इन सौ वर्षों में

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तेतिसवाँ अंश  नवम्बर 2008 अंक से है।

व्यवस्था, संकट, मन्दी, महामन्दी भारी-भरकम शब्द हैं। इनकी व्याख्या का प्रयास हम यहाँ नहीं करेंगे। लेकिन इधर इन शब्दों की चर्चा कुछ ज्यादा ही है। और, जब-जब ऐसा हुआ है तब-तब इन सौ वर्षों में सत्ता ने, सरकारों ने हथियारों तथा सैनिकों की वृद्धि में अत्यन्त तीव्रता लाई है। नतीजे रहे हैं :

● 1914-1919 की महा मारकाट जिसे पहले महायुद्ध कहते थे और अब प्रथम विश्व युद्ध कहते हैं। ढाई करोड़ लोग तो युद्ध में ही मारे गये।

● 1939-1945 वाली और भी बड़ी मारकाट जिसे द्वितीय विश्व युद्ध कहते हैं। इसमें पाँच करोड़ लोग युद्ध में मारे गये।

ऊँच-नीच, लूट-खसूट, अमीर-गरीब की स्थितियों में युद्ध तो लगातार चलते ही रहे हैं। इधर 1890 से संकट की जो बातें आई उन्होंने युद्धों की संँख्या व तीव्रता को बढाया और शिखर था 1914-19 का महायुद्ध। और, 1929 की महामन्दी ले गई 1939-45 के दूसरे विश्वयुद्ध में। उन दौरानों में जो अनुभव हुये उन्हें जानने, समझने तथा उन पर मनन कर आज क्या-क्या करें और क्या-क्या नहीं करें यह तय करना आवश्यक है। इधर फिर संकट और मन्दी की हावी चर्चा ने इसे हमारे लिये अर्जेन्ट बना दिया है।

— मण्डी-मुद्रा के दबदबे में बेरोजगारी तो रहती ही है, संकट-मन्दी के दौर में बेरोजगारी बहुत बढ़ जाती है।

— मजदूरों-मेहनतकशों के लिये तो संकट-मन्दी सीधे-सीधे जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा कर देते हैं। असंतोष बहुत बढ़ जाता है। मजदूरों को, किसानों को बाँधे रखने के प्रचलित तौर-तरीके नाकाफी साबित होते हैं।

— सत्ता के इर्द-गिर्द के लोगों की अनिश्चितता-अस्थिरता के संग-संग असुरक्षा व उसकी भावना बढ़ जाती हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों पर “कुछ करो” के लिये दबाव तेजी से बढता है।

— जेलें बढ़ाई जाती हैं, पुलिस बल में भारी वृद्धि की जाती है और सेना सर्वोपरि स्थान लेने लगती है।

— सरकारें तथा कम्पनियाँ आज मण्डी-मुद्रा की प्रतिनिधि हैं। इसलिये संकट-मन्दी की मार से मण्डी-मुद्रा को बचाने के लिये सरकारें तथा कम्पनियाँ अनेकानेक हथकण्डे अपनाती हैं।

मजदूरों, किसानों, दस्तकारों को शिकार बनाने के लिये पापड़ बेले जाते हैं। मजदूरों-किसानों के विरोध-विद्रोह को दबाने के लिये निर्मम दमन के संग-संग लोक लुभावने नारे उछाले जाते हैं। मेहनतकशों में से ही कुछ को “अन्य” बताया जाता है, “शत्रु” कहा जाता है।

— सरकारें तथा कम्पनियाँ संकट-मन्दी की मार को अन्य सरकारों व कम्पनियों पर धकेलने के लिये गिरोह बनाती हैं। और, मजदूरों-मेहनतकशों को दबाने-पुचकारने में सफलता आगे ही दो महायुद्धों को जन्म दे चुकी है।

आज अन्तरिक्ष तक युद्ध-क्षेत्र और युद्ध के लिये क्षेत्र बन गया है। एटम बमों और प्रक्षेपास्त्रों के भण्डार तो हैं ही। ऐसे में हमारे लिये सर्वोपरि महत्व की बात तो यह है कि सरकारों के गिरोहों के बीच तीसरा विश्व युद्ध नहीं हो। इसके लिये जरूरी है कि मजदूरों-मेहनतकशों के असन्तोष, विरोध, विद्रोह हर जगह बढें।

## सरकारों और कम्पनियों पर भरोसा बर्बादी की राह है। कुर्बानी की घातकता दर्शाने के लिये उदाहरणों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। आज उँगली माँगने वाले कल पहुँचा माँगेंगे, परसों पूरा हाथ और फिर धड़। शहीद को दूर से सलाम! हर कदम पर और जहाँ तक हो सके – जिस प्रकार का हो सके विरोध करना बनता है। ताकत के बल पर इस-उस जगह कम्पनियाँ अपनी शर्तें थोप देती हैं तो भी हमारी सहानुभूति अधिक चोट खाये मेहनतकशों के प्रति होनी बनती है। छंँटनी जैसी चीजों के लिये मौन सहमति-स्वीकृति खतरनाक है। पीट दिये अथवा पिट गये पर हँसना, मजाक उड़ाना अपनी बारी नजदीक लाना है। सरकार और बैंकों पर भरोसा करके अमरीका में जो डूब गये, सड़क पर आ गये उन से यह सीख लेना बनता है कि जहाँ तक हो सके बैंकों से अपने पैसे निकाल लें, बैंकों में पैसे जमा नहीं करायें। पेट काट कर दो पैसे बचाना और उन्हें कम्पनियों के शेयरों में लगा कर डुबाना … दरअसल समस्या पैसों पर भरोसे में है। अनेकानेक समस्याओं से पार लगाने के लिये पैसों पर भरोसा किया जाता है। इस सन्दर्भ में यह याद रखने की आवश्यकता है कि साठे-क वर्ष पहले जर्मनी में, जापान में थैला भर कर पैसे ले जाना और मुट्ठी में सब्जी लाना सामान्य हो गया था। इधर विश्व के कई क्षेत्रों में स्थानीय मुद्रा थैले-मुट्ठी वाली स्थिति में आ गई है। आज की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा, डॉलर के साथ कब यह हो जाये किसी को पता नहीं — विशेषज्ञ मौन हैं। वास्तव में रुपयों-पैसों पर भरोसा करना सरकारों पर भरोसा करना है। और, विश्व-भर में सरकारें डगमगा रही हैं … इसलिये भरोसा आपस में! थोड़ा ठहर कर देखिये कि इतनी सारी जलन-चुगली के बावजूद हम अभी भी एक-दूसरे पर कितना भरोसा करते हैं, कितनी प्रकार के भरोसे करते हैं। हाँ, भरोसे तो चाहियें ही चाहियें — आपस में भरोसा बढाना बनता है।

## बढती बेरोजगारी बढती संँख्या में सेक्युरिटी गार्ड, पुलिसकर्मी, सैनिक की नौकरी लाती है। इनकी भर्ती मेहनतकशों की कतारों से होती है। मेहनतकशों में से किसी को “अन्य-दूसरे-शत्रु” बना कर अपने गुस्से का टारगेट बनाना गर्त की राह है। गार्ड का रुख और गार्ड के प्रति रुख महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। बढिया गार्ड बनने के फेर में नहीं पड़ना … सिपाही को शत्रु नहीं लेना। दोनों तरफ से खानापूर्ति, महज खानापूर्ति और आपस में टकराव से बचना बनता है। सशस्त्र संघर्ष और विद्रोह की स्थिति में भी आपस में मरने-मारने से बचना बनता है। वर्दी वाले मेहनतकश बच कर निकलना खूब जानते हैं, इसे बढाने की आवश्यकता है। प्रेरणा 1914-19 और 1939-45 के सैनिकों से लेनी चाहिये। बरसों खन्दकों-मोर्चों पर रहे 95 प्रतिशत सैनिकों ने गोली ही नहीं चलाई या फिर गोली हवा में चलाई और बमों को निर्जन स्थानों पर डाला। हक्की-बक्की सरकारों और जनरलों ने वीरों के, शहीदों के किस्से गढे तथा चन्द सिरफिरों को महिमामंडित किया। और फिर, युद्ध के दौरान 1917 में रूस में सिपाहियों ने बन्दूकें जनरलों की

ओर मोड़ कर नई समाज रचना के लिये हालात बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इस समय संकट-मन्दी की बात हो रही है पर यह प्रक्रिया इधर हर समय चल रही है। बात डर-भय की नहीं है, डर को बढाने की नहीं है। हम तो यूँ भी दिन में सौ बार मन को मारते हैं, रोज ही कई-कई बार मरते हैं । पर फिर भी जीवन की लालसा है! इसलिये जीवन को सिकोड़ती-संकीर्ण बनाती-दुखदायी बनाती ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, मण्डी-मुद्रा को दफा करना है …

    (मजदूर समाचार, नवम्बर 2008)

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सामान्य हैं फैक्ट्रियों में बेगार और बन्धुआ मजदूरी

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। बत्तीसवाँ अंश मई 2008 अंक से है।

