मसला यह व्यवस्था है (6)

इस-उस नीति, इस-उस पार्टी, यह अथवा वह लीडर की बातें शब्द-जाल हैं, शब्द-आडम्बर हैं

● राजे-रजवाड़ों के दौर में, बेगार-प्रथा के दौर में मण्डी-मुद्रा का प्रसार कोढ में खाज समान था। छोटे-से ग्रेट ब्रिटेन के इंग्लैण्ड-वेल्स-स्कॉटलैण्ड-आयरलैण्ड में भेड़ों ने, भेड़-पालन ने मनुष्यों को जमीनों से खदेड़ा। कैदखानों में जबरन काम करवाने, दागने, फाँसी देने के संग-संग बेघरबार किये गये लोगों को दोहन-शोषण के लिये दूरदराज अमरीका-आस्ट्रेलिया जैसे स्थानों पर जबरन ले जाया गया। उन स्थानों के निवासियों के लिये तो जैसे शामत ही आ गई हो। गुलामी जिनकी समझ से बाहर की चीज थी उन अमरीकावासियों के कत्लेआम किये गये। अफ्रीका से गुलाम बना कर लोगों को अमरीकी महाद्वीपों में काम में जोता गया।

● फैक्ट्री-पद्धति ने मण्डी-मुद्रा के ताण्डव को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया। मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली फैक्ट्री-पद्धति को भाप-कोयले ने, भाप-कोयला आधारित मशीनरी ने स्थापित किया। इसके संग दस्तकारी और किसानी की मौत, दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत आरम्भ हुई। छोटे-से ग्रेट ब्रिटेन के कारखानों में 6-7 वर्ष के बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम में जोता गया और … और बेरोजगार बने-बनते लाखों लोगों के लिये अनजाने, दूरदराज स्थानों को पलायन मजबूरी बने।

●फ्रान्स-जर्मनी-इटली … में फैक्ट्री-पद्धति के प्रसार के संग वहाँ भी आरम्भ हुई दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत लाखों को मजदूर बनाने के संग-संग यूरोप से बड़े पैमाने पर लोगों को खदेड़ना भी लिये थी। अमरीका … आस्ट्रेलिया … लोगों से “भर गये”।

● बिजली ने रात को भी काम के लिये खोल दिया। फैक्ट्री-पद्धति ने हमारी नींद ही नहीं उड़ाई बल्कि मारामारी का वह अखाड़ा भी रचा कि 1914-19 के दौरान ढाई करोड़ लोग और 1939-45 के दौरान पाँच करोड़ लोग तो युद्धों में ही मारे गये।

● अब फैक्ट्री-पद्धति में यह इलेक्ट्रोनिक्स का दौर है। फैक्ट्री-पद्धति का प्रसार पृथ्वी के कोने-कोने में और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। इस दौर में एशिया-अफ्रीका-दक्षिणी अमरीका में दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत तीव्र गति से हो रही है। भारत के, चीन के करोड़ों तबाह दस्तकार-किसान कहाँ जायें? इलेक्ट्रोनिक्स द्वारा दुनियाँ-भर में बेरोजगार कर दिये गये, बेरोजगार किये जा रहे करोड़ों मजदूर कहाँ जायें?

## विद्यालय-शिक्षा की बुनियादी इकाइयाँ अक्षर व अंक लिखित आदान-प्रदानों के आधार व जरिय ही नहीं है बल्कि एकरूपता-स्टैन्डर्डाइजेशन-मानकीकरण के माध्यम के रूप में यह व्यक्ति को संकीर्ण व्यवहार में धकेलने और व्यवस्था की निरंकुशता के साधन भी हैं। औजार सहायक की बजाय अभिशाप बन गया है। अक्षर-अंक का व्यापक प्रसार, विद्यालयों का पृथ्वी-व्यापी जाल मण्डी के विस्तार के संग-संग चला है। अक्षर-अंक और मण्डी एक-दूसरे के पूरक-से साबित हुये हैं। ऐसे में आइये अक्षर-अंक को कुछ और कुरेद कर देखें।

— अक्षर-अंक के निश्चित रूप। इन रूपों की पहचान और प्रयोग। अक्षर व अंक के नियम-उपनियम। यह स्वयं में अनुशासन लिये हैं। अनुशासन अपने में संकीर्ण व्यवहार लिये है। अनुशासन साहबों का, प्रबन्धकों का प्रिय शब्द है।

— निश्चित रूप, एकरूपता, स्टैन्डर्डाइजेशन अक्षर-अंक की ही तरह प्रोडक्ट और उत्पादन-प्रक्रिया में क्षेत्र व उद्योग विशेष से आरम्भ हो कर सर्वत्र व सार्विक बन, विश्व स्टैन्डर्ड बन कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर मजदूरों/मनुष्यों को निश्चित आकार-प्रकार के पुर्जों में बदलने को अग्रसर है। दस्तकार की मनमर्जी पर रोक, कुशल मजदूर की मर्जी पर पाबन्दी वास्तव में व्यक्ति/व्यक्तित्व के लिये स्थान सिकोड़ना है। व्यक्ति/व्यक्तित्व के महत्व का विलोप …

— “निरंकुशता का अन्त” इतिहास के पाठ के तौर पर पढाया जाता है। राजा-बादशाहों की मनमर्जी के किस्से और उन पर लगाम के लिये नियमों-कानूनों के महत्व की बातें की जाती हैं। व्यक्ति की निरंकुशता को नियमों-कानूनों के तानों-बानों में जकड़ कर समाप्त कर दिया गया … विद्यालयों के “सर्व शिक्षा अभियानों” द्वारा अक्षर-अंक की पहचान-प्रयोग में सब को खींच लेना प्रत्येक को क्रेता-विक्रेता में तब्दील करने, हरेक को बेचने-खरीदने वाले में बदल देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मण्डी के नियम-कानून “व्यक्ति की निरंकुशता का अन्त” और … और समाज व्यवस्था की निरंकुशता लिये हैं। सामाजिक प्रक्रिया की निरंकुशता ने जगन्नाथ के रथ को बहुत बौना बना दिया है।

— अक्षर व अंक की जुगलबन्दी व्यक्ति को समाज की इकाई के तौर पर स्थापित करने में उल्लेखनीय रोल अदा करती है। विद्यालय में रोल नम्बर, उपस्थित/अनुपस्थित की दैनिक क्रिया मण्डी-मुद्रा-फैक्ट्री पद्धति की व्यक्ति
को अपनी आधारभूत इकाई स्थापित करने की प्रक्रिया को पुष्ट करती है। उत्पादन और वितरण में व्यक्ति का इकाई बनना प्रत्येक का अक्षर-अंक से परिचित होना तो अनिवार्य बनाता ही है, यह व्यक्ति को महिमामण्डित भी करता है। पुरुषों के संग महिलाओं को नौकरी-चाकरी में धकेलने के लिये सिद्धान्त की चाशनी भी …

— समुदाय के टूटने पर उभरी ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में आमतौर पर पुरुष-केन्द्रित परिवार उनकी इकाई बने। विश्व मण्डी की स्थापना के आरम्भिक दौर में निजी व परिवार के श्रम द्वारा मण्डी के लिये उत्पादन वाले सरल माल उत्पादन में भी परिवार प्राथमिक इकाई बना रहा। फैक्ट्री-पद्धति, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था परिवार को छिन्न-भिन्न कर व्यक्ति को ऊँच-नीच का एक स्तम्भ बनाने को अग्रसर है। संयुक्त परिवार का विलोप-सा हो गया है। पति-पत्नी-बच्चे वाले परिवार लड़खड़ा रहे हैं, टूट रहे हैं …

— व्यक्ति/व्यक्तित्व को एक तरफ गौण-दर-गौण बनाती और दूसरी तरफ व्यक्ति का महत्व स्थापित करती वर्तमान समाज व्यवस्था वास्तव में गौण को महत्वपूर्ण बना रही है। छवि की महामारी … नये समुदाय आधारित समाज रचना के प्रयासों के लिये यह एक पुकार भी है।

नीति, पार्टी, नेता बदलने से इस सब में कोई फर्क पड़ेगा क्या?

ऊँच-नीच। आधुनिक ऊँच-नीच। अखाड़ा — मण्डी। विश्व मण्डी। होड़-प्रतियोगिता-कम्पीटीशन का सर्वग्रासी अभियान। स्वयं मनुष्यों का मण्डी में माल बन जाना। यह है वर्तमान समाज व्यवस्था।

—(मजदूर समाचार, जनवरी 2005 अंक)

 

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दिल्ली के संग अमरीका में मजदूरों के गत्ते (3)

कुछ पृष्ठभूमि आवश्यक है

● गेडोर हैण्ड टूल्स कम्पनी का मुख्यालय जर्मनी में। गेडोर कम्पनी की छह फैक्ट्रियाँ भारत में (फरीदाबाद में तीन और एक-एक कुण्डली, औरंगाबाद, तथा जालना में)। इन फैक्ट्रियों में 7300 वरकरों द्वारा वाहनों के टूल्स का उत्पादन। अमरीका की तीन प्रमुख वाहन निर्माता कम्पनियों, जनरल मोटर्स, फोर्ड, तथा क्रिसलर को गेडोर हैण्ड टूल्स किट का निर्यात। न्यू योर्क में गेडोर कम्पनी का गोदाम।

वाहनों की मण्डी में माँग घटी। चीन और कोरिया की हैण्ड टूल्स कम्पनियों की गेडोर कम्पनी को चुनौती। ऑटोमेशन। 1982 में गेडोर फैक्ट्रियों में ऑटोमेशन पूरा हुआ। और, 2300 मजदूर फालतू हो गये। भारत में वह फैक्ट्रियों में मजदूरों के परमानेन्ट होने का दौर था।

गेडोर कम्पनी से मान्यता प्राप्त सीटू यूनियन ने मजदूरों को नौकरी छोड़ने को तैयार करने के लिये बहुत पापड़ बेले। नौकरी छोड़ने को वरकर तैयार नहीं हुये।

फरीदाबाद में गेडोर मजदूरों ने सीटू यूनियन लीडरों को 1983 में भगा दिया। गेडोर कम्पनी की छँटनी योजना फँस गई।

फैक्ट्री में पुलिस के तम्बू। गेडोर मैनेजमेन्ट सीटू पठ्ठों को वापस लाई। पुलिस की छत्रछाया में गुण्डागर्दी द्वारा फरीदाबाद फैक्ट्रियों से 1500 मजदूर निकालने में गेडोर मैनेजमेन्ट को डेढ़ वर्ष और लग गया।

