आप-हम क्या-क्या करते हैं … (6)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का ग्यारहवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह नवम्बर 2003 अंक से है।

47 वर्षीय डॉक्टर :  सामान्यतः अच्छी-गहरी नींद आती है। स्वाभाविक तौर पर उठता हूँ और अच्छा लगता है उठना — ऐसा नहीं होता कि लो एक और दिन आ गया। इसका कारण? शायद मेरे दो फैसले — रिश्वत नहीं लेना और ड्युटी के बाद पैसों के लिये कोई धन्धा नहीं करना।

ड्युटी के समय से दो घण्टे पहले उठता हूँ। दाँत साफ कर दाढी बनाता हूँ तब तक पत्नी चाय बना लाती है। चाय के संग हम मिल कर हिन्दी अखबार पढते हैं। फिर टॉयलेट में मैं अंग्रेजी अखबार पढता हूँ — सुर्खियों पर नजर भर दौड़ाता हूँ, रुचि समीक्षा-विश्लेषण वाले आर्थिक-सामाजिक लेख में (अगर स्वास्थ्य सम्बन्धी नहीं है तो सम्पादकीय नहीं पढता)। स्नान कर ड्युटी से आधा घण्टा पहले तैयार हो जाता हूँ। एक महिला आ कर घर की सफाई करती है और नाश्ता बनाती है। हम पति-पत्नी इकट्ठा नाश्ता करते समय टी.वी. पर समाचार लगा देते हैं। सुबह अगर कोई मिलने आ जाये तो दिक्कत होती है।

चिकित्सकों की सुबह-सुबह अनौपचारिक सभा का रिवाज है। दुआ-सलाम और सामान्य आदान-प्रदान होते हैं। पहले इसमें सट्टा बाजार (शेयर मार्केट) पर चर्चायें होती थी पर शुक्र मनाता हूँ कि 1992 के घोटाले में डॉक्टरों द्वारा भी काफी रकम डुबो देने के बाद से सुबह-सुबह निन्यानवे की चर्चा का यह चक्कर बन्द हो गया है।

सभा के बाद सब अपने-अपने विभाग में। सामान्य कार्य-दौरा। सरकारी स्वास्थ्य संस्थान अपर्याप्त तो हैं ही, चिकित्सकों व अन्य कर्मियों पर बहुत-ही अधिक कार्य का भार भी है। अप्रत्यक्ष ढंँग से वेतन में कटौती का सिलसिला भी जारी है — तनखा बढना तो गये जमाने की बात हुई, अब तो जो है उसे (उसकी कीमत को) बचाने का प्रश्न है। इधर प्रशासन ने हमें दिन के 24 घण्टे, महीने के तीसों दिन सरकार के नौकर के तौर पर लेना बढ़ा दिया है। ग्रामीण व शहरी गरीबों के लिये आज जीने की जगह तो है ही नहीं, कम से कम शान्ति से मरने की जगह तो हो परन्तु राजनेता नाटक करते हैं। सरकार की नीति ही स्वांग करना, साँग करना है — “स्वास्थ्य आपके द्वार” — और हमें कठपुतलियाँ बनाने पर जोर है। स्थानान्तरण की तलवार प्रत्येक सरकारी कर्मचारी पर हर समय लटकती ही रहती है — मैंने भी भुगता है और मैनेज किया है। वैसे, सत्ता के निकट होने का रुतबा मैंने भी कुछ महसूस किया है परन्तु मेरे सचेत प्रयास रहे हैं कि निज हित में उसका कोई उपयोग नहीं करूँ।

सरकारी नौकरी में विशेषज्ञता का सामान्य तौर पर कोई अर्थ नहीं है — सन् 1940 वाला ढर्रा ही चल रहा है। कहीं भी ड्युटी लगा देते हैं। शिफ्टों में ड्युटी मुझे बिलकुल रास नहीं आती पर करनी पड़ी है। हालाँकि काम के घण्टे बढाने की कसरत चल रही है पर शुक्र मनाता हूँ कि अभी अस्पतालों में सामान्य तौर पर चिकित्सकों की ड्युटी 6 घण्टे की है। सैंकड़े की सँख्या में मरीजों को निपटाना …

पुराना अथवा बूढा हो गया हूँ शायद। सहकर्मी चिकित्सकों में हिसाब लगाने की बढती प्रवृति से दुख होता है — मरीज 100-200-500 दे अन्यथा टालना-झिड़कना! दस साल पहले ऐसे पैसे लेने को गलत मानने वाले चिकित्सक 30-40 प्रतिशत थे पर अब मात्र 10-15 प्रतिशत रह गये हैं। मेडिकल कालेज में सोचता था कि जहाँ रहूँगा वहाँ मिल कर ऐसी प्रवृति को रोकेंगे लेकिन अब स्वयं को कमजोर, असहाय पाता हूँ। इन हालात में मुखरता से विरोध करने का कोई मतलब नहीं लगता।

डॉक्टरों में धन्धेबाजी बढती जा रही है। जानबूझ कर गलत फैसले लेना — ऑपरेशन की जरूरत नहीं है फिर भी ऑपरेशन करना क्योंकि ज्यादा पैसे मिलेंगे! कार, मकान, कम्प्युटर, बच्चे महँगे विद्यालयों में, सम्पत्ति की ख्वाहिशें … बेइमानी करके भी किस्तों में दिक्कत। आपसी रिश्तों में तनातनी और टकराव बढे हैं।

2 अथवा 3 बजे ड्युटी समाप्त। बाई भोजन तैयार किये रहती है — पत्नी और मैं इकट्ठे खाना खाते हैं। गर्मियों में भोजन उपरान्त दो-ढाई घण्टे सोता हूँ। अपनी स्वयं की दिनचर्या नियमित करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती परन्तु जहाँ अन्य का संग आवश्यक होता है वहाँ चीजें अनियमित हो ही जाती हैं। मैं अकेला तैर लेता हूँ पर वालीबाल तो अकेला नहीं खेल सकता! सहकर्मी चिकित्सक ड्युटी के बाद किसी न किसी धन्धे में जुट जाते हैं। काफी लोग कोशिश करते रहते हैं कि मैं भी कोई कारोबार करूँ परन्तु मैंने समझा व तय किया हुआ है कि समय मुझे खुद को चाहिये। ड्युटी के बाद के समय को मैं पैसे कमाने में लगाने से साफ-साफ इनकार करता हूँ।

मेरा बचपन अभावों से घिरा था। सर्दियों में स्वेटर नहीं होती थी — सर्दियों में स्वेटर तो होनी ही चाहिये, मुझे गरीब नहीं होना चाहिये! परन्तु कार-बँगले-नौकर की कभी ख्वाहिश नहीं रही। मेडिकल कालेज के खर्चे के लिये परिवार को जमीन गिरवी रखनी पड़ी थी। अब वाले खर्चे होते तो मेडिकल कालेज जाता ही नहीं। और, नौकरी के लिये डॉक्टरों से अब वाली 5 लाख रुपये रिश्वत ली जा रही होती तो मैं सरकारी नौकरी में नहीं होता।

मेरी प्रेरणा मेरी माँ रही हैं। लड़कियों-महिलाओं का जमघट लगा रहता था माँ के इर्द-गिर्द और वे कपड़ा बुनने, अच्छा भोजन बनाने, नृत्य … में सहयोग-सहायता-सुझाव देती रहती थी। दुनियाँ में बहुत कुछ हो रहा है जिसमें मैं योगदान दे सकता हूँ। मेरी दिली इच्छा सकारात्मक योगदान की रहती है। चीजें सुधरती हैं तो मुझे अच्छा लगता है। लोगों को सहायता करने में मुझे मजा आता है हालाँकि दुनियादारी के उलट मेरी यह प्रवृति पत्नी को पसन्द नहीं है। एक सहृदय-समझदार व्यक्ति वाली पहचान प्राप्त करने की मेरी चाहत है। किसी का मुझ पर दया दिखाना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है। मैं कमजोरी के आधार पर नहीं बल्कि अपनी खूबियों के आधार पर पहचान चाहता हूँ।

