विनाश का मानवीय चेहरा

महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के समय अक्टूबर 2004 में प्रधान मन्त्री ने मुम्बई को चमकाने, एशिया का प्रथम नगर बनाने की बातें की। चुनाव जीतते ही, पार्टी के वादे से मुकर कर, राज्य सरकार ने दिसम्बर 2004 में झुग्गी बस्तियाँ तोड़ना शुरू किया। पुलिस के संग बुलडोजर व अर्थमूवर मशीनों के जरिये *मुम्बई में दो महीनों में नब्बे हजार झुग्गियाँ तोड़ कर चार लाख लोग बेघर कर दिये हैं।* सरकार ने झुग्गियाँ तोड़ने पर 84 करोड़ रुपये खर्च किये … और मुम्बई चमकाने के लिये सरकार ने 100 से ज्यादा 40 मंजिली इमारतें बनाने की अनुमति दे दी है। “मानवीय चेहरे के साथ विकास” वर्तमान केन्द्र सरकार का नारा है।
● औद्योगिक केन्द्र बनाने के वास्ते बहुत-ही सस्ते दामों पर मध्य-मुम्बई में जमीनें पट्टों पर दी गई थी। यहाँ 1854 में पहली कपड़ा मिल बनी। सन् 1981 में मुम्बई में ढाई लाख कपड़ा मिल मजदूर थे — आज बीस हजार से भी कम हैं।
● मजदूरों के निवास के लिये एक-कमरे वाली इकाइयाँ बनाना फैक्ट्रियों के लिये कानूनी अनिवार्यता था। मध्य-मुम्बई में बड़ी सँख्या में मजदूरों के वैध निवास अस्तित्व में आये। जमीनों के भाव बहुत बढ जाने पर फैक्ट्री चलाने की बजाय उस जमीन का धन्धा करना भारी मुनाफे का बना। ऐसे में “बीमार”, कर्ज चुकाने, मजदूरों के बकाया का भुगतान आदि की आड़ में नियम बदलने आदि के एवज में मन्त्रियों को भारी रिश्वतों के जरिये कपड़ा मिलों की जमीनें बेचने का धन्धा 15 वर्षों से जोरों पर है। मजदूरों को खदेड़ने के लिये मिलों में आग तक लगाई गई है … वैसे, पट्टों की अवधि खत्म होने के साथ कपड़ा मिलों की जमीनें पुनः सरकार की हो गई पर मिल मैनेजमेन्टों को उसे बेचने की अनुमति दे कर मन्त्री-अफसर-मिल मैनेजमेन्टें अवैध कमाई से भी मालामाल हो रहे हैं।
● आजादी … 1947 से मजदूरों के लिये एक-कमरे के निवास बनाना भी बन्द। ऐसे में रेल लाइनों के किनारों के संग-संग मुम्बई में दलदल पाट कर मेहनतकशों ने निवास के लिये बस्तियाँ बनाई। मुम्बई में तीन हजार झुग्गी बस्तियों में 68 लाख लोग रहने लगे। इनके अलावा 27 हजार परिवार फुटपाथों पर धकेल दिये गये हैं। और, दिहाड़ी कम होती जाने के कारण नये मजदूरों के लिये अब शहर की झुग्गियाँ भी महँगी पड़ने लगी हैं इसलिये वे कार्यस्थलों से दूर शहर के बाहरी इलाकों में रहने को मजबूर हैं। शहर में जमीन के बढते भाव ने शहर की झुग्गी बस्तियों को खाली करवा कर वहाँ बहुमंजिली इमारतें बनाने को भी भारी मनाफे वाला धन्धा बना दिया है। इसलिये इस-उस कटऑफ तारीख आदि की आड़ में झुग्गी-बस्ती तोड़ो अभियान …
मुम्बई हो चाहे दिल्ली में ओखला, या फिर फरीदाबाद हो चाहे नोएडा : कारखानों के लिये सैक्टर/फेज/क्षेत्र इनकी योजनाओं में हैं। सुपरवाइजरों-मैनेजरों-अफसरों के निवास के लिये स्थान भी नगर योजना में हैं। लेकिन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के निवास के लिये योजनाओं में कोई स्थान है ही नहीं। कारण? मजदूरों के निवास पर खर्च कम करना मजदूर की लागत कम करना होता है। झुग्गियाँ-गन्दी बस्तियाँ बनवाने-बनाने देने की ओट में यह हवस छिपी रहती है। अहसान व रक्षा के नाम पर विभिन्न स्तर के बिचौलिये और उनके पठ्ठे वसूली करते हैं। दमन-शोषण की व्यवस्था को लगभग मुफ्त में यह थाणेदार+वकील मिल जाते हैं। और फिर, जब ऐसी किसी जगह की सिर-माथों पर बैठों को जरूरत पड़ जाये तब पीड़ितों को दोषी ठहराने व स्थान खाली करवाने में ज्यादा दिक्कतें नहीं होती।
● फरीदाबाद में दिसम्बर 2002-जनवरी 2003 में सरकार ने बड़े पैमाने पर झुग्गी बस्तियाँ तोड़ो अभियान आरम्भ किया था। बिचौलियों के ज्यादा फेर में रही झुग्गी बस्तियाँ तोड़ दी गई। पर फिर, लोगों ने स्वयं बढते पैमाने पर विरोध में उतर कर अगस्त 2003 में सरकार की योजना को बीच में ही रोक दिया।
● दिल्ली में संसदीय चुनाव के दौरान फरवरी-अप्रैल 2004 में सरकार ने तेरह हजार झुग्गियाँ तोड़ कर 50 हजार लोग बेघर किये थे। बसेरा बचाने के फेर में 5 लोग मारे गये, हताशा में दो ने आत्महत्या की, हिंसा-आगजनी-हत्या के प्रयास के आरोप लगा कर पुलिस ने गिरफ्तारियाँ की … दिल्ली में चुनाव-प्रक्रिया निष्पक्ष व शान्तिपूर्ण!
दरअसल, अवैध बस्तियों के बाशिन्दे वैध रिहाइश वालों के झाडू-पोंचा, बर्तन माँजने, कपड़े धोने, खाना बनाने के लिये ठीक थे-हैं … सड़क-फ्लाइओवर-इमारत निर्माण के लिये भी ठीक थे-हैं … फैक्ट्रियों-होटलों-क्लबों में काम करने के लिये भी यह लोग ठीक थे-हैं … लेकिन साहबों की भाषा में यह गन्दे लोग हैं, इनकी बस्तियाँ शहर पर बदनुमा दाग हैं, यह लोग प्रदूषण फैलाते हैं। और फिर, वैक्यूम क्लीनर-वाशिंग मशीन-डिश वाशर के संग प्री-फैब्रीकेटेड सामग्री-इलेक्ट्रोनिक नियन्त्रण के इस जमाने ने बड़ी सँख्या में लोगों को व्यवस्था के लिये अनावश्यक बना दिया है, फालतू बना दिया है। शहर और गाँव, दोनों जगह, हर जगह व्यवस्था के लिये लोग फालतू हो गये हैं। ऐसे में जनता पर व्यवस्था के आक्रमण और बढ़ेंगे।
किन्हीं के होने को ही गैर-कानूनी बना देने के पीछे एक पूरा राजनीतिक अर्थशास्त्र है। अधिक शोषण के लिये जीवन-स्तर गिराने और दबे-कुचलों पर जकड़-नियन्त्रण कसने के वास्ते बिचौलियों की फौज पालना इस राजनीतिक अर्थशास्त्र के आधार-स्तम्भ हैं।
विरोध कैसे करें? कैसे लड़ें? दलदल में फँस कर सिर और न फुड़वा बैठें से बचने की राहें कौनसी हैं?
हमारे विचार से इस सन्दर्भ में बिचौलियों की लीपापोतियों को पहचानना-खारिज करना प्रस्थान-बिन्दू है। समय राजनीतिक अर्थशास्त्र की जन-जन द्वारा आलोचना का है, तन-मन-मस्तिष्क से आलोचना का वक्त है। आँसू बहाने, छाती पीटने के पार जाने की आवश्यकता है।
(मुम्बई के बारे में जानकारियाँ “मजदूर एकता लहर” के 16-30 जून 2005 अंक से ली हैं।)
-(मजदूर समाचार जुलाई 2005)
— 22 अप्रैल 2022 को
मजदूर समाचार द्वारा पुनः प्रसारित
***
मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री छाँट कर अप्रैल 2021 में सवा छह सौ पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” छापी।
अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों से सामग्री छाँट कर पुस्तक “सतरंगी-2” का कार्य हाथ में लिया है।
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Wars, Tragicomic Wars