फरीदाबाद में 1500 और कुण्डली-जालना- औरंगाबाद से 800 वरकर निकालने के बाद 1986 में गेडोर कम्पनी ने पाया कि फैक्ट्रियाँ चलाना सम्भव नहीं है। तब, मुर्गी अण्डे देना बन्द कर दे तो काट-काट कर खा लो वाली बात हुई।

गेडोर कम्पनी के स्थानीय सहयोगी, झालानी बन्धुओं ने बागडोर सम्भाली और कम्पनी का नया नाम झालानी टूल्स।

सरकार द्वारा कम्पनी बीमार घोषित। रियायतें। बैंकों के कर्जों की किस्तें नहीं देना, मजदूरों के ग्रेच्युटी खाते से पैसे निकाल लेना, तनखायें आधी करना, तनखा में देरी, तनखा देना ही नहीं, कई महीनों की तनखायें बकाया हो जाना, ई.एस.आई. व पी.एफ. के पैसे जमा नहीं करना, टाटा स्टील से लिये मैटेरियल का भुगतान नहीं करना …

फरीदाबाद में झालानी टूल्स फैक्ट्रियों के मजदूरों ने मैनेजमेन्ट की बढती गुण्डागर्दी के बावजूद अपनी तनखाओं के लिये पाँच-सात की टोलियों में स्थानीय प्रशासन की नाक में दम किया। सब वैध रास्ते अपनाये। और, कानूनी राह का परिणाम : शून्य।

1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर वकील की राय : कोई कम्पनी तनखा नहीं दे तो कानूनी राहों से मजदूर तनखा नहीं ले सकते।

झालानी टूल्स मजदूरों ने तब फरीदाबाद में गत्तों पर अपनी बातें लिख कर शिफ्टों के समय सड़कों पर खड़े होना आरम्भ किया। सुबह और दोपहर को सड़कें बदल-बदल कर डेढ़ वर्ष यह किया। एक फैक्ट्री के मजदूरों के मामले को हजार फैक्ट्रियों का मामला बनाने के इस तरीके का प्रभाव पड़ा। विवरण मजदूर समाचार के 1996-98 अंकों में है।

गेडोर-झालानी टूल्स मजदूरों के अनुभव और विचार दिल्ली में ओखला औद्योगिक क्षेत्र में एक छोटी मैटल पॉलिश फैक्ट्री, माइकल आराम एक्सपोर्ट वरकरों के लिये 2005 में एक प्रस्थान बिन्दु बने।

दिल्ली के संग अमरीका में मजदूरों के गत्ते (3)

● समस्यायें इतनी बढ़ गई हैं और स्वयं को इतना कमजोर पाते हैं कि अक्सर चमत्कार में ही आस नजर आती है। मत्था टेकने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अध्यात्म की शक्तियों, विज्ञान की शक्तियों, सब शक्तियों के चमत्कारों के बावजूद हमारी समस्यायें बढती ही जा रही हैं।

● परेशानियाँ इस कदर बढ़ गई हैं कि हमें तत्काल समाधान चाहिये। इन्तजार अपने बस से बाहर लगता है। चुटकी बजा कर परेशानी दूर करने वालों को ढूँढने में हम ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। अनेकानेक मसीहाओं को आजमाने में हम ने कोई कँजूसी नहीं बरती है। नेताओं-पार्टियों-दादाओं-सिद्धों की चुटकियों और गर्जन को हम ने हमारी परेशानियाँ बढाने वाली ही पाया है।

क्या करें? कहाँ जायें ? हताशा-निराशा में अपने-अपने में सिमटते हैं और समस्याओं-परेशानियों को बढते पाते हैं। मन नहीं करता, मस्तिष्क मना करता है फिर भी मजार और मसीहा के फेरे लगाना ही अक्सर नजर आता है। इस चक्रव्यूह में एक दरार डालने का प्रयास लगता है माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों द्वारा दिल्ली में गत्ते ले कर अन्य मजदूरों के बीच जाना, आम लोगों के बीच खड़े होना। सौ मजदूरों को प्रतिनिधियों/नेताओं के जरिये पाँच में बदल कर मुट्ठी में रखने की परिपाटी को चुनौती है 10 का 100-1000-10,000- … बनने की राह।

दिल्ली में मजदूरों के गत्तों की गमक-धमक अमरीका पहुँची। दमन-शोषण वाली विश्वव्यापी वर्तमान समाज व्यवस्था से पार पाने तथा नई समाज रचना के प्रयासों के लिये एक और शुभ संकेत है यह।

# मार्च 2005 से कम्पनी द्वारा काम देना बन्द कर फैक्ट्री में मजदूरों को खाली बैठाना, मई में नई फैक्ट्री खोल वहाँ वही काम करवाना, बाहर काम करवाना, तनखा में टालमटोल के बाद सितम्बर माह से वेतन देना ही नहीं, दबाव बढा कर गाजियाबाद और सी-82 ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्रियों के मजदूरों से इस्तीफे लिखवाना, अमरीका स्थित माइकल आराम ग्रुप की कम्पनी को माल का निर्यात जारी रखना … इस सब के विरोध में बी-156 डी डी ए शैड्स ओखला फेज-1 स्थित माइकल आराम एक्सपोर्ट फैक्ट्री में अगस्त 2004 में 28 के निकाले जाने के बाद बाकी बचे बीस मजदूरों ने गत्तों पर अपनी बातें लिख कर 27 अक्टूबर 2005 से दिल्ली में अन्य मजदूरों के बीच जाना, लोगों के बीच खड़े होना आरम्भ किया था। इफ्टू यूनियन द्वारा श्रम विभाग में कार्रवाई, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों/समूहों से समर्थन-सहयोग के लिये सम्पर्क, पुलिस को सूचना, पार्षद व विधायक से मिलना और सांसदों से मिलने के प्रयास, पत्र-पत्रिकाओं-टी वी वालों से सम्पर्क, अमरीका में सहयोगी बनाने के लिये कोशिशें। इधर नवम्बर-दिसम्बर-जनवरी में दिल्ली में जगह-जगह गत्ते ले कर मजदूर खड़े हुये, विभिन्न प्रकार का सहयोग मिला और अमरीका में माइकल आराम समूह की कम्पनी से तथा ग्रुप का उत्पादन बेचते वितरकों से अमरीका सरकार के नागरिक प्रश्न पूछने लगे, विरोध जताने लगे (इन्टरनेट पर मजदूरों का पक्ष प्रस्तुत किया गया) … चौतरफा पड़ते दबाव के कारण 25 जनवरी 2006 को गत्ते वाले मजदूरों को माइकल आराम डिजाइन कम्पनी में स्थाई नौकरी के नियुक्ति-पत्र, बकाया तनखायें व बोनस दे दिये गये (जुलाई 2005 में श्रम विभाग से लौटते समय कार की टक्कर से मरे श्रमिक की विधवा को भी स्थाई नौकरी का नियुक्ति-पत्र)।

● स्थाई मजदूरों की जगह कैजुअल वरकर रखने, ठेकेदारों के जरिये मजदूर रखने के लिये हरकतें करना कम्पनियों की सामान्य क्रियायें हैं। स्थाई मजदूर की आधी, चौथाई, छठवें हिस्से की तनखा में उतना ही उत्पादन करवाना (बल्कि अधिक उत्पादन करवाना) यहाँ 15-20 वर्ष से सरकारों-कम्पनियों के क्रियाकलापों की मुख्य चारित्रिकता है। निगाहों को संसार के पटल पर रखें तो उत्पादन के संग लेखाजोखा व वितरण के कार्य को अमरीका-यूरोप से निकल कर दुनियाँ के अन्य क्षेत्रों में तीव्रतर गति से जाते पाते हैं। मैक्सिको-चीन-भारत-बंगलादेश- … का अर्थ है यूरोप-अमरीका में वेतन के दसवें, बीसवें, तीसवें, चालीसवें हिस्से में कार्य करवाना।

भाप-कोयला आधारित मशीनों द्वारा स्थापित मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था की मारक क्षमता को बिजली और इलेक्ट्रोनिक्स ने सातवें आसमान पर पहुंँचा दिया है। कृत्रिम उपग्रह-कम्प्युटर-इन्टरनेट ने सिर-माथों पर बैठों के लिये यूरोप-अमरीका में उत्पादन कार्य कम कर भयभीत मजदूरों को जकड़ में कसने का कार्य किया है तथा भारत-चीन में दस्तकारों-किसानों की सामाजिक मौत की रफ्तार बढा कर टके सेर इन्सान उपलब्ध होना सुनिश्चित किया है। बेरोजगारों की भरमार (अमरीका सरकार की जेलों में बीस लाख से ज्यादा लोग बन्द), भारत में सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के आधे से भी कम में काम करने के लिये कतारें …

जैसे ज्ञान को ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं का वाहक वाहन कह सकते हैं वैसे ही विज्ञान को मण्डी- मुद्रा का वाहक वाहन कह सकते हैं (देवताओं के वाहक वाहन बहुत पीछे छूट गये हैं)।

● ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था के गठन के संग आरम्भ हुई मानव योनि की त्रासदी इधर मण्डी-मुद्रा के दबदबे के संग समस्त जीवों के लिये, सम्पूर्ण पृथ्वी के लिये विनाशकारी बन गई है। सामाजिक बीमारी इस कदर भयावह रूप धारण कर चुकी है कि बीमारी का हर लक्षण

स्वयं बीमारी नजर आने लगा है। ऐसे में उपचार के नाम पर उन तरीकों की भरमार है जो क्षणिक राहत के आवरणों से बीमारी को ढकते हैं। जबकि, हमें राहत के वो तरीके चाहियें जो तात्कालिक समस्या से राहत लिये हों और बीमारी को उजागर कर उसके उपचार की राहें प्रदत करते हों।

राजनीति में राजा का स्थान जैसे चेहराविहीन सरकार ने लिया वैसे ही फैक्ट्री-उत्पादन में मालिक का स्थान बिना चेहरे वाली कम्पनी ने ले लिया। इन हालात में व्यक्ति-विशेष के गुण-अवगुण अधिकाधिक गौण होते गये हैं। अस्सी-सौ वर्ष पूर्व ही ईमानदार-असली-बलिदानी प्रतिनिधित्व की सीमा “शानदार पराजय” स्पष्ट हो गई थी। आज बेईमानी पर छाती पीटना विलाप की रस्म अदा करना है।

सरलीकरण के लिये उत्पादन क्षेत्र को ही लें।

कम्पनी;