मेडिकल कालेज में ही मैंने स्वास्थ्य की समस्याओं पर अध्ययन आरम्भ कर दिया था। मेरा जोर सामुदायिक स्वास्थ्य पर रहा है जिसमें उपचार एक अंश है। स्वास्थ्य की देखभाल में समुदाय की भागीदारी द्वारा भ्रष्टाचार, लापरवाही आदि से आसानी से निपटा जा सकता है। इन वर्षों के अनुभव के दृष्टिगत इसमें मुझे अब खतरा यह नजर आता है कि समुदाय की भागीदारी का अर्थ समुदाय में दबदबे वालों की भागीदारी बन कर कमजोर लोगों के लिये फिर कोई स्थान नहीं बचता। स्वास्थ्य पहले अथवा समाज परिवर्तन पहले? समाज परिवर्तन … लेकिन जो समाज बदलने के ठेकेदार बने हैं वे मुझे ऐसा करने में अक्षम लगते हैं। ये मठ हैं, अपने ढाँचे को बनाये रखना इनकी प्राथमिकता है। इसलिये समाज परिवर्तन के क्षेत्र में यह महत्वहीन हैं — पार्टियों से लड़ाई करने अथवा दोस्ती करने में कोई तुक नहीं है। इन्हें अनदेखा करना ही मुझे उचित लगता है। विवेक अनुसार व्यवहार नई राहें खोलेगा।

तैराकी-टहलने-खेलने के बाद शाम साढे छह बजे चाय-नाश्ता करता हूँ। फिर कुछ देर टी.वी. और जरूरत हुई तो बाजार जाना। रात के भोजन से पहले पड़ोसियों के साथ एक घण्टा बैठता, बातचीत करता हूँ। रात का भोजन पत्नी तैयार करती हैं और 9 बजे खाना खा कर साढे दस तक टी.वी.। ग्यारह बजे हम सो जाते हैं।

उगता सूर्य मेरे मन को उल्लास से भर देता है। सुबह सैर करने को मिल जाता है तब मन विचारमग्न हो जाता है। ताज्जुब होता है कि 1987 तक भारत सरकार की कोई औषधी नीति ही नहीं थी। मात्र एक अधिनियम था जिसके तहत दस्तावेज में दर्ज दवाइयों की बिक्री का प्रावधान था। दवाइयों के मूल्यों पर कोई नियन्त्रण नहीं था और 1987 के औषधी मूल्य नियन्त्रण आदेश का देशी-विदेशी, राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कम्पनियों ने मिल कर विरोध किया। कम्पनियों के विरोध के कारण 1987 में सिर्फ 260 दवाइयों पर ही आदेश लागू हुआ और हर दो वर्ष में समीक्षा के चलते आज मात्र 80 दवाइयाँ ही इसके दायरे में हैं। जानते हैं आदेश का दायरा? उत्पादन के खर्च से 50 से 500 प्रतिशत अधिक तक ही दवा पर मूल्य अंकित करना! और, उत्पादन खर्च में थे : दवा के उत्पादन का वास्तविक खर्च + अनुसन्धान के खर्च + पेटेन्ट करने के खर्च + ब्राण्ड नाम के खर्च। जेनरिक नाम और ब्राण्ड नाम का भेद अपने आप में अजूबा है। ज्वर-हरारत की दवा पैरासिटामोल की टिकिया का मूल्य 16 पैसे है। पैरासिटामोल दवा का जेनरिक नाम है। इसी पैरासिटामोल की गोली क्रोसिन के ब्राण्ड नाम से 56 पैसे की हो जाती है! ब्राण्ड नाम प्रचारित करने वाले फिल्मी सितारों, क्रिकेट स्टारों के लटके-झटके जनता को बहुत महँगे पड़ते हैं।

उत्पादन तो उत्पादन रहा, वितरण भी देख लीजिये। पन्द्रह वर्ष पहले दवा कम्पनियों के प्रतिनिधि चिकित्सकों को सैम्पल देते थे जिनकी परख दवा की बिक्री का एक आधार बनती थी। अब मेडिकल रिप्रेजेन्टिव दवाइयों के सैम्पल नहीं बाँटते बल्कि डॉक्टरों को मैनेज करते हैं — गाड़ी चाहिये तो वर्ष में इतने लाख की दवा बिकवाइये, विदेश सैर-सपाटे के लिये इतनी दवा बिकवाइये, मोबाइल और उसका खर्चा, नकद! डॉक्टरों के सम्मेलनों की प्रायोजक दवा कम्पनियाँ होती हैं और प्रत्येक डॉक्टर को भोजन, मद्य एवं अन्य पेय, उपहार देने के संग-संग चुने हुये डॉक्टरों के होटल व परिवहन का प्रबन्ध भी करती हैं। परिणामस्वरूप 40 से 50 प्रतिशत दवायें जो निजी चिकित्सक अथवा प्रेरित सरकारी डॉक्टर लिखते हैं उनकी उपचार में आवश्यकता ही नहीं होती। मरीज को दी जाती आधी दवाइयाँ फालतू होती हैं! आप इस पर भी ताज्जुब करोगे कि एक हजार पेटेन्ट दवाइयाँ अंकित मूल्य के एक तिहाई पर थोक में उपलब्ध हैं — लोकल दवाओं का जिक्र नहीं है यह। अंकित मूल्य के एक तिहाई पर सप्लाई के बाद भी पेटेन्ट दवा निर्माता कम्पनियाँ आर्डर दिलवाने के लिये कमीशन देने को तैयार रहती हैं! जनता की जेब पर डाका … डाका छोटा शब्द लगता है। और, स्वास्थ्य की मुफ्त देखभाल की अवधारणा को ही धराशायी करने के लिये यूरोपियन यूनियन ने हरियाणा सरकार को 20 करोड़ रुपये दिये हैं। लोगों में यह भावना पैदा करो कि चिकित्सा के लिये लोग पैसे दें, फ्री कुछ भी नहीं है, मरने के लिये भी पैसे देने होंगे …

बीमारियाँ क्यों हो रही हैं? इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ध्यान बस उपचार पर है … जेब पर है।टेक्नोलॉजी, कम्प्युटरों को देखता हूँ तो सब के लिये पर्याप्त चिकित्सा प्रबन्ध व स्वास्थ्य की देखभाल सम्भव लगती हैं। परन्तु समाज व्यवस्था को देखता हूँ तो … तो भी सुधार की मेरी इच्छा दम नहीं तोड़ती : लोग चैन से जी तो नहीं सकते फिर भी शान्ति से लोग मर तो सकें इसके प्रबन्ध में मैं आज के कर्णधारों को सहयोग देने को तैयार रहता हूँ, इनके स्वांग-साँग को भी झेल लेता हूँ। (जारी)

        (मजदूर समाचार, नवम्बर 2003)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (5)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का दसवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जुलाई 2003 अंक से है।

ओखला (दिल्ली) में काम करता 35 वर्षीय मजदूर : दो साल ही हुये हैं मुझे मजदूर बने। दो वर्षों में ही मैं सिले-कढे वस्त्रों का निर्यात के लिये उत्पादन करने वाली चार फैक्ट्रियों में काम कर चुका हूँ तथा पाँचवीं में काम कर रहा हूँ। मैं फरीदाबाद में इविनिक्स एक्सपोर्ट, सागा एक्सपोर्ट, पी-एम्परो एक्सपोर्ट तथा नोएडा में ओरियन्ट क्राफ्ट में काम कर चुकने के बाद अब ओखला फेज-1 में एक फैक्ट्री में सिलाई कारीगर हूँ। दौर ही ऐसा आ गया है कि 4 महीने यहाँ काम करो और 6 महीने वहाँ — कम्पनियों ने मजदूरों को परमानेन्ट करना बन्द कर दिया है।

नौकरी करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। मैंने क्या-क्या और कहाँ-कहाँ धन्धे किये! लेकिन इस समय छोटे धन्धों के जो हाल हैं उन्हें देखते हुये नौकरी ही ठीक लगती है क्योंकि छोटे धन्धे चल नहीं पा रहे।

आरम्भ हृदय रोग से

गोरखपुर जिले के गाँव में मैं दसवीं में पढता था तब मेरे सीने में दर्द होने लगा था। जगह-जगह जाँच/इलाज करवाने के बाद दिल्ली में मेडिकल में जाँच में मेरे हृदय का वाल्व सिकुड़ा पाया गया। मामला गम्भीर — 1987 में मेडिकल में मेरे हृदय की बाईपास सर्जरी हुई। ऑपरेशन सफल रहा। छह-सात हजार रुपये खर्च हुये — आज की तरह एक लाख से ऊपर लगते तो मैं मर चुका होता।

