विनाश का मानवीय चेहरा

महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के समय अक्टूबर 2004 में प्रधान मन्त्री ने मुम्बई को चमकाने, एशिया का प्रथम नगर बनाने की बातें की। चुनाव जीतते ही, पार्टी के वादे से मुकर कर, राज्य सरकार ने दिसम्बर 2004 में झुग्गी बस्तियाँ तोड़ना शुरू किया। पुलिस के संग बुलडोजर व अर्थमूवर मशीनों के जरिये *मुम्बई में दो महीनों में नब्बे हजार झुग्गियाँ तोड़ कर चार लाख लोग बेघर कर दिये हैं।* सरकार ने झुग्गियाँ तोड़ने पर 84 करोड़ रुपये खर्च किये … और मुम्बई चमकाने के लिये सरकार ने 100 से ज्यादा 40 मंजिली इमारतें बनाने की अनुमति दे दी है। “मानवीय चेहरे के साथ विकास” वर्तमान केन्द्र सरकार का नारा है।
● औद्योगिक केन्द्र बनाने के वास्ते बहुत-ही सस्ते दामों पर मध्य-मुम्बई में जमीनें पट्टों पर दी गई थी। यहाँ 1854 में पहली कपड़ा मिल बनी। सन् 1981 में मुम्बई में ढाई लाख कपड़ा मिल मजदूर थे — आज बीस हजार से भी कम हैं।
● मजदूरों के निवास के लिये एक-कमरे वाली इकाइयाँ बनाना फैक्ट्रियों के लिये कानूनी अनिवार्यता था। मध्य-मुम्बई में बड़ी सँख्या में मजदूरों के वैध निवास अस्तित्व में आये। जमीनों के भाव बहुत बढ जाने पर फैक्ट्री चलाने की बजाय उस जमीन का धन्धा करना भारी मुनाफे का बना। ऐसे में “बीमार”, कर्ज चुकाने, मजदूरों के बकाया का भुगतान आदि की आड़ में नियम बदलने आदि के एवज में मन्त्रियों को भारी रिश्वतों के जरिये कपड़ा मिलों की जमीनें बेचने का धन्धा 15 वर्षों से जोरों पर है। मजदूरों को खदेड़ने के लिये मिलों में आग तक लगाई गई है … वैसे, पट्टों की अवधि खत्म होने के साथ कपड़ा मिलों की जमीनें पुनः सरकार की हो गई पर मिल मैनेजमेन्टों को उसे बेचने की अनुमति दे कर मन्त्री-अफसर-मिल मैनेजमेन्टें अवैध कमाई से भी मालामाल हो रहे हैं।
● आजादी … 1947 से मजदूरों के लिये एक-कमरे के निवास बनाना भी बन्द। ऐसे में रेल लाइनों के किनारों के संग-संग मुम्बई में दलदल पाट कर मेहनतकशों ने निवास के लिये बस्तियाँ बनाई। मुम्बई में तीन हजार झुग्गी बस्तियों में 68 लाख लोग रहने लगे। इनके अलावा 27 हजार परिवार फुटपाथों पर धकेल दिये गये हैं। और, दिहाड़ी कम होती जाने के कारण नये मजदूरों के लिये अब शहर की झुग्गियाँ भी महँगी पड़ने लगी हैं इसलिये वे कार्यस्थलों से दूर शहर के बाहरी इलाकों में रहने को मजबूर हैं। शहर में जमीन के बढते भाव ने शहर की झुग्गी बस्तियों को खाली करवा कर वहाँ बहुमंजिली इमारतें बनाने को भी भारी मनाफे वाला धन्धा बना दिया है। इसलिये इस-उस कटऑफ तारीख आदि की आड़ में झुग्गी-बस्ती तोड़ो अभियान …
मुम्बई हो चाहे दिल्ली में ओखला, या फिर फरीदाबाद हो चाहे नोएडा : कारखानों के लिये सैक्टर/फेज/क्षेत्र इनकी योजनाओं में हैं। सुपरवाइजरों-मैनेजरों-अफसरों के निवास के लिये स्थान भी नगर योजना में हैं। लेकिन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के निवास के लिये योजनाओं में कोई स्थान है ही नहीं। कारण? मजदूरों के निवास पर खर्च कम करना मजदूर की लागत कम करना होता है। झुग्गियाँ-गन्दी बस्तियाँ बनवाने-बनाने देने की ओट में यह हवस छिपी रहती है। अहसान व रक्षा के नाम पर विभिन्न स्तर के बिचौलिये और उनके पठ्ठे वसूली करते हैं। दमन-शोषण की व्यवस्था को लगभग मुफ्त में यह थाणेदार+वकील मिल जाते हैं। और फिर, जब ऐसी किसी जगह की सिर-माथों पर बैठों को जरूरत पड़ जाये तब पीड़ितों को दोषी ठहराने व स्थान खाली करवाने में ज्यादा दिक्कतें नहीं होती।