Tragicomic Wars दुखद+हास्यास्पद, भद्दे युद्ध वाली इस सामग्री का हिन्दी अनुवाद कठिन लग रहा है। नये सिरे से इसे हिन्दी में लिखने का प्रयास हम करेंगे। इस बीच गूगल अनुवाद से काम चलायें।

● Be they the epic wars like the Mahabharat waged in the Indian subcontinent or the wars waged by Alexander the Great, all the wars in hierarchical social formations can be read as tragicomic wars.

● Wage labour based commodity production is the basis of contemporary hierarchies. Wage labour based commodity production, which is becoming increasingly dysfunctional, has taken the tragic as well as the comic in wars to new heights. This can be said to have commenced with the outbreak of the First World War in 1914. The “Ukraine” war of 2022 is the new episode in these tragicomic wars.

● In this vibrant and lively period of global wage workers, hierarchies in all spheres of social life are in dire straits. POWER AS SUCH is rapidly becoming irrelevant.

And in this scenario, nth order farces of the Grand Strategy, the geopolitical doctrine aimed at world dominance, have been playing out throughout the world.

# Ten-fifteen years ago, I had read “Grand Chessboard: American Primacy and Its Geostrategic Imperatives” (Basic Books, 1997) by Zbigniew Brzezinski, NSA of US President Jimmy Carter (1977-1981).

And now, Notes From the Editors in the April 2022 issue of the Monthly Review, “As we write these notes at the beginning of March 2022, the eight-year limited civil war in Ukraine has turned into a full-scale war”, have refreshed our memory of Zbigniew Brzezinski’s Grand Chessboard.

Our notes from the April 2022 issue of the “Monthly Review – An Independent Socialist Magazine” (published since May 1949 from New York, USA) follow. In the context of the “Ukraine” war, the jottings may also illustrate some of the tragicomic wars during these thirty years.

● Grand Strategy

— The geopolitical doctrine aimed at world dominance was introduced by Halford Mackinder in imperial Britain before the First World War. In 1904, Mackinder introduced the notion that geopolitical control of the world depended on the domination of Eurasia (the main land mass of the European and Asian continents).

— Geopolitical doctrine for world domination was further developed by Karl Haushofer in Nazi Germany and Nicholas John Spykman in the United States during the 1930s and ’40s.

— Within months of the dissolution of the Soviet Union in 1991 and the growth of the United States as a unipolar power, Paul Wolfowitz, then under secretary of defense for policy in US President George H. W. Bush administration issued a Defense Planning Guidance:

— “Our policy must now refocus on precluding the emergence of any potential future global competitor.”

— “Russia will remain the strongest military power in Eurasia.”

— Extraordinary efforts were therefore necessary to weaken Russia’s geopolitical position permanently and irrevocably.

# Along with Henry Kissinger, the main architect of this new imperial strategy of the USA was Zbigniew Brzezinski. He, as President Jimmy Carter’s national security advisor, had laid the trap for the Soviet Union (Russia) in Afghanistan. Following a secret directive signed by President Carter in July 1979, it was under Brzezinski’s direction, that the CIA, working together with the arc of political Islam stretching from Muhammad Zia-ul Haq’s Pakistan to the Saudi royals, recruited, armed, and trained the Mujahideen in Afghanistan. The CIA’s buildup of the Mujahideen and various terrorist groups in Afghanistan precipitated the Soviet Union (Russian) intervention, leading to an endless war that contributed to the destabilization of the Soviet Union itself.

— After 11 September 2001 twin tower attacks in the USA, to queries as to whether he regretted establishing the arc of terrorism that was to lead to 9/11 and beyond, Brzezinski (who had posed in photos with Mujahideen fighters) responded by simply saying that the destruction of the Soviet Union was worth it.

# Brzezinski remained a key advisor to subsequent U.S. administrations but did not have a prominent official role, given his hawkish reputation and the extremely negative view of him in Russia. Nevertheless, more than any other U.S. strategic thinker, it was Brzezinski who articulated the U.S. grand strategy on Russia that was enacted over three decades by successive U.S. administrations.

— The NATO wars that dismembered Yugoslavia in the 1990s overlapped with the onset of NATO’s eastward expansion.

— The US government had promised the Soviet Union boss Mikhail Gorbachev, at the time of German reunification, that NATO would expand “not one inch” to the East into the former Warsaw Pact countries.

— In October 1996, President Bill Clinton, while campaigning for re-election, indicated that he favoured the expansion of NATO into the former Soviet Union (Russian empire). And on re-election, President Clinton in 1997 started NATO expansion in Eastern Europe. This NATO expansion was continued by all subsequent U.S. administrations.

— In 1997, Zbigniew Brzezinski published his book, “The Grand Chessboard: American Primacy and Its Geostrategic Imperatives”, in which he declared that the United States was in a position “for the first time ever [for] a non-Eurasian power” of becoming “the key arbiter of Eurasian power relations,” while also constituting “the world’s paramount power.” In this way, the United States would become the “first” and the “last” global empire.

— In order for the NATO under U.S. leadership to dominate Eurasia, it was first necessary for it to gain primacy over what Brzezinski called “the black hole” left by the Soviet Union’s departure from the world stage. The “pivot” on which this turned, Brzezinski insisted, was Ukraine.

— Minus Ukraine, Russia was irrevocably weakened, while a Ukraine that was incorporated as part of NATO would be a dagger at Moscow’s heart. Yet, any attempt to turn Ukraine against Russia, Brzezinski warned, would be seen as a major security threat, a red line, by Russia itself. This then required the “enlargement of NATO,” extending it all the way to Ukraine, shifting strategic weapons to the East, with the object of eventually gaining control of Ukraine itself.

— The enactment of this grand strategy would likewise make Europe, notably Germany, more dependent on the United States, undercutting the independence of the European Union.

# Hazards to the great game:

— The United States should support the expansion of NATO all the way to the East into the former Soviet Union. Penetrating into Ukraine, with which Russia shared a 1,200-mile border.

— Brzezinski noted that, if this succeeded, it would inevitably force Russia in the arms of China. China and Russia might form an “antihegemonic bloc” opposed to the United States, possibly including Iran as well. The result would be a geopolitical situation akin to the early Cold War in the days of the Sino-Soviet bloc, though this time with a much weaker Russia and a much stronger China.

— Brzezinski’s answer to this, was to pressure China via Taiwan, Hong Kong, and the Korean Peninsula through the promotion of an expanded alliance centered on Japan and Australia. This would place the United States in a favorable position to combat both China and Russia.