धन्धे-दर-धन्धे

ठीक होने के बाद मैंने 12वीं की और आगे इसलिये नहीं पढा कि हृदय ऑपरेशन के कारण सरकारी नौकरी तो मिलेगी नहीं। कमाई के लिये 1989 में मैं बम्बई गया। वहाँ भिवंडी में गाँव के परिचित की कपड़े की दुकान पर एक महीने ही नौकरी कर पाया। ताबेदारी की जलालत और चौतरफा गन्दगी के मारे मैं अपने चचेरे भाई के पास पूना चला गया। भाई एक बेकरी में रहते थे और सुबह 5 से 7 बजे तक पाव-बिस्कुट बेचते थे तथा शाम को फुटपाथ पर कपड़े की दुकान लगाते थे। बम्बई में नौकरी में कमाये दो सौ रुपये से मैंने पूना में पटरी पर महिलाओं का सिंगार सामान बेचने का धन्धा शुरू किया। छह महीने बाद मैं जूते-चप्पल बेचने लगा और साल-भर वह करने के बाद कपड़े बेचना शुरू किया। पहले-पहल पटरी दुकानदारों को ज्यादा परेशानी नहीं थी, बस नगर निगम की गाड़ी दिखती थी तब हम सामान बटोर कर गलियों में भाग जाते थे। लेकिन नगर निगम ज्यादा परेशान करने लगा तो 1991 के अन्त में मैं पूना छोड़ कर अपने भाई के पास गुड़गाँव पहुँचा।

दिल्ली की आजादपुर सब्जी मण्डी से हफ्ते की हफ्ते बोरी-पेटियाँ उठा कर मैं गुड़गाँव में रेहड़ी पर सब्जी बेचने लगा। मेहनत बहुत थी और दो बन्दे चाहियें थे पर मुझे अकेले करना पड़ा — फरीदाबाद में फ्लाईव्हील फैक्ट्री बन्द हो जाने के बाद भाई गुड़गाँव में एक फैक्ट्री में लगा था। पाँच महीने बाद मैंने सब्जी बेचनी बन्द कर दी और फरीदाबाद आ गया — यहाँ भाई की झुग्गी थी।

चाँदनी चौक, दिल्ली में कपड़े की थोक मण्डी से माल खरीद कर मैं फरीदाबाद में पटरी पर शर्ट-पैन्ट पीस बेचने लगा और साल-भर यह किया। फिर गोरखपुर में गाँव की बगल में एक बन्दे के प्रोत्साहन पर धन्धा करने थाइलैण्ड की राजधानी बैंकाक गया — 1994 में पासपोर्ट, 4 महीने के टूरिस्ट वीजा और विमान यात्रा टिकट पर 12 हजार रुपये खर्च आया था।

धन्धे बैंकाक में

भ्रमण की आड़ में बहुत लोग धन्धे करते हैं और ऐसा करने हम 4 बन्दे 1994 में बैंकाक गये। हमें साथ ले गया बन्दा वहाँ फेरी लगा कर मच्छरदानी बेचता था। हम चारों एक कमरे में रुके। हमें थाई भाषा नहीं आती थी, कोई मदद करने वाले नहीं थे और हम खो से गये — 10-15 दिन ऐसे ही निकल गये। हमारे पास पैसे बिलकुल नहीं बचे थे और हमें साथ ले जाने वाला भोजन के सिवा हमारी कोई सहायता नहीं कर रहा था। भारत से बैंकाक जा कर बस गये एक बन्दे ने ऐसे में मुझे धन्धा शुरू करने के लिये एक सौ रुपये दिये और थोड़ी थाई भाषा भी सिखाई। मैंने 50 रुपये में बच्चों के खाने की चीजें ले कर स्कूलों के सामने बेचनी शुरू की। फिर मैंने फेरी लगा कर कच्छे बेचे और उसके बाद घूम-घूम कर कमीज, टी-शर्ट, पैन्ट-कोट बेचे। टूरिस्ट वीजा पर धन्धा करना अवैध होता है इसलिये एक स्थान पर टिक कर नहीं बेचता था।

भ्रमण वीजा नवीनीकरण के लिये दो महीने बाद एक एजेन्सी के जरिये अपने जैसे 15 लोगों के साथ थाईलैण्ड की सीमा पार कर लाओस गया। वहाँ हफ्ते-भर नाचने-गाने के दौरान दूतावास से मोहर लगवा कर दो महीने वीजा बढवाया और फिर बैंकाक लौट कर धन्धा शुरू किया। लाओस जाने-ठहरने-लौटने का खर्च एजेन्सी 4 हजार रुपये प्रति व्यक्ति लेती थी और हर दो महीने बाद हमें यह करना पड़ता था। इस प्रकार मैंने बैंकाक में साल-भर गुजारा।

मेरे जैसे बहुत लोग यह सब कर रहे थे कि मार्च 1995 में थाई सरकार ने हम लोगों की तुरन्त गिरफ्तारी के आदेश दिये। रात-दिन छापे पड़ने लगे और कई लोग जेल में डाल दिये गये। एक हफ्ते तक तो मैं कमरे से नहीं निकला। फिर एक दिन बस से माल समेत उतरा ही था कि खुफिया पुलिस ने मुझे पकड़ लिया और थाने ले गई। बैंकाक बसे बन्दे की सहायता से मैं जस-तस छूटा और फिर धन्धा करने लगा। लेकिन थाईलैण्ड सरकार ने वीजा नवीनीकरण का समय दो की जगह एक महीना कर दिया। ऐसे में बैंकाक 11 महीने रहने के बाद मैं लौट आया। थाईलैण्ड में लोग हँस कर बोलना पसन्द करते हैं और फेरी लगा कर डरते-डरते सामान बेचते हुये भी मुझे वहाँ अच्छा लगा।

ठेकेदारी भी की

बैंकाक से लौट कर कुछ दिन गाँव रह कर फरीदाबाद आ गया। पटरी पर पुनः कपड़े बेचना शुरू किया। उसे छोड़ एक फैक्ट्री से ढले एल्युमिनियम की फाइलिंग का ठेका लिया। उसे छोड़ फिर पटरी पर कपड़े बेचने लगा। फिर सिले-कढे वस्त्रों का निर्यात करती फैक्ट्रियों से पीस रेट पर हाथ की कढाई का काम ला कर झुग्गियों में औरतों से करवाया … और 2002 के आने तक मैं स्वयं मजदूर बन गया।

मजदूर के नाते दिनचर्या

गाँव में कुछ खेती है — पत्नी व बच्चे वहाँ रहते हैं तथा मैं यहाँ झुग्गियों में रहता हूँ। जब धन्धे करता था तब 7-8 बजे उठता था लेकिन अब सुबह सही साढे पाँच बजे उठ जाता हूँ। बाहर खुले में टट्टी जाना पड़ता है। फिर साढे छह तक भोजन तैयार कर लेता हूँ। नहा-खा कर तैयार हो सवा सात बजे स्टेशन के लिये निकल पड़ता हूँ और 7:40 की गाड़ी पकड़ता हूँ।

ट्रेन में बहुत भीड़ होती है। तुगलकाबाद स्टेशन पर 8:10 तक गाड़ी पहुँच जाती है। विशाल रेलवे यार्ड की लाइनें पार कर तेखण्ड पहुँचने में 20 मिनट लग जाते हैं और फिर उसके आगे फैक्ट्री पहुँचने में 15 मिनट। पौने नौ कम्पनी पहुँच कर मैं गेट पर चाय की दुकान पर दस मिनट अखबार पढता हूँ — चाय नहीं पीता। नौ में 5 मिनट रहते हैं तब पहली घण्टी बजती है और मैं गेट पर कार्ड पंच कर अन्दर जा कर मशीन साफ करता हूँ। नौ बजे दूसरी घण्टी बजती है और काम शुरू हो जाता है।