कम्पनी की कई उत्पादन इकाइयाँ;

उत्पादन की एक शाखा में कई कम्पनियाँ;

कम्पनियों में लगते – कम्पनियों से निकलते पैसों के विभिन्न स्रोत – पड़ाव;

मण्डी की माँग से अधिक उत्पादन की क्षमता — उत्पादन इकाइयों द्वारा, उत्पादन की हर शाखा द्वारा सामान्य तौर पर अपनी क्षमता से कम, काफी कम उत्पादन करना;

उत्पादन इकाइयों के बन्द होने – कम्पनियों के दिवालिया होने का एक सामान्य प्रक्रिया बन जाना;

देश-विदेश की सीमाओं काअर्थहीन होते जाना; …

इन हालात ने कम्पनियों के उन कदमों को जिन्हें पिछली पीढ़ी के मजदूर आक्रमण मानते थे उन्हें आज कम्पनियों की सामान्य दैनिक क्रिया बना दिया है। इस सब से बहमुखी असन्तोष पनपा है — इसका कोई एक लक्ष्य नहीं है, कोई एक समस्या के समाधान वाली बातें नहीं रही हैं।

ऐसे माहौल से पार पाने के लिये तौर-तरीके क्या-क्या हो सकते हैं? आवश्यकता विश्वव्यापी संगठित प्रयासों की लगती है — उन्हें मूर्त रूप कैसे दें? पुर्जेनुमा की जगह मनुष्य-रूपी जोड़ों-तालमेलों के लिये संगठनों के स्वरूप कैसे हों? सामाजिक बीमारी के इस अथवा उस लक्षण से व्यापक-स्तर पर जूझ रही प्रत्येक व्यक्ति, जूझ रहा हर समूह इन प्रश्नों से रूबरू है, इन सवालों को सामने ला रही है। माइकल आराम एक्सपोर्ट मजदूरों की दिल्ली के संग अमरीका में गमक-धमक इन सवालों को नई मुखरता के साथ सामने लाई है।

● कोई मन्त्र नहीं है। कोई सूत्र नहीं है। बल्कि, ऐसे अनेकानेक सहज-सरल कदम हैं जो स्थाई मजदूर हों चाहे बढती संँख्या वाले कैजुअल व ठेकेदारों के जरिये रखे जाते वरकर, सब उठा सकते हैं। प्रत्येक कदम तिनके समान है पर तिनकों का योग उल्लेखनीय प्रभाव लिये है। अपने में सिमटते-सिकुड़ते जाने की बजाय अन्यों के बीच बातों को ले जाना, अन्यों से जुड़ना सार्थक कदमों की चारित्रिकता लगती है :

— स्थानीय, प्रान्तीय, केन्द्रीय स्तर पर श्रम विभाग, कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई.एस. आई.), भविष्य निधि संगठन (पी.एफ.), स्वास्थ्य विभाग, प्रदूषण निकाय आदि के पते प्रत्येक मजदूर के पास होना बनता है। “सब बिके हुये हैं”, “छापे के वक्त खा-पी कर मामले रफा-दफा कर देते हैं” के आधार पर इन्हें अपनी बातें कहना ही नहीं का आधार तिनके से चमत्कार की आस पूरी नहीं होने में लगता है। हाँ, पहचान से – निशाना बनने से बचने के लिये एक फैक्ट्री के मजदूर अपनी बातें दूसरी फैक्ट्री के मजदूरों से लिखवा सकते हैं।

— पार्षद, विधायक, सांसद, श्रम मन्त्री (प्रान्तीय व केन्द्रीय), मुख्य मन्त्री, प्रधान मन्त्री, राष्ट्रपति के सन्दर्भ में भी उपरोक्त बातें ही।

— ऑडिट – बायर के आगमन के समय फैक्ट्री में सफाई, उस दिन के लिये वर्दी-दस्ताने-मास्क-चश्मे-टोपी देना, पूछें तो 12 घण्टे की ड्युटी को 8 घण्टे की बताना, आमदनी ज्यादा बताना आदि की मजदूरों को सख्त हिदायतें … फैक्ट्री संचालकों की कमजोरी को इंगित करते हैं — ऊँच-नीच वाली वर्तमान व्यवस्था में सिर-माथों पर बैठे लोग वास्तविकता की बजाय अपनी छवि के बारे में बहुत चिन्तित रहते हैं। इसलिये फैक्ट्री के उत्पादन के खरीददारों और बेचने वालों के पतों की जानकारी प्राप्त करना बनता है। और, फैक्ट्री का माल खरीदने-बेचने वालों को फैक्ट्री हालात की वास्तविक स्थिति पत्रों में लिखना दबाव के लिये एक और तिनका बनता है।

— उत्पादन के आपस के जोड़ (पुर्जों का निर्माण और उन्हें जोड़ने का काम) विश्वव्यापी हैं, उत्पादन का वितरण भी ऐसा ही है। उत्पादन-वितरण का दायरा चूँकि अधिकाधिक विश्वव्यापी हो रहा है, दुनियाँ के विभिन्न क्षेत्रों में मित्रों-सहयोगियों के लिये प्रयास मजदूरों के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता बन गये हैं। इसे ध्यान में लेना-लाना और भाषा-सम्पर्क की दिक्कतों से पार पाने के प्रयास प्राथमिक कदम हैं, महत्वपूर्ण तिनकों की रचना हैं।

— सहयोगियों की मदद से अपनी-अपनी फैक्ट्री की रोजमर्रा की हकीकत को हाथ से लिखे पोस्टर जगह-जगह चिपका कर अधिकाधिक सार्वजनिक करना एक और तिनका बनता है।

— अखबारों को फैक्ट्री में सामान्य हालात के बारे में बार-बार लिखना — नहीं छापना अथवा बहुत थोड़ा छापना उनके चरित्र में है पर अखबारों को मजदूरों के पत्र तिनके तो बनते ही बनते हैं।

— अपने पड़ोसियों-परिचितों को फैक्ट्री/दफ्तर/कार्यस्थल की दैनिक वास्तविकता से अवगत कराते रहना बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत-ही आसान भी है। खट्टे-मीठे अनुभवों को एक-दूसरे से साँझा करना हर एक के लिये एक सहज क्रिया बन सकती है। एक-दूसरे की टाँग खींचने की बजाय एक-दूसरे की थोड़ी-थोड़ी सहायता …

समय के साथ यह तिनकों के गट्ठर बनते हैं।

और, जो आसानी से कर सकते हैं उसे नहीं करने के लिये बहाने ढूँढना-गढना बद से बदतर हो रहे हालात की गति तीव्र करना लिये है।

(मजदूर समाचार, फरवरी 2006 अंक)

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सेन्डेन विकास

इस सन्दर्भ में अंश भेजते रहेंगे। ग्यारहवें अंश में फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में हुये परिवर्तनों को दर्शाती एक परमानेन्ट मजदूर की बातें हैं। जनवरी 2006 अंक से हैं।

इलेक्ट्रॉनिक्स के उत्पादन प्रक्रिया में प्रवेश ने यूरोप और अमरीका में 1970 से फैक्ट्रियों में परिवर्तनों का भूचाल आरम्भ किया। बीस वर्ष बाद, 1990 में भारत में उस भूचाल ने फैक्ट्रियों को झकझोरना आरम्भ किया था। फरीदाबाद में 1990-2000 के दौरान फैक्ट्रियों के रूप-रंग के संग-संग फैक्ट्री मजदूरों के स्वरूप में बदलावों की आँधी … परिणाम है आज फैक्ट्रियों में अस्सी-नब्बे प्रतिशत मजदूरों का टेम्परेरी वरकर होना। बड़ी फैक्ट्रियाँ बन्द होना, एक बड़ी फैक्ट्री को सौ-दो सौ-पाँच सौ फैक्ट्रियों में तोड़ना। ट्रक-बस-कार-ट्रैक्टर निर्माता फैक्ट्रियों का असेम्बली प्लान्ट बनना, ऑटो हब का उदय।

फैक्ट्री रिपोर्ट के रूप में यहाँ सेन्डेन विकास फैक्ट्री में मित्र एक परमानेन्ट मजदूर की बातें इस सन्दर्भ में पन्द्रह वर्ष पहले की झलक दिखाती हैं।

सेन्डेन विकास मजदूर : “प्लॉट 65 सैक्टर-27ए स्थित फैक्ट्री में रोज सुबह साढे दस बजे मन खराब हो जाता है। स्थाई मजदूर और ठेकेदारों के जरिये रखे वरकर असेम्बली लाइन पर बराबर में लगते हैं, मशीनों पर अगल-बगल में काम करते हैं, ब्रेजिंग में संग-संग हैं परन्तु सुबह साढे दस बजे स्थाई मजदूरों को चाय के संग कचोड़ी/समोसे दिये जाते हैं और ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों को सिर्फ चाय — बहुत दुखता है यह स्थाई मजदूरों को भी। कैन्टीन में स्थाई मजदूरों और स्टाफ के लोगों को भोजन एक रुपये में और ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों को दस रुपये में। ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों की तनखा स्थाई मजदूरों की तनखा के तीसरे से छठवें हिस्से के बराबर है …

“कम्पनी के दो बड़े साहबों में एक भारत सरकार का नागरिक है और दूसरा जापान सरकार का नागरिक है।

“कारों के (बसों-ट्रकों के भी) एयरकन्डीशनर बनाती सेन्डेन विकास में 75-80 स्थाई मजदूर, 30-35 ट्रेनी, 125-150 स्टाफ वाले और दो ठेकेदारों के जरिये रखे 75-150 वरकर काम करते हैं। 1985 में शुरू हुई कम्पनी ने 1995 से मजदूरों को परमानेन्ट करना बन्द कर रखा है … इधर प्लास्टिक मोल्डिंग की नई बड़ी मशीन चलाने वाले 6 लोगों को कम्पनी स्टाफ कहती है।

“फैक्ट्री में काम का बोझ लगातार बढाया जा रहा है — 1985 में 1000 एयरकन्डीशनर प्रतिमाह, अब 15,000 प्रतिमाह। खींचातान से ही अब उत्पादन पूरा कर पाते हैं। सब स्थाई मजदूरों की आयु अब 30 वर्ष से अधिक हो गई है — ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों में ज्यादा उम्र वालों को कम्पनी रखती ही नहीं, 25 वर्ष से कम आयु वाले ही रखती है (वैसे अभी उत्पादन में 18 वर्ष से कम आयु वाले भी लगा रखे हैं)।