— The Brzezinski doctrine: The key to the checkmate of Russia, and the weak link with which the USA could gain dominion over Eurasia, remained Ukraine. Complete U.S./NATO dominance of Ukraine was a virtual death threat to Russia. Under further pressure, Russia’s own breakup into lesser states could happen. China then would also be destabilized from its Far West

# The relation of Brzezinski’s “grand chessboard” strategy to the actions actually taken by the US governments over the last three decades:

— Since the fall of the Berlin Wall in 1989, NATO has absorbed fifteen countries, all to the East, which were previously part of the Warsaw Pact or were regions within the Soviet Union.

— On its East, along the borders of Russia, Belarus, and Ukraine, NATO has seen a major military buildup. It currently has an air presence in Estonia, Lithuania, and Romania.

— U.S. troops and NATO multinational troops are massed in Estonia, Lithuania, Latvia, Poland, and Romania.

— NATO missile defense facilities are located in Poland and Romania.

— The object of all of these forward military installations (not to mention those in Central and Western Europe) is Russia.

— In 2008, NATO declared that it intended eventually to incorporate Ukraine as a NATO member.

# In 2014, the US government helped engineer a coup in Ukraine overthrowing president Victor Yanukovych.

— Yanukovych had been friendly to the West. But in the face of financial conditionalities imposed by the International Monetary Fund, his government turned to Russia for economic help, enraging the West. A few months later this led to the Maidan coup with the new Ukrainian leader being hand-picked by the United States.

— Following the coup, the predominantly Russian-speaking Crimea merged with Russia.

— Meanwhile, the largely Russian-speaking Donbas region in the Eastern part of the country broke away from Ukraine. This resulted in the formation of two republics of Luhansk and Donetsk. War in Ukraine. Luhansk and Donetsk received military backing from Russia, while Ukraine (Kyiv) received ever-greater Western military support, effectively commencing the longer-range process of incorporating Ukraine into NATO.

— The initial conflict ended in 2014–15 with the signing of the Minsk Agreements by France, Germany, Russia, and Ukraine, and endorsed by the UN Security Council.

— Nevertheless, the military conflict continued and eventually intensified again. In February 2022, the Russian government sent its troops into Ukraine.

[Note: With the expansion of factory production in Western Europe in the 1860s, the emergence of joint stock companies commenced. Joint stock of a dozen persons, to thousands of shareholders, to loans as the major source of funds for setting up and running production enterprises, transport companies etc. led to the increasing insignificance of individual ownership-private property-the capitalists. The representatives of the social relation, capital were transformed from personalised forms, the capitalists to faceless representatives of capital, the managements.

A corollary of this was the emergence of an articulate social strata of engineers, scientists, lawyers, correspondents, accountants, doctors, teachers, writers : the intellectuals. Overwhelming part of the intellectuals constituted managements. A part of intellectuals became revolutionary intellectuals.

The revolutionary intellectuals forged the theory of social democracy and constituted social democratic organisations to accelerate the movement towards state-capitalism. Revolutionary intellectuals constitute the Left in general.

The bankruptcy of Intellectuals As Such, on the global scale, came to the fore with the incomparable leaps in the productive forces that commenced with the introduction of electronics in the production processes in the 1970s.

State-capitalism seems to be the essence of the Left in general and Monthly Review magazine from which we have taken the information above seems to be a Left publication.]

— 11 April 2022

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●काम-संविधान-विज्ञान●

प्रवेश : आरम्भ के लिये कुछ बातें।

●11 मई 2020 की पोस्ट

नई समाज रचना के लिये इस अत्यन्त जीवन्त समय में काम-संविधान-विज्ञान पर बहुत-ही ज्यादा विचार-विमर्श प्राथमिक आवश्यकताओं में लगता है। इस बारे में व्यापक आदान-प्रदान अनिवार्य आवश्यकताओं में लगते हैं।

इधर जाने-अनजाने में काम की, संविधान की, विज्ञान की महिमा भी काफी देखने-सुनने में आ रही है।

ऐसे में, इस सन्दर्भ में महीने-भर के तीन पोस्ट एकत्र कर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्भव है कि कुछ प्रस्थान-बिन्दु मिलें।

● 19 अप्रैल 2020 की पोस्ट

जीवन की परिभाषा

# क्या करते हैं ?
सामान्य-सा प्रश्न।
और मानव प्रजाति के सामाजिक विभाजन वाले पाँच-दस हजार वर्ष के इस दौर में यह व्यक्ति को परिभाषित करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है।

# इस दौरान काम-काम-काम सामाजिक प्रक्रिया की धुरी रहा है। काम के स्वरूप और सार बदलते भी आये हैं। “शारिरिक” और “मानसिक” वाले भेद भी किये गये हालाँकि तन और मन-मस्तिष्क को अलग नहीं किया जा सकता। कँकड़ भी माँसपेशियों और मस्तिष्क के तालमेल के बिना नहीं उठाये जा सकते। और, मन की सहमति के बिना तो न हाथ हिलते हैं तथा न ही दिमाग चलता है।

# अन्य प्रजातियों की ही तरह मानव प्रजाति में भी गतिविधियाँ प्रचुर मात्रा में रहती हैं। आनन्दवाली इनमें उल्लेखनीय होती हैं। जीवन का उल्लास वाली बात।

सामाजिक विभाजन अपने संग जीवन को शाप, पतन, जन्म से मुक्ति की बातें भी लाया। और लाया काम। मनुष्यों पर काम थोपने के लिये शास्त्रों और शस्त्रों की जुगलबंदी की लम्बी सूची है :

स्वामी गण। स्वामी और दास। ढाई हजार वर्ष पहले मगध क्षेत्र में व्यापक हिंसा। इस हिंसा का सामाजिक आधार क्या था ?

दासों के विद्रोह।

स्वामी शास्त्रों के परिष्कृत स्वरूप उभरे :

अहिंसा परमोधर्म। शान्ति के नये प्रवचन। जैन मत के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और गौतम बुद्ध नये शास्त्री।

एक कहानी : एक दास संघ का सदस्य बन गया। नियम अनुसार वह सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त हो गया।

स्वामी एकत्र हुये। श्रेष्ठिजन गौतम बुद्ध के पास गये। बुद्ध ने नियम बनाया, “स्वतन्त्र पुरुष ही संघ का सदस्य बन सकता है।”

और, यूनान के स्वामी शास्त्री प्लेटो की पुस्तक “रिपब्लिक” विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में। नागरिकों की समता पुस्तक का सार। परन्तु दास नागरिक नहीं। स्वामी ही नागरिक।

अत्यन्त परिष्कृत शास्त्र भी दासों को पालतू बनाने में विफल। शस्त्रों के प्रयोग :

यूनान में भाग जाने वाले दास के पकड़े जाने पर उसे भूखे शेर के सामने छोड़ने का सार्वजनिक प्रदर्शन।

और, रोम में दासों के विद्रोहों की श्रखंला में ईसा पूर्व 73-71 वाले दास विद्रोह को पराजित करने के पश्चात एक स्वामी सेनापति ने रोम से कापुआ नगर मार्ग पर छह हजार दासों को सलीबों पर टाँगा था। दूसरे स्वामी सेनापति ने पाँच हजार दासों को सलीबों पर मृत्यु-दण्ड दिया।

परन्तु चर्चा में ईश्वर-पुत्र का एक सलीब।

एक और शास्त्री की कहानी। बेटा होने की खुशखबरी हजरत को दी। जनाब ने प्रसन्न हो कर शुभ समाचार देने वाले को उपहार में एक गुलाम दिया।