9 से साढे बारह बजे तक कोई ब्रेक नहीं, चाय-वाय कुछ नहीं, लगातार काम करना पड़ता है। मैं उत्पादन कार्य में हूँ। सुपरवाइजर तथा इन्चार्ज लाइन पर घूमते रहते हैं, सिर पर खड़े रहते हैं — टारगेट चाहिये! हमारे दिमाग में टारगेट पूरा करना ही घूमता रहता है।

काम चेन सिस्टम से होता है। कमीज को ही लें तो कोई कॉलर का कच्चा काम करेगा, कोई फिर पक्का, कोई साइड जोड़ेगी, कोई जेब … एक कमीज 22-25 कारीगरों के हाथों से गुजर कर बनती है जबकि कपड़ा हमें कम्पनी की दूसरी फैक्ट्री से कटा हुआ मिलता है। उत्पादन के बाद फिनिशिंग में भी एक कमीज 25-30 के हाथों से गुजरती है। हर कमीज को तैयार करने में 50-55 मजदूरों के हाथ तो सिलाई-सफाई में ही लगते हैं। स्त्री व पुरुष मजदूर लाइन पर अगल-बगल में काम करते हैं और जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ तीस प्रतिशत महिलायें हैं। स्टाइल अनुसार आठ घण्टे में 800-1000-1200 कमीजों का दिया हुआ हिस्सा प्रत्येक कारीगर को तैयार करना पड़ता है। महीने में दो-तीन स्टाइल बदलती हैं।

साढे बारह से एक भोजन अवकाश। फैक्ट्री में कैन्टीन नहीं है। उत्पादन कार्य तहखाने में होता है और फैक्ट्री की तीसरी मंजिल के ऊपर एस्बेसटोस चद्दरें डाल कर भोजन के लिये कम्पनी ने मेज-कुर्सी लगाई हैं। ज्यादातर मजदूर खाना साथ लाते हैं। हाथ धोने, पानी लेने, भोजन करने में ही आधा घण्टा निकल जाता है — बातचीत के लिये समय होता ही नहीं।

एक बजे घण्टी बजती है और मशीनों पर काम शुरू हो जाता है तथा पौने चार तक लगातार चलता है। तब 15 मिनट का पहला टी-ब्रेक होता है और फैक्ट्री से बाहर निकल कर हम चटपट चाय पीते हैं। चार बजे फिर शुरू हो कर साढे पाँच तक काम चलता है। ओवर टाइम लगता है तब पौने छह बजे 15 मिनट चाय पीने के लिये देते हैं और फिर रात साढे आठ तक काम होता है। ओवर टाइम के पैसे सिंगल रेट से देते हैं। वैसे, जो आर्डर देते हैं, अमरीका-रूस-जर्मनी-जापान के बायर हैं उनका निर्देश है कि ओवर टाइम नहीं होगा। उनके निर्देश तो कार्य के वक्त टोपी व मास्क पहनने, सूई से रक्त निकलने पर दवाई, आदि-आदि के भी हैं। चार-छह महीने में उनका दौरा होता है तब दो-चार दिन के लिये यह सब तामझाम होता है और मैनेजर के कहे अनुसार उत्तर देने वाले लोग भी तैयार रखे जाते हैं।

गाड़ी की वजह से फरीदाबाद वाले वरकरों का ओवर टाइम साढे सात तक होता है। जो हो, थकावट के कारण स्टेशन पहुँचने में सुबह के 35 की जगह 40 मिनट लग जाते हैं। पौने सात अथवा 8:20 की गाड़ी से 7:10 अथवा पौने नौ बजे रात यहाँ स्टेशन पर उतरता हूँ और फिर थके जिस्म से बीस मिनट पैदल मार्च।

मण्डी से सब्जी लाना, दुकान पर अखबार पलटना, कपड़े धोना … यह तो शुक्र है कि मुझे रात का भोजन नहीं बनाना पड़ता। झुग्गियों में ही रहती मेरी बहन बना देती है और मैं उसे महीने में खुराकी के 300-350 रुपये दे देता हूँ। यह भी शुक्र है कि पीने के पानी का एक डिब्बा पड़ोसी रोज भर देते हैं। नहाने-धोने के लिये 3-4 ड्रम मैं हफ्ते में एक दिन भरता हूँ।

रात को 9-10 बजे भोजन करता हूँ और 11 बजे तक सो जाता हूँ।

चिन्ता-चिन्तन

अपने लिये समय कहाँ मिलता है। सारा टाइम तो खत्म हो गया — सुबह साढे पाँच से रात ग्यारह!

परिवार गाँव में है। साल हो गया पत्नी और बच्चों से मिले। महीने में 800-1000 रुपये घर भेजता हूँ। थोड़ी खेती भी तो है।

दिमाग में ज्यादातर पीछे की बातें आती रहती हैं। पहले पैसे अधिक कमा रहा था और खर्चे कम थे जबकि अब खर्चे बढ गये हैं और कमाई कम हो गई है। मजदूर तो बन ही गया हूँ, अब आगे पता नहीं क्या होगा। सिले-कढे वस्त्रों के निर्यात की लाइन में अभी कारीगरों को तनखा समय पर मिल जाती है। लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी कम्पनियाँ नहीं देती और नौकरी से निकाले जाने तथा फिर लग जाने का तो अटूट-सा सिलसिला चल पड़ा है।

चौतरफा मजबूरी ही मजबूरी हैं ऐसे में अच्छा भला क्या लगेगा? मन तो बहुत-कुछ को करता है परन्तु मन माफिक तो कुछ होता नहीं। बुजुर्गों को दो पैसे के लिये धक्के खाते देखता हूँ तो मन को बहुत बुरा लगता है। ऐसे लगता है कि जिन्दगी बस एक टाइम पास बन गई है … आज रविवार की छुट्टी के दिन भी फैक्ट्री में काम करके आया हूँ।(जारी)

(मजदूर समाचार, जुलाई 2003)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (4)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का नौवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह मई 2003 अंक से है।

50 वर्षीय बिजली बोर्ड कर्मचारी : शिफ्टों में ड्युटी है। इस समय रात 11 बजे से सुबह 7 बजे तक की ड्युटी है लेकिन 9 बजे तक ही छूट पाता हूँ क्योंकि सुबह-सुबह लाइन पर लोड पड़ता है और कोई-न-कोई फाल्ट आ जाती है। हर शिफ्ट में स्टाफ कम है। पूरे आदमी हो नहीं पाते, मिल कर करना पड़ता है — इसलिये देरी से छूटते हैं।

थका होता हूँ इसलिये घर पहुँचने पर किसी चीज को मन नहीं करता। शारीरिक थकान तो इस आयु में स्वाभाविक है पर इधर तो दिमागी थकान ज्यादा होती है।

आजकल परिवार साथ है इसलिये अब घर आने पर चाय मिल जाती है। चाय पीने के बाद एक-दो घण्टा आराम करता हूँ। फिर नहा-खा कर एक बजे के करीब सो जाता हूँ।

बेशक मन नहीं करता पर 3-4 बजे उठना ही पड़ता है। कभी घर का शोर, कभी बाहर का शोर — नींद तो पूरी होती ही नहीं। इस कारण भी दिल-दिमाग दोनों अशान्त रहते हैं।

उठने के बाद कभी सब्जी ले आता हूँ तो कभी घर का अन्य सामान। इधर-उधर निकल गया 6 बजे तो लौटने में 8 तो बज ही जाते हैं। रात 8 बजे से ड्युटी की चिन्ता लग जाती है। रोटी तो आजकल बनी मिलती हैं इसलिये बनाने का अतिरिक्त झंझट नहीं है। लेकिन कभी कुछ तो
कभी कुछ लगा ही रहता है — कभी अपनी तबीयत खराब हो गई, कभी बच्चों की तबीयत खराब हो गई, डॉक्टर के पास जाना है। मौसम के लिहाज से कुछ न कुछ होता ही रहता है। जिस दिन इनमें समय देना पड़ता है उस दिन सब चीजों में कटौती करनी पड़ती है, आराम नहीं मिलता।

समय की पाबन्दी है। लाइन का कोई काम आयेगा तो जाना पड़ता है अन्यथा शिकायत केन्द्र पर हर समय उपस्थित रहना। ब्रेक डाउन होते ही अफसरों को सूचना देनी पड़ती है।

