एटम बमों से अधिक खतरनाक हैं परमाणु बिजलीघर

● झूठ बोलना और छिपाना सरकारों के चरित्र में है। अर्ध-सत्य सरकारों की सामान्य क्रिया का अंग है। आडम्बर और प्रतीक — दिन में मोमबत्तियाँ जला कर मृतकों को श्रद्धांजलि और शान्ति के लिये प्रार्थनायें दमन-शोषण के तन्त्रों के कर्णधारों के कपट के संग-संग उनकी असहायता की भी अभिव्यक्ति हैं।

— 1914-1919 की महा मारकाट के बाद : और युद्ध नहीं!

1939-45 की उससे भी महा मारकाट के बाद : आगे कोई युद्ध नहीं!

हीरोशिमा तथा नागासाकी में एटम बमों से हमले के बाद : फिर कभी नहीं …

एटम बम बनने ही नहीं देने, बन चुके एटम बमों को समाप्त करना!

और … और शान्ति/सुरक्षा के नाम पर एटम बमों, हाइड्रोजन बमों, भाँति-भाँति के परमाणु बमों के सरकारों द्वारा भण्डार बनाना।

शान्तिध्वज की वाहक भारत सरकार में सर्वसम्मति से उस व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाया गया है जिसकी एटम बमों तथा उनके लिये वाहक वाहनों के निर्माण में अग्रणी भूमिका रही है। अमरीका-वमरीका सरकारों की बात छोड़िये, भारत सरकार द्वारा एटम बमों से युद्ध की तैयारी की एक झलक के लिये सेना के जनरलों के हाल ही में हुये सम्मेलन के बाद के प्रचार पर एक नजर डालिये : भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर परमाणु और जैविक युद्धक कमान केन्द्रों की स्थापना को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये स्वीकृति दे दी है; 30 प्रतिशत टैंक परमाणु विकिरण के माहौल में काम करने के लिये तैयार किये जा रहे हैं; एटम बमों से युद्ध के लिये भारत सरकार की सेना ने अपनी योजना तथा रणनीति बनाने के उद्देश्य से कई स्तरों पर अभ्यास किये हैं; सेना तीन विशिष्ट प्रक्षेपास्त्र युनिटों की स्थापना कर चुकी है; सेना में परमाणु हथियार शामिल; सेना को बड़े पैमाने पर परमाणु विकिरण रोधी पोशाकों की पूर्ति के लिये उनका निर्माण आरम्भ; जनरलों के सम्मेलन के अन्तिम दिन भारत के शीर्षस्थ परमाणु और जैविक वैज्ञानिकों ने जनरलों को परमाणु सुरक्षा कवच के इस्तेमाल तथा परमाणु कमान केन्द्रों की स्थापना के बारे में बारीकी से जानकारी दी; वैज्ञानिकों ने जनरलों को परमाणु हथियारों की दिशा में भारत सरकार की प्रगति से अवगत कराया।(जानकारी 24 अप्रैल 2006 के ‘पंजाब केसरी’ से)

— चिकित्सा के लिये, अनाज उत्पादन में वृद्धि के वास्ते, बिजली के लिये अनुसन्धान-प्रयोग-निर्माण उर्फ “परमाणु ऊर्जा का शान्तिपूर्ण उपयोग” सरकारों के एटम बमों के निर्माण के लिये एक आवरण रहा है। लेकिन मण्डी-मुद्रा के दबदबे में तीव्र से तीव्रतर हो रहा पृथ्वी का दोहन मानवों के शोषण के लिये परमाणु ऊर्जा को अधिकाधिक उल्लेखनीय भूमिका में लाने लगा। परमाणु ऊर्जा से बिजली का निर्माण बेहद खतरनाक है, कई पीढियों तक घातक प्रभाव डालता है, परमाणु बमों का सतत विस्फोट-सा है (कानून अनुसार शोषण के समान है) परन्तु सरकारें तथ्यों को छिपाती रही और बढती संँख्या में परमाणु बिजलीघरों का निर्माण …

