 में बरेली में पागलखाने बनाये गये। यह सब पागलखाने छावनियों के निकट बनाये गये थे। पहले इन पागलखानों में यूरोप में जन्मे मनोरोगी सैनिकों को रखा जाता था और फिर मानसिक रोग से ग्रस्त भारत में जन्मे सिपाहियों को भी। मनोरोगियों को पागलखानों में बन्द करने का कानून 1858 में बना और यह जेल अधीक्षकों के तहत थे — 1920 में इनके नाम में चिकित्सालय शब्द लाया गया और यह डॉक्टरों के तहत हुये।

सेनाओं के बाद गति का अगला अखाड़ा आमतौर पर उत्पादन क्षेत्र बनता है। डेढ-दो सौ वर्ष पूर्व की गति तथा परिजनों से दूर निवास सैनिकों को मनोरोगी बना रहे थे। आज मजदूर उससे बहुत अधिक गति तथा परिजनों से दूर बदतर निवास स्थानों पर रहते व कार्य करते हैं। मजदूरों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में … क्या कहें?

और, बूढों में मानसिक रोगों की स्थिति … यह बात ही मत करो!

(मजदूर समाचार, सितम्बर 2009)

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रफ्तार और स्वास्थ्य

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चवालिसवाँ अंश अगस्त 2009 अंक से है।

जल्दी का आज बोलबाला है। गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति का महिमामण्डन सामाजिक पागलपन का स्वरूप ग्रहण कर चुका है। थल, जल, नभ और इन सब के पार अन्तरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से भी परे के लिये तीव्र से तीव्रतर वाहनों का निर्माण आज मानवों की प्रमुख गतिविधियों में है। शीघ्र तैयार होती फसलें और पशु-पक्षियों का माँस जल्दी बढाना आम बात बन गये हैं … मानव अपने स्वयं के शरीरों की रफ्तार बढ़ाने में जुटे हैं। और मस्तिष्क की गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति ने मुक्ति-मोक्ष का आसन ग्रहण कर लिया है।

प्रकृति के पार जा कर हम गति के उत्पादन में जुट गये हैं। रफ्तार की कई किस्में हैं। हर प्रकार की गति का उत्पादन एक अनन्त तांडव है। रफ्तार बढाना तांडवों की वीभत्सता बढाना लिये है। गति के उत्पादन पर विचार करने की अति आवश्यकता को महसूस करने के लिये स्वास्थ्य पर पड़ते रफ्तार के प्रभावों के कुछ पहलू देखें।

● अपनी देखभाल के लिये मानव शरीर में एक जटिल ताना-बाना है। शरीर में अनेक रक्षा-प्रणालियाँ हैं। उत्तेजना की ही बात करें तो एडरीनल ग्रन्थी में इस पर नियन्त्रण के लिये दो भाग होते हैं — एक तत्काल के लिये तो दूसरा दीर्घ अवधी के लिये रसायन (स्ट्रेस होरमोन) उपलब्ध कराता है। आम बात है कि उत्तेजना मानव शरीर की सामान्य अवस्था नहीं रही है। लेकिन इधर समय पर पहुँचना, निर्धारित समय सीमा में कार्य पूरा करना दैनिक जीवनचर्या बन गई है। इसके लिये आवश्यक तन तथा मस्तिष्क की गति प्रत्येक के लिये जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में उपस्थित है। आवश्यक गति का निर्धारण श्रृंँखला, सामाजिक श्रृंँखला करती है। यह गति बढती रहती है और श्रृंँखला से छिटक दिये जाने, नाकारा बना दिये जाने का डर चाबुक का कार्य करता है। ऐसे में प्रत्येक का तन तथा मस्तिष्क हर रोज बहुत समय तक उत्तेजना की स्थिति में रहते हैं। इससे होता यह है कि शरीर की पूरी ऊर्जा दैनिक उत्तेजना के नियन्त्रण पर केन्द्रित हो जाती है। इस कारण शरीर की अन्य रक्षा-प्रणालियों को आवश्यक ऊर्जा-साधनों की पूर्ति शरीर नहीं कर पाता। रक्षा-प्रणालियों का कमजोर होना बीमारियों की सम्भावना बढ़ा देता है। इसलिये जो जीवाणु सहज रूप से शरीर में रह रहे होते हैं और हमारे जीने के लिये आवश्यक हैं, उन्हीं जीवाणुओं से कई प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। घड़ी, जी हाँ घड़ी, स्वास्थ्य की कब्र खोदती है।