# पीढी-दर-पीढी के अनुभव। विद्रोह और विद्रोही परिष्कृत होते आये हैं। नाथना-नियन्त्रित करना अधिकाधिक कठिन। दयनीय है मैनेजमेन्टों की स्थिति।

दुनिया-भर में विश्वविद्यालयों में शास्त्रियों द्वारा थोक में शास्त्रों का उत्पादन भी सीसीटीवी कैमरों की ही तरह एक और अपव्यय है।

# ऐसे में इन दस-पन्द्रह वर्ष से विश्व में काम बहुत बढते जाने और काम गायब होते जाने की आँखमिचौली वाला खेल चल रहा है।

दिल्ली और इर्द-गिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों में फैक्ट्री मजदूरों में यह काफी स्पष्टता ले रहा लगता है।

बारह घण्टे काम करने के बाद फैक्ट्री में जबरन रोकते हैं। बहुत नाइट लगती हैं : सुबह लगते हैं और रात बारह-एक बजे तक काम। फुल नाइट भी काफी लगती हैं : सुबह लगते हैं और अगली सुबह पाँच-छह बजे तक काम के बाद दो-तीन घण्टे के ब्रेक के बाद फिर काम शुरू। महीने में डेढ सौ-दो सौ-ढाई सौ-तीन सौ घण्टे ओवर टाइम के।

और, “क्या करते हैं ?” पूछने पर :
कुछ नहीं! काम है ही नहीं!!

# फैक्ट्रियों में रोबोट, कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स) का तीव्र विस्तार विश्व में काम के विलोप (समाप्त होने) की प्रवृति को इंगित करते हैं।

और ऐसे में एक सामान्य घातकता लिये वायरस ने साहब लोगों में वह मृत्यु-भय उत्पन्न किया है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में सरकारों ने लाखों फैक्ट्रियाँ उल्लेखनीय समय के लिये बन्द की हैं।

यह जीवन की नई परिभाषा का समय है।

● 6 मार्च 2020 की पोस्ट

सन्दर्भ : संविधान

1. वर्तमान ऊँच-नीच की धुरी मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन है। इस ऊँच-नीच के संचालन तथा इसे बनाये रखने के लिये विश्व-भर में संविधानों का बोलबाला है। यह संविधान, वह संविधान, यहाँ का संविधान, वहाँ का संविधान वर्तमान की मनुस्मृतियाँ हैं।

2. मण्डी-मुद्रा के, स्थानीय व्यापार के उल्लेखनीय बनने के साथ नियम-कानून की, संविधान की धारणायें प्रमुखता से उभरने लगी थी। मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन के संग, सन् 1800 के बाद नियम-कानून का विश्व-भर में शक्ति ग्रहण करते जाने का सिलसिला चला।
उल्लेखनीय बनने के सौ वर्ष के अन्दर ही, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन के आधार वाले सामाजिक गठन के नाकारा हो जाने के संग-संग अत्यन्त हानिकारक हो जाने वाले पहलू वीभत्स रूप में सामने आये।
1914-1918 वाली महा मारकाट में (प्रथम विश्व युद्ध में) ढाई करोड़ लोग मारे गये। यह इस-उस व्यक्ति, इस-उस दल, इस-उस नीति के कारण नहीं हुआ। यह अचानक, किसी घटना के कारण नहीं हुआ। इसका होना 1890 से तो बहुत साफ-साफ दिखने लगा था। आरम्भ 1914 में हुआ परन्तु युद्ध की तैयारियाँ 1890 से तेज हो गई थी।
ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में षडयन्त्र दैनिक दिनचर्या है। परन्तु, सामाजिक घटनाक्रम में साजिशें निर्णायक नहीं होती : “मरने वाले ढाई करोड़ लोगों में अधिकतर ‘गोरे, इसाई, और पुरुष’ ” को एक उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं।

3. विनाशलीला के पश्चात : “अब फिर युद्ध नहीं !!” लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना।
परन्तु, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन सामाजिक प्रक्रिया की धुरी बनी रही। और, बीस वर्ष में :
1939-1945 के दौरान पूरी दुनिया में मारकाट। पाँच करोड़ लोग मारे गये।
मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन को सामाजिक प्रक्रिया की धुरी बनाये रखते हुये शान्ति बनाये रखने के वास्ते युनाइटेड नेशन्स ऑरगैनाइजेशन की स्थापना।
संसार में सतत हिंसा।

4. दुनिया के कुछ क्षेत्रों में प्रभुत्वकारी, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन, विश्व-भर में सामाजिक प्रक्रिया की धुरी थी। इन पचास वर्षों के दौरान संसार के सभी क्षेत्रों में मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन प्रभुत्वशाली बना है।
इसके बने रहने ने पृथ्वी पर जीवन को दाँव पर लगा दिया है।

5. आज हमारे सम्मुख नियमों-कानूनों का उल्लंघन सामान्य है। “कानून का राज” अर्थहीन है।
ऐसे में :
यह-वह कानून बनाने। इस-उस कानून को हटाने। संविधान में से फलाँ धारा हटाने। संविधान में यह धारा जोड़ने।
इनका सार :
इस अथवा उस तरह से मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन को सामाजिक प्रक्रिया की धुरी बनाये रखना लगता है।

● 5 मई 2020 की पोस्ट

सन्दर्भ : ज्ञान-विज्ञान और ऊँँच-नीच
Knowledge-Science And Hierarchies

# जो हैं वो स्वयं में अत्यन्त
जटिल। जो अनेकानेक हैं वो गतिशील। अनेक गतियाँ। परस्पर लिपटती और एक-दूसरे को प्रभावित करती गतियाँ।

किसी भी आंकलन का अपर्याप्त होना स्वाभाविक।

अणु-इलेक्ट्रोन स्तर की सरलता भी इतनी जटिलता-गतिशीलता लिये है कि सम्भावना-घनत्व-संभाव्यता की धारणायें आवश्यक लगती हैं।

इसलिये व्यवहार-उचित व्यवहार-व्यवहार में सुधार के लिये अधिकाधिक लोगों के बीच समुचित आदान-प्रदान पूरक की भूमिका लिये है। और, मनुष्यों के बीच विद्यमान उन्नीस-बीस वाली भिन्नतायें आदान-प्रदान के अनुकूल हैं।

Given the extreme complexities and intertwining multiple dynamics, for any reading-evaluation to be inadequate is natural.

Even atom-electron level simplicity is so complex and dynamic that it seems necessary to use the concepts of possibilities, probabilities, densities.

Hence adequate conversational interactions amongst increasing number of persons has complementary role for practice-proper practice-improvement in practice. And, minor inherent differences amongst humans are in accord with conversational interactions.

# ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों में पिरामिडों के शिखरों (परिवार में चाहे राजसत्ता में) के लिये सही-सत्य-वास्तविक की धारणायें अनिवार्य आवश्यकतायें लगती हैं। यह प्रभुत्वकारी रही हैं। इन्हें प्रभुत्वकारी बनाये रखने के लिये शास्त्र-शस्त्र के अनन्त ताण्डव।

गौण को महत्वपूर्ण प्रस्तुत करना ऊँच-नीच उत्पन्न करने के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसलिये आदान-प्रदान के लिये सीढीनुमा सामाजिक गठन स्थान उपलब्ध नहीं कराते। शास्त्रार्थ और दमन ऊँच-नीच के अनुकूल हैं।

In hierarchical social organisations, for pyramidal peaks (be they in family or in state apparatus), correct-real-true concepts seem to be indispensable. They have been hegemonic. Uninterrupted tandav (dance of destruction) of shaashtra-shastra (Text-Weapon) to maintain the hegemony.