● फरीदाबाद में दिसम्बर 2002-जनवरी 2003 में सरकार ने बड़े पैमाने पर झुग्गी बस्तियाँ तोड़ो अभियान आरम्भ किया था। बिचौलियों के ज्यादा फेर में रही झुग्गी बस्तियाँ तोड़ दी गई। पर फिर, लोगों ने स्वयं बढते पैमाने पर विरोध में उतर कर अगस्त 2003 में सरकार की योजना को बीच में ही रोक दिया।
● दिल्ली में संसदीय चुनाव के दौरान फरवरी-अप्रैल 2004 में सरकार ने तेरह हजार झुग्गियाँ तोड़ कर 50 हजार लोग बेघर किये थे। बसेरा बचाने के फेर में 5 लोग मारे गये, हताशा में दो ने आत्महत्या की, हिंसा-आगजनी-हत्या के प्रयास के आरोप लगा कर पुलिस ने गिरफ्तारियाँ की … दिल्ली में चुनाव-प्रक्रिया निष्पक्ष व शान्तिपूर्ण!
दरअसल, अवैध बस्तियों के बाशिन्दे वैध रिहाइश वालों के झाडू-पोंचा, बर्तन माँजने, कपड़े धोने, खाना बनाने के लिये ठीक थे-हैं … सड़क-फ्लाइओवर-इमारत निर्माण के लिये भी ठीक थे-हैं … फैक्ट्रियों-होटलों-क्लबों में काम करने के लिये भी यह लोग ठीक थे-हैं … लेकिन साहबों की भाषा में यह गन्दे लोग हैं, इनकी बस्तियाँ शहर पर बदनुमा दाग हैं, यह लोग प्रदूषण फैलाते हैं। और फिर, वैक्यूम क्लीनर-वाशिंग मशीन-डिश वाशर के संग प्री-फैब्रीकेटेड सामग्री-इलेक्ट्रोनिक नियन्त्रण के इस जमाने ने बड़ी सँख्या में लोगों को व्यवस्था के लिये अनावश्यक बना दिया है, फालतू बना दिया है। शहर और गाँव, दोनों जगह, हर जगह व्यवस्था के लिये लोग फालतू हो गये हैं। ऐसे में जनता पर व्यवस्था के आक्रमण और बढ़ेंगे।
किन्हीं के होने को ही गैर-कानूनी बना देने के पीछे एक पूरा राजनीतिक अर्थशास्त्र है। अधिक शोषण के लिये जीवन-स्तर गिराने और दबे-कुचलों पर जकड़-नियन्त्रण कसने के वास्ते बिचौलियों की फौज पालना इस राजनीतिक अर्थशास्त्र के आधार-स्तम्भ हैं।
विरोध कैसे करें? कैसे लड़ें? दलदल में फँस कर सिर और न फुड़वा बैठें से बचने की राहें कौनसी हैं?
हमारे विचार से इस सन्दर्भ में बिचौलियों की लीपापोतियों को पहचानना-खारिज करना प्रस्थान-बिन्दू है। समय राजनीतिक अर्थशास्त्र की जन-जन द्वारा आलोचना का है, तन-मन-मस्तिष्क से आलोचना का वक्त है। आँसू बहाने, छाती पीटने के पार जाने की आवश्यकता है।
(मुम्बई के बारे में जानकारियाँ “मजदूर एकता लहर” के 16-30 जून 2005 अंक से ली हैं।)
-(मजदूर समाचार जुलाई 2005)
— 22 अप्रैल 2022 को
मजदूर समाचार द्वारा पुनः प्रसारित
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मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री छाँट कर अप्रैल 2021 में सवा छह सौ पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” छापी।
अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों से सामग्री छाँट कर पुस्तक “सतरंगी-2” का कार्य हाथ में लिया है।
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