● हमारी माँसपेशियाँ और जोड़ अनेक प्रकार की गतिविधियों के अनुरूप हैं। पेड़ पर अठखेलियाँ करते बन्दर के बच्चे को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन गति का उत्पादन, तीव्रतर गति का उत्पादन एक ही क्रिया का बार-बार दोहराना लिये है। हम में से किसी की माँसपेशियों व जोड़ों पर हर रोज काफी समय तक अत्याधिक दबाव होता है तो किसी की माँसपेशियाँ व जोड़ सामान्य तौर पर शिथिल रहने को अभिशप्त हैं। लगातार खड़े-खड़े बारम्बार एक जैसा कार्य हो चाहे बैठे-बैठे मात्र हाथ चलाना, पसीने में भीगे रहना हो या फिर पसीना ही नहीं आना, हम में से अधिकतर का दैनिक जीवन इन दो धुरियों के इर्द-गिर्द घूमता है (ठहरा रहता है कहना अधिक सटीक होगा)। परिणाम है जोड़ों की बीमारियों और माँसपेशियों के दर्द की बाढ। जाँघों, घुटनों, पिण्डलियों, हाथ, कँधा, कमर के दर्द की महामारी रफ्तार, ज्यादा रफ्तार की उपज है।

● मानवों पर जीवाणुओं के आक्रमणों का बढना तथा व्यापक स्तर पर फैलना गति की, तीव्र गति की एक और महिमा है। एक शरीर के आवागमन के दायरे में सामान्य तौर पर जो जीवाणु पाये जाते हैं उनसे निपटने की क्षमता शरीर में प्राकृतिक तौर पर विकसित हुई। बल्कि, यह कहना चाहिये कि मानव शरीर का अपने इर्द-गिर्द वाले तथा स्वयं शरीर में निवास करते जीवाणुओं के साथ समन्वय रहा है। शरीर के अन्दर वाले जीवाणुओं से समन्वय टूटने की चर्चा कर चुके हैं। बढती गति द्वारा पृथ्वी को एक गाँव में बदल देने की बात देखिये। वाहनों में वायुयान को ही लें। फरीदाबाद जिले के एक गाँव में रहते व्यक्ति का शरीर वहाँ के जीवाणुओं के संग सहज जीवन आमतौर पर व्यतीत करता है। उस व्यक्ति का सिंगापुर या अमरीका जाना उसके शरीर को ऐसे जीवाणुओं के सम्पर्क में लाता है जिनके साथ समन्वय स्थापित करने की क्षमता उसके शरीर में नहीं है। वह गति, तीव्र गति द्वारा उत्पन्न बीमारी का शिकार बनती-बनता है। परन्तु बात इतनी ही नहीं है। यहाँ से अमरीका गया व्यक्ति अपने संग यहाँ के जीवाणु ले जाता है और अमरीका से यहाँ आती व्यक्ति अपने संग वहाँ के जीवाणु लाती है।

दोनों जगह नई-नई बीमारियों के बीज बोना, बल्कि बीज फैलाना। गति का, तीव्रतर गति का उत्पादन अपने में नगर-महानगर लिये है। गति, तीव्र गति अपने में विद्यालय-महाविद्यालय, मैट्रो-बस-रेल-वायुयान से अनेकों द्वारा संग-संग यात्रा, बड़ी इमारतों में निवास तथा कार्यालय, और मॉल-बाजार में भीड़ लिये है। इन सब ने छींक अथवा खाँसी से फैलने वाली बीमारियों की अपार सम्भावनायें पैदा कर दी हैं।

