सामान्य हैं फैक्ट्रियों में बेगार और बन्धुआ मजदूरी

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। बत्तीसवाँ अंश मई 2008 अंक से है।

भारत सरकार के उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय का निर्णय : संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुसार राज्य अथवा केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम तनखा किसी मजदूर को देना बेगार लेना है। जिन मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम तनखायें दी जा रही हैं वे बन्धुआ मजदूर हैं। विधान-संविधान द्वारा बेगार तथा बन्धुआ मजदूरी प्रतिबन्धित हैं।

● आई आई टी कानपुर, दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यहाँ ज्ञान उत्पादन के प्रमुख केन्द्रों में हैं। यह तीनों भारत सरकार के संस्थान हैं।

— आई आई टी कानपुर के कुछ छात्रों ने 1999 में किये एक सर्वेक्षण में पाया कि संस्थान परिसर में कोई भी ठेकेदार सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी मजदूरों को नहीं दे रहा था।

— दिल्ली विश्वविद्यालय में 2004 में 20 स्थानों पर 1500 स्त्री-पुरुष मजदूर 28-30 करोड़ रुपये के निर्माण-मरम्मत कार्य में लगे थे। कुछ छात्रों, कर्मचारियों व अध्यापकों द्वारा गठित “मजदूरों के अधिकार के लिये विश्वविद्यालय समुदाय” ने पाया कि सब मजदूर ठेकेदारों के जरिये रखे गये थे और सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी मजदूरों को नहीं दे रहे थे।

— जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में बेगार और बन्धुआ मजदूरी का विरोध उभरने पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने जून 2007 में कुछ छात्रों को सजायें दी। जे एन यू परिसर में निर्माण कार्य, पुस्तकालय, माली, सफाई कर्मी, सुरक्षा गार्ड, नये भोजनालयों में कर्मी ठेकेदारों के जरिये रखे गये हैं और इन मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता।

आकाशवाणी यानी ऑल इण्डिया रेडियो पर “मजदूर दिवस” पहली मई 2008 को दोपहर समाचार : दिल्ली में सरकार द्वारा निर्धारित दैनिक न्यूनतम वेतन 140 रुपये है पर आकाशवाणी संवाददाता ने जिन मजदूरों से बात की उन सब ने बताया कि 80-85 रुपये दिये जाते हैं।

● असीम निर्लज्जता अथवा डरावनी हकीकत परोस कर निष्क्रिय करने की साजिश या फिर डगमग वर्तमान में दरारें की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे। ईंट-भट्ठों, पत्थर खदानों से जब-तब अजूबों के तौर पर पेश किये जाते बन्धुआ मजदूरों की बात भी यहाँ नहीं करेंगे। आईये एक नजर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में फैक्ट्री उत्पादन पर डालें।

पहले नियम-कानून अनुसार ब्लॉक, सैक्टर, फेज वाले नियमित कारखाना क्षेत्र लेते हैं। ओखला औद्योगिक क्षेत्र दिल्ली में ऐसा ही स्थान है। गुड़गाँव में उद्योग विहार भी ऐसी ही जगह है। उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा दिल्ली से सटे प्रमुख उद्योग स्थल हैं। फरीदाबाद तो है ही कारखानों का शहर।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में कारखानों के लिये निर्धारित स्थानों पर लगी फैक्ट्रियों में काम करते कुल मजदूरों में से 70-75 प्रतिशत मजदूरों को आज दस्तावेजों में दिखाया ही नहीं जाता। इन 70-75 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते। जिन मजदूरों के नाम कम्पनी तथा सरकार के दस्तावेजों में दर्ज किये जाते हैं उन में भी कईयों से सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं पर पैसे कम दिये जाते हैं। हफ्ता-दस दिन फैक्ट्री में काम के बाद निकालने अथवा छोड़ने पर किये काम के पैसे आमतौर पर नहीं दिये जाते। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में फैले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कारखानों के लिये नियमित स्थानों पर पंजीकृत फैक्ट्रियों में 75-80 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते।

दिल्ली और फरीदाबाद में ऐसे क्षेत्रों की भरमार है जो औद्योगिक उत्पादन के लिये निर्धारित नहीं हैं पर जहाँ बड़ी संँख्या में कारखाने हैं। आज फैक्ट्री उत्पादन का उल्लेखनीय हिस्सा इन अनियमित क्षेत्रों में होता है। ओखला, उद्योग विहार, नोएडा, फरीदाबाद में फैक्ट्रियों के लिये नीति-योजना बनाने वालों ने इन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के निवास के लिये कोई भी स्थान निर्धारित नहीं किये हैं। ऐसे में अनियमित बस्तियों में निवास मजदूरों पर थोप दिया गया है और … और इन बस्तियों में रात-दिन वर्कशॉपों-फैक्ट्रियों का ताण्डव। खैर। तथ्य यह है कि अनियमित क्षेत्रों में होते औद्योगिक उत्पादन में कार्यरत 95-98 प्रतिशत मजदूर दस्तावेजों में अदृश्य रहते हैं। दिल्ली, फरीदाबाद में अनियमित क्षेत्रों में वर्कशॉपों-कारखानों में काम करते 90-95 प्रतिशत मजदूरों को सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिये जाते।