भारत सरकार के उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय का निर्णय : संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुसार राज्य अथवा केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम तनखा किसी मजदूर को देना बेगार लेना है। जिन मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम तनखायें दी जा रही हैं वे बन्धुआ मजदूर हैं। विधान-संविधान द्वारा बेगार तथा बन्धुआ मजदूरी प्रतिबन्धित हैं।

● आई आई टी कानपुर, दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यहाँ ज्ञान उत्पादन के प्रमुख केन्द्रों में हैं। यह तीनों भारत सरकार के संस्थान हैं।

— आई आई टी कानपुर के कुछ छात्रों ने 1999 में किये एक सर्वेक्षण में पाया कि संस्थान परिसर में कोई भी ठेकेदार सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी मजदूरों को नहीं दे रहा था।

— दिल्ली विश्वविद्यालय में 2004 में 20 स्थानों पर 1500 स्त्री-पुरुष मजदूर 28-30 करोड़ रुपये के निर्माण-मरम्मत कार्य में लगे थे। कुछ छात्रों, कर्मचारियों व अध्यापकों द्वारा गठित “मजदूरों के अधिकार के लिये विश्वविद्यालय समुदाय” ने पाया कि सब मजदूर ठेकेदारों के जरिये रखे गये थे और सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी मजदूरों को नहीं दे रहे थे।

— जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में बेगार और बन्धुआ मजदूरी का विरोध उभरने पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने जून 2007 में कुछ छात्रों को सजायें दी। जे एन यू परिसर में निर्माण कार्य, पुस्तकालय, माली, सफाई कर्मी, सुरक्षा गार्ड, नये भोजनालयों में कर्मी ठेकेदारों के जरिये रखे गये हैं और इन मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता।

आकाशवाणी यानी ऑल इण्डिया रेडियो पर “मजदूर दिवस” पहली मई 2008 को दोपहर समाचार : दिल्ली में सरकार द्वारा निर्धारित दैनिक न्यूनतम वेतन 140 रुपये है पर आकाशवाणी संवाददाता ने जिन मजदूरों से बात की उन सब ने बताया कि 80-85 रुपये दिये जाते हैं।

● असीम निर्लज्जता अथवा डरावनी हकीकत परोस कर निष्क्रिय करने की साजिश या फिर डगमग वर्तमान में दरारें की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे। ईंट-भट्ठों, पत्थर खदानों से जब-तब अजूबों के तौर पर पेश किये जाते बन्धुआ मजदूरों की बात भी यहाँ नहीं करेंगे। आईये एक नजर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में फैक्ट्री उत्पादन पर डालें।

पहले नियम-कानून अनुसार ब्लॉक, सैक्टर, फेज वाले नियमित कारखाना क्षेत्र लेते हैं। ओखला औद्योगिक क्षेत्र दिल्ली में ऐसा ही स्थान है। गुड़गाँव में उद्योग विहार भी ऐसी ही जगह है। उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा दिल्ली से सटे प्रमुख उद्योग स्थल हैं। फरीदाबाद तो है ही कारखानों का शहर।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में कारखानों के लिये निर्धारित स्थानों पर लगी फैक्ट्रियों में काम करते कुल मजदूरों में से 70-75 प्रतिशत मजदूरों को आज दस्तावेजों में दिखाया ही नहीं जाता। इन 70-75 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते। जिन मजदूरों के नाम कम्पनी तथा सरकार के दस्तावेजों में दर्ज किये जाते हैं उन में भी कईयों से सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं पर पैसे कम दिये जाते हैं। हफ्ता-दस दिन फैक्ट्री में काम के बाद निकालने अथवा छोड़ने पर किये काम के पैसे आमतौर पर नहीं दिये जाते। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में फैले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कारखानों के लिये नियमित स्थानों पर पंजीकृत फैक्ट्रियों में 75-80 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते।

दिल्ली और फरीदाबाद में ऐसे क्षेत्रों की भरमार है जो औद्योगिक उत्पादन के लिये निर्धारित नहीं हैं पर जहाँ बड़ी संँख्या में कारखाने हैं। आज फैक्ट्री उत्पादन का उल्लेखनीय हिस्सा इन अनियमित क्षेत्रों में होता है। ओखला, उद्योग विहार, नोएडा, फरीदाबाद में फैक्ट्रियों के लिये नीति-योजना बनाने वालों ने इन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के निवास के लिये कोई भी स्थान निर्धारित नहीं किये हैं। ऐसे में अनियमित बस्तियों में निवास मजदूरों पर थोप दिया गया है और … और इन बस्तियों में रात-दिन वर्कशॉपों-फैक्ट्रियों का ताण्डव। खैर। तथ्य यह है कि अनियमित क्षेत्रों में होते औद्योगिक उत्पादन में कार्यरत 95-98 प्रतिशत मजदूर दस्तावेजों में अदृश्य रहते हैं। दिल्ली, फरीदाबाद में अनियमित क्षेत्रों में वर्कशॉपों-कारखानों में काम करते 90-95 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते।

# इस समय 8 घण्टे प्रतिदिन कार्य और साप्ताहिक छुट्टी पर अकुशल श्रमिक (हैल्पर) के लिये मासिक निर्धारित न्यूनतम वेतन उत्तर प्रदेश में 2699 रुपये, हरियाणा में 3535 रुपये, दिल्ली में 3633 रुपये हैं।

और, मजबूरी के जले पर नमक छिड़कने के लिये मानदेय। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन का भी आधा, तिहाई, चौथाई वेतन मानेदय के नाम से देने में सरकारें अगुआई कर रही हैं।

● बेगार सामन्ती प्रथा (भूदास प्रथा) का आधार थी। मेहनतकशों को अनेक बन्धनों में जकड़ा गया था। मेहनतकशों से उपज का एक हिस्सा, श्रम का एक भाग जन्मजात अधिकार के तौर पर किलों-महलों वाले वसूलते थे। मण्डी के ध्वजवाहकों ने मुफ्तखोरी के विरोध का नारा बुलन्द किया। व्यापारियों ने इस हाथ ले उस हाथ दे को स्वतन्त्रता का परचम घोषित किया। भूदासों का बड़ा हिस्सा दस्तकारों-किसानों में तब्दील हुआ। क्रूरता में, दमन-शोषण में सामन्तों को बहुत पीछे छोड़ते मण्डी के प्रतिनिधियों ने कई पुराने बन्धनों को तोड़ा तो कई को बनाये रखा और अनेक नये बन्धनों की रचना की। बेगार प्रथा का तख्ता पलटने वाले व्यापारियों का पराक्रम दासों के व्यापार और बन्धुआ मजदूरों के जरिये विश्व मण्डी के निर्माण में फलीभूत हुआ।

विश्व मण्डी मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन का आधार बनी। वर्ल्ड मार्केट मजदूरी प्रथा का आधार बनी। व्यापारियों के भ्रष्टाचार, क्रूरता, दास व्यापार, बन्धुआ मजदूरी की भर्त्सना करती उत्पादन की नई पद्धति ने कम विकास को इनका कारण बताया। भाप-कोयला आधारित मशीनों के जरिये अपने को स्थापित करती पद्धति ने प्रगति और विकास को हर मर्ज की दवा घोषित किया। हर बन्धन को काटती, प्रत्येक आसरे को ध्वस्त करती प्रगति-विकास की गाड़ी ने मजदूरों की स्वतन्त्र उपलब्धता को मजदूरों की स्वतन्त्रता के तौर पर महिमामण्डित किया। और, प्रगति-विकास के रथ ने पृथ्वी को इस कदर रौंदा है कि इसके सम्मुख विगत के दमन-शोषण-अत्याचार बहुत-ही फीके हैं।

● बन्धनों से मुक्ति और आसरों का ध्वंस मजदूरों की शोषण के लिये उपलब्धता से जुड़े हैं। बेगार और बन्धुआ मजदूरी से राहत की थोड़ी साँस भर चन्द क्षेत्रों में कुछ मजदूरों ने ली ही थी कि अधिकाधिक मेहनतकश अथाह दलदल में धंसने लगे।

भूदासों से किसानों-दस्तकारों में परिवर्तित समूह बेगार से मुक्त हुये। लेकिन निजी व परिवार के श्रम द्वारा मण्डी के लिये उत्पादन करने वाले किसानों-दस्तकारों के स्वतन्त्र होने के भ्रमों को व्यापारियों के दबदबे के दौर में ही अनेक बन्धनों ने झीना कर दिया था। और, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन तो दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत लिये है।

इन दौ सौ वर्षों में मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन संसार-व्यापी हो गया है। संग-संग इन दो सौ वर्ष में दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत – सामाजिक हत्या का सिलसिला सम्पूर्ण पृथ्वी पर बढता आया है। मेहनतकशों की बढती संँख्या मजदूरों में परिवर्तित होती आई है। मजदूरों में बदलते तबाह दस्तकार-किसान और नित नई मशीनों द्वारा मजदूरों की माँग-आवश्यकता कम करना! यह प्रगति-विकास की प्रक्रिया का परिणाम है।