● तीव्रतर गति के उत्पादन के लिये नये रसायनो की आवश्यकता पड़ती है। गति के प्राप्त स्तर को बनाये रखने के लिये भारी मात्रा में रसायनों की जरूरत रहती है। मानव निर्मित रसायनों की एक पूरी नई दुनियाँ है। इन डेढ-दो सौ वर्षों में बहुत बड़ी संँख्या में नये रसायन पैदा किये गये हैं। और, कैन्सर पैदा करने में इन रसायनों की प्रमुख भूमिका है। जल्दी और अधिक फसल के लिये बीजों में परिवर्तन, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक कैन्सर तथा अन्य नये रोगों को गाँव-गाँव तक फैला रहे हैं।

● शरीर स्वयं समर्थ है अपनी मरम्मत करने में। छिल जाने, कटने, चोट लगने का उपचार करना शरीर की सामान्य क्रिया है। लेकिन, लेकिन गति, तीव्रतर गति के संग जो चोट जुड़ी हैं उनके सम्मुख शरीर लाचार-सा हो जाता है। शरीर के पास स्वयं को ठीक करने के लिये समय भी नहीं छोड़ा जाता। पाँच हजार वर्ष में विश्व-भर के सब युद्धों में जितने लोग मरे हैं उन से ज्यादा इन सौ वर्षों में सड़कों पर वाहनों की चपेट में मरे हैं। भारत की ही बात करें तो 1948, 1962, 1965, 1971, 1999 के युद्धों और 60 वर्ष की सब “आतंकवादी” कार्रवाइयों में जितने लोग मरे हैं उन से ज्यादा लोग पिछले वर्ष सड़क “दुर्घटनाओं” में मरे। भारत सरकार के क्षेत्र में 2008 में सड़कों-वाहनों ने एक लाख की जान ली, दस लाख लोग अपंग किये, चालीस लाख लोग कुछ समय के लिये नाकारा किये। परन्तु कार्यस्थलों (ड्राइवर वाले से विलग) को देखते हैं तो सड़कें भी कम लहू बहाती नजर आती हैं। गति द्वारा कार्यस्थलों पर हत्या करना, घायल करना, बीमार करना के आँकड़े छिपाये जाते हैं, बहुत ज्यादा घटा कर बताये जाते हैं। कृषि क्षेत्र में गति का बढ़ना, थैशर-ट्रैक्टर-ट्युबवैल-बिजली स्वयं में एक गाथा लिये हैं, तांडव की गाथा लिये हैं।

(जारी)

 (मजदूर समाचार, अगस्त 2009)

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ग्रामीण कथा-गाथा

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तेतालिसवाँ अंश,ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना के सन्दर्भ में, अप्रैल 2009 अंक से है।

दो सौ वर्ष से दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत और सामाजिक हत्या का सिलसिला जारी है। यह पूरी दुनिया की बात है। यूरोप और उत्तरी अमरीका से किसानों तथा दस्तकारों का सफाया-सा हो चुका है। आज अमरीका सरकार के क्षेत्र में आबादी का चार प्रतिशत ही खेतीबाड़ी में है और वह भी कम्पनियों में साहबों तथा मजदूरों के रूप में। फैक्ट्री उत्पादन ने पहले दस्तकारी को मिटाया और फिर कृषि में फैक्ट्री-पद्धति किसानी खेती की मौत लिये है। यूरोप में फैक्ट्री-उत्पादन के फैलाव ने दस्तकारों-किसानों के एक हिस्से को मजदूरों में बदला, दूसरा हिस्सा दुकानदारों में परिवर्तित हुआ, और बड़ा हिस्सा उत्तरी अमरीका-आस्ट्रेलिया आदि स्थानों को खदेड़ दिया गया – पलायन कर गया। इसका एक परिणाम अमरीका-आस्ट्रेलिया में रह रहे समुदायों को निर्ममता से मिटाना रहा। और, यूरोप में स्थापित हुआ फैक्ट्री उत्पादन विश्वव्यापी बनता आया है। फिर, व्यापार में फैक्ट्री-पद्धति दुकानदारों का सफाया करती है। और फिर, भाप-कोयले वाली मशीनों के दौर में फालतू मजदूरों की बड़ी सँख्या को इलेक्ट्रोनिक्स ने बहुत अधिक बढा दिया है। आज संसार में करोड़ों बेरोजगार मजदूरों के संग एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में तिल-तिल कर कट-मर रहे अरबों दस्तकार-किसान हैं … इन सब के लिये कहीं कोई जगह नहीं है। सामाजिक असंतोष अधिकाधिक विस्फोटक हो रहा है। “आतंकवाद” का शोर मचा कर सब देशों की सरकारें सामाजिक असन्तोष को आतंक के जरिये दबाने पर एकमत हैं, एकजुट हो रही हैं। भयभीत सरकारें ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में आ रही लोगों की बाढ को थामने के लिये खादी ग्रामोद्योग, किसानों की ऋण माफी, ग्रामीण रोजगार गारन्टी वाले रेत के बाँध भी खड़े कर रही हैं।

ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना मजदूर : “मथुरा जिले के एक गाँव के दस्तकार परिवार से हूँ। आई.टी.आई. की। अप्रेन्टिस की। नौकरी के लिये मथुरा,आगरा, अहमदाबाद, गुड़गाँव, फरीदाबाद के चक्कर काटे। फरीदाबाद में एक फैक्ट्री में लगा और 6 महीने बाद ब्रेक। फिर बेरोजगार … अब दो महीने से नोएडा में एक फैक्ट्री में लगा हूँ। पहली बेरोजगारी में बरसों की परेशानी से सबक ले कर दूसरी बेरोजगारी के समय मैंने ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना में काम करना तय किया। पहला काम जुलाई 2008 में ग्राम पंचायत के तहत तालाब से मिट्टी उठाने का मिला। फिर अगस्त-सितम्बर में सिंचाई विभाग से बम्बे से मिट्टी हटाने का काम मिला। कुल 21 दिन काम किया, कागजों में 22 दिन दिखाया। काम हम 35 मजदूरों ने किया पर कागजों में 50 दिखाये और 15 लोगों की घर बैठे हाजिरी लगी। खींच कर काम, भारी काम, मीटर से नाप कर — 50 की जगह 35 ने मिट्टी उठाई। भुगतान नवम्बर और दिसम्बर में जा कर। कहते हैं कि जीरो बैलेन्स पर बैंक खाता खुलेगा। खाता खोलने के 20-50 रुपये लिये। पहली किस्त दी तब 200 रुपये खाते में रखने के लिये रख लिये। दूसरी किस्त के समय भी 200 रुपये खाते के नाम पर रख लिये। पहली किस्त दी उस रोज सुबह 8 बजे हम सब को बैंक बुलाया और 3 बजे तक टरकाते रहे। फिर बोले कि कल आना। एतराज पर खर्चा माँगा और प्रत्येक से 20 रुपये लिये। हम से अंँगुठे-हस्ताक्षर करवा कर पैसे शिक्षा मित्र तथा ग्राम विकास अधिकारी को दिये जिन्होंने हम 35 को 800-800 रुपये और घर बैठे हाजिरी वालों को 400-400 रुपये दिये। यही सब दूसरी किस्त के समय हुआ … खर्चे के नाम पर 20 की बजाय 50 रुपये काटे तो हम ने विरोध किया जिस पर धमकी दी — दुबारा भी तो काम पड़ेगा। दूसरी बार भी हम 35 को 800-800 रुपये और घर बैठे हाजिरी वाले 15 को 400-400 रुपये दिये। हमारी पास बुक बैंक वालों के पास रहती हैं और जॉब कार्ड शिक्षा मित्र के पास। दिहाड़ी 100 रुपये कहते हैं पर काम करने वालों को 70 रुपये भी नहीं पड़ते और वह भी दिहाड़ी तोड़ कर परेशानी के संग कई महीने बाद। ऐसे में हम ने योजना से छुट्टी कर ली और जनवरी में बागवानी का काम आया तो गाँव के किसी मजदूर ने नहीं किया। शिक्षा मित्र और ग्राम विकास अधिकारी ने हमें समझाया था कि मण्डल, जिला, ब्लॉक अधिकारियों को पैसे देने होते हैं और तुम्हारे लिये हम मोटरसाइकिल पर आते-जाते हैं, इस सब पर खर्च होता है। नवम्बर-दिसम्बर में शिक्षा मित्र जब हमें पैसे बाँट रहा था तब उसे सरकार से दस महीनों की तनखायें नहीं मिली थी।”

 (मजदूर समाचार, अप्रैल 2009)

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