“सेन्डेन विकास फैक्ट्री में आमतौर पर पूरे साल ओवर टाइम लगता है। महीने में 60-70 घण्टे तो ओवर टाइम के हो ही जाते हैं। स्थाई मजदूरों को ओवर टाइम का भुगतान दुगनी दर से किया जाता है पर वेतन का आधे से ज्यादा हिस्सा भत्ते हैं और ओवर टाइम बेसिक व डी.ए.पर ही दिया जाता है इसलिये यह वास्तव में सिंगल रेट से भी कम पड़ता है। जिन्हें स्टाफ कहते हैं उन्हें कम्पनी 40 घण्टे प्रतिमाह से ज्यादा ओवर टाइम का भुगतान करती ही नहीं। ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों को प्रतिमाह 70-80 घण्टे ओवर टाइम करना पड़ता है और उसके पैसे सिंगल रेट से दिये जाते हैं।

“आजकल सबसे बड़ी समस्या नौकरी के डर की हो गई है। हालात को देखते हुये सेन्डेन विकास में स्थाई मजदूरों की तनखा अच्छी है … स्थाई मजदूरों को और दबाने के लिए कम्पनी 8 से 18% वार्षिक वेतन वृद्धि मनमर्जी से करती है। ऐसे में 20-30% स्थाई मजदूर चमचागिरी की राह पर …

“कदम-कदम पर दुभान्त करती, भेदभाव बरतती सेन्डेन विकास कम्पनी ओवर टाइम के समय स्थाई मजदूरों को भी इसकी चपेट में लेती है — साँय साढे पाँच से रात साढे नौ तक ओवर टाइम के दौरान साढे सात बजे कम्पनी स्टाफ वालों को चाय के साथ कुछ खाने को देती है पर स्थाई मजदूरों (और ठेकेदारों के जरिये रखे वरकरों) को सिर्फ चाय देती है। लगता नहीं है कि कम्पनी को पैसे की कमी है — फैक्ट्री में पूरे फर्श पर पेन्ट करवा रखा है।

“सेन्डेन विकास फैक्ट्री में एक्सीडेन्ट के अवसर बहुत कम हैं। शीट मैटल का सब काम कम्पनी बाहर ही करवाती है। कम्प्रेसर सब जापान से आते हैं — यहाँ उन पर कोर, क्लच, रोटर लगाते हैं। होज बाहर से आता है, हम काट कर जोड़ते हैं। गेले, केनमोर, प्रणव विकास सहायक कम्पनियाँ हैं।”

(मजदूर समाचार, जनवरी 2006 अंक)

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होण्डा से हीरो और फिर हीरो से होण्डा

जुलाई 2005 के बाद से अन्य कुछ धाराओं की तरह मजदूर समाचार का ध्यान भी होण्डा मानेसर फैक्ट्री में मजदूरों की गतिविधियों में बढा। यूनियन बनने को मजदूरों की विजय प्रसारित करने वालों के विपरीत था मजदूर समाचार का आंकलन। होण्डा में यूनियन का पंजीकरण होते ही मैनेजमेन्ट ने यूनियन को मान्यता दी और सरकार की छत्रछाया में मैनेजमेन्ट-यूनियन समझौता हुआ था। उक्त समझौते के होण्डा मजदूरों द्वारा विरोध के कारण मजदूर समाचार के अगस्त 2005 अंक में दिये हैं।

जुलाई 2005 के मैनेजमेन्ट-यूनियन समझौते के साथ होण्डा फैक्ट्री में कार्यरत ठेकेदार कम्पनी के जरिये रखे सब वरकर, 1000 मजदूर निकाल दिये गये थे। नई भर्ती। और, सितम्बर 2006 में नये मैनेजमेन्ट-यूनियन समझौते के विरोध में ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे नये मजदूर तथा अप्रेंटिस होण्डा फैक्ट्री के अन्दर बैठ गये थे।

टेम्परेरी वरकरों द्वारा काम बन्द करने पर यूनियन समर्थकों का समवेत स्वर : “यह होण्डा मैनेजमेन्ट का यूनियन तोड़ने का षड्यंत्र है!” और, यूनियन बचाने के लिये अति सक्रियों में नई अखिल भारत यूनियन की गुड़गाँव क्षेत्र में एक नेत्री भी थी।

फैक्ट्री के अन्दर बैठे मजदूरों से मिलने तक की हिम्मत होण्डा यूनियन लीडरों में नहीं थी। ऐसे में यूनियन बचाने में लगी युवा नेत्री को होण्डा मैनेजमेन्ट ने फैक्ट्री के अन्दर जा कर अपने “नारी गुणों” का प्रयोग करने दिया था। पता लगाया कि काम बन्द कर बैठे इन मजदूरों में 19 अप्रैल 2006 को हीरो होण्डा गुड़गाँव फैक्ट्री में काम बन्द कर बैठ गये ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे 5500 वरकरों में से भी लोग थे। हीरो से निकाले जाने के बाद कुछ मजदूर होण्डा में लग गये थे। हीरो फैक्ट्री की 19 अप्रैल की बातें मजदूर समाचार के मई 2006 अंक में हैं।

***

प्लॉट 1 सैक्टर-3 मानेसर, गुड़गाँव स्थित होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर कम्पनी, यूनियन तथा अतिरिक्त श्रमायुक्त व उपश्रमायुक्त द्वारा हस्ताक्षरित तीन वर्षीय समझौते पर गुड़गाँव के डी.सी. ने बधाई दी। सोमवार, 18 सितम्बर को यूनियन ने सभा कर मजदूरों को समझौते के बारे में बताया। ठेकेदार कम्पनी के जरिये रखे वरकर और अप्रेन्टिस सवाल उठाने लगे तब लीडरों ने यह कह कर सभा समाप्त कर दी कि कम्पनी ने मीटिंग के लिये डेढ़ घण्टा दिया था और दो घण्टे हो गये हैं, बाद में बात कर लें।
मंगलवार, 19 सितम्बर को ए-शिफ्ट में ड्युटी पर पहँचते ही ठेकेदार कम्पनी के जरिये रखे वरकर और अप्रेन्टिस एक कैन्टीन में जा कर बैठ गये। मरने-मारने पर उतारू मजदूरों से बात करने की हिम्मत यूनियन लीडरों की नहीं हुई। कम्पनी ने कैन्टीन के बाहर से ताला लगा दिया, कैन्टीन का पानी काट दिया, बिजली काट दी। कम्पनी के तीसरा नेत्र होता तो वह विद्रोही मजदूरों को भस्म कर देती।
होण्डा कम्पनी ने फैक्ट्री के अन्दर ए-शिफ्ट के उन मजदूरों को तो बन्द कर दिया था पर उनके बी व सी-शिफ्ट के साथी बाहर थे। अखबार-टीवी वालों से सम्पर्क करने पर वे 25 जुलाई 2005 के हँगामे को याद कर खबर के लिये फैक्ट्री पहुँचे। कम्पनी ने अखबार-टीवी वालों को फैक्ट्री के अन्दर नहीं जाने दिया और कहा कि 150 मजदूरों का ही मामला है। मोबाइल फोन पर वरकरों ने अपनी सँख्या 1200-1500 बताई। यूनियन के अनुसार 700 के करीब। झमेला देख कम्पनी ने कैन्टीन के लगाया ताला खोला। मजदूर कैन्टीन में बैठे रहे। ठेकेदार कम्पनी के जरिये रखे बी-शिफ्ट के मजदूरों तथा अप्रेन्टिसों को 19 सितम्बर को कम्पनी ने बी-शिफ्ट में फैक्ट्री के अन्दर नहीं जाने दिया। बी और सी-शिफ्ट के इन वरकरों ने फैक्ट्री गेट पर एकत्र हो कर नारे लगाना शुरू किया।
समझौते पर खुशी जाहिर करने वाले काँइयाँ श्रम अधिकारियों के हाथ-पाँव फूल गये। चण्डीगढ से श्रमायुक्त 20 सितम्बर को होण्डा फैक्ट्री पहुँचा। फैक्ट्री के अन्दर आये साहब से कम्पनी और यूनियन नहीं मिले! काम बन्द कर अन्दर डटे विद्रोही मजदूरों ने श्रमायुक्त से चार घण्टे बात की और निष्कर्ष निकाला कि यह साहब मजदूरों की स्थिति तथा रुख का जायजा लेने आया था ताकि कम्पनी को वस्तुस्थिति से अवगत करा सके।
डी.सी. गुड़गाँव ने स्थिति को सामान्य बताया और होण्डा फैक्ट्री के अन्दर पुलिस बैठा दी। भूख से बेहोश होते मजदूरों को अस्पताल पहुंँचाने के लिये डी. सी. ने होण्डा फैक्ट्री के अन्दर एक सरकारी एम्बुलैन्स भी खड़ी कर दी।
न्यायालय ने 22 सितम्बर को मजदूरों के विद्रोह को अवैध करार दिया और पुलिस व प्रशासन को उन्हें फैक्ट्री से निकालने तथा गेट वालों को 300 मीटर दूर खदेड़ने के आदेश दिये। आदेशों का पालन नहीं होने पर न्यायालय ने 23 सितम्बर को यही आदेश पुनः दिये।
यूनियन के नाकारा साबित होने पर कुछ यूनियन समर्थकों ने विद्रोही मजदूरों को टटोलने, समझाने और इनमें से “भड़काने वालों” को छाँटने व अलग-थलग करने के लिये पापड़ बेले।
     24 सितम्बर को बगावत ठण्डी हुई।
थोड़े ही समय में जगह-जगह के अनुभवों से लैस हो कर होण्डा फैक्ट्री पहुँचे और वहाँ विद्रोह करने वाले इन नौजवान मजदूरों को हम सलाम करते हैं।
पिछले वर्ष होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर कम्पनी में 1200 स्थाई, 1600 ट्रेनी, 1000 ठेकेदार के जरिये रखे और 400 अप्रेन्टिस थे। जुलाई 2005 के हँगामे के बाद कम्पनी ने नये ट्रेनी नहीं रखे हैं। अब फैक्ट्री में 1600 स्थाई, 500-600 ट्रेनी और ठेकेदार के जरिये रखे तथा अप्रेन्टिस मिला कर 2000 के करीब लगते हैं। पिछले वर्ष होण्डा फैक्ट्री में मजदूरों के अनुसार सबसे बड़ी समस्या काम-काम-काम और काम थी। इधर कम्पनी-यूनियन तीन वर्षीय समझौते में उत्पादन डेढ-दो गुणा करने के लिये स्थाई मजदूरों की तनखा बढाने के संग इनसेन्टिव के दाने डाले गये हैं। गुडईयर टायर के एक अनुभवी मजदूर के अनुसार इनसेन्टिव के फेर में होश खो कर पहलेपहल मजदूर गुड़ में चिपट जात चींटे की तरह हो जाते हैं।
विद्रोह के दौरान होण्डा फैक्ट्री में स्थाई मजदूर उत्पादन कार्य करते रहे।
(जानकारियाँ छिटपुट में इधर-उधर से ली हैं।)
— मजदूर समाचार, अक्टूबर 2006 अंक

