जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। बयालिसवाँ अंश मई 2009 अंक से है।
● मनुष्य प्रकृति का एक अंश है। प्रकृति हमारे शरीरों को अपनी देखभाल करने, स्वयं को स्वस्थ रखने की शक्ति देती है।
प्रकृति में बहुत-सारे कीटाण हैं। हम में से प्रत्येक के मुँह में ही इतने कीटाणु होते हैं जितने पृथ्वी पर मुनष्य नहीं हैं। कीटाणुओं के हमारे शरीर के साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं, गतिशील रिश्ते हैं। मनुष्य के शरीर के साथ मिल कर कीटाणु शरीर की प्रक्रिया का संचालन करते हैं।
हमारे शरीर के अन्दर के तथा शरीर के बाहर के कौन-कौन से कीटाणु किन-किन मात्राओं में और कैसी स्थितियों में हमारे लिये हानिकारक हैं यह कोई सीधी-सरल बात नहीं है।
● ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और विशेषकर मण्डी-मुद्रा से जुड़े ज्ञान-विज्ञान अपनी नाक तक देखने के दौर में भी “अन्य” को शत्रु के तौर पर देखते थे। ज्ञानियों-विज्ञानियों की भाषा ही युद्ध की भाषा होती थी-है। यह लोग हमारे शरीर के सिपाही-कर्नल-जनरल को “आक्रमणकारियों” से लड़ते देखते थे-हैं।
आरम्भ में टीकाकरण कीटाणुओं को मात्र शत्रु मान कर चलता था। फिर इसमें मिले मुनाफे के पुट ने स्थितियाँ बहुत-ही विनाशकारी बना दी हैं।
सरकारें टैक्सों की वसूली के जरिये बिखरी हुई धन-सम्पदा को एकत्र करती हैं। इस तरह बनते लूट के ढेर के लिये, इस पर कब्जे के लिये गिरोहों के बीच युद्ध होते रहे हैं। इधर टैक्सों के इन अरबों-खरबों-नील-पदम में हिस्सा-पत्ती के लिये नेता और दल चुनावों में करोड़ों खर्च भी करने लगे हैं। टीकाकरण का सरकारी कार्यक्रम नेताओं, अफसरों, विशेषज्ञों, कम्पनियों के लिये दुधारू गाय भी है — भारत सरकार पोलियो अभियान पर ही हर वर्ष 1200 करोड़ रुपये खर्च कर रही है।
और, यह युद्ध की भाषा ही है कि सरकारें आज वास्तव में कीटाणुओं को हथियारों में बदलने पर अरबों खर्च कर रही हैं। प्रयोगशालाओं में कीटाणुओं में परिवर्तन कर उन्हें एटम बमों जैसा बनाना आज हजारों वैज्ञानिकों की नौकरी है।
● टीकाकरण के लिये बहुत भारी दबाव है, जबरन ही कह सकते हैं। प्रश्न हम सब के सम्मुख मुँह बाये खड़ा है :
जन्म लेते ही बच्चे के टीके लगाना शिशु का स्वागत करना है या फिर अत्याचार का आरम्भ? नियमित अन्तराल पर शिशुओं के अनेक प्रकार के टीके लगाने, बून्द पिलाने पर विचार करने के लिये कुछ तथ्यों पर गौर करें।
— शिशुओं को लगाये जाते अधिकतर टीके बिना परीक्षण के लागू कर दिये गये हैं। ऐसे में पहला कार्य तो यह बनता है कि टीकाकरण की उपयोगिता को जाँचा जाये। जाँच के दो पहलू होते हैं : क्या यह उपयोगी है? इसके प्रयोग से कोई अन्य नुकसान तो नहीं हैं? हालैण्ड में, और
हाल ही में जर्मनी में किये प्रयोगों में पाया गया है कि टीके नहीं लगे बच्चों से टीके लगे बच्चे अधिक बीमारियों से ग्रस्त होते हैं।
— बन्दरों और भेड़ों में टीके तैयार करने वाली क्रूरता अपने आप में एक अति महत्वपूर्ण सवाल है परन्तु उस पर चर्चा यहाँ नहीं करेंगे। शिशुओं को लगाये जाते टीकों में पारा और अल्युमिनियम को ही यहाँ देखें। विषैलेपन में पारा एटम बम में प्रयोग होते यूरेनियम से ही कम है। शरीर में पारा पहुँचने पर यह मस्तिष्क की अनेक बीमारियों का कारण बन सकता है। अल्युमिनियम गुर्दो और जिगर के लिये बहुत हानिकारक है। शिशुओं को जो टीके लगाये जा रहे हैं उन में पारा और अल्युमिनियम की घातक मात्रायें होती हैं। यह तो शरीर की प्रतिरोध की क्षमता है कि बड़ी संँख्या में बच्चे बीमार नहीं हो रहे।
— भारत सरकार के अपने आँकड़ों के अनुसार भी एक चौथाई से ज्यादा शिशु कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे बच्चों का टीकाकरण भद्दा-क्रूर मजाक है … बच्चों को 25 बार पोलियो की बून्द पिलाने के बाद भी वे पोलियो से ग्रस्त हुये हैं।
— करोड़ों बच्चों को टीके लगाने के अरबों-खरबों के धन्धे के अभिशाप के अहसास के लिये कृषि में दवाओं के धन्धे को देखें। कीटनाशक और खरपतवार नष्ट करते रसायन दवा कम्पनियों के लिये भारी मुनाफे लिये हैं। परन्तु , प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ती और खेतों, फसलों, भूजल को विषैला बनाती यह दवायें गाँवों में भी कैन्सर की महामारी ला रही हैं।
शिशुओं को टीके लगाने से होती अत्याधिक हानियों के बारे में अधिक जानकारी के लिये कृपया श्री जगन्नाथ चटर्जी का आलेख : “50 Reasons to Protect Infants from Vaccines” देखें । एक मित्र ने यह हमें भेजा। सम्पर्क के लिये ई-मेल <jagchato1@yahoo.com>
शिशु के लिये माँ का दूध पर्याप्त है। छह महीने तक तो सिर्फ और सिर्फ माँ द्वारा दूध पिलाना एक अनिवार्यता बनता है। अमर होने और चिरयौवन की अपनी हवस से कृपया बच्चों को बख्शें।
(मजदूर समाचार, मई 2009)