गर्मियों में रात में ज्यादा ब्रेक डाउन होते हैं।
आँधी-तूफान तो होते ही हैं, लोड भी ज्यादा होता है। रात एक-दो बजे भी जनता पहुँच जाती है। और यह तो जनता सहयोग देती है अन्यथा स्टाफ इतना कम है कि हम काम कर ही नहीं पायें।

सर्दियों में ब्रेक डाउन कम होते हैं लेकिन जब होते हैं तब ढूँढना मुश्किल होता है। धुन्ध से अतिरिक्त परेशानी होती है — दस मिनट का काम भी आधा घण्टे से ज्यादा ले लेता है और कभी-कभी तो रात-भर फाल्ट मिलता ही नहीं।

बरसात में ट्रान्सफार्मर जल जाते हैं। केबल फुँक जाते हैं। पेड़ गिर जाते हैं, तारें टूट जाती हैं। एक्सीडेन्ट का ज्यादा ही खतरा रहता है।

ज्यादातर वरकर व्यस्त रहते हैं। चर्चायें कम होती हैं — चर्चायें तो तब हों जब लोग खुश हों।

जब परिवार साथ नहीं होता तब रात शिफ्ट में जीवन बहुत-ही कठिन हो जाता है। सुबह आ कर सबसे पहले सफाई अभियान : झाडू, बर्तन, कपड़ा। पानी भरना। चाय दुकान पर पी कर आता हूँ।

सफाई के बाद खाना बनाने की तैयारी। रोटी के साथ कभी सब्जी बना ली तो कभी दुकान से दही ले आया। कभी खिचड़ी बना ली। इस सब में एक-डेढ बज जाते हैं। फिर एक-दो घण्टे आराम। उठ कर बर्तन साफ करना, सब्जी लाना। कभी साइकिल खराब है, कभी तबीयत खराब। इन्हीं चक्करों में 8 बज जाते हैं और फिर रात की ड्युटी की तैयारी।

अकेला जीवन बहुत मुश्किल से व्यतीत होता है — चाहे कोई शिफ्ट हो।

सुबह 7 बजे की शिफ्ट के लिये 5 बजे उठ जाता हूँ। अकेला होता हूँ तब हफ्ते में आधे दिन रोटी नहीं बना पाता। बिना चाय या नाश्ता या लन्च लिये ड्युटी जाना पड़ता है। इसका एक कारण उमर के साथ शरीर में आलस्य आ जाना है।

ड्युटी तो करनी पड़ती है, बेशक रोटी न मिले। होटल में खाना अथवा साथी लोग ले आये तो उनके साथ। परिवार साथ होता है तब रोटी मिल जाती है। दिन में काम ज्यादा होता है। तीन बजे की बजाय 4-5-6 बजे छूटते हैं। कोई-न-कोई ऐसा काम आ जाता है कि छोड़ नहीं सकते। (जारी)

        (मजदूर समाचार, मई 2003)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (3)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का आठवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह मार्च 2003 अंक से है।

42 वर्षीया महिला कर्मचारी : मैं बीस वर्ष से केन्द्र सरकार की नौकरी में हूँ। इस से पहले मैंने 5 साल अन्य नौकरियाँ की। दो पैसे के लिये ट्युशन तो मैं जब आठवीं में थी तभी से पढाने लगी थी । ग्यारहवीं करते ही मैं फैक्ट्री में लग गई थी। मैंने हिन्दुस्तान सिरिंज, एस्कॉर्ट्स 1 प्लान्ट, यूनिमैक्स लैब, बेलमोन्ट रबड़ और स्टेडकेम फैक्ट्रियों में नौकरी की। फैक्ट्रियों में काम करने के संग-संग मैंने पत्राचार से पढ़ाई जारी रखी और बी.कॉम. पूरी की। फिर मैं एक विद्यालय में शिक्षिका लगी और वहाँ पढाने के दौरान मेरी केन्द्र सरकार में नौकरी लगी।

मेरे पति भी सरकारी नौकरी में हैं और हमारे एक लड़का है। बोर्ड परीक्षा के कारण आजकल लड़के का स्कूल नहीं लगता और मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती इसलिये सुबह देर से उठती हूँ — 6:45-7 बजे। सात-आठ साल से साँस की तकलीफ है और इधर वर्ष-भर से एक बड़ा ऑपरेशन टला है, टाला है।

सरकारी नौकरी में भी बरसों सुबह 5 बजे उठना सामान्य रहा है। नाश्ता और दोपहर का भोजन बना कर लड़के को 7 बजे के स्कूल भेजना। फ्रिज ने रात को ही आटा गूंँथना और सब्जी काटना करवा कर उठना 5 की जगह साढे पाँच बजे कर दिया। बेटे को तैयार कर, झाडू-पोंछा व बर्तन साफ कर ड्युटी के लिये तैयार होती थी। धूल से बढती साँस की तकलीफ के कारण इधर तीन साल से घरों में काम करने वाली एक महिला झाडू-पोंछा करती है।

सोते-जागते हर समय ड्युटी की बात दिमाग में रहती है। सुबह उठने को मन नहीं करता पर उठना ही पड़ता है क्योंकि ड्युटी जाना होता है। दूध ला कर सुबह पति चाय बनाते हैं। मैं फिर नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाती हूँ। तैयार हो कर पौने नौ बजे दफ्तर के लिये निकल ही जाती हूँ। नौकरी तो नौकरी है — इसमें इच्छा वाली बात तो रहती ही नहीं। घर में कोई परेशानी हो चाहे स्वयं ठीक नहीं हो, ड्युटी तो पहुँचना होता है।

ड्युटी 9 से साढे पाँच बजे है। सबसे पहले तो हाजरी लगाने का रहता है। फिर अपना काम शुरू करना और उसी में लगे रहना। पहले पब्लिक डीलिंग थी, बीमारी के कारण अब तो मेरा सिर्फ टेबल वर्क है। इस से समय थोड़ा इधर-उधर कर सकती हूँ। इतना है कि आज मन नहीं है तो कल कर लेंगे पर ज्यादा नहीं टाल सकती।

दफ्तर में चाय पर कोई बन्दिश नहीं है, जब चाहो मँगा लो पर मेरी चाय पीने की आदत नहीं है। दोपहर का भोजन एक से डेढ और उस समय महिलायें व पुरुष अलग-अलग बैठते हैं। ऐसा ढर्रा बना हुआ है। महिला रैस्ट रूम में हम बच्चों की, घर-परिवार की, महँगाई की बातें करती हैं — कोई भजन सुना देती है। लेकिन हम में से 80 प्रतिशत 20 मिनट कमर सीधी करती हैं, झपकी
भी ले लेती हैं। इन बीस वर्षों में महिला कर्मचारी के नाते मुझे कोई दिक्कत नहीं आई है। अब तो दफ्तर में हम कई महिलायें हैं पर मैं पब्लिक डीलिंग में रही हूँ और उस समय पुरुष सहकर्मियों के बीच अकसर मैं अकेली महिला रही हूँ। परेशानी की बजाय महिला के नाते कई जगह तो मुझे विशेष ध्यान मिला है।

डेढ बजे से फिर टेबल वर्क जो कि साढे पाँच तक चलता है। सारे दिन कुर्सी पर बैठने से और काम से थकावट हो जाती है।

दफ्तर से सीधी घर आती हूँ। थकी-हारी को पति चाय पिलाते हैं। मैं रात का खाना बनाने तथा सुबह के भोजन की तैयारी में लगती हूँ। खाना खा कर दस बजे तक फारिग हो जाते हैं और फिर टी.वी.।

बचपन से ही समय ही नहीं मिला कि कोई रुचियाँ विकसित हो सकें। सब कुछ ढर्रे में इस कदर बन्ध गया है कि ज्यादा छुट्टियाँ हो जाती हैं तब पता ही नहीं चलता कि क्या करें — एक-दो दिन की छुट्टी में तो घर के बकाया पड़े काम ही निपट पाते हैं।

कोशिश रही है कि बेटे को हमारे जैसी परेशानियाँ नहीं हों। हम बहुत-ही सादा जीवन व्यतीत करते हैं। हम पति-पत्नी दोनों सरकारी नौकरी करते हैं और हमारे एक ही लड़का है लेकिन फिर भी हम पर कर्ज है। बेटे की बोर्ड परीक्षा से भी ज्यादा चिन्ता हमें उसके आगे दाखिले की है। सीट के लिये भुगतान करना पड़ा तो कैसे होगा? कर्ज लेने का मतलब होगा हम दोनों द्वारा पूरी जिन्दगी कर्ज उतारने के लिये कमाना। और फिर मेरा ऑपरेशन! समस्या हैं और मैं उसे समस्या मानती हूँ जिसके समाधान का रास्ता न सूझे।