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हीरो का होण्डा

हीरो होण्डा फैक्ट्री में नियमित जाने वाला व्यक्ति : “हीरो होण्डा की गुड़गाँव फैक्ट्री में 1350-1400 स्थाई मजदूर तथा ठेकेदार के जरिये रखे 5500 वरकर काम करते हैं — अन्य ठेकेदार के जरिये रखे 300-400 सेक्युरिटी गार्ड भी हैं। ठेकेदार के जरिये रखे 5500 वरकरों ने 15 अप्रैल को अचानक काम बन्द कर दिया — फैक्ट्री में कार्य ठप्प हो गया और 21 अप्रैल को फिर आरम्भ हुआ। हीरो होण्डा की धारूहेड़ा फैक्ट्री प्रभावित नहीं हुई थी।

“अधिकतर स्थाई मजदूर मोटरसाइकिल असेम्बली में हैं। ठेकेदार के जरिये रखे वरकरों में से 25% मोटरसाइकिल असेम्बली में और 75% स्पेयर पार्ट्स डिविजन में हैं। ठेकेदार के जरिये रखे बरसों से काम कर रहे मजदूरों को हर तीन महीने पर हीरो होण्डा की मोहर वाला फोटो लगा एक कार्ड दिया जाता है जिस पर लिखा होता है कि हीरो होण्डा परिसर में काम करने की अनुमति है। ई.एस.आई. के नाम पर इस समय 206 रुपये तनखा से काटते हैं पर ई.एस.आई. कार्ड किसी वरकर को नहीं दिया है — ठेकेदार बोलता है कि बीमार होगे तो इलाज करवा देंगे। पी.एफ. की पर्ची नहीं।

“स्पेयर पार्ट्स डिविजन से प्रतिदिन 4-5 करोड़ रुपये का माल बाहर भेजा जाता है। डीलरों की भारी माँग, तुरन्त पूरी करो की डिमाण्ड रोज रहती है। लेकिन हीरो होण्डा स्पेयर पार्ट्स डिविजन में उत्पादन बिलकुल भी नहीं होता। तैयार माल पूर्णतः बाहर से मँगवाया जाता है। हीरो होण्डा फैक्ट्री में सिर्फ पैकिंग और शिफ्टिंग का काम होता है। फैक्ट्री में कोडिंग, काउन्टिंग, पैकिंग व सीलिंग की ही मशीनें हैं — माल उत्पादन की कोई भी मशीन स्पेयर पार्ट्स डिविजन में नहीं है।

“ठेकेदार के जरिये रखे वरकरों की तनखा 2600 रुपये थी और साल-भर पहले मैंने एक सुपरवाइजर को एक मजदूर के थप्पड़ मारते देखा है। पिछले वर्ष होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर कम्पनी में हँगामे के बाद हीरो होण्डा में ठेकेदार के जरिये रखे वरकरों की तनखा 3600 रुपये की गई। इधर काट-पीट कर किसी वरकर को 3600 और किसी को 4200 रुपये दिये जा रहे थे …

“छुट्टी से लौटे कुछ मजदूरों को ठेकेदार ने ड्युटी पर लेने से इनकार किया तो चाणचक्क हड़ताल हो गई। 15 अप्रैल को काम बन्द करने का आह्वान किसी यूनियन ने नहीं किया था, कोई लीडर नहीं थे। मैनेजमेन्ट ने स्थाई मजदूरों को तत्काल छुट्टी पर भेज दिया। जून-जुलाई 2005 के होण्डा मामले के दृष्टिगत राज्य सरकार फौरन हरकत में आई। फैक्ट्री को आग लगाने की बातें …

“वरकरों में से कुछ लोगों को छाँट कर उनके साथ 20 अप्रैल को 30% वेतन वृद्धि, 500 को स्थाई करने, सफेद वर्दी आदि वाला मौखिक समझौता किया गया। समझौता करने वाले वरकर फैक्ट्री से गायब — कम्पनी ने खरीद लिये की बातें …

“21 अप्रैल को 5500 में से फैक्ट्री में कार्य के लिये पहुंँचे 4000 मजदूरों में गुस्सा — ‘हमारे साथ धोखा हुआ है’ की बातें।”

—(मजदूर समाचार, मई 2006 अंक)

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कृपया सूअरों को गाली न दें

अगस्त के आरम्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह द्वारा संसद भवन को सूअरबाड़ा प्रचारित करने पर विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवादी विरोध में चीखे।

● प्रकृति के एक अंश के तौर पर अपनी पहचान से मानव किस कदर जुदा हो गये हैं इसका अन्दाजा आज छाये सफेद अन्धेरे से लगाया जा सकता है।

# अंश द्वारा अन्य अंशों से सामंजस्य, सम्पूर्ण से सामंजस्य की मानव प्रवृति के टूटने-बिखरने ने उस त्रासदी को जन्म दिया जिसके शिकार अन्य जीव योनियों तथा पृथ्वी (व अन्तरिक्ष) के संग स्वयं हम मनुष्य हुये हैं। संग्रह-संचय और उनके आकार-प्रकार कब मानव योनि को विनाश की राह पर ले आये यह धुंधलके में है परन्तु संग्रह-संचय की बढती हवस के अनन्त ताण्डव से अनभिज्ञ आज शायद ही कोई हो। सम्पूर्ण विनाश की कगार …

# “अनजाने” सामंजस्य के दीर्घ काल में मानव योनि का अन्य योनियों के साथ-साथ स्वयं पृथ्वी के संग सहअस्तित्व रहा। उस दौरान व्यक्ति और समुदाय के बीच भी सामंजस्य था। इन पाँच-सात हजार वर्ष में ही संग्रह-संचय तथा इन से जुड़ा दोहन उल्लेखनीय और फिर सर्वग्रासी बने हैं। गाय को पालतू बनाने जैसा अन्य जीवों का आरम्भिक दोहन-शोषण अपने संग मानव समुदायों में स्वामी व दास के सम्बन्ध लाया, समुदाय की टूटन लाया। खेती जैसा पृथ्वी का आरम्भिक दोहन-शोषण अपने संग राजे-रजवाड़ों वाली ऊँच-नीच लाया। पृथ्वी का बढता दोहन-शोषण, अन्य जीव योनियों व वनस्पतियों का बढता दोहन-शोषण, स्वयं मनुष्यों का बढता दोहन-शोषण आज मानव निर्मित प्रदूषण को अन्तरिक्ष तक पहुँचा कर सम्पूर्ण विनाश की कगार …

# जीव के लिये मृत्यु स्वाभाविक है। समुदाय की टूटन ने मनुष्यों के लिये इस स्वाभाविक को, मृत्यु को असहनीय बनाया। पुरुष-प्रधानता की विकृतियों के संग-संग अमरत्व की अति इच्छा (अमृतों की तलाश) और मोक्ष-मुक्ति की अति पीड़ा (जन्म ही शाप) के अनेक धर्म-दर्शन उभरे। सब योनियों में मानव योनि को श्रेष्ठ घोषित करते, स्वयं को श्रेष्ठ घोषित करते हम मनुष्य अन्य योनियों के नामों व कथित अवगुणों का प्रयोग आपस में गाली देने, अपमान करने में करते आये हैं। मानवों में पुरुष-प्रधानता ने स्वाभाविक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर अनेकानेक बन्धन जकड़ कर, अधिकतर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को पाप करार दिया। नारी को पाप की मूर्ति घोषित करने के संग-संग स्त्री शब्द और महिलाओं के कथित अवगुणों का प्रयोग पुरुष आपस में गाली देने, अपमान करने में करते आये हैं। व्यवहार के विपरीत, प्रतीक के तौर पर, विगत के अवशेष के तौर पर सूर्य की पूजा, सर्प की पूजा, गाय की पूजा, नारी की पूजा …

# दास, भूदास, किसान-दस्तकार, मजदूर के रूप में पुरुष के पीड़ित होने पर भी पुरुष-प्रधानता के रंग में रंगे होना अतिरिक्त समस्यायें लिये है (हावी आचार-विचार के चलते स्त्रियों का पुरुष-प्रधानता के रंग में रंगे होना भी इसी श्रेणी में है)। अन्य योनियों व पृथ्वी-अन्तरिक्ष के सम्बन्ध में स्त्री-पुरुष एकमत-से रहे हैं। इधर मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन ने पुरुष-प्रधानता की इकाई, परिवार को बिखराव के चरण में ला दिया है। और, स्त्री तथा पुरुष, दोनों अधिकाधिक गौण …

# “कुछ नहीं हो सकता”, असहायता का अहसास बहुत व्यापक है परन्तु विनाश के कगार से लौटने के आचार-विचार हम मनुष्यों के लिये सर्वोपरि महत्व के हैं। इस सन्दर्भ में, हमारे विचार से, नये समुदायों के लिये प्रयास, अन्य योनियों तथा पृथ्वी-अन्तरिक्ष के संग सामंजस्य की कोशिशें हम मानवों के लिये प्रस्थान बिन्दू हैं।

# मण्डी-मुद्रा के दबदबे के इस दौर में दमन-शोषण पर पर्दा डालती संसद का पर्दाफाश करना प्राथमिक आवश्यकताओं में है। इस सन्दर्भ में हमारे अनुकरणीय पूर्वजों ने संसद को बकवासघर और सूअरबाड़ा कहा है। इधर कुटिल चाणक्य के वारिस प्रतिनिधि-नुमाइन्दा प्रणाली के व्यापक प्रसार के जरिये भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण कर हमारी रग-रग को प्रदूषित करने में जुटे हैं, सफेद अन्धेरे को फैलाने में लगे हैं। ऐसे में संसद के प्रति, प्रतिनिधि-प्रणाली के प्रति आक्रोश का विगत से बहुत अधिक होना बनता है। इसके लिये, हमारे विचार से, नई भाषा की आवश्यकता है।

— सूअर जंगलों में कन्द-मूल खाते और शीतलता के लिये साफ-सुथरी गीली मिट्टी में लोटते हैं। पालतु बना और शहरों में ला कर हम ने सूअर को गन्दगी का पर्याय बना दिया है। लेकिन सूअर के तन के संग हम अपने मन को देखें तो मनुष्यों से अधिक मैली कोई चीज आज शायद ही हो।

(मजदूर समाचार के दिसम्बर 2003 अंक में “जीवन बनाम काम-पैसा-काम-पैसा” से)

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एटम बमों से अधिक खतरनाक हैं परमाणु बिजलीघर

● झूठ बोलना और छिपाना सरकारों के चरित्र में है। अर्ध-सत्य सरकारों की सामान्य क्रिया का अंग है। आडम्बर और प्रतीक — दिन में मोमबत्तियाँ जला कर मृतकों को श्रद्धांजलि और शान्ति के लिये प्रार्थनायें दमन-शोषण के तन्त्रों के कर्णधारों के कपट के संग-संग उनकी असहायता की भी अभिव्यक्ति हैं।

— 1914-1919 की महा मारकाट के बाद : और युद्ध नहीं!