लेकिन 26 अप्रैल 1986 को चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर में हुये विस्फोट का यूरोप-व्यापी असर पड़ा। रूस, यूक्रेन तथा बेलारूस में पचास लाख लोग विकिरणों की चपेट में आये। पूरे पश्चिमी यूरोप में विकिरणों के धुंँए का एक बादल बन गया था। एक लाख से अधिक कैंसर के अतिरिक्त मामले …

1986 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति रहे गोर्बाचोव ने अब, बीस वर्ष बाद “प्रायश्चित” के लिये विश्व की सशक्त सरकारों से अपील की है कि कम से कम 50 बिलियन डालर (करीब ढाई लाख करोड़ रुपये) की राशि वे चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर विस्फोट के पीड़ितों के लिये दें ताकि उनके लिये शुद्ध (विकिरण रहित) पानी और हवा का प्रबन्ध किया जा सके।

यूरोप में 1986 के बाद परमाणु बिजलीघरों के विरोध ने व्यापक रूप लिया। परमाणु बिजलीघरों का कूड़ा-कचरा भी इस कदर खतरनाक है कि जर्मनी में लोग परमाणु बिजलीघर के कूड़े-कचरे से लदी ट्रेन को अपने-अपने क्षेत्र से गुजरने से रोकने के लिये पुलिस से भिड़े …

 चेरनोबिल परमाणु बिजलीघर की घटना से सामने आये खतरों ने परमाणु बिजलीघर बन्द करने के लिये सरकारों पर दबाव बनाया और नये परमाणु बिजलीघरों के निर्माण पर लगाम लगी …

लेकिन फिर नये सिरे से “साफ” ऊर्जा की, परमाणु बिजलीघरों की वकालत खुल कर होने लगी है और भारत सरकार के राष्ट्रपति अग्रणी वकीलों में हैं। एटम बम व मिसाइल निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले यह वैज्ञानिक तथा शिक्षक भारत में इस समय परमाणु बिजलीघरों में बनती 2720 मेगावाट बिजली को बढा कर 50 हजार मेगावाट करने के लिये प्रचार अभियान में जुटे हैं।

● दो और दो चार के संकीर्ण दायरे से बँधे व्यक्ति की, ज्ञानी की, वैज्ञानिक की भर्त्सना आसान है। नये परमाणु बिजलीघर को “अपने प्रान्त में” लपकने के लिये आतुर मुख्यमन्त्री के अधकचरेपन की, बेवकूफी की भर्त्सना आसान है। लेकिन इससे होगा क्या?

● पीढी-दर-पीढी के कटु अनुभवों के बावजूद हालात बद से बदतर हो रही हैं। व्यक्ति इस कदर गौण हो गया है, गौण होता जा रहा है कि अपने होने को प्रकट करने के प्रयास में हर व्यक्ति बम बनी है, बम बनती जा रही है। आत्मघाती बम बन कर व्यक्ति अपने संग कुछ और को मार रहा है …

लेकिन असल समस्या सामाजिक बम है जो अरबों तन-मन को लगातर लहुलुहान करता है, करोड़ों का कत्ल कर चुका है और पृथ्वी पर से सम्पूर्ण जीवन के नाश के मुहाने हमें ले आया है।

● सामाजिक बम कहिये, सामाजिक पागलपन कहिये, सामाजिक मनोरोग कहिये …

मन्थन उस सामाजिक प्रक्रिया का आवश्यक लगता है जो व्यक्ति व समाज की ऐसी गत बनाती है।

● इन पाँच-छह हजार वर्ष के दौरान संसार में उभरी, फैली और अब सर्वव्यापी बनी ऊँच-नीच, दमन-शोषण वाली समाज व्यवस्थाओं के सार को इस तरह भी रखा जा सकता है : समाज रचनायें जहाँ मनुष्यों की मेहनत के परिणाम मनुष्यों के ही खिलाफ होते हैं। ऊपर वाले सिकुड़ते-सिमटते जाते हैं और नीचे वाले दबाये-कुचले जाते हैं …

समस्त मानव योनि के लिये त्रासदी की स्थिति है यह।

● नई समाज रचना, नई सामाजिक प्रक्रिया के लिये हमारी मेहनत और हमारी मेहनत के परिणाम में सामंजस्य यानि सजीव श्रम और संचित श्रम में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एक प्रस्थान बिन्दू लगते हैं।

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