होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर मजदूर : “प्लॉट 1, सैक्टर-3, मानेसर, गुड़गाँव स्थित फैक्ट्री में सबसे बड़ी समस्या काम-काम-काम और काम है। फैक्ट्री शुरू हुये चार साल हुये हैं और उत्पादन में, काम के बोझ में लगातार वृद्धि की जा रही है। साहब लोग उत्पादन बढाने के लिये पीछे पड़े रहते हैं और किसी अधिकारी को थोड़ा भी टोक दो तो — ‘कल से ड्युटी नहीं आना, करना है तो ऐसे ही, वरना जाओ’। इस प्रकार एक लाइन पर दो शिफ्ट में 2000 स्कूटर प्रतिदिन बनवाने लगे हैं और एक शिफ्ट में एक लाइन पर मोटरसाइकिलों का उत्पादन 750 पर पहुँचा चुके हैं — मोटरसाइकिल उत्पादन शुरू हुये डेढ साल ही हुआ है। एक स्कूटर 25-26 सैकेन्ड में तैयार करना पड़ता है। एक शिफ्ट में 1000 स्कूटर का उत्पादन निर्धारित है पर अगर पहली शिफ्ट में इतने नहीं बने तो बी-शिफ्ट में अधिक उत्पादन कर प्रतिदिन के 2000 पूरे करने पड़ते हैं। दूसरी शिफ्ट में दो हजार पूरे करने के लिये आधा घण्टा रोकते हैं तो उसका ओवर टाइम नहीं देते। फिर भी पूरा उत्पादन नहीं तो जबरन ओवर टाइम पर रोकते हैं। बी-शिफ्ट रात 11 बजे समाप्त होती है पर आमतौर पर एक-डेढ़ बजे तक तो रुकना ही रुकना होता है, प्रतिदिन के दो हजार स्कूटर के चक्कर में जब-तब सुबह 5 बजे तक रुकना पड़ता है। पुर्जे सी एन सी मशीनों पर बनते हैं जहाँ एक मजदूर को दो मशीन चलानी पड़ती हैं। किसी पुर्जे की 15 सैकेन्ड, किसी की 30, किसी की 50 सैकेन्ड, किसी भारी पुर्जे की 2 मिनट 10 सैकेन्ड टाइमिंग है — पूरे समय एक से दूसरी मशीन तक चलते रहना पड़ता है। लाइन पर दो लेकिन पुर्जे उत्पादन में तीन शिफ्ट हैं। साढे आठ घण्टे में ही इतना थक जाते हैं कि ओवर टाइम करना सम्भव नहीं होता फिर भी करना पड़ता है अन्यथा गेट बाहर। महीने में 90-100 घण्टे तक ओवर टाइम करना पड़ता है। कम्पनी ओवर टाइम का भुगतान डबल की दर से करती है पर फिर भी हम मजदूरों में ओवर टाइम का भारी विरोध है। जिस रफ्तार से काम करना पड़ रहा है उसे देखते हुये 35-40 वर्ष की आयु से अधिक तक काम कर ही नहीं सकते।
“जबकि ऊपर से देखने पर होण्डा फैक्ट्री में सब अच्छा है। ठेकेदार के जरिये रखते वरकर को भी पहले ही दिन दो वर्दी, एक जोड़ी जूते, टोपी। निवास से फैक्ट्री ले जाने और वापस छोड़ने के लिये 25 बसें — मजदूर कम हों तो इंडिका अथवा क्वालिस कार। दो कैन्टीन और कैन्टीन में 6 रुपये में भोजन — रोटी, चावल, दो सब्जी, दही, सलाद, कुछ मीठा। चाय-नाश्ते के लिये हर मजदूर को कम्पनी 200 रुपये के कूपन प्रतिमाह देती है। सफाई। फैक्ट्री में हर समय डॉक्टर। एम्बुलैन्स। मेडिक्लेम। स्थाई मजदूरों, ट्रेनी व अप्रेन्टिसों को पैसे पहली तारीख को और ठेकेदार के जरिये रखों को 7 तारीख को। दूर-दूर से ट्रेनी मजदूर व अप्रेन्टिस लाये जाते हैं और महीने-भर उनके रहने का प्रबन्ध कम्पनी करती है। ठेकेदार के जरिये रखे जाते वरकर भी आई.टी.आई. किये — 6-7-8 महीनों में निकालना पर कुछ को ट्रेनी के तौर पर रख लेना। ट्रेनी को प्रशिक्षण अवधि (एक व दो वर्ष) पूरी होने पर पक्का कर देना। स्थाई नौकरियों का अकाल और पक्के होने का यह लालच हमें बहुत कुछ झेलने को मजबूर कर रहा था पर लात मारने के वाकये के बाद हम ने आपस में तालमेल बढाये।