1939-45 की उससे भी महा मारकाट के बाद : आगे कोई युद्ध नहीं!

हीरोशिमा तथा नागासाकी में एटम बमों से हमले के बाद : फिर कभी नहीं …

एटम बम बनने ही नहीं देने, बन चुके एटम बमों को समाप्त करना!

और … और शान्ति/सुरक्षा के नाम पर एटम बमों, हाइड्रोजन बमों, भाँति-भाँति के परमाणु बमों के सरकारों द्वारा भण्डार बनाना।

शान्तिध्वज की वाहक भारत सरकार में सर्वसम्मति से उस व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाया गया है जिसकी एटम बमों तथा उनके लिये वाहक वाहनों के निर्माण में अग्रणी भूमिका रही है। अमरीका-वमरीका सरकारों की बात छोड़िये, भारत सरकार द्वारा एटम बमों से युद्ध की तैयारी की एक झलक के लिये सेना के जनरलों के हाल ही में हुये सम्मेलन के बाद के प्रचार पर एक नजर डालिये : भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर परमाणु और जैविक युद्धक कमान केन्द्रों की स्थापना को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये स्वीकृति दे दी है; 30 प्रतिशत टैंक परमाणु विकिरण के माहौल में काम करने के लिये तैयार किये जा रहे हैं; एटम बमों से युद्ध के लिये भारत सरकार की सेना ने अपनी योजना तथा रणनीति बनाने के उद्देश्य से कई स्तरों पर अभ्यास किये हैं; सेना तीन विशिष्ट प्रक्षेपास्त्र युनिटों की स्थापना कर चुकी है; सेना में परमाणु हथियार शामिल; सेना को बड़े पैमाने पर परमाणु विकिरण रोधी पोशाकों की पूर्ति के लिये उनका निर्माण आरम्भ; जनरलों के सम्मेलन के अन्तिम दिन भारत के शीर्षस्थ परमाणु और जैविक वैज्ञानिकों ने जनरलों को परमाणु सुरक्षा कवच के इस्तेमाल तथा परमाणु कमान केन्द्रों की स्थापना के बारे में बारीकी से जानकारी दी; वैज्ञानिकों ने जनरलों को परमाणु हथियारों की दिशा में भारत सरकार की प्रगति से अवगत कराया।(जानकारी 24 अप्रैल 2006 के ‘पंजाब केसरी’ से)

— चिकित्सा के लिये, अनाज उत्पादन में वृद्धि के वास्ते, बिजली के लिये अनुसन्धान-प्रयोग-निर्माण उर्फ “परमाणु ऊर्जा का शान्तिपूर्ण उपयोग” सरकारों के एटम बमों के निर्माण के लिये एक आवरण रहा है। लेकिन मण्डी-मुद्रा के दबदबे में तीव्र से तीव्रतर हो रहा पृथ्वी का दोहन मानवों के शोषण के लिये परमाणु ऊर्जा को अधिकाधिक उल्लेखनीय भूमिका में लाने लगा। परमाणु ऊर्जा से बिजली का निर्माण बेहद खतरनाक है, कई पीढियों तक घातक प्रभाव डालता है, परमाणु बमों का सतत विस्फोट-सा है (कानून अनुसार शोषण के समान है) परन्तु सरकारें तथ्यों को छिपाती रही और बढती संँख्या में परमाणु बिजलीघरों का निर्माण …

लेकिन 26 अप्रैल 1986 को चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर में हुये विस्फोट का यूरोप-व्यापी असर पड़ा। रूस, यूक्रेन तथा बेलारूस में पचास लाख लोग विकिरणों की चपेट में आये। पूरे पश्चिमी यूरोप में विकिरणों के धुंँए का एक बादल बन गया था। एक लाख से अधिक कैंसर के अतिरिक्त मामले …

1986 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति रहे गोर्बाचोव ने अब, बीस वर्ष बाद “प्रायश्चित” के लिये विश्व की सशक्त सरकारों से अपील की है कि कम से कम 50 बिलियन डालर (करीब ढाई लाख करोड़ रुपये) की राशि वे चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर विस्फोट के पीड़ितों के लिये दें ताकि उनके लिये शुद्ध (विकिरण रहित) पानी और हवा का प्रबन्ध किया जा सके।

यूरोप में 1986 के बाद परमाणु बिजलीघरों के विरोध ने व्यापक रूप लिया। परमाणु बिजलीघरों का कूड़ा-कचरा भी इस कदर खतरनाक है कि जर्मनी में लोग परमाणु बिजलीघर के कूड़े-कचरे से लदी ट्रेन को अपने-अपने क्षेत्र से गुजरने से रोकने के लिये पुलिस से भिड़े …

 चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर की घटना से सामने आये खतरों ने परमाणु बिजलीघर बन्द करने के लिये सरकारों पर दबाव बनाया और नये परमाणु बिजलीघरों के निर्माण पर लगाम लगी …

लेकिन फिर नये सिरे से “साफ” ऊर्जा की, परमाणु बिजलीघरों की वकालत खुल कर होने लगी है और भारत सरकार के राष्ट्रपति अग्रणी वकीलों में हैं। एटम बम व मिसाइल निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले यह वैज्ञानिक तथा शिक्षक भारत में इस समय परमाणु बिजलीघरों में बनती 2720 मेगावाट बिजली को बढा कर 50 हजार मेगावाट करने के लिये प्रचार अभियान में जुटे हैं।

● दो और दो चार के संकीर्ण दायरे से बँधे व्यक्ति की, ज्ञानी की, वैज्ञानिक की भर्त्सना आसान है। नये परमाणु बिजलीघर को “अपने प्रान्त में” लपकने के लिये आतुर मुख्यमन्त्री के अधकचरेपन की, बेवकूफी की भर्त्सना आसान है। लेकिन इससे होगा क्या?

● पीढी-दर-पीढी के कटु अनुभवों के बावजूद हालात बद से बदतर हो रही हैं। व्यक्ति इस कदर गौण हो गया है, गौण होता जा रहा है कि अपने होने को प्रकट करने के प्रयास में हर व्यक्ति बम बनी है, बम बनती जा रही है। आत्मघाती बम बन कर व्यक्ति अपने संग कुछ और को मार रहा है …

लेकिन असल समस्या सामाजिक बम है जो अरबों तन-मन को लगातर लहुलुहान करता है, करोड़ों का कत्ल कर चुका है और पृथ्वी पर से सम्पूर्ण जीवन के नाश के मुहाने हमें ले आया है।

● सामाजिक बम कहिये, सामाजिक पागलपन कहिये, सामाजिक मनोरोग कहिये …

मन्थन उस सामाजिक प्रक्रिया का आवश्यक लगता है जो व्यक्ति व समाज की ऐसी गत बनाती है।

● इन पाँच-छह हजार वर्ष के दौरान संसार में उभरी, फैली और अब सर्वव्यापी बनी ऊँच-नीच, दमन-शोषण वाली समाज व्यवस्थाओं के सार को इस तरह भी रखा जा सकता है : समाज रचनायें जहाँ मनुष्यों की मेहनत के परिणाम मनुष्यों के ही खिलाफ होते हैं। ऊपर वाले सिकुड़ते-सिमटते जाते हैं और नीचे वाले दबाये-कुचले जाते हैं …

समस्त मानव योनि के लिये त्रासदी की स्थिति है यह।

● नई समाज रचना, नई सामाजिक प्रक्रिया के लिये हमारी मेहनत और हमारी मेहनत के परिणाम में सामंजस्य यानि सजीव श्रम और संचित श्रम में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एक प्रस्थान बिन्दू लगते हैं।

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (11)

# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अक्सर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

तेरह वर्षीय मजदूर : “सुबह ताजा नहीं उठता। सुस्ती में उठता हूँ , कभी फुर्ती नहीं आती। दिमाग में यही रहता है कि जाना है इसलिये काहे को जल्दी करना। रोज-रोज जाना होता है, जाने का समय बहुत जल्दी हो जाता है। छुट्टी नहीं — सिर्फ महीने के आखिरी रविवार को छुट्टी।

“नाश्ता कर और रोटी ले कर साढे नौ बजे घर से निकल लेता हूँ। माँ रोटी-सब्जी बनाये रखती है पर मैं सिर्फ रोटी ले जाता हूँ — दुकान पर अचार से खा लेता हूँ। आधे घण्टे का पैदल रास्ता है — रक्षाबन्धन से दो दिन पहले दुकान से मेरी साइकिल चोरी हो गई तब से पैदल मार्च करता हूँ। जाते समय सोचता हूँ कि दुकानदार कहीं मेरे से पहले न पहुँच जाये — डाँट मारता है। मेरी ड्युटी 10 बजे शुरू होती है।

“आमतौर पर मैं पहुँचता हूँ तब दुकान बन्द मिलती है। बगल वालों से झाड़ू माँग कर बाहर की सफाई करता हूँ। फिर बैठ कर इन्तजार करता हूँ — कभी-कभी काफी देर इन्तजार करना पड़ता है, आधा घण्टा तक।

“दुकान खुलते ही सामान बाहर निकालना। बहुत-सारा सामान होता है और बाहर सजाना होता है। पूरा सामान जचाने में साढे बारह बज जाते हैं और फिर मैं दुकान के अन्दर झाड़ू लगाता हूँ। बीच में थोड़ा-भी खड़े होने पर दुकानदार टोक देता है — काम करो। एक बजे तक कम्पलीट। सामान निकालते-जचाते समय बीच-बीच में ग्राहक भी आते रहते हैं।