इस प्रक्रिया ने आज हालात ऐसे बना दिये हैं कि जहाँ एक मजदूर की जरूरत है वहाँ एक सौ उपलब्ध हैं। यह स्थिति मजदूरों की मजबूरी इस कदर बढा देती है कि किन्हीं भी शर्तों पर काम करने को बढती संँख्या में मजदूर उपलब्ध हो जाते हैं। मजदूरों की बढ़ती मजबूरी बढती दयनीयता तो लिये ही है, यह वर्तमान समाज व्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक भी है। सब सरकारें, सब न्यायालय, सब ज्ञानी-विज्ञानी इस हकीकत से परिचित हैं पर इसके सम्मुख असहाय हैं।

बद से बदतर हो रहे हालात के सामने खड़े मजदूरों को इसलिये सरकार, न्यायालय, ज्ञानी-विज्ञानियों को किनारे छोड़ खुद सोचना होगा कि क्या करें।

(मजदूर समाचार, मई 2008)

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आठवीं कक्षा छात्र

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इकतीसवाँ अंश  सितम्बर 2008 अंक से है।

अगस्त 2008 में इलाहाबाद में रेलवे वरकर मित्र के बच्चों से मिलने का अवसर मिला। विद्यालय में तीन दिन की छुट्टी ने बातचीत को सहज बनाया। ऊँच-नीच की सीढी पर ऊपर चढने को प्रयासरत बच्चों की बातें आश्चर्य भी लिये थी। मित्र रेलवे वरकर के बड़े बेटे, केन्द्रीय विद्यालय में आठवीं कक्षा के 13 वर्षीय छात्र की बातें यहाँ प्रस्तुत हैं।

किसी से भी बात करने के लिये मेरे टाइम टेबल में समय नहीं है

(केन्द्रीय विद्यालय में आठवीं कक्षा में पढते 13 वर्षीय छात्र के लिये अगस्त माह में तीन दिन लगातार छुट्टी विशेष समय था। इलाहाबाद में इस बच्चे से हुई बातचीत के अंश देखिये और सोचिये।)

अध्यापक कहते हैं कि अब हम बड़े हो गये हैं, प्रतियोगिता बहुत है, लाखों-करोड़ों में अपनी जगह बनानी है इसलिये मेहनत करें। हमें समय के समुचित उपयोग वाली सी डी दिखाई गई और पुस्तकालय अध्यक्ष ने प्रत्येक को सलाह दी। टाइम टेबल हम ने स्वयं बनाये। अब हम बच्चे नहीं रहे, अपना भविष्य हम खुद देख सकते हैं।

मेरी समय-सारणी अनुसार सुबह 4 बजे उठना पर बिस्तर छोड़ने में साढे चार हो ही जाते हैं। पढ़ना साढे चार से साढे पाँच तक। फिर विद्यालय जाने के लिये तैयार होना। बस साढे छह बजे स्टॉप पर आती है और वहाँ पहुँचने में 5 मिनट लगते हैं। हमारे स्कूल में बस 7 बज कर 25 मिनट पर पहुँचती है। सुबेदारगंज से केन्द्रीय विद्यालय, मनौरी बीस किलोमीटर से अधिक दूर है और जाते समय बस अन्य स्कूलों में बच्चों को छोड़ते हुये अन्त में हमें उतारती है। हमारे स्कूल में छुट्टी अन्य विद्यालयों के बाद होती है इसलिये लौटते समय वहाँ से बच्चे पहले उठा कर बस हमें सीधे लाती है। विद्यालय में गुण्डागर्दी बहुत है — नौवीं से बारहवीं वालों द्वारा कुछ ज्यादा ही।

स्कूल सुबह साढे सात से दोपहर एक चालीस तक। बस दो दस पर आती है और मैं दो पचास पर घर पहुँचता हूँ। कपड़े बदल कर तीन-साढे तीन तक भोजन। अध्यापकों द्वारा दिया कार्य साढे तीन से साढे पाँच के दौरान करना। वैसे मेरे टाइम टेबल में यह समय ट्युशन के लिये है पर अभी उसका प्रबन्ध हुआ नहीं है।

साँय साढे पाँच से 7, डेढ घण्टा मैंने खेल अथवा विश्राम के लिये रखा है। *मैं खेलता नहीं क्योंकि हारने व जीतने में, दोनों में गड़बड़ है। जीतने पर दूसरे को चिढाना शुरू कर देते हैं। हारने वाले झगड़ा कर लेते हैं, लड़-मरने को तैयार हो जाते हैं। हारने पर टीम वाले ही एक-दूसरे को दोष देते हैं। खेल वाली मस्ती होती ही नहीं। एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं।*

7 से रात 9 बजे तक पढाई। अगर अध्यापकों द्वारा दिया काम पूरा हो गया है तो कक्षा से आगे चलने के लिये अतिरिक्त पढते हैं। अध्यापक के पढाने से पहले पढते हैं ताकि कक्षा में ठीक से समझ में आये।

फिर भोजन कर सो जाता हूँ — अगले रोज सुबह 4 बजे उठने के लिये।

माँ-पिता-बहन-भाई से बात करने का समय टाइम टेबल में है ही नहीं। बात कर ही नहीं पाते। घर में समय नहीं है, कक्षा में बात करो तो अध्यापक डाँटें। चुप रहने वाली बात ही रहती है। चुप रहते-रहते साइलेन्ट हो जाते हैं, लैटर बॉक्स में पड़ी चिट्ठियों की तरह हो जाते हैं जो साथ-साथ रहती हैं पर एक-दूसरे से बात नहीं करती, न ही एक-दूसरे से मतलब रखती, बस अपनी-अपनी मंजिल तक पहुँचने का इन्तजार करती रहती हैं।

    (मजदूर समाचार, सितम्बर 2008)

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दैनिक जीवन की कुछ सहज बातें

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तीसवाँ अंश  सितम्बर 2008 अंक से है।

● बात प्यास से शुरू करते हैं। लगता है पृथ्वी पर जल से – जल में ही जीवन आया है। हमारे शरीर के लिये पानी बहुत महत्वपूर्ण है। प्यास लगना शरीर की जल के लिये पुकार होती है। प्यास बुझाने में जो आड़े आयें उन से पार पाने के प्रयास सहज क्रिया हैं। झिझकें नहीं, कुछ पेय प्यास को मारते हैं, तन में जल की कमी करते हैं, इन से बचना बनता है।

● भूख के जरिये शरीर दर्शाता है कि भोजन की आवश्यकता है। बिना भूख भोजन करना शरीर को परेशान करना है। और भूख लगने पर नहीं खाना … यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि शरीर प्रतिदिन औसतन तीन लीटर तेजाब बनाता है। इसलिये भूख लगने पर भोजन नहीं करना पेट में घाव व अन्य रोगों को दावत देना है। “भूख नहीं है पर फिर भी भोजन करो” और “भूख लगी है पर रुको, समय होने दो” वाली बाधाओं को पहचानने की आवश्यकता है।

● पेशाब करने जैसी बात आज कितने गुणा-भाग लिये है यह चिन्तन की बात है। पेशाब के लिये अनुमति? पेशाब के लिये स्थान? पेशाब करने के लिये पैसा? पेशाब शरीर से अनावश्यक व हानिकारक तत्वों को बाहर निकालने का सहज साधन है। पेशाब रोकना शरीर का सन्तुलन बिगाड़ने के संग पथरी का खतरा लिये है।

● और, अब गन्दी कही जाने वाली टट्टी। हर व्यक्ति के शरीर में हर समय टट्टी रहती है … भोजन-पाचन-निकास शरीर की सहज क्रिया है। टट्टी को लज्जा की वस्तु बनाना, टट्टी के लिये समय निर्धारित करना, टट्टी लगने पर रोकना तन

और मन, दोनों के लिये आफत हैं। राहत के लिये स्कूल-दफ्तर-फैक्ट्री-बस-लोकल ट्रेन की तानाशाही में दरारें डालने के प्रयासों के संग-संग सोच बदलना भी आवश्यक है।

● पसीने से परहेज, ए सी की कामना रोगों का भण्डार है। पसीना शरीर की सफाई का एक महत्वपूर्ण जरिया है। पाउडर-क्रीम और एयरकन्डीशनर से बचना बनता है।

● सूर्योदय और सूर्यास्त दिन व रात की सीमायें हैं और शरीर रात को सोने के लिये ढला है। रात को अन्धेरे में नींद स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है। रोशनी नींद के लिये हानिकारक है। रात को नींद में बाधक मजबूरियों आदि की पड़ताल आवश्यक है।

● थकान सन्देश होता है विश्राम के लिये। आराम की जरूरत महसूस हो उस समय स्वयं को हाँकना लफड़े लिये है। यूँ भी विश्राम जीवन में रंगत लाता है।

● जीव अवस्था अनुसार तन की महक लिये रहते हैं। यह महक तन-मन की सहज क्रिया का परिणाम होती है। सम्बन्धों में यह महकें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। साबुन-इत्र-अन्य रसायन इन महकों को मिटाते, छिपाते, बदलते हैं इसलिये इन से बचना चाहिए।

● चिड़िया घौंसले में कम ही रहती हैं। मनुष्य का स्वभाव भी इमारतों के अन्दर रहने का नहीं है। बाहर खुले में जितना विचरण कर सकें अच्छा है। प्राण-साँस के लिये खुले में रहने से बेहतर कुछ नहीं है और फिर, सीमेन्ट-स्टील-पेन्ट की इमारतें तो वैसे भी बीमारी का घर हैं।

● अधिक समय खड़े रहना और अधिक समय बैठे रहना, दोनों ही स्थितियाँ हमारे अस्थिपंजर को विकृत कर देती हैं। रीढ की हड्डी का तो बाजा ही बज जाता है। बन्दर के बच्चे हमारे लिये उदाहरण होने चाहियें। वैसे हमारे शिशु भी कोई कम नहीं हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न हैं : कार्यस्थलों और टी वी रूमों का क्या करना चाहिये?