To present insignificant as important is an indispensable necessity for engendering hierarchy. Hence hierarchical social formations do not provide space for conversational interactions. Polemics and suppression suit hierarchies.

# देवी-देवताओं के संग दर्शनशास्त्रियों की स्वामी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका रही।

ईश्वर-अल्लाह-गॉड और उनके इल्मी-ज्ञानी बेगार प्रथा के अधिक अनुकूल रहे।

दूरस्थ व्यापार के लिये विज्ञान महत्वपूर्ण।

With gods-goddesses, philosophers had an important role in slave-owning societies.

Ishwar-allah-god and their pandits were more suitable for corvee labour (feudalism).

Science important for long distance trade.

# बिक्री के लिये उत्पादन। मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन ने विज्ञान को स्थापित किया।

मण्डी-मुद्रा के प्रभुत्व के संग विज्ञान प्रभुत्वशाली बना। प्रगति और विकास का विज्ञान वाहक वाहन।

ज्ञान-विज्ञान विश्व में आधुनिक ऊँच-नीच के स्तम्भ।

Production for sale. Wage-labour based commodity production established science.

With the domination of money-market came the hegemony of science. Science, the vehicle of progress and development.

Knowledge-Science pillars of modern hierarchy in the world.

# अधिकाधिक नाकारा साबित होती मण्डी-मुद्रा। मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन की बढती लड़खड़ाहटें। ज्ञान-विज्ञान के लिये अबूझ पहेली।

ईश्वर-अल्लाह-गॉड आदि में बुझती लौ वाली चमक।

Increasing dysfunctionality of money-market. Tottering wage-labour based commodity production. Indecipherable riddle for knowledge-science.

Flicker before extinguishing of ishwar-allah-god etc.

# सम्पूर्ण से अंश को अलग कर देखने को विज्ञान का सार कह सकते हैं।

बिक्री के लिये उत्पादन की आलोचना के लिये विज्ञान की आलोचना एक अनिवार्य आवश्यकता लगती है।

अंश और पूर्ण के बीच सौहार्द नई समाज रचना के लिये प्राथमिक महत्व का लगता है।

Separation of part from the whole to read it can be said to be the essence of science.

Critique of science seems to be indispensable for critique of commodity production.

Harmony between part and whole seem to be of primary importance for creation of a new society.

— 11 मई 2020
मजदूर समाचार की पोस्ट

Posted in General, In Hindi | Comments Off on ●काम-संविधान-विज्ञान●

● सही होने के दावों के सन्दर्भ में | In the context of claims of being correct●

— अत्यधिक जटिलतायें। प्रत्येक गतिशील। भिन्न गतियाँ। परस्पर प्रभावित।

— सम्भावना। घनत्व।

— वर्तमान में व्यवहार, निकट भविष्य में व्यवहार के लिये तैयारी मानव प्रजाति की धुरी लगती है। (कुछ नहीं करना को व्यवहार में रख रहे हैं।)

— व्यवहार के लिये अनुमान। आंकलन।

— और, अनुमान ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों में सामान्य तौर पर समूह-विशेष हित में होते लगते हैं।

— चूक सामान्य। सटीक तुक्का।

— व्यवहार अनुमान पर आधारित।

— “गलत” हो सकता है। आदान-प्रदान की, बातचीत की एक अनिवार्य आवश्यकता लगती है।

— यह अथवा वह सही के दावे समूह-विशेष के हितों के अनुरूप लगते हैं। यह सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि पन्थों के आधार लगते हैं।

— लगता है कि “सत्य” कोई नहीं है।

— और, मुख्यतः सामाजिक कारणों से पृथ्वी पर जीवन के अधिकाधिक दाँव पर लगते जाने के दृष्टिगत, व्यवहार के लिये अधिक से अधिक के बीच आदान-प्रदान पर आधारित अनुमान उचित लगते हैं। सात अरब मनुष्य न्यूनतम आवश्यकता लगते हैं।

● In the context of claims of being correct

— Extreme complexities. Each dynamic. At various speeds. Mutually affected.

— Possibilities. Densities. Probabilities.

— व्यवहार, practice, relations, actions, behavior in the present. And, preparation for practice in the near future. These seem to be the axis of human species. (Not doing anything is also considered a form of relating, of action.)

— Evaluation for practice. Readings of relations. Estimations of the fallout of actions.

— And, evaluations in hierarchical social constructs generally seem to be in the interest of specific social strata.

— Oversight is common. Being exact, a fluke.

— व्यवहार, practice, relations, actions, behavior seem to be based on estimations.

— I/We could be “wrong”. This seems to be indispensable for conversational interactions.

— Claims of this or that being correct, seem to be in sync with the interests of specific social strata. These seem to be the basis of cultural, religious, political and other sects.

— It seems that there is no “truth”.

— And, in view of life on earth being increasingly at stake, mostly because of social reasons, it seems appropriate that व्यवहार, practice, relations, actions, behavior be based on widest possible conversational interactions. Seven billion humans seem to be the minimum requirement.

— 18 मार्च 2022 18 March 2022
मजदूर समाचार-कम्युनिस्ट क्रान्ति द्वारा प्रसारित
A Majdoor Samachar-Kamunist Kranti post

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●● मार्च 2020 के बाद मार्च 2022 में

# फरीदाबाद और आई एम टी मानेसर में कुछ स्थानों के बाद शनिवार, 21 मार्च 2020 को “मजदूर समाचार पुस्तिका एक” के साथ सुबह की शिफ्टों के समय हम फरीदाबाद में थर्मल पावर हाउस रोड़ पर थे।

फैक्ट्री मजदूरों में सब सामान्य-सा था।

# एक सामान्य-सी घातकता वाले वायरस ने विश्व-भर में साहबों में मृत्यु-भय उत्पन्न कर दिया था।

साहबों के एक प्रतिनिधि के सटीक शब्द : “जान है तो जहान है!”

दुनिया-भर में साहबों की सरकारों द्वारा लॉकडाउन का सिलसिला।

भारत सरकार ने 23 मार्च 2020 को लॉकडाउन की घोषणा की। लॉकडाउन की अवधि बढाई गई।

साहबों ने अपने भय का प्रसारण करने के लिये सब साधनों का प्रयोग किया। संसार में डर की महामारी।

# लाखों फैक्ट्रियाँ एक साथ बन्द।

मजदूरों के तन को राहत। मन को राहत।

# देश-वेश, धर्म-वर्म, रंग-वंग, लिंग-विंग के बाड़ों को तोड़ती “विश्व एक ईकाई” वाली वास्तविकता धमाके से सामने आई। नई समाज रचना की सम्भावना में उल्लेखनीय वृद्धि। जीवंत समय अधिक जीवंत हो गया।

● सरकारी आदेश से बन्द लाखों फैक्ट्रियों के महीने-भर से बन्द रहने ने “साहब” कैटेगरी को ही खतरे में डाल दिया था।

दुनिया-भर में सामान्य घातकता वाले वायरस की दवा के लिये ज्ञानियों-विशेषज्ञों द्वारा दिन-रात एक करना। साहबों द्वारा साधनों को झौंकने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। वैक्सीन … साहबों की आशा की किरण।

साहबों का मृत्यु-भय कुछ कम हुआ।

तब साहबों के एक प्रतिनिधि ने सटीकता से कहा : “जान भी और जहान भी!”