“भोजन का कोई समय नहीं — 1 बजे के बाद और 4 से पहले। दोपहर में 2 से 4 बिक्री कुछ कम रहती है। तब छोटी-मोटी सफाई और दुकानदार बाहर होता है तब दूसरे लड़के के साथ बातें — हँसी-मजाक, उल्टे-सीधे गाने । दुकानदार के सामने नहीं — चिल्लायेगा।

“दिमाग में कुछ नहीं रखता …

“पहले-पहल मैंने एक बिजली मोटर मरम्मत की दुकान पर काम किया। सीखना — पैसे नहीं। सुबह 9 से रात 7 बजे तक। घण्टों दुकान पर अकेला रहता तब मुझे नींद आ जाती। दुकानदार कहता कि सोया मत कर, कोई कुछ सामान उठा ले जायेगा। बगलवाले मुझे गाली देते … खर्चा भी नहीं दिये जाने के कारण एक महीने बाद वहाँ काम छोड़ दिया।

“इण्डिया मैनेजमेन्ट ट्रेनिंग सैन्टर, सैक्टर-11 में झुग्गियों के एक लड़के ने मुझे लगवाया। एक किलोमीटर पैदल चल कर सुबह साढे आठ बजे ड्युटी पर पहुँचता था। टेबल-कुर्सी, शीशे-खिड़कियाँ, दरवाजे-रेलिंग आदि बहुत-सी चीजों की सफाई करता और कभी-कभी झाड़ू-पौंछा भी लगाना पड़ता। दिन-भर चाय-पानी पकड़ाता। तनखा 900 रुपये — सोमवार की छुट्टी रहती थी। सैन्टर वालों ने 6 महीने बाद मुझे साइकिल दी थी। साँय 6 तक मेरी ड्युटी थी पर साढे छह-7-8 बजे तक छोड़ते। झुग्गियों से साइकिल चोरी हो गई तो मेरी तनखा में से 300 रुपये काट लिये। इस पर मैंने नौकरी छोड़ दी — वहाँ 9 महीने काम किया।

“मुजेसर में लोहे, ताम्बे की डाई बनाने वाली एक वर्कशॉप में लगा। बोले सुबह 9 से 6 की थे पर फिर साढे आठ से 6 कर दिया और सवा सात तक छोड़ते। तनखा 600 रुपये। मैं छोटे पीसों में ड्रिल से छेद करता था। दिन में दो चाय देते। ज्यादा काम करवाते थे — मुण्डी भी इधर-उधर नहीं करने देते थे। वर्कशॉप वाला चला जाता तब उसका साला ज्यादा ही सिर पर चढता था, मार भी देता था। इसलिये मैंने गुस्से में नौकरी छोड़ दी। एक महीना 10 दिन काम किया था — 10 दिन के पैसे नहीं दिये।

“झुग्गियों के एक लड़के ने संजय कॉलोनी में वर्कशॉप में लगवाया । वहाँ कील में फँसा कर छोटी स्प्रिंग उँगली से मोड़नी पड़ती थी। उँगली सूज जाती थी। तीन दिन काम करवाने के बाद भी पैसे नहीं बताये तो मैंने छोड़ दिया।

“फिर मुजेसर में लोहे की डाई बनाने की वर्कशॉप में लगा। तनखा 1000 रुपये। रोज सुबह झाड़ू लगाता। कभी-कभी मशीन साफ करता। सामान पकड़ाता। एक बड़ी मशीन भी थोड़ी चला लेता। सुबह साढे आठ से 5 ड्युटी, दिन में 2 चाय, सही समय पर छोड़ देता, महीना होते ही पैसे। एक महीना काम करते हो गये तब बड़ी मशीन बेच दी … बीस दिन बाद आना, दस दिन बाद आना …

“अब यहाँ दुकान पर। पिताजी ने लगवाया। तनखा 1000 रुपये। झुग्गियों में पिताजी का डॉक्टरी का धन्धा चला नहीं और छुट-पुट इधर-उधर से गुजारा करने के बाद अब दिल्ली काम करने जाते हैं। मैं छठी में फेल हो गया तब माँ बोलती कि पढता नहीं, खेलता रहता हूँ … नहीं पढने का फैसला कर मैं काम के चक्कर में लगा। मेरे दो छोटे भाई स्कूल जाते हैं। नौकरी मजबूरी से भी करता हूँ और राजी से भी … जब खाली बैठा होता हूँ तब नौकरी को मन करता है और जब नौकरी कर रहा होता हूँ तब नौकरी छोड़ने को मन करता है।

“दुकानदार हमें 12 घण्टे से ज्यादा की ड्युटी में एक चाय देता है, उसके साथ कुछ नहीं। चाय शाम 7 बजे के आसपास देता है। सामान दुकान से 7-8 फुट बाहर तक सजाया होता है — कोई उठा न ले जाये इसलिये मुझे बाहर भी खड़ा होना पड़ता है। कई बार 5-10 ग्राहक इकट्ठे भी आ जाते हैं। पैसों का हिसाब दुकानदार रखता है। रात सवा नौ सामान अन्दर रखना शुरू करते हैं। पहले अन्दर का सामान जचाना पड़ता है और फिर बाहर वाला। बीच-बीच में ग्राहक आते रहते हैं। दुकान सवा दस से पहले बन्द नहीं होती, साढे दस बज जाते हैं।

“पिताजी साइकिल से लेने आ जाते हैं। घर पौने ग्यारह पहुँचता हूँ। तुरन्त खाना खाता हूँ। रात साढे ग्यारह बजे सो जाता हूँ पर कभी-कभी नींद देर से आती है।”

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महिला मजदूर

महिला मजदूर : “पति यहाँ दिल्ली में काम करते थे और मैं परिवार के साथ गाँव में रहती थी। मेरे गले में गिल्टी हो गई जिसे गाँव में ऑपरेशन ने और बिगाड़ दिया। बीमारी की जाँच-उपचार कराने पति के पास दिल्ली आई थी। फैक्ट्री में काम करते मेरे पति की ई.एस.आई. नहीं थी — ऐसे में पहले यहाँ निजी चिकित्सकों को दिखाया। पति का ई.एस.आई. कार्ड बनने के बाद अगस्त 2002 से ई.एस.आई. अस्पताल में इलाज करवा रही हूँ। शुक्र मनाती हूँ कि ऑपरेशन नहीं होगा — इधर 6 महीने से लगातार दवा ले रही हूँ , 3 महीने और लेनी होगी। महीने में एक दिन ई.एस.आई. अस्पताल जाती हूँ — कम्पनी महीने में एक दिन ही छुट्टी देती है। पति बीच-बीच में ई.एस.आई. से दवा ला देते हैं।

“गले की गाँठ के अलावा कमर में भी दर्द रहता है फिर भी इन तीन वर्ष में मैं ओखला फेज-1 व 2 तथा बदरपुर में 7 फैक्ट्रियों में काम कर चुकी हूँ। पति के मना करने के बावजूद और बीमार होने व छोटे बच्चे के होते हुये भी नौकरी में जुटी हूँ क्योंकि पैसों के बिना आज इन्सान कुछ नहीं।

“औरत के काम करने में इज्जत नहीं है। महिलाओं को काम पर जाते देख लोग हँसते हैं, मजाक उड़ाते हैं। मैं भी पहले नौकरी करने जाती औरत को देख कर हँसती थी। महिला मजदूरों के लिये कोई कम्पनी अच्छी नहीं होती — एक्सपोर्ट लाइन तो हम औरतों के लिये कतई अच्छी नहीं है। पड़ोस से भी ज्यादा मजाक हमारा फैक्ट्रियों में उड़ाया जाता है।

“पहलेपहल मैंने कमरे पर ही चमड़े के जैकेटों पर फूल काढने का काम किया। ठेकेदार जैकेट दे जाता था। मैंने 3 महीने में 4-5 हजार रुपये का काम किया पर फिर काम कम हो गया। तब मैंने पहली नौकरी की — चमड़े की फैक्ट्री में जैकेट की हाथ से निर्देश अनुसार सिलाई। कम्पनी में बहुत मजदूर काम करते थे और एक महिला ठेकेदार के जरिये हम 30 महिला मजदूरों को रखा था। आठ घण्टे की हमारी दिहाड़ी 60 रुपये थी और फिर 4 घण्टे ओवर टाइम काम होता था — हम सब औरतों के ओवर टाइम के पैसे ले कर ठेकेदार शीला भाग गई। कम्पनी का नाम नहीं मालूम पर प्लॉट ओखला फेज-1 में एफ-40 था।

“किये काम के पैसे मारे जाने के बाद मैं सिलेसिलाये कपड़े निर्यात करने वाली कम्पनी में लगी। इसका भी नाम मुझे नहीं मालूम पर यह ओखला फेज-1 में डी-59 में थी। यहाँ भी मैं ठेकेदार के जरिये लगी थी — 8 घण्टे काम पर 1600 रुपये महीना तनखा थी और रोज 4 घण्टे ओवर टाइम काम होता था। मैं कपड़े पर तारे-मोती जड़ने का काम करती थी। यहाँ ठेकेदार ने तय पैसे दिये पर बीच-बीच में काम कम होने पर बैठा देता था। फैक्ट्री में करीब 500 मजदूर थे।

“दो बार बैठा दिये जाने पर मैंने नई जगह काम ढूँढा। फिर ठेकेदार के जरिये लगी — 8 घण्टे की दिहाड़ी 65 रुपये और रोज 2 घण्टे ओवर टाइम। यह फैक्ट्री ओखला फेज-1 में बी-64 में थी और यहाँ 1500 मजदूर काम करते थे पर मुझे कम्पनी का नाम नहीं मालूम। बच्चों के कपड़े बनते थे और मैं धागा काटने का काम करती थी। एक के कहने पर मुझे निकाल दिया।

“काम छूटने अथवा बैठा दिये जाने पर मैं

जगह-जगह कम्पनियों के गेटों पर जा कर काम ढूँढती हूँ — साथ काम कर चुकी औरतें भी काम दिलाने में सहायता करती हैं। औरतों को काम मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं है।