● मनुष्यों ने दीर्घकाल तक बिना वस्त्रों के सहज जीवन व्यतीत किया है। यूँ भी, बिना वस्त्रों के शरीर सुन्दर है। वस्त्र एक बोझ तो हैं ही फिर भी, वस्त्र पहनने ही हैं तो कम-से-कम कष्ट देने वाले कपड़े पहनें।

● सामान्य तौर पर इच्छा-पसन्द-उमंग जीवन की तरंग हैं। कई रंगों का होना जीवन को सहज ही आनन्ददायक बनाता है। एकरूपता कैसी भी हो, उससे उकताना-बिदकना स्वाभाविक है। यह बात गाँठ में बाँधने वाली है कि बारम्बार एक ही तरह से पैर की दाब देना, एक ही ढंग से हाथ चलाना, एक ही प्रकार का बोलना-चालना नीरसता की कुंजी है। मुहावरा पुराना है पर कोल्हू का बैल बने जीवन में फच्चर डालना उमंग के लिये जगह बनाना है।

● जीवन में बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था स्वाभाविक हैं। इन के अपने-अपने दौर और खासियतें हैं। बचपन को सिकोड़ना, युवावस्था को लम्बा करना, वृद्धावस्था से भय खाना और उसे नकारना-छिपाना सब के लिये आफत ही आफत लिये हैं। अपने बच्चों के बचपन को छीनने से बचने के कुछ प्रयास तो कोई भी कर सकती-सकता है। ठीक है ना?

● सामान्य तौर पर तो सहज क्रियाओं में बाधा पड़ने पर ही हम बीमार पड़ते हैं। विश्राम उपचार के बेहतरीन तरीकों में है। शरीर को समय दीजिये। तन और मन की सुनिये। लाखों-करोड़ों वर्ष का अनुभव है जीवन का स्वयं को ठीक करने का। जहाँ तक हो सके दवाओं से बचें। दवाईयाँ अक्सर एक पहलू पर ध्यान केन्द्रित कर उपचार के दौरान अन्य बीमारियाँ संग लिये हैं।

सम्बन्धों और मन की कुछ सहज बातें आगे फिर कभी।

(मजदूर समाचार, सितम्बर 2008)

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उपचार और बाजार

यहाँ बीमारियों की बात नहीं करेंगे। बीमारियों के कारणों की चर्चा भी नहीं करेंगे। निगाह अँग्रेजी, यानी ऐलोपैथिक उपचार पर रखेंगे।

बात 1984-85 की है। तब मैं मेडिकल कॉलेज का छात्र था। मेरी इच्छा एक अच्छा चिकित्सक बनने की थी। इसके लिये आवश्यक ज्ञान व हुनर प्राप्त करना चाहता था। इसके साथ थोड़ा-सा धन कमाने की इच्छा भी जुड़ी थी। जरूरतमन्दों का उपचार करूँ और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन भी हो। मेरे अधिकतर सहपाठियों में भी यही भावनायें थी।

लेकिन, 1992-93 से बाजार का उपचार पर हावी होते जाना मुझे दिखने लगा। यहाँ दिखने लगा।

साधनहीनों को अति आवश्यक होने पर भी उपचार उपलब्ध नहीं होना। सम्पन्नों को आवश्यक नहीं होने पर भी पैसों की चाह में उपचार परोसना। एक तरफ मर रहों को अस्पताल में बिस्तर नहीं और दूसरी तरफ सामान्य-सी बीमारी, जैसे वायरल बुखार होने पर भर्ती कर लेना तथा 50-60 हजार रुपये का बिल बना देना।

— सरकारी अस्पताल 1980 से लगातार उपेक्षा के शिकार हैं। तब सरकारों के व्यय में स्वास्थ्य क्षेत्र का हिस्सा तीन प्रतिशत था जो घटते-घटते 2001 तक एक प्रतिशत से भी कम, 0.9% तक आ गया। अतः देख-रेख भी नहीं, वृद्धि की तो बात ही क्या करना।

— विश्व-भर से रोगियों को उपचार के लिये, सस्ते उपचार के लिये आमन्त्रित करना। अति विशेषज्ञता वाले महँगे अस्पतालों के निर्माण के लिये सस्ते में जमीन उपलब्ध कराना।

— 1980 में 160 सरकारी मेडिकल कॉलेज थे और आज 2008 में यह संँख्या 170 तक नहीं पहुँची है। इसी अवधि में निगमित क्षेत्र में 100 से अधिक नये मेडिकल कॉलेज खुले हैं। चिकित्सक बनने के लिये कई लाख रुपये खर्च करना आवश्यकता बन गया है।

— मेडिकल कॉलेज खोलने के लिये 500 बिस्तर का अस्पताल आवश्यक है। आज 70 करोड़ रुपये वार्षिक व्यय में 500 बिस्तर का अस्पताल तथा मेडिकल कॉलेज सहज ढंग से चल सकते हैं। भारत में 600 जिले हैं, प्रत्येक जिले में सरकारी मेडिकल कॉलेज … बाजार के प्रभाव में बाधा। सरकारें अति विशेषज्ञता के लिये एक संस्थान पर 200-250 करोड़ रुपये वार्षिक खर्च करती हैं।

— नर्स, फार्मासिस्ट, लैब टैक्नीशियन, फिजियोथेरेपिस्ट, ऑपरेशन थियेटर टैक्नीशियन की बीमार समाज में आवश्यकता लाखों में है। एक डॉक्टर के संग 3 नर्स। सरकारी क्षेत्र में इनके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये 1980 से उल्लेखनीय वृद्धि नहीं। जबकि, गली-गली में इनके संस्थान खुल गये हैं। इस समय फरीदाबाद में ही 16 हैं — सरकारी एक भी नहीं।

— सरकारी अस्पतालों में नर्सों व अन्य पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। मानक अनुसार 200 बिस्तर के अस्पताल में 200 नर्स होनी चाहियें। सरकारें 50-60 पद ही स्वीकृत करती हैं। और, वास्तव में 20-30 नर्स ही होती हैं। हाँ, भारत सरकार-हरियाणा सरकार नर्सों के निर्यात को प्रोत्साहित करती हैं।

— स्वास्थ्य बीमा नया, तेजी से बढ़ता धन्धा है। बीमा बीमारियों का नहीं किया जाता बल्कि राशि आधारित है। यह अस्पतालों को अनावश्यक उपचार के लिये प्रेरित करता है। यह बीमा कम्पनी को आवश्यक उपचार पर भी कैंची चलाने को प्रेरित करता है। अस्पतालों और बीमा कम्पनियों की खींचातान ने बिचौलिये (टी पी ए) को जन्म दिया है जो बीमा करवाने वाले के लिये अतिरिक्त व्यय व परेशानी लिये है।

— धर्मार्थ अस्पतालों में भी बाजार का दबदबा कायम हो गया है। दिल्ली में मूलचन्द, गंगाराम और यहाँ फरीदाबाद में सनफ्लैग, एस्कॉर्ट्स अस्पताल उदाहरण हैं। अब इन में उपचार बहुत महँगा हो गया है। गंगाराम अस्पताल की ही बात करें। मरीज से पहला प्रश्न : स्वास्थ्य बीमा है कि नहीं? है तो कितने का? तीन लाख रुपये का है तो कहीं और देखिये। दस लाख रुपये के बीमे से कम वालों को उपचार कहीं और करवाने की सलाह दी जाती है।

उपचार का बाजारआज भारत में एक लाख पचास हजार करोड़ रुपये वार्षिक का है। लोग प्रत्यक्ष तौर पर एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ रुपये और सरकारों के माध्यम से 35 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं।

उपचार पर बाजार के हावी होने का एक प्रतीक गुर्दे खरीदना और गुर्दे बेचना है।

— एक डॉक्टर (2008)

— (मजदूर समाचार, दिसम्बर 2008)

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चक्रव्यूह मरने-मारने का

● स्वयं को दोष देना। अपने को खुद काटना। व्यक्ति का प्रतिदिन कई-कई बार मरना।

● आस-पास वालों को दोष देना। ईर्द-गिर्द वालों की टाँग खींचना। मनमुटाव और चुगली का बोलबाला।

● इस-उस समूह को दोषी ठहराना। समूहों का एक-दूसरे के विरुद्ध लामबन्द होना। अनेकानेक प्रकार के गिरोहों में टकरावों का बढ़ते जाना।