मई 2020 में फैक्ट्रियों में उत्पादन आरम्भ होने लगा।

पाबन्दियाँ जारी रही। इधर फरवरी 2022 तक यह-वह पाबन्दी लागू रही।

● हम अपने उन मित्रों को पुनः धन्यवाद देते हैं जिन्होंने हमारे अड़ियलपन से पार पा कर दिसम्बर 2015 में फोन थमा कर मजदूर समाचार को ऑनलाइन कर ही दिया था। पाँच वर्ष में ही बड़ी सँख्या में फैक्ट्री मजदूर ऑनलाइन मजदूर समाचार के सम्पर्क में हो गये थे।

ऐसे में 23 मार्च 2020 से आरम्भ हुये लॉकडाउन मजदूर समाचार के लिये श्रेष्ठ दिनों का आगमन भी लाये।

— लॉकडाउन के समय व्हाट्सएप पर आराम से नोएडा, ओखला, गुड़गाँव, मानेसर, फरीदाबाद तथा अन्य औद्योगिक क्षेत्रों के फैक्ट्री मजदूरों से आदान-प्रदान आरम्भ हुये।

— ईमेल्स द्वारा दुनिया-भर में सम्पर्कों के साथ आदान-प्रदान के लिये पर्याप्त समय तथा ऊर्जा।

— और, फैक्ट्री मजदूरों के अनुभवों तथा विचारों पर मनन-मन्थन के अनुकूल समय। चालीस वर्ष के दौरान की कई बातें मन-मस्तिष्क से बार-बार गुजरी।

● इन दो वर्षों की अवधि में मजदूर समाचार यह पुस्तकें प्रकाशित कर सका है :

1. मजदूर समाचार पुस्तिका एक (मार्च 2020, 43 पन्ने)

2. A Glimpse of Social Churnings (September 2020, 50 pages)

3. मार्च-आरम्भ से अक्टूबर-आरम्भ के दौरान व्हाट्सएप पर मजदूर समाचार (नवम्बर 2020, 180 पन्ने)

4. सतरंगी : कालखण्ड जनवरी 2010 से फरवरी 2020 (अप्रैल 2021, 625 पन्ने)

5. इस जीवंत समय में निकट भविष्य की एक कल्पना (अक्टूबर 2021, 130 पन्ने)

6. Fragments & Pathways For Imagining a Near Future (November 2021, 200 pages)

7. पाँच-सात से बीस-पच्चीस के बीच बातचीत के लिये कुछ सामग्री (फरवरी 2022, दस पन्ने)

● आज सुबह फरीदाबाद में मुजेसर फाटक पर मजदूर समाचार की पुस्तकों के साथ फैक्ट्री मजदूरों के बीच जाना हमारे लिये एक नये का आरम्भ है।

“इतने दिन बाद मिलने” जैसी बातें हुई। कुछ पुस्तकें योगदान के साथ ली गई। अच्छा लगा।

हाँ, दो घण्टे खड़े रहने ने बाद में थकावट प्रकट की।

— 9 मार्च 2022

Posted in General, In Hindi, Our Publications | Comments Off on ●● मार्च 2020 के बाद मार्च 2022 में

● दस पन्ने की पुस्तिका●

# आपका, आप लोगों का अनुमान यह है। मेरा, हम लोगों का आंकलन यह है। बातचीत करते हैं। आदान-प्रदान करते हैं। आपको कुछ सही लगे तो उसे ले लें। जो सही नहीं लगे उसे छोड़ दें। ऐसा ही हम करेंगे।

इस प्रकार के अधिक उदाहरण हमारे सामने नहीं आये हैं।

# जबकि ऐसी बातें काफी व्यापक लगती हैं :
मैं और हम लोग सही। तू और तुम लोग गलत। चित-पट। वाद-विवाद। बहस। वाक् युद्ध। शास्त्रार्थ।

अनेक थाणेदारियों की यह एक अभिव्यक्ति लगती है।

# ऐसे में इस दस पन्ने की पुस्तिका में बातचीत के लिये, आदान-प्रदान के लिये कुछ सामग्री प्रस्तुत करने का प्रयास हम ने किया है। छपी प्रतियाँ हम से ले सकते हैं। पुस्तिका की पीडीएफ के लिये लिन्क है :

https://drive.google.com/file/d/1iy9w3VEMKWcesFS8iD4F7_lhOAZScIBP/view?usp=sharing

# ऊपर दी सामग्री अपने-अपने तौर पर पढ कर पाँच-दस लोग मिलें तो, लगता है कि बातचीत के लिये आरम्भिक प्रस्तुति वाली कठिनाईयों से पार पाना सम्भव होगा। कोई वक्ता वक्तव्य प्रस्तुत करे वाली बात नहीं रहेगी। प्रश्न करने वालों और उत्तर देने वालों वाले विभाजन को पाटने की सम्भावना लगती है। समझानेवालों और समझनेवालों की दलदल के पार जाना सम्भव लगता है।

# अपनी-अपनी बातें रखना। यहाँ किसी के आंकलन के सही अथवा गलत होने वाली बात नहीं है। बात स्थिति को पढने की होती है। कोई भी अनुमान एक रीडिंग होता है। और यह पढना अनुभवों के आंकलनों पर आधारित होते हैं। एक ही अनुभव से गुजरे व्यक्तियों के उस अनुभव के भिन्न, बहुत भिन्न, विपरीत तक अनुमान होते पाये जाते हैं। इसलिये धैर्य से एक-दूसरे की बातें सुनना। अपने अनुमान को जाँचना, उस पर मनन करना, और आवश्यक लगने पर अपनी रीडिंग में परिवर्तन करना सहज बन सकता है।

पुस्तिका की सामग्री के ऐसे प्रयोग के लिये हम उपलब्ध रहने के प्रयास करेंगे। बिना किसी झिझक के हम से सम्पर्क करें।

—25/02/2022

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●● फिर फैक्ट्री में साढे बाइस घण्टे●●

फैक्ट्री में चार सौ मजदूर हैं। बीस-पच्चीस परमानेन्ट मजदूर हैं और बाकी सब एक ठेकेदार कम्पनी के जरिये रखे गये हैं। दो शिफ्ट 12-12 घण्टे की। ओवर टाइम का भुगतान दुगुनी दर की बजाय सिंगल रेट से। रविवार को साप्ताहिक अवकाश।

जनवरी माह में एक रविवार को सुबह आठ से साँय साढे छह और फिर रात आठ से सोमवार सुबह आठ बजे तक फैक्ट्री में काम किया था। साढे बाइस घण्टे काम।

इधर फरवरी में तीनों रविवार को फैक्ट्री में काम किया है। पहले दो रविवार को साढे दस घण्टे की ड्युटी और कल, 20 फरवरी वाले रविवार को साढे बाइस घण्टे फैक्ट्री में काम किया।

शनिवार, 19 फरवरी की नाइट शिफ्ट में 12 घण्टे काम करने वाले 200 वरकरों ने रविवार को साँय साढे छह बजे तक काम किया। सोमवार से वे सुबह की शिफ्ट में काम करेंगे।

शनिवार को दिन की ड्युटी वालों को कम्पनी ने रविवार को सुबह आठ बजे फैक्ट्री बुलाया था। वैसे तो मैं रविवार को फैक्ट्री नहीं जाता पर इधर मैनेजमेंट का उत्पादन के लिये पहले वाला प्रेशर नहीं है। फरवरी महीना छोटा है। मई में विवाह है इसलिये थोड़े पैसे कमाने की बात भी है। तीनोँ रविवार को काम किया है। कल तो साढे बाइस घण्टे काम किया।