समस्याओं में ही जीवन बीता है इसलिये रोजमर्रा की समस्याओं को तो मैं समस्या ही नहीं मानती। अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की — नौकरी के दौरान मैंने ज्यादा काम किया है और छुट्टी के दिन भी आराम करने के बजाय घर के काम निपटाती रही। इन वजहों से शायद मानसिक दबाव ज्यादा रहा है और इस वक्त तो कुल मिला कर यह है कि मैं अपनी सेहत से ही परेशान हूँ।

बचपन से ही अपनों-दूसरों की मदद करना अच्छा लगता है। क्यों अच्छा लगता है इसका कारण मुझे नहीं मालूम। कुर्सी पर बैठे कागज काले करने की बजाय मुझे लोगों से जीवन्त सम्बन्ध अच्छे लगते हैं। यह स्वभाव-सा रहा है कि किसी के काम को रोकना नहीं है, मेरे कारण कोई परेशान नहीं हो। इतने वर्ष की नौकरी में यह इच्छा कभी मन में नहीं आई कि मैं जिनका काम कर रही हूँ वे बदले में मुझे कुछ दें। बीस वर्ष में किसी से उसका काम करने के बदले में एक पैसा नहीं लिया है। और, इस सब में मुझे बहुत सन्तुष्टि मिली है। लेकिन पब्लिक डीलिंग में बहुत ऊर्जा चाहिये — बहुत ज्यादा बातें तो करनी ही पड़ती हैं, कई ऐसे भी मिल जाते हैं जो मानते ही नहीं कि मैं उनका काम करना चाहती हूँ और ऐसे में तनाव हो जाता है। बीमारी के कारण अब में टेबल वर्क करती हूँ और यहाँ भी मैं अपने कारण किसी को परेशान होते नहीं देख सकती। लेकिन सरकार तो स्वयं ही समस्या है …

24 वर्षीय कैजुअल वरकर : मैं 1997 में पहली बार फरीदाबाद आया था। ठेकेदार के जरिये पहले-पहल ऑटोपिन फैक्ट्री में लगा था। पहले महीने मैंने 13-14 दिन 16-16 घण्टे काम किया। मैंने 9 महीने ऑटोपिन फैक्ट्री में काम किया तथा बाद के महीनों में 6-7-8 दिन 16-16 घण्टे काम किया। फिर एक अन्य ठेकेदार के जरिये मैं टालब्रोस फैक्ट्री में लगा। यहाँ भी महीने में 6 दिन तो 16-16 घण्टे काम करने को मजबूर करते ही थे। सर्दियों में आने-जाने में बहुत दिक्कत होती थी — कुहासे में रेलवे फाटक पर और मथुरा रोड़ पर 3-4 एक्सीडेन्टों में खूनखच्चर देख कर मेरा मन खराब हो गया। ठण्ड में रात की ड्युटी और एक्सीडेन्टों के दृष्टिगत मैंने 4 महीने काम करने के बाद टालब्रोस में नौकरी छोड़ दी। फिर एक जान-पहचान वाले के जरिये मैं अनिल रबड फैक्ट्री में लगा। यहाँ पहली बार ऐसा हुआ कि भर्ती के समय मुझ से कोरे कागज पर हस्ताक्षर करवाये गये। यह भी सुना कि भर्ती के लिये अधिकारी 200 रुपये रिश्वत लेते हैं। अनिल रबड़ में महीने में 4 दिन ही 16-16 घण्टे काम किया। छह महीने बाद अनिल रबड़ में ब्रेक देने के बाद मैं एक्सप्रो फैक्ट्री में लगा। यहाँ महीने में 5 दिन 16- 16 घण्टे काम करना पड़ता था — 12 घण्टे बाद छोड़ने का तो सवाल ही नहीं था। एक्सप्रो में काम करने के दौरान मैंने आई.टी.आई. के बारे में सुना। छह महीने बाद एक्सप्रो में ब्रेक देने पर जून 1999 में मैं गाँव चला गया। उस साल आई.टी.आई. में दाखिला नहीं हो पाया, सन् 2000 में हुआ। जुलाई 2002 में आई.टी.आई. कर मैं लौटा हूँ और अब ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स में कैजुअल वरकर हूँ।

इस समय मेरी रात की शिफ्ट है। फैक्ट्री में तो बस लैट्रीन जाता हूँ। पैदल कमरे पर आता हूँ। हाथ-मुँह धो कर स्नान करता हूँ। चाय नहीं पीता। तब तक 9 बज जाते हैं और नाश्ते के लिये रोटी व आलू या मटर या गोभी की भुजिया बनाता हूँ। कभी-कभी ज्यादा थकान होती है तब सीधे भोजन बनाता हूँ — चावल, दाल के संग कुछ और। सामान्य तौर पर मैं 11 बजे सो जाता हूँ और शाम को साढे चार-पौने पाँच बजे उठता हूँ। नाश्ता करके सो गया तो दोपहर का खाना गायब। हाथ-मुँह धो कर सब्जी मण्डी जाता हूँ और वहाँ हल्का नाश्ता करता हूँ — अधिकतम 5 रुपये का। पाँच रुपये की सब्जी लेता हूँ और लौट कर बाल काटने की दुकान पर एक-डेढ घण्टे अखबार पढता हूँ। फिर कमरे पर एक-दो घण्टे पढाई करता हूँ — सामान्य ज्ञान, सामान्य विज्ञान, रेफ्रिजरेशन के अपने विषय से सम्बन्धित। रात नौ-साढ़े नौ तक भोजन बना लेता हूँ और खाने के बाद एक घण्टा आराम कर ड्युटी के लिये चल देता हूँ।

जाते ही फैक्ट्री गेट पर हाजरी। विभाग में सुपरवाइजर काम बताता है और दस्ताने व पेन्सिल इश्यु करता है। तीन ऑपरेटरों का उत्पादन मुझे चेक करना पड़ता है — कहीं दरार, कहीं गड्डे, कहीं बगल में नुक्स … ऑपरेटरों का दबाव रहता है कि रिजेक्ट कम करूँ और नौकरी का दायित्व है कि हिसाब से काम करूँ। यह काम पूरी रात लगातार चलता है, सुबह साढे सात बजे तक। ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स में रात की शिफ्ट में कोई लन्च ब्रेक नहीं, कोई चाय ब्रेक नहीं — लगातार 8 घण्टे काम! नींद का सवाल ही नहीं। मेटेरियल खराब हुआ तो 10-15 मिनट भी नहीं निकलते, माल का ढेर लग जाता है। मैटेरियल ठीक होता है तो दस-पाँच मिनट आराम मिलता है और इसी में टट्टी-पेशाब करते हैं अन्यथा साढे सात बजे शिफ्ट छूटने पर ही।

ओसवाल इलेक्ट्रिकल्स फैक्ट्री में 500 मजदूर काम करते हैं परन्तु कैन्टीन नहीं है। चाय पीने बाहर नहीं जा सकते, प्रतिबन्ध है। दो-चार मिल कर सुपरवाइजर से गेट पास के जरिये एक बन्दे को भेज कर रात-भर खुली रहती ईस्ट इण्डिया चौक की दुकानों से चाय मँगवाते हैं। सुपरवाइजर भी चाय पीने बाहर नहीं जा सकते। यही हाल टालब्रोस फैक्ट्री में भी रात की शिफ्ट में था — कोई लन्च ब्रेक नहीं, कोई चाय ब्रेक नहीं और कैन्टीन थी पर वह रात में बन्द रहती थी।

सप्ताह में शिफ्ट बदलती है। पिछले हफ्ते सुबह की शिफ्ट में था। तब सुबह 5 बजे उठता। लैट्रीन बाहर खुले में जाना। फिर नाश्ता-भोजन बनाना — 2 रोटी खाना और 4 बाँध लेना। सर्दी में सुबह नहाता नहीं। सुबह साढे सात से फैक्ट्री में रात की ही तरह काम। हाँ, दिन की शिफ्ट में साढ़े ग्यारह से बारह बजे लन्च होता है।