उपरोक्त को विश्व में वर्तमान की एक झलक कह सकते हैं। मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता समवेत स्वर धारण कर रही है।
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क्या है मौलिक परिवर्तन? कई पीढियों से हम इस प्रश्न से जूझ रहे हैं। अनगिनत प्रयास किये जा चुके हैं, अनेक कोशिशें जारी हैं। मन्थन, सामाजिक मन्थन आज विश्व-व्यापी है। इस मन्थन में एक योगदान के लिये यहाँ यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

प्रकृति जटिल है। प्रकृति की अनबूझ पहेलियों ने हमारे आदिम पुरखों में अनेक देवी-देवता स्थापित किये थे। आदिम समुदायों की टूटन, मानवों में स्वामी और दास की उत्पत्ति ने प्रकृति से भी जटिल सामाजिक तानों-बानों की रचना आरम्भ की। पाँच-सात हजार वर्ष पहले शुरू हुई जटिलता आज ऐसी भूलभुलैया बन गई है कि हम में से कोई भी, कभी भी, कहीं भी खो सकती-सकता है।

कहाँ-कहाँ से बार-बार गुजरे, नये सन्दर्भो में गुजरे-गुजर रहे हैं : जीवन शाप-संसार मिथ्या-सन्यास, मरण का वरण-जन्म से मुक्ति, मोक्ष-स्वर्ग, जन्नत, बैकुंठ- … विद्रोह, विप्लव, क्रान्तियाँ।

और, बद से बदतर होते हालात ने कुछ भी पवित्र नहीं छोड़ा है। जिन्हें समाधान सोचा था उन्हें समस्या पाया। नये समाधान और विकट समस्या निकले तो पुराने “समाधान” में लौटने की ललक … सब सद्इच्छाओं के बावजूद पन्थ, गुट, गिरोह मरने-मारने के चक्रव्यूहों की रचना करते, उन्हें पुष्ट करते लगते हैं।

ऐसे में इस-उस व्यक्ति अथवा यह-वह समूह की बजाय उस सामाजिक प्रक्रिया को केन्द्र में रख कर पड़ताल करना उचित लगता है जो हमें वर्तमान तक लाई है।

सब कुछ को फतह करने के फेर में सर्वस्व के विनाश की ओर अग्रसर इस सामाजिक प्रक्रिया का एक पहलू तेजी है। आइये तीव्र से तीव्रतर गति को थोड़ा कुरेद कर देखें।

रफ्तार की महिमामंडन के किस्से पुराने हैं। घोड़ों के बाद रेल भी अब पुरानी हो गई है। और, अन्तरिक्ष में ले जाने के लिये आवश्यक बाहरी गति से भी अधिक हमारे अन्दर की गति, हमारी आन्तरिक रफ्तार वर्तमान की प्रतीक है।

प्रश्न हैं : एक से दूसरे स्थान की दूरी कम समय में तय करना क्या हमारे जीवन को बेहतर बनाना है? मन और मस्तिष्क की तीव्रता क्या जीवन्तता बढाती है? और इन से जुड़े सवाल हैं : गति का उत्पादन कैसे होता है? रफ्तार पैदा करने की कीमत क्या है?

सोचने-विचारने-मनन करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में कुछ बातें यह हैं। बढती रफ्तार ने आज दुनियाँ मुट्ठी में ला दी है पर अगल-बगल के लोगों के बीच चौड़ी अथाह खाईयाँ बढ रही हैं। संसार-भर में जितने युद्ध हुये हैं उन सब में मारे गये लोगों की कुल संँख्या को सड़कों पर टक्करों में मरने वालों की तादाद चुनौती दे रही है। सड़कों की चपेट में मरने वालों की संँख्या हर वर्ष बढ रही है — वाहनों की बढती रफ्तार से भी तीव्र गति से मृतकों के आँकड़े बढ़ रहे हैं। कार्यस्थलों पर तीव्र से तीव्रतर गति जो अंग-भंग और हत्यायें कर रही है उनके वास्तविक आँकड़े कम्पनियों तथा सरकारों की अति गोपनीय फाइलों में भी शायद ही हों। आज गति ने तन को अत्याधिक असुरक्षित बना दिया है। मन और मस्तिष्क की स्थिति तो और भी शोचनीय बन गई है। बढती रफ्तार की जरूरतें बचपन ही नहीं बल्कि शैशव काल को भी लील रही हैं। तीव्र से तीव्रतर होती गति वृद्धावस्था को बढाने के संग-संग युवावस्था में ही नाकारा बना रही है। तेज रफ्तार द्वारा अनिवार्य किया इन्द्रियों पर नियन्त्रण बढाना कसता शिकंजा है, यह हमें किसी मुक्ति-मोक्ष में नहीं ले जा रहा। भोग के जरिये सन्तुलन बनाये रखने की सीमाओं से पार जा चुकी गति योग का सहारा ले कर चक्रव्यूह को और घातक बना रही है।

इस सिलसिले में गति का उत्पादन और भी विचारणीय है। बाहरी रफ्तार को पैदा करना पृथ्वी पर व्यापक फेर-बदल लिये है। इस प्रक्रिया में अनेक जीव यौनियाँ नष्ट हो गई हैं, कई मिटने के कगार पर हैं और रोज कुछ जीव यौनियाँ खत्म हो रही हैं। पृथ्वी पर अनेक रूपों-मिश्रणों में पदार्थ फैले हैं। इन्हें अशुद्ध करार दे कर इन से स्टील, ताम्बा, अल्युमिनियम, सीमेन्ट, यूरेनियम, पैट्रोल बनाने का ताण्डव शहरों के साथ जुगलबन्दी में जो गुल खिला रहा है वे अपने आप में असहय हैं। और, गति जो गत अन्तरिक्ष की कर रही है उस पर गति के सारथी ज्ञानी-विज्ञानी भी दबी जुबान में चिन्ता जाहिर करने लगे हैं। रही मन की बात तो अनिश्चितता और असुरक्षा बढाती तीव्र गति आज हर व्यक्ति को असहाय बनाने के संग-संग बम में भी बदल रही है।

बढती संँख्या को फालतू बना कर कूड़े के ढेर में बदलती तीव्र गति … तेज रफ्तार जुटे हुओं के लिये “अपना समय” नहीं बढा रही। “वक्त ही नहीं कट रहा” के संग-संग “किसी के पास समय नहीं है” आम बात बन गई हैं।

कितनी गति, कैसी रफ्तार पर विचार करना बनता है।

— (मजदूर समाचार, जून 2008)

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युवा मजदूर

एक्शन कन्स्ट्रक्शन इक्विपमेन्ट (ए सी ई) श्रमिक : “दुधौला गाँव में कम्पनी की नई फैक्ट्री से 150 ट्रैक्टर मण्डी में भेजे जा चुके हैं। रोज साढे बारह घण्टे की शिफ्ट में हम 70 मजदूर 5-6 ट्रैक्टर बनाते हैं। एक ने बीमार होने और दो ने शादी में जाने के लिये 28 अप्रैल की छुट्टी ली तो 29 अप्रैल से उन्हें ड्युटी पर नहीं लिया। इस पर 5 मई को हम सब फैक्ट्री के अन्दर नहीं गये। उत्पादन बन्द है और आज 7 मई को भी हम बाहर बैठे।

” ए सी ई कम्पनी ने स्वयं हमें भर्ती किया। एक महीना पूरा होने पर ए सी ई की वर्दी दी। गेट पास भी 25 अप्रैल तक ए सी ई के नाम से दिये। फिर अचानक कम्पनी हमें ठेकेदार के जरिये रखे मजदूर कहने लगी। हमारे द्वारा काम बन्द करने के दूसरे दिन, 6 मई को पैन्थर सेक्युरिटी का एक बन्दा फैक्ट्री आया। बहुत आश्वासन दिये और अन्दर चलने को कहा तो हम ने निकाले हुये 3 को पहले लेने को कहा। अन्दर जा कर वह बाहर आया और बोला कि जो करना है करो, 3 को अन्दर नहीं लेंगे।

“दुधौला में ए सी ई फैक्ट्री में हमारे सम्मुख समस्या पर समस्या हैं। सुबह 9 से रात साढे नौ तक रोज जबरन रोकते हैं, रविवार को 8 घण्टे काम। रोज के ओवर टाइम के मात्र 60 रुपये और रविवार के 120 रुपये। किसी दिन 2-3 घण्टे ही ज्यादा रोका तो उसके कोई पैसे नहीं। फैक्ट्री मथुरा रोड़ से काफी दूर है और वरकर फरीदाबाद व पलवल से हैं। रात साढे नौ छूटने पर सुनसान क्षेत्र से पैदल मथुरा रोड़ पहुँचते हैं। हाथ देने पर जो ट्रक रुक जाते हैं उन से लौटते हैं। रात 1 बजे घर पहुँचते हैं। पुलिस से परेशानी।