“ओखला फेज-2 में एक कम्पनी में लगी — प्लॉट और नाम, दोनों ही याद नहीं। यहाँ भी ठेकेदार के जरिये लगी — 1500 रुपये महीना तनखा और रविवार की छुट्टी। रोज 4 घण्टे तथा रविवार को ओवर टाइम लगता था। दो महीने वहाँ काम करने के बाद मैं पहली बार कम्पनी द्वारा स्वयं भर्ती की गई। ओखला फेज-2 में ए-55 में पैरामाउण्ट कम्पनी ने मुझे धागा काटने के लिये कैजुअल वरकर के तौर पर भर्ती किया। तनखा 1900 रुपये, रविवार को छुट्टी। रविवार को काम पर पैसे डबल रेट से देते थे। प्लॉट में 2 कम्पनी थी और 1500 से ज्यादा मजदूर काम करते थे जिनमें महिलाओं की बड़ी संँख्या भी। फैक्ट्री में रोज 12 घण्टे काम करना पड़ता था और तीन महीने बाद निकाल देते थे।

“पैरामाउण्ट से निकाल दिये जाने के बाद मुझे कई दिन खाली बैठना पड़ा। एक परिचित महिला मजदूर ने ओखला फेज-1 में बी-139 में अमन फैक्ट्री में कम्पनी की तरफ से भर्ती करवाया। यहाँ 12 घण्टे काम के 110 रुपये देते थे — रविवार को छुट्टी नहीं। अमन में ब्रेक करने पर इधर मैं बदरपुर में एक फैक्ट्री में कम्पनी द्वारा भर्ती की गई हूँ। यहाँ 12 घण्टे रोज काम पर 26 दिन के 2863 रुपये देते हैं। रविवार को 12 घण्टे काम के 60 रुपये अलग से। रात 11 बजे बाद छोड़ते हैं तब कम्पनी की गाड़ी छोड़ कर जाती है। दो घण्टे फालतू काम के कोई पैसे नहीं देते। रात को देर तक काम से बहुत परेशानी है।

*”मुझे कहीं भी ई.एस.आई. कार्ड नहीं दिया गया। कहीं भी पी.एफ. नहीं। हर जगह हमें खड़े-खड़े काम करना पड़ता है — कम्पनियाँ बैठ कर काम करने की अनुमति नहीं देती। 12-14-16 घण्टे खड़े-खड़े काम करने से पाँव सूज जाते हैं — इधर मैं कमजोर हो गई हूँ और मेरे पैर काँपने लगते हैं तब बाथरूम में जा कर बैठती हैं क्योंकि विभाग में बैठने नहीं देते। गर्दे के कारण कई औरतों के साँस की तकलीफ मैंने देखी है। निकालते हैं तब पहले नहीं बताते — काम खत्म होने पर कहते हैं कि कल से मत आना।*

*”आमतौर पर हम महिला मजदूरों में आपस में अच्छा व्यवहार बन जाता है — कोई इक्की-दुक्की तनाव भी पैदा करती है। हम सब मिल कर बराबर उत्पादन करती हैं — किसी का कम होता है तो हम मिल कर उसका पूरा कर देती हैं। दस-बारह दिन में ही हम आपस में तालमेल बना लेती हैं। जितना कम काम करेंगी उतना ही अच्छा है इसलिये हम सब बराबर काम करती हैं। साथ खाना खाती हैं, एक-दूसरे का बाँट कर खाती हैं — जाति नहीं पूछती, जाति से क्या फर्क पड़ता है। फैक्ट्री में हमारे बीच तालमेल ज्यादा रहते हैं और जलन कम रहती है।*

“रोज सुबह 6 बजे उठती हूँ। खाना बनाती हूँ। साढे आठ-पौने नौ पर ड्युटी के लिये निकल ही पड़ती हूँ — बहुत तेज पैदल चलती हूँ , बस लेती हूँ तो भारी भीड़ में सफर करती हूँ। फैक्ट्री में रात 9 बजे बाद रोकते हैं और पति भी जिस रोज 16 घण्टे ड्युटी कर रात 2 बजे आते है उस दिन तो बहुत ही ज्यादा दिक्कत होती है। नींद पूरी नहीं होती — फैक्ट्री में टेबल पर कार्य करते समय 11 बजे और फिर दोपहर बाद 3-4 बजे खड़े-खड़े नींद आती है। पति भी रोज 12 घण्टे ड्युटी करते हैं पर वे रविवार को कम्पनी बुलाती है तब भी काम करने नहीं जाते — कहते हैं कि हफ्ते में एक दिन तो आराम के लिये चाहिये ही। मैं हफ्ते के सातों दिन 12-16 घण्टे काम करती हूँ — पति की इच्छा रहती है कि मैं भी रविवार को छुट्टी करूँ पर ऐसा करने पर नौकरी से निकाल देंगे की धमकी रहती है। जब से ड्युटी कर रही हूँ , हम पति-पत्नी को एक-दूसरे के लिये समय मिलता ही नहीं।

“हमारा बड़ा बेटा अपने मामा के पास है। हमारे ड्युटी जाने के बाद छोटा बेटा अकेला रहता है। इधर हम ने उसे एक निजी विद्यालय में भर्ती करवा दिया है। दाखिले के 500 रुपये, 120 रुपये महीना फीस, 100 रुपये प्रति माह ट्युशन… *बच्चा सुबह अकेला स्कूल जाता है। घर लौट कर एक घण्टे ट्युशन। फिर रात 9 बजे तक अकेला रहता है। भूख लगती है तो अपनेआप खाना निकाल कर खा लेता है। छोटा और अकेला रहने के बावजूद आमतौर पर परेशान कम ही करता है पर इधर कुछ दिन से गुस्सा दिखाने लगा है — नहाता नहीं, कपड़े जानबूझ कर गन्दे करता है, खाना नहीं खाता, आटा फेंक देता है, मिलने आई सहकर्मी मिठाई लाई थी उसे उनके सामने फेंक दिया, आज रोटी छत पर फेंक दी … बच्चे को क्या पता कि किराये का कमरा है और मकानमालिक के नियम-कानून के दायरे में नहीं रहो तो झाड़ सुननी पड़ेगी। मकानमालिक शिकायत करता है … गुस्से में कभी-कभी बेटे को मार देती हूँ। बच्चे को मारना कोई अच्छी बात नहीं … मार देती हूँ तब पड़ोस के बच्चे के साथ खेलता भी नहीं। जब ड्युटी नहीं करती थी तब मेरा बेटा ऐसा नहीं था।”*

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सस्ते हैं हाथ

विजय ने कई फैक्ट्रियों में मेन्टेनेंस वरकर की नौकरी की। विजय बात भी खूब करते थे। विजय की पाँच वर्ष पहले मृत्यु हो गई। यहाँ विजय की बातें दे रहे हैं। इन दस वर्ष के दौरान पावर प्रैसों पर सैन्सर व्यापक स्तर पर लगाने के कारण हाथ कटने कम हुये हैं। लेकिन 12 घण्टे की शिफ्टें और … और अधिक उत्पादन के लिये मैनेजमेन्टों द्वारा पावर प्रैसों पर से सैन्सर हटा देना हाथों की बलि लेना जारी रखे हैं।

अनुभवी पावर प्रैस मैकेनिक : “फरीदाबाद में औसतन हर रोज पावर प्रैसों में 10 मजदूरों की उँगलियाँ कटती हैं।

“पावर प्रैसों में 80 प्रतिशत एक्सीडेन्ट ओपन डाई लगाने के कारण होते हैं। ओपन डाई मैकेनिकल पावर प्रैस में लगायें चाहे न्यूमैटिक में — एक्सीडेन्ट होना ही है। ओपन डाई खर्चा बचाने के लिये लगाते हैं — बन्द डाई की कीमत ओपन डाई की कीमत से ढाई गुणा ज्यादा।

“ओपन डाई खुली होती है और हाथ से कम्पोनेन्ट डाई के अन्दर रखना तथा बाहर निकालना पड़ता है। ऐसे में प्रैस जब डबल आ जाती है तब हाथ कट जाता है। थके होने पर ध्यान नहीं रहने के कारण हाथ ज्यादा कटते हैं — फरीदाबाद में ज्यादातर जगह रोज 12 घण्टे तो काम करना ही पड़ता है जबकि पावर प्रैस पर 8 घण्टे ही ज्यादा होते हैं।

“मैकेनिकल प्रैस की तुलना में न्यूमैटिक प्रैस में डबल आने की सम्भावना काफी कम होती है पर न्यूमैटिक की कीमत दुगुनी है। ऐसे में फैक्ट्रियों में मैकेनिकल और न्यूमैटिक, दोनों प्रैस हैं।

“सस्ते के ही फेर में ऑपरेटर की जगह हैल्पर को पावर प्रैस पर लगाना। प्रैस में सस्ते पार्ट्स लगाना : बुश 200 रुपये की जगह 130 रुपये वाला; रोलिंग 60 रुपये किलो वाले ई एन 24 की जगह 32 रुपये किलो वाले एम एस की; स्प्रिंग 100 रुपये वाले की जगह 25 रुपये का; मशीन में तेल तक नहींडालना — खर्च घटाने के लिये तेल-ग्रीस रखना ही नहीं; … हाथ काटने के प्रबन्ध हैं यह।

“ज्यादा उत्पादन के चक्कर में मोटर की पुली बढा कर पावर प्रैस के स्ट्रोक बढा देना एक्सीडेन्ट बढाना लिये है। अधिक उत्पादन निर्धारित करना अथवा इनसेन्टिव का लालच देना या फिर कुछ सुस्ताने के चक्कर में पैडल दबा कर लगातार स्ट्रोक लगाना … बीच-बीच में मशीन को रोक कर जाँच नहीं करना एक्सीडेन्ट बढाना लिये है।

“50 टन की प्रैस खाली नहीं है तो 30 टन वाली पर काम करवाना। तीस टन वाली पर 50 टन का लोड दे देते हैं — ज्यादा लोड की वजह से रोलिंग चाबी मुड़ जाती है। रोलिंग चाबी मुड़ने-कटने पर नई लगाने की बजाय वैल्डिंग करके लगा देते हैं — 100 रुपये की जगह 5 रुपये में काम निकालना। रोलिंग चाबी खराब होने से प्रैस डबल आ जाती है और हाथ कट जाता है। प्रैस के पैडल में लगी स्प्रिंग ढीली होने पर 70-80 रुपये बचाने के चक्कर में स्प्रिंग बदलते नहीं। पैडल स्प्रिंग ढीली होने से लैच हुक (स्टोपर) काम नहीं करता तब प्रैस डबल आ जाती है और हाथ कट जाता है। लिमिट स्विच फेल होने पर न्यूमैटिक प्रैस डबल आ जाती है और हाथ कट जाता है …

“पावर प्रैसों से हाथ कटने का मुख्य कारण खर्च बचाना है, अधिक व सस्ते में उत्पादन करवाना है।”

(मजदूर समाचार, जनवरी 2005 अंक से)
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