दोस्तों के नाम एक खत

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चौंतिसवाँ अंश फरवरी 2008 अंक से एक मित्र का पत्र है।

मजदूर समाचार में आ रही अधिकतर मजदूरों की बातें मजदूर पहचान के इर्द-गिर्द हो रही हैं। तनखा, पी.एफ., ई.एस.आई., काम के घण्टे, कार्यस्थलों की हालात मजदूरों की बातों में मुख्य तौर पर हैं। लगता है कि अच्छे अथवा बुरे जीवन को आँकने के यही पैमाने हैं। ऐसे में बेहतरी-बदलाव के प्रयासों का इन्हीं की दिशा में धकेले जाने का खतरा है।

मित्रो, मेरे विचार से, हमें ऐसी बातचीत बढानी चाहियें जिनमें “जीवन क्या है? अच्छा जीवन कैसा हो?” जैसे प्रश्न भी हों। बुनियादी बदलाव की बातें हमारी रोजाना की सोच का हिस्सा बनें तभी बात बनेगी।

गहरे और व्यापक रिश्तों वाला जीवन अच्छा जीवन है। जबकि, क्षणिक-सतही-छिछले सम्बन्धों वाला जीवन बुरा-खराब जीवन है।

विस्फोटक हो सकता है हम में से प्रत्येक द्वारा खुद से सवाल पूछना :

— स्वयं के साथ कभी बैठ पाते हैं क्या? खुद के लिये समय का अकाल और स्थान का अभाव तो नहीं है? या फिर, खाली दिमाग शैतान का घर मान कर अकेले बैठने से परहेज करते हैं और इसे फालतू समझते हैं। मेरे विचार से, अधिक चिन्ता की बात स्वयं के जीवन पर चिन्तन-मनन करने से इनकार करना है : “ दिमाग खराब हो जाता है। सोचना ही नहीं है!”

— स्वयं के जीवन को महत्वहीन तो नहीं मानते? या, सिर्फ खुद को ही तो सबकुछ नहीं मानते? मेरे विचार से, न कोई शून्य है और न कोई पूर्ण है। इन अतियों के फेर में हर व्यक्ति सिकुड़ जाता-जाती है। इन अतियों से पैदा होने वाले दुख, खुशी, तनाव बेमतलब के हैं। हर व्यक्ति का महत्व है और अपने महत्व से आरम्भ करके ही हम दुख-दर्द मिटा कर वास्तविक खुशी की रचना कर सकते हैं।

अपने स्वयं से सवाल करने जितना ही महत्वपूर्ण है औरों से सम्बन्धों के बारे में विचार करना।

— “रिश्ते अब हैं ही कहाँ? कोई किसी का नहीं होता!” यह बातें इतनी सामान्य हो गई हैं कि फिकरे बन गई हैं। क्या ऐसे लोग हैं जिन से हमारे अच्छे, गहरे सम्बन्ध हैं? संग रह रहे लोगों, सहकर्मियों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों, दोस्तों के लिये हमारे पास समय है क्या? ऊर्जा है क्या? मन है क्या? विचारणीय बात हैं। मेरे विचार से, निकट भविष्य के लिये ही नहीं बल्कि अपने आज को बेहतर बनाने के लिये भी सम्पर्क में रहते लोगों के साथ अच्छे-गहरे सम्बन्ध बनाने के प्रयास करना बनता है।

— मित्र/दोस्त/सहेली इस घुटन भरे माहौल में ताजा हवा के झोंके हैं। बनते हैं, बनाने और बनाये रखने की जरूरत है। दोस्ती डिगा देती है लाभ-हानि की दीवारें। अजनबी और दोस्त दो छोर नहीं हैं। कितनी बार होता है कि कल जो अजनबी थे वे आज हमारे गहरे दोस्त हैं। माहौल आज अनजान लोगों से डरने का बनाया जा रहा है, अजनबी को लाभ-हानि के खाँचे में फिट नहीं कर पाना भी एक बाधा है। क्या अनजान-अजनबी से अच्छा व्यवहार नहीं करना अथवा उन्हें अनदेखा करना हमारे द्वारा अपने ताजा हवा के झरोखों को पाटना नहीं है?

आज बेशक इच्छा से नहीं बल्कि जबरन हम बाँधे गये हैं पूरी दुनियाँ से। हालात ऐसे हो गये हैं कि कुछ ऐसी ही बातें ब्याह-शादी, बच्चों, वृद्धों के सन्दर्भ में हो गई हैं। ऐसे में प्यार-मोहब्बत के बारे में सोचने की जरूरत तो है ही, नई दुनियाँ के लिये इस दुनियाँ के बारे में भी सोचने-विचारने की जरूरत है।

दोस्तो, “समय बलवान है, काल से कौन बचा है” की बातें अपनी जगह, पर विचारणीय बात यह है कि घड़ी ने हमें कहाँ ला पटका है। कैसे हैं आज हमारे समय से रिश्ते? हर समय भागमभाग लगी रहती है! आराम करना किसे अच्छा नहीं लगता? क्या आपको आराम करने का समय मिलता है? क्या आप सिर के बल खड़े हो कर आराम को हराम तो नहीं मानते?

थोड़ा ठहर कर देखते हैं तो : कितना कुछ

खो रहे हैं हम जीवन में! धूल-धुंँआ-गर्द व फ्लैट-खोखे एक तो चाँद-सितारों को यों ही ओझल कर रहे हैं, और फिर, किसे फुर्सत है तारों को निहारने की। मर-सी गई है रात की नीरवता।जानवरों और पेड़-पौधों को गमलों में रखना तो बहुत दुखद है ही, और भी तकलीफ की बात इनका हमारे दैनिक जीवन से गायब होते जाना है। क्या घूमने-फिरने को समय मिलता है? क्या आस-पास घूमने के लिये जगह है? कहीं घूमने की इच्छा ही तो नहीं मर गई है?

दोस्तो, रुपया-पैसा आज हमारी एक मजबूरी तो है, पर मुझे लगता है कि हम सब रुपये के फेर में अपना पूरा जीवन ही लगाये जा रहे हैं। रुपये कमाने-रुपये बचाने-रुपये खर्च करने में तो हम बहुत समय लगाते ही हैं, रुपये-पैसे के बारे में सोचते रहने में भी हम बहुत समय खर्च करते हैं।

अन्त में, मैं तो यही कहूँगा कि तनखाऔर काम के घण्टों के दायरे से बाहर के बारे में विचार करना और कदम उठाना नये जीवन के लिये जरूरी हैं।

 — अमित (जनवरी 2008)

 (मजदूर समाचार, फरवरी 2008)

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