“ए सी ई ट्रैक्टर का सब काम फैक्ट्री में ही होता है, बस इन्जन चीन से आते हैं जिन पर नाम मिटा कर कम्पनी अपना छाप देती है। ट्राली पर रख कर सरकाते हुये उस पर काम होता है। सब जगह सब काम हाथों से — मात्र दो प्रेशर गन हैं। तनखा 3510-4000 रुपये। मात्र 3 पँखे हैं और धूप में भी काम करना पड़ता है। पीने का पानी गर्म। चोट लगने पर प्राथमिक उपचार भी गाँव जा कर मजदूर अपने पैसों से करवायें। स्टाफ के 60-70 लोग हर समय हमारे सिर पर खड़े रहते हैं — उनका काम बस गाली देने का है।

“5 मई को हम फैक्ट्री में नहीं गये तो टाइम ऑफिस वाले के बाद सी ई ओ जी. के. अग्रवाल आया और 3 को हफ्ता-दस दिन में लेने की कही। इस पर हमारे अन्दर नहीं जाने पर फिर परसनल हैड धमकाने आया : दारू पी कर ड्युटी करते हो, चोरी करते हो, आज से सब का गेट बन्द, लोकल हो कर दादागिरी करते हो, दो हजार में बाहर के रख लेंगे, पुलिस से मरोड़ निकलवा देंगे।

“हम दुधौला गाँव के लोगों से मिले। ए सी ई के बैक हो, सी एन सी, वैल्डिंग शॉप मजदूरों से मिले। दुधौला में हाई पोलीमर लैब व अन्य फैक्ट्रियों के मजदूरों से बातें की। आज 7 मई को हम फैक्ट्री गये तो वहाँ पुलिस थी। हमें गेट पर नहीं बैठने दिया, फैक्ट्री की तरफ वाली जगह पर भी नहीं बैठने दिया — कम्पनी की बदनामी होती है! हम एक खाली प्लॉट में बैठे तो वहाँ मैनेजमेन्ट के लोग धतीर थाने के एएसआई को ले कर पहुंँचे और बोले : पैसे वालों से नहीं लड़ सकते, समझौता कर लो, पकड़ कर अन्दर कर देंगे, तारीख भुगतते रहोगे … हम में से एक ने तारीख भुगत लेंगे कहा तो एएसआई उसे ले कर चलने लगा। हम सब साथ चले तो उसे छोड़ कर पुलिस वाला यह कह कर चला गया कि झगड़ा मत करना। स्टाफ के लोग आ-आ कर देख जाते हैं। एक अखबार वाला फोटो ले गया है। सी आई डी वाला रिपोर्ट ले गया है।”

इल्पिया पैरामाउन्ट कामगार : “सैक्टर-59 पार्ट-बी झाड़सेंतली-जाजरू रोड़ स्थित फैक्ट्री में बरसों से काम कर रहे 80 कैजुअल वरकरों की तनखा 2500-3000 रुपये और ई.एस.आई. नहीं, पी.एफ. नहीं। फैक्ट्री में 12-12 घण्टे की दो शिफ्ट और एक दिन छोड़ कर 36 घण्टे लगातार ड्युटी … श्रम विभाग, श्रम मन्त्री, मुख्य मन्त्री को शिकायतें की।

“27 फरवरी को सांँय 4 बजे श्रम विभाग की गाड़ी फैक्ट्री में आई। अधिकारी कार्यालय में गये और परसनल विभाग वाले कैजुअलों को बाहर निकालने लगे पर कई ने फैक्ट्री से निकलने से इनकार कर दिया। श्रम अधिकारी ने नाम लिखे, बातें सुनी और तनखा अपने सामने दिलवाने की
कही।

” 7 मार्च को श्रम अधिकारी इल्पिया पैरामाउण्ट फैक्ट्री आया तो कम्पनी ने पैसे की दिक्कत बता कर तनखा अगले दिन देने की कही। मैनेजमेन्ट ने 8 मार्च को 40 स्थाई मजदूरों को दिन की शिफ्ट में बुलाया और 80 कैजुअलों को रात की शिफ्ट में आने को कहा। श्रम अधिकारी ने 8 मार्च को अपने सामने जिन्हें तनखा दिलवाई वे स्थाई मजदूर थे … पर कैजुअल वरकर फैक्ट्री गेट पर एकत्र हो गये थे। यह देख कर परसनल मैनेजर बोला कि कल आना, यह पैसे लो और जाओ चाय पीओ-समोसे खाओ, एक घण्टे बाद आना। मजदूर टले नहीं और श्रम अधिकारी फैक्ट्री से निकला तो घेर लिया। अगले दिन तनखा का आश्वासन। श्रम अधिकारी 9 मार्च को फैक्ट्री पहुंँचा तो कम्पनी ने पैसे की दिक्कत बताई और फिर यही बात 10 मार्च को दोहराई तो श्रम अधिकारी ने धमकी दी। अन्ततः 11 मार्च साँय 5 बजे श्रम अधिकारी के सामने 80 कैजुअलों को 3510 रुपये तनखा दी और पे-स्लिप भी दी पर उसमें ई.एस.आई. व पी.एफ. नम्बर नहीं हैं। फरवरी माह के 200-300 घण्टे ओवर टाइम का भुगतान दुगुनी दर से 25 मार्च को अपने सामने दिलवाने की कह कर श्रम अधिकारी गया पर 25 को फैक्ट्री नहीं आया और 29 मार्च को कम्पनी ने 2500-3000 रुपये तनखा अनुसार ओवर टाइम के पैसे सिंगल रेट से दिये।

“और फिर इल्पिया पैरामाउण्ट मैनेजमेन्ट ने कैजुअल वरकरों से हस्ताक्षर 3540 पर करवाये पर मार्च तथा अप्रैल की तनखायें 2500-3000 रुपये दी। एतराज पर मजदूर निकालने शुरू किये और चुन-चुन कर नई भर्ती आरम्भ की। रात 8 बजे छूटने पर 15 अप्रैल को कुछ नये लोगो से मथुरा रोड़ पर किन्हीं का झगड़ा हुआ तब से कम्पनी ने उन्हें लाने-ले जाने के लिये वाहन का प्रबन्ध किया है। इस मामले में मैनेजमेन्ट ने कुछ स्थाई मजदूरों को पुलिस से गिरफ्तार करवा कर फैक्ट्री से बाहर भी किया हुआ है। इधर 12 मई को दो गाड़ियों में 10-12 लोग फैक्ट्री में आये। मैनेजर के कार्यालय में बैठ कर उन्होंने एक-एक कर कैजुअलों को बुला कर धमकाया — कम्पनी के कहे अनुसार चलो नहीं तो हाथ-पैर तोड़ देंगे।”

(मजदूर समाचार, जून 2008)

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कुछ बातें जातियों की

गण-कबीला-ट्राइब-क्लैन को सामाजिक संगठन का एक स्वरूप कहा जाता है। मिलते-जुलते रूप में यह मनुष्यों के बीच विश्व-भर में रहे हैं। काफी क्षेत्रों में, बड़ी आबादियों में इनका उल्लेखनीय प्रभाव आज भी देखा जा सकता है।

गण को रक्त-सम्बन्ध से जोड़ा गया। स्त्री और पुरुष के यौन सम्बन्ध कहीं गण के अन्दर ही तो कहीं गण के बाहर ही मान्य रहे। कहीं-कहीं गण के अन्दर और गण के बाहर, दोनों प्रकार के सम्बन्ध सामान्य रहे। हावी-प्रभावी जो बना वह गण के अन्दर ही सम्बन्ध था। किसी को गण में सम्मिलित करने के अनेक तरीके रहे हैं। और, किसी को गण से बाहर करना बहुत बड़ी सजा।

गण के अन्दर और भी गठन हुये जिनमें गोत्र की महत्ती भूमिका रही है। गोत्र को निकट रक्त-सम्बन्ध माना गया और पिता का गोत्र बच्चों का गोत्र बना। वैसे, अगर रक्त की बात करनी ही है तो बच्चों में रक्त माँ के गर्भ में ही बनता है। गण के अन्दर परन्तु गोत्र के बाहर विवाह की प्रथा स्थापित हुई। एक गोत्र वालों के बीच रिश्ते दादा-पिता-बुआ-भाई-बहन-पुत्री-पुत्र वाले। एक गोत्र के लोगों की संँख्या लाखों में होने, दूर-दराज फैले होने पर भी गोत्र वाले नर और नारी के बीच शादी नहीं। सगोत्र विवाह अमान्य। विवाह के बाहर यौन सम्बन्ध अमान्य।

जटिलतायें अनेक हैं और काफी कुछ बदला है पर फिर भी विश्व-भर में विवाह की गण-गोत्र व्यवस्था आज भी उल्लेखनीय है।

आईये अब बात भारतीय उपमहाद्वीप की करें। यहाँ आज भी गण-गोत्र का बोलबाला विवाहों में साफ-साफ देखा जा सकता है। और लगता है कि गणों की पर्यायवाची जातियाँ हैं। गण और जाति शब्द एक ही सामाजिक गठन के लिये …