मशीनों की सफाई के बाद सुबह साढे आठ बजे उत्पादन आरम्भ। दस बजे चाय। फिर एक बजे लन्च। चार बजे चाय। प्रोडक्शन टारगेट पूरा कर कुछ गपशप और साँय साढे छह पर छुट्टी।

घर पहुँचा। मुर्गा खाने का मन। बड़ा भाई बोला कि अकेले के लिये तो बनेगा नहीं। चार सहकर्मियों के साथ निकला। ढाबे से मुर्गे का कोरमा और नवाबी रोटी ली। तीन सौ रुपये का बिल। ढाबे की बजाय रास्ते में रात को खाली बैन्चों पर बैठ कर भोजन किया। फिर वहीं से फैक्ट्री गये।

घर पर फोन कर रात की ठण्ड के लिये शॉल मँगवाया। भाई साथ में दाल-चावल भी दे गया। रात को भूख लगे तब खाने वाली बात रहती है। कोई दस, कोई ग्यारह बजे खाता है। मैंने 12 बजे भोजन किया।

रात 9 बजे मशीनें चालू की। किसी ने जल्दी करके एक बजे तक, किसी ने दो बजे तक, सब ने साढे तीन बजे तक अपना-अपना प्रोडक्शन टारगेट पूरा किया।

टाइम ऑफिस का बन्दा रात दो और फिर तीन बजे फैक्ट्री में चक्कर लगाता है। कोई सो रहा होता है उसे उठा देता है।

निर्धारित उत्पादन पूरा कर आराम के साथ पसर कर गपशप। फिर शौचालय जाना। हाथ-मुँह धोना। सुबह सात बजे मशीनें साफ करना। एक घण्टे हँसी-मजाक, बातचीत, मोबाइल। आठ बजे छुट्टी।

आज रात आठ बजे से रात की बारह घण्टे ड्युटी।

—21/02/2022

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Readings | An interaction in an intellectuals Whatsapp group, Theory Network during 11-12 February 2022.

●● Questions For Alternatives (8)
(Translation of a January 2000 write-up)

● Heights and their vertiginous attraction

Eulogies of excellence. Creating aspirations to reach the top. Encouraging an upward ascent: higher, topmost, more peaks to conquer … All of this seems natural because it faithfully mirrors the ladder-like, pyramidal, hierarchical structure of our present. The present is, in fact, the supreme embodiment of such an arrangement.

Whereas, what seems far more natural are minor differences, wherein ‘A’ happens to be marginally better at something while ‘B’ is just a shade less or more capable at something else, and so on. These unimportant differences between persons and personalities lend themselves to a panorama of multi-faceted interactions; they form the basis for relations of “Not As Unequals” amongst humanity.

# Audience and Artists: Born of Pain

Hierarchical social systems engender meaningless, tedious, boring and harmful work, and too much of it. Consequently, a majority of humanity is forced into working. This takes place, as it is bound to, in an atmosphere of lies, deceit, misinformation, maneuvers, and force. There is no choice but to steal away from reality and dwell in an imaginary world, the world of entertainment where pathologies of adventure, excitement, or devotion are born. The audience/listener and the artist/performer is born.

# Extremes of the ladder

Thus, begins the process of converting minor natural human differences into ladder like gaps of the order of tens, hundreds, thousands, and millions. The painful process of stretching and restricting, that must push or pull people into slots, continues. Most people are bound by the shackles of food, clothing, and shelter. Burden of work and lack of resources push them to the lowermost rungs of the ladder. These are the rungs that form the majority of the audience.

The greed for earning awards and honours inspires an ascent that makes stepping stones of other people. The rewards of competition and the fears of punishment in every conceivable sphere “force” people to constantly mould and chisel themselves. After all, a person can ensure his/her place in the pyramid only by making the difference between self and the rest of humanity as great as possible — increasing the difference of hundreds to thousands, and those of thousands to millions. The measure of a great or successful artist is the number of heads s/he has been able to climb over.

# The inferior and the anti-human

Increasing sophistication in this process simply turns an increasing number of people into an audience. They find themselves inferior in front of the great artists. Feelings of inferiority discourage and demoralise. And what pleasure does the artist derive from all this anyway? The fundamentally anti-human pleasure of scrambling upwards over others!

The question for alternatives is not whether someone has reached the top by talent, sincerity, hard work, and honesty or by dishonesty, manipulation, and stratagems. Instead, deliberations on the audience/artist dichotomy itself can be points of departure for alternatives.

[From March 1999 issue of Majdoor Samachar, a series, “Questions for alternatives” was started. The above is from January 2000 issue, number 8 in that series. Some of the pieces were translated and published as a booklet in December 2003.

In these twenty years very significant changes seem to have taken place. The global lockdowns from March 2020 seem to have taken our vibrant times onto a new terrain. By increasing their possibilities, the all-round acceleration in social churnings seem to have brought radical social transformations to the top of the human species’ agenda.]

— 10 February 2022
A Majdoor Samachar post

◆Theory Network friend: If you don’t have any familiarity with the knowledge system from which structure of oppression draws it’s legitimacy, how will you fight against it? The systems of Knowledge need to be subverted from within as there is no Archimedean point from which we can envision alternatives. Alternatives emerge from the political contestations within existing modes of knowledge production.

● : जी।

Classical Social Democracy. Kautsky-Lenin- …

Materialist reading of the social process:
The very being of wage workers’ makes them the radical social subject.

◆ Theory Network friend: In India state apparatuses are so complex that wage workers are trapped in bureaucratic mechanism of control. Without the help of organic intellectuals it is not easy for them to push forward their political interest.

◆Theory Network friend: In Italy all major autonomist thinkers are trained philosophers. In India Autonomism lacks intellectual rigour inspite of the fact that India’s deep-seated political crisis is more suitable for autonomist interventions.

● : Global wage workers is the scenario.

With the social relation on which the present hierarchy is premised increasingly dysfunctional, violation of laws in “the rule of law” is the norm.

Regarding the state in India, the basic law for industrial relations, The Industrial Disputes Act can be said to be irrelevant for factory workers atleast from 2000. Most of the factory workers are temporary workers and are NOT workmen as per the Industrial Disputes Act.

● : Outside union/party framing, activities of workers became News with the introduction of electronics in the production process. It has been a global phenomenon. In India, regarding Faridabad its glimpse can be had in the issues of Majdoor Samachar during 1990-2000.

“Autonomist” theorisation seems to be an expression of the last fights of permanent workers in factories throughout the world — in Russia, China etc. it was the “de-statisation” of factories.

Wages & conditions in which attempts were made to bog down workers (with their paraphernalia of representation and negotiation) नाकारा।

—19/02/2022

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●अनुमान, पढना, आँकना, रीडिंग●

## पढना एक बहुत ही अनोखी चीज है। वह अक्षर जानने से पहले आ जाती है। अक्षर उसे धार भी देते हैं और धुँधला भी देते हैं।

— हाँ। पढने की क्षमता अक्षर ज्ञान से पहले से होती है। मेरी दादी आज भी सतह को देखती हैं, समझने की कोशिश करती हैं, पूछती हैं उसके बारे में लेकिन उस पर रुकती नहीं हैं।

** क्या करती हैं?

— उनके सोचने की कुछ विधि है। जो सतह दीखती है वही सतह नहीं होती। कई सतहें होती हैं। वे एक-दूसरे पर फिसलती हैं, टकराती हैं। एक-दूसरे में रिसती हैं, उलझती हैं, दबाती हैं, उलझाती हैं।

^^ तेरी दादी की विधि में क्या सब कुछ विभिन्न तरह की सतहें हैं जो अलग-अलग गति और पैमाना लिये हुये हैं? कोई कहे कि “फर्क पड़ता है” और कोई कहे कि “फर्क नहीं पड़ता” तो तेरी दादी इसे कैसे पढेंगी?