“पिछले वर्ष अक्टूबर में वैल्डशॉप में बी-शिफ्ट में रात सवा ग्यारह पर एक साहब ने एक मजदूर के लात मारी। अगले रोज ए-शिफ्ट में लात मारने के विरोध में मजदूरों ने सुबह 9 बजे काम बन्द कर दिया। लात मारने वाले साहब ने मजदूरों के सामने माफी माँगी तब 2 बजे काम शुरू हुआ। बी-शिफ्ट के मजदूरों ने भी काम बन्द किया। साहब ने फिर माफी माँगी तब रात साढे सात बजे काम शुरू किया। फैक्ट्री में एक दिन काम बन्द होने पर 8 करोड़ रुपये के उत्पादन की हानि होती है।
“फैक्ट्री में खटपट बढने लगी। इस वर्ष 6 फरवरी को बी-शिफ्ट में कम्पनी ने बन्धन-पत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा और जबरदस्ती करने लगी। इस पर सब मजदूर कार्यस्थल छोड़ कर कैन्टीन में एकत्र हो गये। भोजन का बहिष्कार किया। शिफ्ट समाप्ति पर फैक्ट्री से बाहर नहीं गये। सी-शिफ्ट के मजदूर भी कैन्टीन में आ कर बैठ गये। अगले रोज सुबह ए-शिफ्ट के मजदूर भी कार्यस्थलों पर जाने की बजाय कैन्टीन में आ कर बैठ गये। कैन्टीनों में तीनों शिफ्टों के मजदूर — 1200 स्थाई, 1600 ट्रेनी, ठेकेदार के जरिये रखे 1000 और 400 अप्रेन्टिस जमा हो गये। सब मजदूरों ने भोजन व चाय का बहिष्कार किया। कम्पनी ने फैक्ट्री में पुलिस बुला ली। डी.सी. भी फैक्ट्री पहुँचा। मजदूरों में कोई नेता नहीं थे — कम्पनी ने हर डिपार्ट से बातचीत के लिये 5-5 माँगे। साँय 5-6 बजे समझौता हुआ — किसी को निकालेंगे नहीं, जो बन्धन-पत्र भरवा लिये थे वे वापस किये (मजदूरों ने फाड़ कर जला दिये), उत्पादन पूरा कर दिया जायेगा। डेढ दिन काम बन्द रहने के बाद 8 फरवरी को सुबह से उत्पादन पुनः आरम्भ। कम्पनी ने स्थाई मजदूरों व ट्रेनी के डेढ़ दिन के पैसे नहीं काटे पर ठेकेदार के जरिये रखों के काटे।
“अप्रैल में कम्पनी ने वार्षिक वेतन वृद्धि दी — स्थाई मजदूरों की तनखा में 2800-3500 रुपये की बढोतरी की। ट्रेनी के 600 रुपये बढाये जबकि अप्रैल 2004 में 750 रुपये बढाये थे। स्थाई मजदूरों की तनखा 8500-10,000 रुपये हो गई और ट्रेनी की 5600 रुपये। ठेकेदार के.सी. इन्टरप्राइजेज के जरिये रखे 1000 वरकरों की तनखा में कोई वृद्धि नहीं की — 2800 रुपये ही रही। ठेकेदार के जरिये रखे जाते वरकर उत्पादन कार्य करते हैं, सी एन सी मशीनें चलाते हैं।
“अप्रेन्टिस को 900 रुपये भत्ता सरकार से मिलता है और 700 रुपये होण्डा कम्पनी देती है। अन्य कम्पनियों की ही तरह यहाँ भी अप्रेन्टिस को सिखाने की बजाय पहले दिन से ही सीधे उत्पादन में जोत देते हैं। अप्रेन्टिसों से तीनों शिफ्टों में काम करवाते हैं। अधिकतर अप्रेन्टिस भी दूर-दूर से लाये गये हैं — 1600 में गुजारा नहीं होता, ओवर टाइम में दुगना भी 1600 के हिसाब से ही। एक अप्रेन्टिस से मशीन में नुक्स होने पर स्कूटर लाइन एक दिन बन्द रही — उस अप्रेन्टिस को कम्पनी ने निकाल दिया।