# इस समय 8 घण्टे प्रतिदिन कार्य और साप्ताहिक छुट्टी पर अकुशल श्रमिक (हैल्पर) के लिये मासिक निर्धारित न्यूनतम वेतन उत्तर प्रदेश में 2699 रुपये, हरियाणा में 3535 रुपये, दिल्ली में 3633 रुपये हैं।

और, मजबूरी के जले पर नमक छिड़कने के लिये मानदेय। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन का भी आधा, तिहाई, चौथाई वेतन मानेदय के नाम से देने में सरकारें अगुआई कर रही हैं।

● बेगार सामन्ती प्रथा (भूदास प्रथा) का आधार थी। मेहनतकशों को अनेक बन्धनों में जकड़ा गया था। मेहनतकशों से उपज का एक हिस्सा, श्रम का एक भाग जन्मजात अधिकार के तौर पर किलों-महलों वाले वसूलते थे। मण्डी के ध्वजवाहकों ने मुफ्तखोरी के विरोध का नारा बुलन्द किया। व्यापारियों ने इस हाथ ले उस हाथ दे को स्वतन्त्रता का परचम घोषित किया। भूदासों का बड़ा हिस्सा दस्तकारों-किसानों में तब्दील हुआ। क्रूरता में, दमन-शोषण में सामन्तों को बहुत पीछे छोड़ते मण्डी के प्रतिनिधियों ने कई पुराने बन्धनों को तोड़ा तो कई को बनाये रखा और अनेक नये बन्धनों की रचना की। बेगार प्रथा का तख्ता पलटने वाले व्यापारियों का पराक्रम दासों के व्यापार और बन्धुआ मजदूरों के जरिये विश्व मण्डी के निर्माण में फलीभूत हुआ।

विश्व मण्डी मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन का आधार बनी। वर्ल्ड मार्केट मजदूरी प्रथा का आधार बनी। व्यापारियों के भ्रष्टाचार, क्रूरता, दास व्यापार, बन्धुआ मजदूरी की भर्त्सना करती उत्पादन की नई पद्धति ने कम विकास को इनका कारण बताया। भाप-कोयला आधारित मशीनों के जरिये अपने को स्थापित करती पद्धति ने प्रगति और विकास को हर मर्ज की दवा घोषित किया। हर बन्धन को काटती, प्रत्येक आसरे को ध्वस्त करती प्रगति-विकास की गाड़ी ने मजदूरों की स्वतन्त्र उपलब्धता को मजदूरों की स्वतन्त्रता के तौर पर महिमामण्डित किया। और, प्रगति-विकास के रथ ने पृथ्वी को इस कदर रौंदा है कि इसके सम्मुख विगत के दमन-शोषण-अत्याचार बहुत-ही फीके हैं।

● बन्धनों से मुक्ति और आसरों का ध्वंस मजदूरों की शोषण के लिये उपलब्धता से जुड़े हैं। बेगार और बन्धुआ मजदूरी से राहत की थोड़ी साँस भर चन्द क्षेत्रों में कुछ मजदूरों ने ली ही थी कि अधिकाधिक मेहनतकश अथाह दलदल में धंसने लगे।

भूदासों से किसानों-दस्तकारों में परिवर्तित समूह बेगार से मुक्त हुये। लेकिन निजी व परिवार के श्रम द्वारा मण्डी के लिये उत्पादन करने वाले किसानों-दस्तकारों के स्वतन्त्र होने के भ्रमों को व्यापारियों के दबदबे के दौर में ही अनेक बन्धनों ने झीना कर दिया था। और, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन तो दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत लिये है।

इन दौ सौ वर्षों में मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन संसार-व्यापी हो गया है। संग-संग इन दो सौ वर्ष में दस्तकारी-किसानी की सामाजिक मौत – सामाजिक हत्या का सिलसिला सम्पूर्ण पृथ्वी पर बढता आया है। मेहनतकशों की बढती संँख्या मजदूरों में परिवर्तित होती आई है। मजदूरों में बदलते तबाह दस्तकार-किसान और नित नई मशीनों द्वारा मजदूरों की माँग-आवश्यकता कम करना! यह प्रगति-विकास की प्रक्रिया का परिणाम है।

इस प्रक्रिया ने आज हालात ऐसे बना दिये हैं कि जहाँ एक मजदूर की जरूरत है वहाँ एक सौ उपलब्ध हैं। यह स्थिति मजदूरों की मजबूरी इस कदर बढा देती है कि किन्हीं भी शर्तों पर काम करने को बढती संँख्या में मजदूर उपलब्ध हो जाते हैं। मजदूरों की बढ़ती मजबूरी बढती दयनीयता तो लिये ही है, यह वर्तमान समाज व्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक भी है। सब सरकारें, सब न्यायालय, सब ज्ञानी-विज्ञानी इस हकीकत से परिचित हैं पर इसके सम्मुख असहाय हैं।

बद से बदतर हो रहे हालात के सामने खड़े मजदूरों को इसलिये सरकार, न्यायालय, ज्ञानी-विज्ञानियों को किनारे छोड़ खुद सोचना होगा कि क्या करें।

(मजदूर समाचार, मई 2008)

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