साढे तीन बजे छूट कर सीधा कमरे पर आना और पानी ला कर स्नान करना — सप्लाई का पानी ज्यादा ठण्डा नहीं होता। कुछ बचा हो तो नाश्ता करना अन्यथा कुछ बनाना। फारिग हो कर शाम की हवा खाने निकलना। एक नम्बर में एक पुस्तकालय में एक घण्टे 4-5 हिन्दी-अंँग्रेजी के अखबार पलट कर 7 बजे लौटना और फिर 1-2 घण्टे अपने विषय की पुस्तकें पढना। रात 9 बजे भोजन बना, खा-पी कर रात 11 बजे सो जाना।

अभी 15 दिन से सब काम खुद करना पड़ता है। पहले एक परिचित के परिवार को 600 रुपये महीना खुराकी के देता था।

सबसे ज्यादा गड़बड़ बी-शिफ्ट होती है। अब तो इसे भी अकेले ही भुगतना पड़ेगा। बी-शिफ्ट में फैक्ट्री से रात 12 बजे कमरे पर लौटता हूँ। नौ बजे का बना ठण्डा खाना इतनी रात गले उतरता नहीं और आहिस्ता-आहिस्ता खाने में एक बज जाता। फिर रात 2 बजे तक नींद नहीं आती। सुबह सात-साढे सात नींद खुलती है और देर के कारण खुले में लैट्रीन जाने में अतिरिक्त परेशानी। स्नान करते-करते 10 बज जाते हैं। नाश्ते के बाद तबीयत भारी हो जाती है और एक-डेढ घण्टे सो जाता हूँ। उठ कर साढे बारह-एक बजे भोजन और फिर ऐसे ही समय काटना। बी-शिफ्ट में अपना सब कुछ गड़बड़ा जाता है। शारीरिक क्षमता एकदम ढीली पड़ जाती है। यह सुस्ती साढे चार-पाँच बजे तक रहती है — ड्युटी करते घण्टा हो जाता है तब शरीर चुस्त होता है। बी-शिफ्ट में घूमना-पढ़ना सब बन्द हो जाता है।

मुझे बहुत ज्यादा अखरता है : फैक्ट्री में रहना, सुपरवाइजर का ज्यादा नुक्स निकालना और अतिरिक्त उपदेश देना। सहकर्मी पूछने पर बताने से इनकार करते हैं, उल्टा-सीधा जवाब देते हैं, अपने बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं तब मुझे बुरा लगता है। अफसरों का तो बोलने का ढंँग ही निराला है — वो लोग हमें इन्सान नहीं समझते, सी एन सी मशीन से भी तेज रफ्तार से हम से काम लेना चाहते हैं।

बाहर भी समस्या ही समस्या हैं। पानी के लिये, डाकखाने में, रेलवे स्टेशन पर … सब जगह लाइन ही लाइन। मुझे बहुत अखरती है लाइन।

यहाँ फिलहाल कोई दोस्त नहीं है, टेम्परेरी जैसे हैं — थोड़ी जान पहचान, थोड़ी बोलचाल। कभी-कभी बहुत अकेलापन महसूस होता है।

उत्सुकता वाला काम, घूमना, जानकारियाँ लेना मुझे अच्छे लगते हैं। लेकिन इस जमाने में ये कहाँ … (जारी)

(मजदूर समाचार, मार्च 2003)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (2)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का सातवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह फरवरी 2003 अंक से है।

मेरी आय 32 वर्ष है। मैं एक बड़ी कम्पनी में नौकरी करता हूँ। फरीदाबाद स्थित फैक्ट्रियों-दफ्तरों से भुगतान एकत्र कर दिल्ली कार्यालय में देना मेरा काम है। सप्ताह में 6 दिन ड्युटी है। महीने में 18-20 दिन दिल्ली जाना पड़ता है और उन दिनों सुबह 9 से रात साढे नौ बजे तक तथा अन्य दिनों 9 से 6 ड्युटीवश होता हूँ। कार्य ही ऐसा है कि शरीर बेढब होता जा रहा है। इधर 4 महीनों से मैं प्रतिदिन सुबह साढे पाँच बजे उठ जाता हूँ। ढेर-सारा पानी पीता हूँ और पेट साफ कर घूमने निकल जाता हूँ। आसपास के हम 5-7 लोग 4 किलोमीटर पैदल चलते हैं और आधा घण्टा व्यायाम करते हैं। घूमते समय रोज किसी-न-किसी विषय पर चर्चा होती है। यहाँ भी और अन्य जगहों पर भी मुझे बहुत तकलीफ होती है जब एक जैसे लोग आपस में ही बड़े होने के दिखावे करते हैं।

हम सब नौकरी करते हैं, सब स्टाफ में हैं — कोई परचेज में, कोई अकाउन्ट्स में, कोई सेल में। हम अपने को मजदूर नहीं मानते, हमारी परिभाषा में मजदूर वह है जो साइकिल पर जाता है, पीछे रोटी का डिब्बा टँगा होता है, मुँह में बीड़ी होती है। वैसे, ज्यादा काम और कम दाम से हम सब तँग रहते हैं — घर में कोई बीमार पड़ जाये तो हजार-डेढ हजार खर्च हो ही जाते हैं और ऐसे झटके से सम्भलने में कई महीने लग जाते हैं।

घूमने-व्यायाम से तरोताजा हो कर मैं सवा सात घर पहुँच जाता हूँ। पत्नी अकसर तब तक सोई होती है — साढे तीन और डेढ वर्ष के छोटे बच्चे हैं। पत्नी को उठाता हूँ और हम इकट्ठे चाय पीते व अखबार पढते हैं। महीने में 20 दिन चाय मैं बनाता हूँ। बच्चे जग जाते हैं तो हम चाय ही साथ पीते हैं और अखबार मैं अकेला ही पढता हूँ। साढे आठ बजे नहाता हूँ और तब तक बच्चे अमूमन उठ ही जाते हैं। उन्हें बहला-फुसला कर, कभी-कभी लड़की को रोती भी छोड़ कर पत्नी नाश्ता-खाना बनाती है। नाश्ता कर बैग उठा, बेटे को स्कूटर पर एक चक्कर लगवा कर 9 बजे मैं काम के लिये चल देता हूँ।

भुगतान लेना बहुत टेढा काम है — कहीं मशीन खराब है तो पहले मशीन ठीक करवाने की शर्त लगाते हैं; कई जगह कस्टमर के पैसे की तँगी होती है और बहाने पर बहाने बनाते हैं; कई जगह व्यवस्था इतनी लचर होती है कि पेमेन्ट उलझी रहती है। नववर्ष-दिवाली पर उपहार तो हर जगह माँगते हैं, कहीं-कहीं रिश्वत भी माँगते हैं। एक से दूसरी जगह, दिन-भर स्कूटर दौड़ाता हूँ। हर जगह जेन्टलमैन बन कर अन्दर जाना होता है — आजकल मफलर खोलना, दस्ताने उतारना, विन्डचीटर उतारना … टाई लगाना जरूरी है पर मैं लगाता नहीं, बैग में अवश्य रखता हूँ, दिल्ली ऑफिस में साँय 6 बजे जब घुसता हूँ तब टाई बाँधता हूँ। टाई वाला हम उसको मानते हैं जिसकी 20 हजार तनखा हो — मुझे 8 देते हैं, 20 देंगे तो टाई की सजा कुबूल है। जेन्टलमैन की परिभाषा है टाई।

हर जगह मुझे गेट पर पूछताछ और रजिस्टर में नाम-पता-काम दर्ज करने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अकाउन्ट्स विभाग में डीलिंग क्लर्क से मिलना। चेक बना हो तो लेना अन्यथा अगली तारीख। तीस में से 20 जगह तो चाय की पूछ ही लेते हैं और एक कस्टमर के यहाँ आधा-पौन घण्टा लग जाता है। एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा … कभी 1 बजे तो कभी 2 बजे भोजन करता हूँ और फिर वही फैक्ट्री-दफ्तर के चक्कर। काम ऐसा है कि ढील देना और तेज दौड़ना कुछ-कुछ अपने हाथ में है इसलिये मूड और अन्य कार्य के लिये समय इधर-उधर करने की कुछ गुंँजाइश रहती है। लेकिन काम का दबाव इतना रहता है कि मन हो चाहे न हो, कस्टमरों के पास जाना ही होता है। प्रतिदिन औसतन 30 के यहाँ चक्कर लगाता हूँ। पैसे की जरूरत तन व मन को मारती है और कम्पनी ने इन्सेन्टिव का लालच भी दे रखा है।