— मेरे ख्याल से मेरी दादी इन शब्दों को व्यक्ति-विशेष से नहीं जोड़ेंगी जबकि शब्द उनके पास व्यक्ति-विशेष से ही आये होंगे। वो उन शब्दों में जीवन के किसी रूप अथवा प्रणाली को ढूँढने की कोशिश करेंगी। और अपने दिमाग में दौड़ायेंगी कि पहले कहाँ-कहाँ सुना है। और, किसी समापन पर नहीं पहुँचेंगी। वो किसी गीत में भी जा सकती हैं।

** मुझे जो समझ आ रहा है वो यह है कि तेरी दादी कोई जज नहीं बनती। न वकील बनती है। वो समझ बनाने की प्रक्रिया को खुली रखती हैं। इसलिये उनके निष्कर्ष ओझल हैं और उनकी पढने की विधि में जाना होगा।

^^ यही शायद तेरी दादी में हमें आकर्षक लगता है।

++ यह पढने का जो खुलापन है यह एक खास किस्म की आजादी का अहसास देता है।

×× आजादी का अहसास क्यों? आजादी देता है।

— नहीं। अहसास देता है। दादी की आजादी दादी की आजादी है। महक खूब महसूस करते हैं। लेकिन अपनी आजादी पढने की ऐसी विधि की रचना करने और उसका अभ्यास, सामुहिक अभ्यास करने में ही है।

## यहाँ सामुहिक अभ्यास के बारे में थोड़ी साफ-सफाई करना चाहूँगा। सामुहिक लाउडस्पीकर के उस तरफ नहीं है। सामुहिक है साथ-साथ। साथ में। यह निकट है और बहुत दूर भी है। यह स्थानीय है और वैश्विक भी है। यह क्षणिक है, आता-जाता है, युग व्यापी भी है।

√√ आता-जाता सुन कर मुझे मुजेसर फाटक याद आया। लोग कहते हैं कि यह एक मौत का कुँआ है। बहुत एक्सीडेन्ट होते हैं। भीड़ बनती है, टूटती है, छटपटाती है, गुम हो जाती है। शिफ्ट टाइम पर निरन्तर। सोचुँगा इसके बारे में।
(मजदूर समाचार के नवम्बर 2017 अंक से)

◆ ऊपर दिये के सन्दर्भ में इधर 15 फरवरी 2022 को व्हाट्सएप पर हुआ एक आदान-प्रदान प्रस्तुत है।

●● बस में बहस

आज दोपहर बाद, अलवर से आई हरियाणा रोडवेज की खाली-सी बस में इफ्फको चौक, गुड़गाँव से फरीदाबाद की सवारियाँ बैठी।

रास्ते में चैकिंग वालों ने बस रोकी। सवारियों की टिकट जाँचने लगे।

एक बुजुर्ग टिकट माँगने पर बोला कि कण्डक्टर को पैसे दे दिये थे पर उसने टिकट नहीं दी। सहयात्री और कण्डक्टर बोले कि ताऊ टिकट दी है। आप अपनी जेब में देखो। बुजुर्ग फिर बोले, और बोलते रहे कि पैसे ले लिये पर टिकट नहीं दी। चैकिंग वालों द्वारा टोकने पर अपने बच्चों की कसम खाने लगे। सहयात्री बोलते रहे कि ताऊ अपनी जेब में देखो पर बुजुर्ग किसी की सुनने को तैयार नहीं। कण्डक्टर के लिये स्थिति कठिन बनती जा रही थी। कण्डक्टर ने भी अपने बच्चों की कसम खाई।

जाँच वाले बोले कि ताऊ बिना टिकट यात्रा के लिये जुर्माने के पाँच सौ रुपये निकालो और बस से नीचे उतरो। बुजुर्ग कुछ ढीले पड़े। टिकट के पैसे काट कर कण्डक्टर द्वारा लौटाये बाकी पैसे जेब में से निकाले।

उन पैसों के बीच में टिकट रखी थी।

¥ एक मित्र : Dementia (वृद्धावस्था में मतिभ्रम, भूलना, पगलापन)

# ऊपर-ऊपर से ऐसा लगता है।

वृद्ध की प्रारम्भिक रीडिंग कुछ थी क्या?

दस-पन्द्रह वर्ष पहले : मैं गाँव जाता था तब स्थानीय बस में कण्डक्टर द्वारा टिकट देने लगने पर अधेड़/वृद्ध को अहसान-से स्वर में ‘रहने दे’ कहते सुना है। कुछ द्वारा पैसे कम दे कर टिकट के लिये ‘रहने दे’ कहते देखा-सुना है।

जाँच पर कल बस में वृद्ध के व्यवहार को ऐसे अनुभवों के दृष्टिगत भी पढने पर विचार कर सकते हैं।

बताना।

¥ एक मित्र : शार्ट टर्म मेमोरी लॉस का ही मामला लगा।

बिल्कुल, आपके पुराने अनुभव वाले किस्से आज भी मिल जाएंगे।

एक अन्य किस्सा ।

बहुत साल पहले राजगढ़ से पिलानी जाते वक्त देखा कि नौ रुपये की टिकट के बदले दस का नोट देने वाली सवारी बार बार कंडक्टर से खड़े होकर एक रुपया लौटाने की कह रहा था । कंडक्टर भी रुपया खुल्ला न होने की बात कह कह कर , एक रुपया आने देने की कह देता और तभी वह सवारी बोला खाने नहीं दूंगा

कंडक्टर बोला नरसिम्हा राव एक करोड़ खा गया उसका कुछ बिगड़ा क्या ?

सवारी चुप कर के बैठ गया

# राजेश, बात आंकलन के सही अथवा गलत होने की नहीं है। बात पढने की है। कोई भी अनुमान एक रीडिंग होता है। और यह पढना अनुभवों के आंकलनों पर आधारित होते हैं। एक ही अनुभव से गुजरे व्यक्तियों के उस अनुभव के भिन्न, बहुत भिन्न, विपरीत तक अनुमान होते पाये हैं। इसलिये धैर्य, इसलिये आदान-प्रदान …

—18/02/2022

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● बाल मन●

8 फरवरी,2022 को छत पर धूप सेंक रहा था। ऑनलाइन पढाई के बाद चौथी कक्षा की बुलबुल आई।

“नाना कविता सुनाऊँ?”
“सुनाओ। अपनी बनाई है तो सुनाओ।”

स्वार्थी चिड़िया शीर्षक पर मेरे नाक-भौं सिकोड़ने पर भी वह सुनाई। फिर मेरा मन रखने के लिये उन्हीं चिड़ियों की दूसरी कविता सुनाई जो मुझे अच्छी लगी। कागज पर उतारने के लिये फिर सुनाने को कहा। वह कविता दूसरी कविता बन गई थी। लिखना कठिन लगा। ऑडियो की बात। रिकॉर्ड करने के समय तीसरी कविता बन गई थी। तकनीकी कारण से रिकॉर्ड नहीं हुई। चौथी बार सुनाने पर कविता रिकॉर्ड हुई, कविता फिर नई कविता! कुछ दिन पहले छत पर बुलबुल ने तार और डाल पर खेलती चिड़ियाँ देखी थी। उन्हीं का permutation and combination, इस चौथी-पाँचवीं कविता का आनन्द लें। लिन्क :

https://drive.google.com/file/d/1iLEkd7n5VfNwkRnfiH5E7nZCKti2O5TZ/view?usp=drivesdk

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