“कुछ दिन सामान्य। फिर फोर्क लिफ्टर में नुक्स पर कम्पनी ने एक स्थाई मजदूर को निलम्बित किया। निलम्बन को दस दिन हो गये तब फैक्ट्री में भोजन का बहिष्कार शुरू — काम के भारी बोझ के कारण चाय मजबूरी में लेते थे। बहिष्कार में स्थाई के संग ट्रेनी, अप्रेन्टिस और ठेकेदार के जरिये रखे गये वरकर शामिल रहे। अतिरिक्त दबाव के बावजूद ठेकेदार के जरिये रखे वरकरों में से किसी ने भी फैक्ट्री में भोजन नहीं किया। भोजन बहिष्कार को एक महीना हो गया तब कम्पनी ने निलम्बित मजदूर को वापस काम पर लिया।
“यूनियन के जरिये राहत की बातें सामने आई। देवीलाल पार्क, गुड़गाँव में 15-20 दिन के अन्तराल पर होण्डा मजदूर एकत्र होने लगे। हम में से चमचे सब सूचनायें कम्पनी को देते। पंजीकरण और बड़ी यूनियन से जुड़ने के लिये गतिविधियाँ। कम्पनी द्वारा छोटी-छोटी बातों पर निलम्बन का सिलसिला। ठेकेदार के जरिये रखे वरकरों को निकालना शुरू किया और 26 जून तक 1000 में से 500 निकाल दिये थे। निलम्बनों के सिलसिले के खिलाफ 2 जून को बी-शिफ्ट के मजदूर कार्यस्थल छोड़ कर प्रशासनिक भवन पहुँंचे और नारे लगाये — आधे घण्टे उत्पादन बन्द रहा जिसे बाद में पूरा कर दिया। इस पर अगले दिन कम्पनी ने 4 स्थाई मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया और 25 को निलम्बित कर दिया। विरोध में भोजन का बहिष्कार और ओवर टाइम बन्द। स्कूटरों का उत्पादन 1000 प्रति शिफ्ट की जगह 400-500 रह गया।
“कम्पनी ने 22 जून को नोटिस लगाया कि जिनका प्रशिक्षण पूरा हो गया है उन ट्रेनी की रविवार, 24 जून को परीक्षा होगी और आवश्यकता होगी तो उन्हें स्थाई किया जायेगा। जबकि, प्रशिक्षण की अवधि समाप्त होने पर अब तक कम्पनी स्थाई करती आई थी तथा कोई परीक्षा नहीं होती थी। रविवार को परीक्षा नहीं दी। इधर निलम्बित मजदूरों की सँख्या 50 हो गई। तब 27 जून को सुबह हम ड्युटी पहुँचे तो गेट पर कम्पनी ने शर्तों पर हस्ताक्षर करने को कहा। दस्तखत करने से इनकार पर कम्पनी ने फैक्ट्री में प्रवेश नहीं करने दिया। स्टाफ के 300 से ज्यादा लोग, 40-50 स्थाई मजदूर और ठेकेदार के जरिये 27 जून को ही भर्ती नये लोग फैक्ट्री में गये। उत्पादन जारी — दो हजार लोग फैक्ट्री में। गेट पर पुलिस। चार हजार मजदूर गेट बाहर।
“यूनियन नेताओं के जरिये प्रशासन को ज्ञापन। जुलूस। सांसद भी आये 11 जुलाई की सभा में। पर कुछ बदलता नजर नहीं आया। ऐसे में 25 जुलाई को पुलिस से भिड़न्त हुई और फिर हम ने पुलिस की लाठियाँ खाई। टी वी, अखबारों
और नेताओं के चौतरफा बयानों से लगा कि हमारी समस्यायें हल होंगी। लेकिन केन्द्र सरकार की अध्यक्ष के निर्देश पर हरियाणा के मुख्य मंत्री की देखरेख में हुये समझौते ने हमें पाताल में पहुँचा दिया। समझौते अनुसार पहली अगस्त को फैक्ट्री में पहुँचे हम सब मजदुर गुस्से में भरे पड़े हैं। समझौते से होण्डा के सब मजदूर नाराज हैं। स्थाई मजदूर कह रहे थे कि जब शर्तों पर दस्तखत करने ही थे तो यह सब करने की क्या जरूरत थी। प्रशिक्षण पूरा कर चुके 35 ट्रेनी बाहर के बाहर। माफीनामे … और ठेकेदार के जरिये रखे 1000 में से 26 जून को जो 500 बचे थे वे सब नौकरी से निकाल दिये — कम्पनी ने ठेकेदार के जरिये जो नये भर्ती किये थे वे फैक्ट्री में रहेंगे। कम्पनी 27 जून से 31 जुलाई तक का कोई वेतन नहीं देगी। नेताओं और मजदूरों के बीच समझौते ने विभाजन कर दिया है।”
