चक्रव्यूह मरने-मारने का

● स्वयं को दोष देना। अपने को खुद काटना। व्यक्ति का प्रतिदिन कई-कई बार मरना।

● आस-पास वालों को दोष देना। ईर्द-गिर्द वालों की टाँग खींचना। मनमुटाव और चुगली का बोलबाला।

● इस-उस समूह को दोषी ठहराना। समूहों का एक-दूसरे के विरुद्ध लामबन्द होना। अनेकानेक प्रकार के गिरोहों में टकरावों का बढ़ते जाना।

उपरोक्त को विश्व में वर्तमान की एक झलक कह सकते हैं। मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता समवेत स्वर धारण कर रही है।
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क्या है मौलिक परिवर्तन? कई पीढियों से हम इस प्रश्न से जूझ रहे हैं। अनगिनत प्रयास किये जा चुके हैं, अनेक कोशिशें जारी हैं। मन्थन, सामाजिक मन्थन आज विश्व-व्यापी है। इस मन्थन में एक योगदान के लिये यहाँ यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

प्रकृति जटिल है। प्रकृति की अनबूझ पहेलियों ने हमारे आदिम पुरखों में अनेक देवी-देवता स्थापित किये थे। आदिम समुदायों की टूटन, मानवों में स्वामी और दास की उत्पत्ति ने प्रकृति से भी जटिल सामाजिक तानों-बानों की रचना आरम्भ की। पाँच-सात हजार वर्ष पहले शुरू हुई जटिलता आज ऐसी भूलभुलैया बन गई है कि हम में से कोई भी, कभी भी, कहीं भी खो सकती-सकता है।

कहाँ-कहाँ से बार-बार गुजरे, नये सन्दर्भो में गुजरे-गुजर रहे हैं : जीवन शाप-संसार मिथ्या-सन्यास, मरण का वरण-जन्म से मुक्ति, मोक्ष-स्वर्ग, जन्नत, बैकुंठ- … विद्रोह, विप्लव, क्रान्तियाँ।

और, बद से बदतर होते हालात ने कुछ भी पवित्र नहीं छोड़ा है। जिन्हें समाधान सोचा था उन्हें समस्या पाया। नये समाधान और विकट समस्या निकले तो पुराने “समाधान” में लौटने की ललक … सब सद्इच्छाओं के बावजूद पन्थ, गुट, गिरोह मरने-मारने के चक्रव्यूहों की रचना करते, उन्हें पुष्ट करते लगते हैं।

ऐसे में इस-उस व्यक्ति अथवा यह-वह समूह की बजाय उस सामाजिक प्रक्रिया को केन्द्र में रख कर पड़ताल करना उचित लगता है जो हमें वर्तमान तक लाई है।

सब कुछ को फतह करने के फेर में सर्वस्व के विनाश की ओर अग्रसर इस सामाजिक प्रक्रिया का एक पहलू तेजी है। आइये तीव्र से तीव्रतर गति को थोड़ा कुरेद कर देखें।

रफ्तार की महिमामंडन के किस्से पुराने हैं। घोड़ों के बाद रेल भी अब पुरानी हो गई है। और, अन्तरिक्ष में ले जाने के लिये आवश्यक बाहरी गति से भी अधिक हमारे अन्दर की गति, हमारी आन्तरिक रफ्तार वर्तमान की प्रतीक है।

प्रश्न हैं : एक से दूसरे स्थान की दूरी कम समय में तय करना क्या हमारे जीवन को बेहतर बनाना है? मन और मस्तिष्क की तीव्रता क्या जीवन्तता बढाती है? और इन से जुड़े सवाल हैं : गति का उत्पादन कैसे होता है? रफ्तार पैदा करने की कीमत क्या है?

सोचने-विचारने-मनन करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में कुछ बातें यह हैं। बढती रफ्तार ने आज दुनियाँ मुट्ठी में ला दी है पर अगल-बगल के लोगों के बीच चौड़ी अथाह खाईयाँ बढ रही हैं। संसार-भर में जितने युद्ध हुये हैं उन सब में मारे गये लोगों की कुल संँख्या को सड़कों पर टक्करों में मरने वालों की तादाद चुनौती दे रही है। सड़कों की चपेट में मरने वालों की संँख्या हर वर्ष बढ रही है — वाहनों की बढती रफ्तार से भी तीव्र गति से मृतकों के आँकड़े बढ़ रहे हैं। कार्यस्थलों पर तीव्र से तीव्रतर गति जो अंग-भंग और हत्यायें कर रही है उनके वास्तविक आँकड़े कम्पनियों तथा सरकारों की अति गोपनीय फाइलों में भी शायद ही हों। आज गति ने तन को अत्याधिक असुरक्षित बना दिया है। मन और मस्तिष्क की स्थिति तो और भी शोचनीय बन गई है। बढती रफ्तार की जरूरतें बचपन ही नहीं बल्कि शैशव काल को भी लील रही हैं। तीव्र से तीव्रतर होती गति वृद्धावस्था को बढाने के संग-संग युवावस्था में ही नाकारा बना रही है। तेज रफ्तार द्वारा अनिवार्य किया इन्द्रियों पर नियन्त्रण बढाना कसता शिकंजा है, यह हमें किसी मुक्ति-मोक्ष में नहीं ले जा रहा। भोग के जरिये सन्तुलन बनाये रखने की सीमाओं से पार जा चुकी गति योग का सहारा ले कर चक्रव्यूह को और घातक बना रही है।

इस सिलसिले में गति का उत्पादन और भी विचारणीय है। बाहरी रफ्तार को पैदा करना पृथ्वी पर व्यापक फेर-बदल लिये है। इस प्रक्रिया में अनेक जीव यौनियाँ नष्ट हो गई हैं, कई मिटने के कगार पर हैं और रोज कुछ जीव यौनियाँ खत्म हो रही हैं। पृथ्वी पर अनेक रूपों-मिश्रणों में पदार्थ फैले हैं। इन्हें अशुद्ध करार दे कर इन से स्टील, ताम्बा, अल्युमिनियम, सीमेन्ट, यूरेनियम, पैट्रोल बनाने का ताण्डव शहरों के साथ जुगलबन्दी में जो गुल खिला रहा है वे अपने आप में असहय हैं। और, गति जो गत अन्तरिक्ष की कर रही है उस पर गति के सारथी ज्ञानी-विज्ञानी भी दबी जुबान में चिन्ता जाहिर करने लगे हैं। रही मन की बात तो अनिश्चितता और असुरक्षा बढाती तीव्र गति आज हर व्यक्ति को असहाय बनाने के संग-संग बम में भी बदल रही है।

बढती संँख्या को फालतू बना कर कूड़े के ढेर में बदलती तीव्र गति … तेज रफ्तार जुटे हुओं के लिये “अपना समय” नहीं बढा रही। “वक्त ही नहीं कट रहा” के संग-संग “किसी के पास समय नहीं है” आम बात बन गई हैं।

कितनी गति, कैसी रफ्तार पर विचार करना बनता है।

— (मजदूर समाचार, जून 2008)

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