आप-हम क्या-क्या करते हैं … (11)

# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अक्सर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की झलक जारी है।

तेरह वर्षीय मजदूर : “सुबह ताजा नहीं उठता। सुस्ती में उठता हूँ , कभी फुर्ती नहीं आती। दिमाग में यही रहता है कि जाना है इसलिये काहे को जल्दी करना। रोज-रोज जाना होता है, जाने का समय बहुत जल्दी हो जाता है। छुट्टी नहीं — सिर्फ महीने के आखिरी रविवार को छुट्टी।

“नाश्ता कर और रोटी ले कर साढे नौ बजे घर से निकल लेता हूँ। माँ रोटी-सब्जी बनाये रखती है पर मैं सिर्फ रोटी ले जाता हूँ — दुकान पर अचार से खा लेता हूँ। आधे घण्टे का पैदल रास्ता है — रक्षाबन्धन से दो दिन पहले दुकान से मेरी साइकिल चोरी हो गई तब से पैदल मार्च करता हूँ। जाते समय सोचता हूँ कि दुकानदार कहीं मेरे से पहले न पहुँच जाये — डाँट मारता है। मेरी ड्युटी 10 बजे शुरू होती है।

“आमतौर पर मैं पहुँचता हूँ तब दुकान बन्द मिलती है। बगल वालों से झाड़ू माँग कर बाहर की सफाई करता हूँ। फिर बैठ कर इन्तजार करता हूँ — कभी-कभी काफी देर इन्तजार करना पड़ता है, आधा घण्टा तक।

“दुकान खुलते ही सामान बाहर निकालना। बहुत-सारा सामान होता है और बाहर सजाना होता है। पूरा सामान जचाने में साढे बारह बज जाते हैं और फिर मैं दुकान के अन्दर झाड़ू लगाता हूँ। बीच में थोड़ा-भी खड़े होने पर दुकानदार टोक देता है — काम करो। एक बजे तक कम्पलीट। सामान निकालते-जचाते समय बीच-बीच में ग्राहक भी आते रहते हैं।

“भोजन का कोई समय नहीं — 1 बजे के बाद और 4 से पहले। दोपहर में 2 से 4 बिक्री कुछ कम रहती है। तब छोटी-मोटी सफाई और दुकानदार बाहर होता है तब दूसरे लड़के के साथ बातें — हँसी-मजाक, उल्टे-सीधे गाने । दुकानदार के सामने नहीं — चिल्लायेगा।

“दिमाग में कुछ नहीं रखता …

“पहले-पहल मैंने एक बिजली मोटर मरम्मत की दुकान पर काम किया। सीखना — पैसे नहीं। सुबह 9 से रात 7 बजे तक। घण्टों दुकान पर अकेला रहता तब मुझे नींद आ जाती। दुकानदार कहता कि सोया मत कर, कोई कुछ सामान उठा ले जायेगा। बगलवाले मुझे गाली देते … खर्चा भी नहीं दिये जाने के कारण एक महीने बाद वहाँ काम छोड़ दिया।

“इण्डिया मैनेजमेन्ट ट्रेनिंग सैन्टर, सैक्टर-11 में झुग्गियों के एक लड़के ने मुझे लगवाया। एक किलोमीटर पैदल चल कर सुबह साढे आठ बजे ड्युटी पर पहुँचता था। टेबल-कुर्सी, शीशे-खिड़कियाँ, दरवाजे-रेलिंग आदि बहुत-सी चीजों की सफाई करता और कभी-कभी झाड़ू-पौंछा भी लगाना पड़ता। दिन-भर चाय-पानी पकड़ाता। तनखा 900 रुपये — सोमवार की छुट्टी रहती थी। सैन्टर वालों ने 6 महीने बाद मुझे साइकिल दी थी। साँय 6 तक मेरी ड्युटी थी पर साढे छह-7-8 बजे तक छोड़ते। झुग्गियों से साइकिल चोरी हो गई तो मेरी तनखा में से 300 रुपये काट लिये। इस पर मैंने नौकरी छोड़ दी — वहाँ 9 महीने काम किया।

“मुजेसर में लोहे, ताम्बे की डाई बनाने वाली एक वर्कशॉप में लगा। बोले सुबह 9 से 6 की थे पर फिर साढे आठ से 6 कर दिया और सवा सात तक छोड़ते। तनखा 600 रुपये। मैं छोटे पीसों में ड्रिल से छेद करता था। दिन में दो चाय देते। ज्यादा काम करवाते थे — मुण्डी भी इधर-उधर नहीं करने देते थे। वर्कशॉप वाला चला जाता तब उसका साला ज्यादा ही सिर पर चढता था, मार भी देता था। इसलिये मैंने गुस्से में नौकरी छोड़ दी। एक महीना 10 दिन काम किया था — 10 दिन के पैसे नहीं दिये।

“झुग्गियों के एक लड़के ने संजय कॉलोनी में वर्कशॉप में लगवाया । वहाँ कील में फँसा कर छोटी स्प्रिंग उँगली से मोड़नी पड़ती थी। उँगली सूज जाती थी। तीन दिन काम करवाने के बाद भी पैसे नहीं बताये तो मैंने छोड़ दिया।

“फिर मुजेसर में लोहे की डाई बनाने की वर्कशॉप में लगा। तनखा 1000 रुपये। रोज सुबह झाड़ू लगाता। कभी-कभी मशीन साफ करता। सामान पकड़ाता। एक बड़ी मशीन भी थोड़ी चला लेता। सुबह साढे आठ से 5 ड्युटी, दिन में 2 चाय, सही समय पर छोड़ देता, महीना होते ही पैसे। एक महीना काम करते हो गये तब बड़ी मशीन बेच दी … बीस दिन बाद आना, दस दिन बाद आना …

“अब यहाँ दुकान पर। पिताजी ने लगवाया। तनखा 1000 रुपये। झुग्गियों में पिताजी का डॉक्टरी का धन्धा चला नहीं और छुट-पुट इधर-उधर से गुजारा करने के बाद अब दिल्ली काम करने जाते हैं। मैं छठी में फेल हो गया तब माँ बोलती कि पढता नहीं, खेलता रहता हूँ … नहीं पढने का फैसला कर मैं काम के चक्कर में लगा। मेरे दो छोटे भाई स्कूल जाते हैं। नौकरी मजबूरी से भी करता हूँ और राजी से भी … जब खाली बैठा होता हूँ तब नौकरी को मन करता है और जब नौकरी कर रहा होता हूँ तब नौकरी छोड़ने को मन करता है।

“दुकानदार हमें 12 घण्टे से ज्यादा की ड्युटी में एक चाय देता है, उसके साथ कुछ नहीं। चाय शाम 7 बजे के आसपास देता है। सामान दुकान से 7-8 फुट बाहर तक सजाया होता है — कोई उठा न ले जाये इसलिये मुझे बाहर भी खड़ा होना पड़ता है। कई बार 5-10 ग्राहक इकट्ठे भी आ जाते हैं। पैसों का हिसाब दुकानदार रखता है। रात सवा नौ सामान अन्दर रखना शुरू करते हैं। पहले अन्दर का सामान जचाना पड़ता है और फिर बाहर वाला। बीच-बीच में ग्राहक आते रहते हैं। दुकान सवा दस से पहले बन्द नहीं होती, साढे दस बज जाते हैं।

“पिताजी साइकिल से लेने आ जाते हैं। घर पौने ग्यारह पहुँचता हूँ। तुरन्त खाना खाता हूँ। रात साढे ग्यारह बजे सो जाता हूँ पर कभी-कभी नींद देर से आती है।”

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