● फैक्ट्री के अन्दर जब स्थाई मजदूर काबू में नहीं आते तब कम्पनियाँ बिचौलियों को पैदा करने, बिचौलियों की साख बनाने/पुनः जमाने के लिये विभिन्न जाल बुनती हैं। भुगते बैठे मजदूरों से बाहर की हड़ताल करवाना मैनेजमेन्टों और बिचौलियों के लिये अधिकाधिक मुश्किल होता जा रहा है। इसीलिये गेट बाहर कर मजदूरों को नरम करने के लिये तालाबन्दियाँ बढ़ रही हैं। बाहर बैठाने के लिये शर्तों पर हस्ताक्षर को कम्पनी द्वारा फैक्ट्री में प्रवेश के लिये अनिवार्य करना और बिचौलियों द्वारा दस्तखत करने को हाथ कटाना करार देना एक दूसरे जाल के ताने-बाने हैं। फैक्ट्री से बाहर किये स्थाई मजदूर समय गुजरने के साथ कमजोर पड़ते जाते हैं और ऐसे में कम्पनी उन पर पुनः नियन्त्रण कायम करती है। फरीदाबाद में वी एक्स एल इंजिनियरिंग, जी के एन इनवेल ट्रान्समिशन, क्लास, न्यू एलनबरी वर्क्स के मजदूर “शर्तों पर हस्ताक्षर” के हथियार से चोट खा चुके हैं। ओखला (दिल्ली) में माइकल आराम एक्सपोर्ट के मजदूरों ने इसकी कड़वाहट चखी है। अब गुड़गाँव में होण्डा के मजदूरों ने “शर्तो पर हस्ताक्षर” को भुगता है।
● मजदूरों पर पुनः नियन्त्रण स्थापित करने के लिये घटनाओं की रचना करती कम्पनियाँ कभी-कभार घटना उद्योग की थोड़ी चपेट में आ जाती हैं जैसे कि गुड़गाँव में हुआ है। घटना उद्योग और वर्तमान व्यवस्था के अन्य पक्षधर सामान्य की चर्चा से परहेज करते हैं और घटना को, असामान्य को गड़बड़ पेश कर उसके होने पर एतराज जताते हैं, रोकने की बातें करते हैं। जबकि वर्तमान व्यवस्था में सामान्य जीवन ही है जो बरदाश्त से बाहर है …
● मुम्बई-सूरत-हैदराबाद-चेन्नै-कोलकाता- कानपुर-लुधियाना-गुड़गाँव-दिल्ली-नोएडा- फरीदाबाद- … में सामान्य है :
वास्तविक वेतन का लगातार गिरते जाना; परिवार के भरण-पोषण के लिये कार्यदिवस का सतत बढते जाना; फैक्ट्रियों में 12 घण्टे की शिफ्ट; 80-85 प्रतिशत मजदूरों को वैधानिक न्यूनतम वेतन भी नहीं देना; कानून अनुसार ओवर टाइम का भुगतान 95-98 प्रतिशत मजदूरों को नहीं; उत्पादन कार्य का 80-85 प्रतिशत कैजुअल व ठेकेदारों के जरिये रखे जाते वरकरों द्वारा किया जाना; मजदूरों की बड़ी संँख्या को दस्तावेजों में दिखाना ही नहीं; तीव्र से तीव्रतर व अत्याधिक काम से तन-मन को अधिकाधिक तानना; संग ही संग खाली-खाली-खाली की बढ़ती संँख्या का बढता सूनापन; विशाल आबादी को मण्डी में धकेलती दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत द्वारा मजदूरी के भाव में भारी गिरावट; इलेक्ट्रोनिक्स का कहर …
● इस सामान्य का एक परिणाम है सट्टे बाजार का, शेयर मार्केट का यहाँ नित नई उँचाइयों को छूते जाना।
● लेकिन यह सामान्य हालात ही हैं जो नियन्त्रण-कन्ट्रोल के लिये अनिवार्य बिचौलियों को किनारे लगा रहे हैं। “मजदूर आन्दोलन खत्म!” का फिकरा वास्तव में इस व्यवस्था के सुरक्षा कवचों का चिथड़े-चिथड़े होना है। ऐसे में वर्तमान व्यवस्था के कर्णधारों में बिचौलियों को मजदूरों के बीच पुनः स्थापित करने की हूक उठना स्वाभाविक है। लेकिन बिचौलियों में सतत भ्रम के लिये स्थाई मजदूरों की बड़ी संँख्या के संग-संग स्थाई होने की अच्छी सम्भावना का होना जरूरी है पर हकीकत …