गण और वर्ण उच्चारण में निकट लगते हैं परन्तु वास्तव में इनके अर्थ बहुत भिन्न हैं। वर्ण चार हैं और इन्हें अनेक नियमों-उपनियमों के जरिये स्थापित करने के प्रयास हुये। जबकि, गण-जाति उपमहाद्वीप में ही हजारों की संँख्या में हैं। फिर भी, चर्चाओं में अकसर वर्ण और जाति को गड्डमड्ड कर दिया जाता है। आज यहाँ प्रभु वर्ग की मुख्य भाषा, अंँग्रेजी में “कास्ट” शब्द का प्रयोग जाति और वर्ण, दोनों के लिये किया जाता है। यह गण-जाति तथा वर्ण के अर्थों को और उलझा देता है।

वर्ण को स्थापित करने के प्रयास समाज में ऊँच-नीच पैदा होने के उपरान्त हुये। वर्ण का अस्तित्व चन्द हजार वर्ष से अधिक का नहीं है। जबकि, गण-जाति रूपि गठन वर्ण के, ऊँच-नीच के अस्तित्व में आने से हजारों वर्ष पहले के हैं।

आईये अब एक नजर गण-जाति पर समाज में हुये, हो रहे व्यापक परिवर्तनों के सन्दर्भ में डालें। बात थोड़ा पहले से आरम्भ करते हैं।

दीर्घकाल तक गण-जाति मौज-मस्ती की अवस्था में रही। उल्लास का बोलबाला रहा। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कन्द-मूल भोजन के मुख्य स्रोत थे। पूरक के तौर पर छिटपुट शिकार। समय के साथ कुछ क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से इस-उस प्रकार की विशेषता प्राप्त करने की दिशा में कदम बढे। कोई गण मछली पकड़ने में विशेषज्ञ बने तो किन्हीं गणों ने मिट्टी से खेलने में महारत हासिल की। गण-जाति को धन्धे-पेशे से जोड़ने के बीज पड़े। और, भारतीय उपमहाद्वीप में तो गण-जाति को धन्धे-पेशे से जोड़ने वाले यह बीज विराट वृक्ष बने। गण-जाति की जड़ों को धन्धे-पेशे के इस आवरण ने ढंँक दिया। गण-जाति और धन्धे-पेशे एक-दूसरे से जुड़े हुये पेश होने लगे। वैसे, एक ही पेशे में, एक ही धन्धे में अनेक गण-जाति, कई गण-जाति रहे। किसान जातियाँ …

समाज में होते व्यापक परिवर्तनों के संग धन्धों के महत्व बदलते रहे हैं। कल जो बहुत महत्वपूर्ण थे, आज वे गौण हो गये। उत्तम खेती और अधम नौकरी-चाकरी उलट-पलट गये हैं। एक समय किसी गण-जाति से जुड़ा जो पेशा-धन्धा श्रेष्ठ कहा जाता था वह अन्य समय में अधम की श्रेणी में आ गया।

और अन्त में, कुछ बात ऊँच-नीच की। ऊँच-नीच का सम्बन्ध वर्ण से है। समाज में स्वामी और दास बनने-बनाने के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ण व्यवस्था की रचना द्वारा ऊँच-नीच को संस्थागत रूप देने के प्रयास हुये। हजारों गण-जाति ऊँच-नीच वाले चार खानों में फिट किये गये। कई गण-जाति जो इन चार खानों में से निचले में ठूँसे नहीं जा सके वो “बाहर-अन्य-दूसरे” करार दिये गये। परिवर्तन-आवश्यकता “बाहर” वालों को “अन्दर” लाये और शक्ति-सत्ता ने गण-जाति की वर्ण-श्रेणी में कई उलट-फेर किये। शुद्र शिवाजी का राजतिलक करने से इनकार … सत्ता ने मराठों को शुद्र से क्षत्रिय की श्रेणी में पहुँचाया।

एक गण-जाति में अनेक प्रकार के विभाजनों द्वारा “नये” गण-जाति अस्तित्व में आते रहे। हिन्दू मनिहार और मुसलमान मनिहार, खटीक और बकरे काटने वाले खटीक। कह सकते हैं कि स्थान बदलने से, धर्म परिवर्तन से, नये धन्धे-पेशे अपनाने से गण-जाति वाले सामाजिक गठन में कुछ परिवर्तन तो आये ही परन्तु गण-गोत्र की जड़ पर चोट नहीं पड़ी। इधर व्यक्ति को इकाई बनाना विगत के सम्बन्धों के तानों-बानों पर प्रहार है, गण-जाति की जड़ पर भी चोट लगता है।

इच्छा-अनिच्छा से परे नये लोगों के संग आना सामान्य बनता जा रहा है। अकेलेपन, नये प्रकार के अकेलेपन ने पीड़ा में भारी वृद्धि की है। नये मेल-मिलापों के लिये तड़प और प्रयास बढ रहे हैं। नये समुदायों के उदय की वेला है।

— (मजदूर समाचार, अक्टूबर 2008)

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मन करता है आतंकवादी बन जाऊँ

युवा मजदूर : छह महीने में तो ब्रेक कर ही देते हैं। नई जगह लगने में कई बार महीना बीत जाता है। खाली बैठे दस दिन हो जाते हैं तो निराशा बढ़ने लगती है। मरने को मन करता है … “आत्महत्या पाप है” कह कर अपने को रोकता हूँ।

मारुति सुजुकी को पार्ट्स सप्लाई करने वाली फैक्ट्री का मैनेजर : पावर प्रेस का ज्यादा काम है। उँगलियाँ कटने की तो कोई गिनती ही नहीं। इन दो वर्ष में पहुँचे से 18 मजदूरों के हाथ कटे हैं। दस्तावेजों में दिखाना नहीं होता है इसलिये निजी चिकित्सकों से उपचार करवाया जाता है। यह सब देख कर बहुत दुख होता है। अपनी असहायता मुझे और भी पीड़ा पहुँचाती है।

सत्तर वर्षीय सेवानिवृत्त प्रोफेसर : सुबह-सुबह अखबार मन खराब कर देते हैं। इतनी घिनौनी बातें। मन कहता है कि नेताओं और अफसरों को गोली से उड़ा दो।

जो कभी गाँववाले थे : मुजेसर के एक और नौजवान ने इधर आत्महत्या कर ली। जिन गाँवों की जमीनों पर फरीदाबाद में कारखाने खड़े हैं उन गाँवों के निवासियों की बड़ी संँख्या नशे की गिरफ्त में है। कमरों से किराया बहुतों की आमदनी का मुख्य स्रोत है। दम्भ और नशे में चूर नौजवान अपने बड़े-बूढों की बात भी नहीं सुनते।

बीस वर्षीय मजदूर : रोज 12 घण्टे ड्युटी है। माल की ज्यादा माँग होने पर प्रतिदिन 16 घण्टे काम। सप्ताह में, महीने में कोई छुट्टी नहीं। जबरन है, 12-16 घण्टे नहीं रुको तो नौकरी नहीं है। पैसे घण्टे के हिसाब से। घण्टा दूसरा हो चाहे पन्द्रहवाँ, दर एक ही। उत्पादन प्रतिघण्टा अनुसार निर्धारित करते हैं। नये पीस के लिये आरम्भ में अगर 10 मिनट समय रखते हैं तो उसे घटा-घटा कर 9-8-7-6 मिनट कर देते हैं। फिर प्लस-माइनस हैं, निर्धारित से कम उत्पादन पर पैसे काटते हैं … लाइन इनचार्ज और मास्टर बात-बात पर डाँटते-फटकारते हैं। हम इसका विरोध क्यों नहीं करते? हम टारगेट हासिल करने, पार करने में क्यों भिड़ जाते हैं? लोग सोचते क्यों नहीं? मुझे बहुत गुस्सा आता है। मन करता है साहबों को उड़ा दूंँ। मन करता है आतंकवादी बन जाऊँ।

● जो है उस से खुश नहीं हैं। बदलाव चाहते हैं।

— अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिये हम में से प्रत्येक बहुत पापड़ बेलता-बेलती है। तन को तानने से मन को मारने तक क्या-क्या हम नहीं करते। चन्द लोग, इक्का-दुक्का व्यक्ति अपनी इच्छाओं में से कई को प्राप्त भी कर लेते हैं। लेकिन, मुड़ कर देखने पर वे बातें जिन्हें बहुत महत्वपूर्ण मानते थे वे वास्तव में गौण मिलती हैं। चौतरफा हालात बद से बदतर मिलते हैं … हमारे प्रयास विफल हो रहे हैं।

— “व्यवस्था ही खराब है” एक सामान्य समझ बन गई है। अलग-अलग व्यक्ति की समस्याओं का समाधान नहीं निकल सकता की बात भी एक आम समझ बन गई है। बात समाज बदलने से ही बनेगी की बात भी एक सामान्य समझ बन गई है।

और, लगता है कि समाज बदलने के हमारे प्रयास एक ठहराव की स्थिति में आ गये हैं।

● वर्तमान से असन्तोष की अभिव्यक्ति जलसे-जुलूस, हड़ताल, पुलिस से टकराव, सशस्त्र विद्रोह में उल्लेखनीय तौर पर होती थी। यह तथ्य है कि दुनियाँ-भर में सौ वर्ष के दौरान सभा-हड़ताल-विद्रोह की सफलता ही इनकी असफलता साबित हुई। पूरे विश्व में कारखाने बढते आये हैं, मजदूरों की सँख्या बढती आई है, परिवार का आकार सिकुड़ता आया है, परिवार के पालन-पोषण के लिये पुरुष के संग स्त्री द्वारा नौकरी करना बढता आया है, मजदूरों के काम के घण्टे बढ़ रहे हैं, कार्य की तीव्रता बढती आई है, असुरक्षा बढ़ रही है …

असन्तोष बढता आया है, गुस्सा विस्फोटक हो गया है। लेकिन, संसार-भर में इनकी अभिव्यक्ति मीटिंग-हड़ताल-टकराव में बहुत ही कम हो रही है। नेताओं के पीछे मजदूर कम ही दिखाई देते हैं।

● आज हमारा गुस्सा काफी-कुछ आत्मघाती राहों में फूट रहा है। अकसर हम खुद को काटते हैं, अपने निकट वालों को काटते हैं। और, हम में से इक्का-दुक्का आतंकवादी भी बन रहा-रही है।

क्या करें? कहाँ जायें?