वैसे, भलेमाणस भी हैं जो सौ-सवा सौ वर्ष पूर्व की दुनियाँ में अब भी विचरण कर रहे हैं और बिचौलियों के स्थान “ईमानदारों” से भरने के सपने देखते हैं — अमरीका में सियेटल शहर में मजदूरों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पों के बाद भी ऐसे सपने अल्पकाल के लिये हवा में थे।
● दरअसल हमारी मेहनत हमारे ही खिलाफ के हालात हैं। समुदाय टूटने के साथ ऐसी स्थिति आरम्भ हुई। किलों के निर्माण ने दमन बढाने का काम तो किया ही, अपनी मेहनत की उपज के सम्मुख मनुष्य गौण होने लगे। ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में सिर-माथों पर बैठते लोग आमतौर पर बहुत बुद्धि वाले होते हैं। ऐसे में दमन-शोषण में भूमिका से उपजते अपराधबोध और व्यवस्था के सम्मुख असहायता ने अनेकानेक गौतम बुद्धों को भिक्षु भी बनाया है। ईश्वर के अनेकों दूतों, ईश्वर-पुत्रों और स्वयं ईश्वर अवतारों के बलिदानों-प्रयासों के बावजूद स्थिति बद से बदतर होती आई है …
● यह समुदाय रूपी समाज व्यवस्थाओं का टूटना और ऊँच-नीच वाली व्यवस्थाओं का आगमन है जो मनुष्यों की मेहनत की उपज को मानवता के खिलाफ, प्रकृति के ही खिलाफ कर देता है। संचित श्रम (मृत श्रम) और सजीव श्रम के बीच शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध बने हैं। इन शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों को निशाना बनाने की बजाय संचित श्रम के संचालक बनने के प्रयासों का दबदबा रहा है जो कि हालात के बद से बदतर होने की जड़ में है। थाणेदारी पर निशाना साधने की बजाय थाणेदार बनने के सपने-प्रयास गर्त की राह हैं …
आज हमारा संचित श्रम इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर-सा हो गया है। ऐसे में हम व्यापक स्तर पर सामाजिक मनोरोग के शिकार हैं। लाठी-गोली तन्त्र के संचालक तक तन्त्र के करमों के कारण अपराधबोध में तो डूबते जा ही रहे हैं, तन्त्र संचालक तन्त्र के सामने, खासकरके व्यवस्था के सम्मुख पूर्णतः असहाय भी हैं। ऐसे अपराधबोध और असहायता से बड़े लोगों में मजदूरों के प्रति उपजती सहानुभूति स्वयं में दुखद है। वैसे, सिर-माथों पर बैठों की “सहानुभूति” आमतौर पर छवि के फेर में होती है, मसीहाई अन्दाज अख्तियार कर वोटों की फसल बटोरने के लिये होती है।
● हमारे ही खिलाफ हमारीअपनी मेहनत की उपज अब कोई छोटा-मोटा गोवर्धन नहीं रही बल्कि हिमालयी आकार की हो गई है। इससे पार पाने के लिये हमें प्रत्येक में उँगली पर कंकड़ उठाने की क्षमता होने के महत्व को पहचानना-स्वीकार करना आवश्यक लगता है। विश्व के हम 5-6 अरब लोग उँगली पर कंकड़ उठाने की सहज क्रियाओं के जरिये हिमालय से पार पा जायेंगे …
● संचित श्रम और सजीव श्रम में मित्रतापूर्ण सम्बन्धों के लिये, नई समाज रचना के लिये 100 को 5 में बदलने वाली बिचौलियों की राहों को त्याग कर आइये 100 को 1000-10,000 बनाने वाली राहों पर बढ़ें।
(मजदूर समाचार, अगस्त 2005 अंक से।)