अपने स्वयं के कदमों के निजी महत्व से हम अच्छी तरह परिचित हैं। कार्यस्थलों तथा निवास स्थानों वाले अपने जोड़ों-तालमेलों के व्यवहारिक महत्व हम सब के जाने-पहचाने हैं। इस विकट परिवेश में, हमारे विचार से, अपने स्वयं के और अपने जोड़ों के व्यापक महत्व के बारे में सोचने-विचारने की आवश्यकता है।

— एक व्यक्ति अनेक तालमेलों में शामिल होता-होती है। पुराने किस्म के कुछ तालमेल ढीले हो रहे हैं, टूट रहे हैं पर व्यक्ति के लिये नये तालमेलों में शामिल होना आसान हो रहा है। परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं, ऐसी अधिकाधिक बनती जा रही हैं कि एक जोड़ सहजता से कई जोड़ों से तालमेल बैठा सकता है। यह हमें मैं से, विभाग से, फैक्ट्री से, मोहल्ले से पार ले जा कर बड़े क्षेत्र प्रदान कर सकते हैं। सहजता से हम विश्व-व्यापी तालमेलों तक जा सकते हैं।

— व्यवहारिक हित के दायरों के बाहर वाले तालमेल आवश्यक हैं और इन्हें बनाना मुश्किल भी नहीं है। हमारे ऐसे तालमेल जो हो रहा है उसे सहज ही जब-तब ठप्प कर सकते हैं। यह हमें साँस लेने की फुरसत प्रदान करेंगे। यह हमें बदहवासी से बचायेंगे।

— मण्डी और मुद्रा ने दुनियाँ को जबरन जोड़ा है। जबकि अपने तालमेलों के जरिये हम संसार के पाँच-छह अरब लोगों से अपनी इच्छा वाले जोड़ बना सकते हैं। वर्तमान से पार पाने के लिये अनुभवों और विचारों के आदान-प्रदान तो एक-दूसरे को मदद करेंगे ही करेंगे। विश्व में नई समाज रचना के लिये जारी मन्थन को हमारे यह जोड़-तालमेल गति प्रदान करेंगे।

— (मजदूर समाचार, मार्च 2008)

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आईये अपने आप से कुछ बातें करें

अपने आप से बात करने के लिये समय चाहिये। और यहाँ मरने की फुर्सत नहीं है।

पर बात इतनी ही नहीं लगती। वास्तव में खुद से बात करने में डर लगता है। स्वयं से बात करने से बचने के लिये भागमभाग में लगे रहते हैं। कोशिश करते हैं कि खाली न हों। काम ढूँढते हैं, चिन्तायें ढूँढते हैं, गुस्सा-भड़ास की वजहें ढूँढते हैं – निकालने के जरिये ढूँढते हैं।

कारण? हर समय प्रत्येक का अत्यन्त नाजुक सन्तुलन में होना, सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति में होना।

ऐसा काफी समय से है। बल्कि, अनिश्चितता-अस्थिरता-असुरक्षा बढ़ती आई है।

● सड़क ही लें। सड़कें बढ़ती आई हैं। वाहनों की सँख्या और रफ्तार बढते आये हैं। भारत सरकार के क्षेत्र में ही अब प्रतिदिन 400 लोगों की सड़कों पर हादसों में अकाल मृत्यु हो रही है। और, गति-वाहन-सड़क-तनाव की चपेट में यहाँ हर रोज 5000 लोग बुरी तरह घायल हो रहे हैं। एक सड़क ही सब कुछ बिगाड़ने के लिये पर्याप्त है। सड़क कैसे छोड़ें?

● फरीदाबाद में फैक्ट्रियाँ लें। इन में हर रोज पावर प्रेसों पर 200 मजदूरों की उँगलियों के पोर, पूरी उँगलियाँ, अँगूठे, पहुँचे से हाथ कटते हैं। फैक्ट्री कैसे छोड़ें? नौकरी कैसे छोडें?

बहुत-ही बच कर चलते हैं। तन की तब ऐसी दुर्गत है। मन का तो और भी बुरा हाल है।

डर और लालच के छोटे-से अखाड़े में हम बींध दिये गये हैं। डर और लालच के संकीर्ण दायरे में हम स्वयं को हाँकने लगे हैं। हालात का बद से बदतर होना इसका परिणाम है।

कुछ करने से क्या होगा?

इस सन्दर्भ में आईये अपने कल, आज, और आने वाले कल को देखने का प्रयास करें। जो बीत गया उससे सबक लेना आसान होता है। पहले स्वयं को धोखा देने के लिये प्रयोग की गई दलीलें लें — यह आज भी व्यापक स्तर पर इस्तेमाल हो रही हैं।

अपने तन और मन के खिलाफ जाने के लिये “पापी पेट” की दलील दी गई। कहा कि बच्चों के लिये जलालत झेल रहे हैं। और, अचूक बाण : यह सब “जिम्मेदारियाँ निभाने के लिये” कर रहे हैं।

नकारते रहे हैं हम तथ्यों को। मुँह चुराते रहे हैं वास्तविकता से। “मेरे”-“हमारे” साथ ऐसा नहीं होगा का स्वप्न बार-बार धराशायी होने पर भी स्वप्न बना रहा है।

हम जो करते रहे हैं उसका असर पड़ा है — पर वह नहीं जो हम चाहते थे। पेट-बच्चों-जिम्मेदारियों की स्थिति और विकट हो गई है। हम जो करते रहे हैं उससे दोहन-शोषण पृथ्वी के गर्भ से अन्तरिक्ष तक फैल गया है। और तीव्र गति ने हमारी दुर्गत कर दी है।

इसलिये प्रश्न : “क्या फर्क पड़ता है?” नहीं है। बल्कि हमारे लिये सवाल यह हैं : “हम जो कर रहे हैं उससे कितना और कैसा फर्क पड़ेगा? हम जो कर रहे हैं वह नहीं करें तो क्या और कैसा फर्क पडेगा? हम जो परिवर्तन चाहते हैं उनके लिये क्या-क्या कर सकते हैं?”

छुट्टी-छुट्टी-छुट्टी

तन के लिये अच्छी, मन के लिये अच्छी, जीवन के लिये अच्छी है छुट्टी! और आज छुट्टी अपने संग भय-आशंका लिये है।

कितना हिसाब लगाते हैं हम एक दिन की छुट्टी के लिये। दिहाड़ी टूटने की बात। एक दिन की छुट्टी पर दूसरे दिन वापस भेज दिये जाने का भय। नौकरी से निकाल दिये जाने का डर। बहुत-ही मजबूरी में छुट्टी करते हैं। सोचते हैं कि छुट्टी करने में नुकसान ही नुकसान है, मजदूर को नुकसान है।

लेकिन तथ्य और ही कुछ बयान करते हैं। यह कम्पनियाँ हैं जो चाहती हैं कि मजदूर छुट्टी नहीं करें। पूर्ण उपस्थिति के लिये कम्पनियाँ पुरस्कार राशि देती हैं। और, अनुपस्थिति के लिये सजा के प्रावधान। हाँ, कम्पनियों को जब जरूरत नहीं होती तब जबरन छुट्टी करती हैं। जबरन छुट्टी सजा है, यह छुट्टी नहीं होती।

आईये मजबूरी में छुट्टी और जबरन छुट्टी के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलने की कोशिश करें। तन कहे तब छुट्टी करना। मन कहे तब छुट्टी करना। साथी कहे तब छुट्टी करना … उल्टी गँगा सीधी होने लगेगी।

विशाल कम्पनियों के दिवालिया होने, बड़े-बड़े बैंकों के बैठ जाने, दूसरों के भविष्य की गारन्टी देने वाली बीमा कम्पनियों के दिवालिया होने के इस दौर में अपने आप से बातें करना और भी जरूरी हो गया है। यह समय नये सिरे से प्रश्न करने का है। कम्पनी-बीमा-बैंक-सरकार पर भरोसे के स्थान पर नये भरोसों को स्थापित करने का वक्त है यह।

— (मजदूर समाचार, दिसम्बर 2008)

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