दिल्ली जाना होता है तब साढे चार बजे ओल्ड, टाउन अथवा बल्लभगढ स्टेशन पर स्कूटर रख कर गाड़ी पकड़ता हूँ। फिर बस से कम्पनी कार्यालय पहुँचता हूँ। वहाँ 8-10 अपने जैसे मिल जाते हैं। काम की रिपोर्ट देने और साहब की इस-उस बारे में बातें सुनने में एक-डेढ-दो घण्टे लग जाते हैं। वापस बस और ट्रेन पकड़ना। स्टेशन से स्कूटर उठाना और रात नौ-साढे नौ बजे घर पहुँचना।

बच्चे कभी सोये तो कभी जगे मिलते हैं। हाथ-मुँह धो कर 10 बजे भोजन करता हूँ। भोजन के बाद पहले हम दोनों रात को टहलने जाते थे पर अब सर्दी के कारण यह बन्द है। अब दिन की किसी बात पर चर्चा करते हैं और कुछ टी.वी. देखते हैं — पढता था तब गाँव से फरीदाबाद आ कर फिल्म देखता था पर अब चार साल में हॉल में एक भी फिल्म देखने नहीं गया हूँ, मन ही नहीं करता। नौकरी से मन ऊब गया है, नौकरी छोड़ने को मन करता है पर कहाँ जाऊँ। रात 11 बजे हम सो जाते हैं।
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अभी मैं 35 वर्ष की भी नहीं हुई हूँ। पति और बड़ा लड़का नौकरी करते हैं। मैं घर सम्भालती हूँ और सिलाई-कढाई से दो पैसे भी कमाती हूँ। हर रोज सुबह 5 बजे उठती हूँ। बाहर जंगल जाना — अन्धेरा होता है, सूअर से और गन्दे आदमी से डर लगता है (आदमी छुप कर बैठ जाता है)। मजबूरी है, हिम्मत जुटानी पड़ती है। जंगल से आने के बाद पानी भरना — भीड़ नहीं हुई तो 20 मिनट अन्यथा घण्टा लग जाता है।

पानी लाने के बाद बर्तन साफ करना, झाडू लगाना। फिर सब्जी काटना, मसाला पीसना — सिलबट्टे पर पीसती हूँ, तैयार किया हुआ इस्तेमाल नहीं करती। पति की ड्युटी अब ओखला में है और उन्हें 7:40 की गाड़ी पकड़वानी होती है। गैस पर एक तरफ सब्जी रखती हूँ और दूसरी तरफ आटा गूंँथ कर रोटी बनाती हूँ। कभी-कभी स्टोव पर साथ-साथ पानी गर्म करना क्योंकि दो बच्चों को स्कूल के लिये तैयार करना होता है। सब्जी तैयार होते ही चाय रख देती हूँ। पति को गाड़ी पकड़ने के लिये सवा सात घर से निकलना पड़ता है। बच्चे पौने आठ बजे निकलते हैं। सुबह-सुबह रोटी-सब्जी का नाश्ता करते हैं और फिर चाय पीते हैं। पति रोटी ले भी जाते हैं, बच्चे एक बजे आ कर खा लेते हैं।

सब को निपटाने के बाद चाय बचती है तो उसे गर्म करती हूँ अन्यथा फिर बनाती हूँ। चाय पीती हूँ, नाश्ते को मन नहीं करता। पानी गर्म कर नहाना। फिर बर्तन साफ करना, झाडू लगाना, बिस्तर ठीक करना। काम मैं बहुत जल्दी करती हूँ पर फिर भी 10-11बज जाते हैं, मेहमान आने पर और समय लग जाता है। एक-डेढ घण्टा आराम करती हूँ।

दोपहर को फिर पानी भरना — पानी तो तीनों टाइम भरना पड़ता है। फिर निनानवे का चक्कर : दस रुपये में पैजामा, पाँच में कच्छा, दस में पेटीकोट सीलती हूँ। फैक्ट्रियों से ठेकेदार कपड़े लाते हैं उन पर पीस रेट से कढाई करती हूँ। चार-पाँच बज जाते हैं। दूध और मण्डी से सब्जी लाती हूँ तब तक खाना-पानी के जुगाड़ में चौका-बर्तन का समय हो जाता है। सब मिला कर यह कि अपने शरीर का ध्यान नहीं रख पाती। अपने लिये समय नहीं मिलता।

बड़े लड़के की महीने में 15 दिन रात की ड्युटी भी रहती है। आज रात की ड्युटी है, रात 8 बजे घर से जाना है। मुझे 7 बजे तक भोजन तैयार करना है क्योंकि तुरन्त खा कर जाने में पेट दर्द करता है — एक घण्टा पहले खा कर, कुछ आराम करके जाता है। वह इस समय बीमार भी चल रहा है। उसकी ड्युटी 12 घण्टे की है : आज रात साढे आठ से कल सुबह साढे आठ बजे तक। लड़का 17 साल का है, हर रोज 12 घण्टे प्लास्टिक मोल्डिंग मशीन पर खड़ा रहता है। मुझे बहुत दुख होता है, मन करता है कि नौकरी छुड़वा दूँ पर मजबूरी है — घर पर कहाँ बैठा कर रखूँगी।

रात साढे नौ तक फारिग हो कर सब बिस्तर में और टी.वी. देखते हैं।

चिन्ता के कारण मुझे कभी-कभी रात-भर नींद नहीं आती। बीमार हो जाती हूँ तो सोचती रहती हूँ कि कौन मेरे लिये करेगा — सब तो ड्युटी वाले हैं, बच्चे स्कूल जाते हैं। किसी से मदद लो तो अड़ोसी-पड़ोसियों द्वारा गलत इल्जाम लगा दिये जान का डर रहता है। लड़की सयानी हो रही है, उसकी सोचती रहती हूँ। इतना बोझ ले कर चलना है। कैसे चलूँ? अभी तो आधी उम्र भी नहीं निकली। रक्तचाप-ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, बुरे-बुरे विचार आते हैं। मैं मर गई तो मेरे बच्चों का क्या होगा? अब किसी से मेलमिलाप को मन नहीं करता जबकि पहले मैं बहुत मेलजोल रखती थी। वैसे अब बेटी का बहुत सहारा हो गया है।

12-13 वर्ष की थी तब विवाह हो गया था और हम पति-पत्नी दो दोस्तों की तरह रहते हैं। बच्चे हमारा आदर करते हैं। मैं बार-बार अपने मन को समझाती हूँ कि बच्चे साथ देंगे — औरों की तरह शादी के बाद लड़के हमें नहीं छोड़ेंगे। लेकिन बुढापे में अकेले रह जाने का डर बना रहता है — पेट काट कर दो पैसे अलग से बचाने के चक्कर में रहती हूँ ताकि पैसे के लालच में ही सही, बच्चे बुढापे में हमारा ख्याल रखेंगे।

ज्यादा थक जाती हूँ तब चिड़चिड़ी भी हो जाती हूँ और सोचती हूँ कि जिन्दगी क्यों दी, इससे तो मौत भली। (जारी)

(मजदूर समाचार, फरवरी 2003)

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आप-हम क्या-क्या करते हैं … (1)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का छठा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जनवरी 2003 अंक से है।

# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?

# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।

# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।

# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अकसर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।

# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।

# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। कुछ मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की मोटा-मोटी झलक प्रस्तुत है।
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19 वर्ष का हूँ। 1999 से नौकरी कर रहा हूँ। इस समय लखानी शूज में कैजुअल वरकर हूँ। मित्र और मैं 250 रुपये किराये की झुग्गी में रहते हैं। बिजली नहीं है, छापों के डर से बगल वाले देते नहीं, दीये से काम चलाते हैं। ड्युटी जनरल शिफ्ट में है। सुबह साढे पाँच बजे उठता हूँ। बाहर बहुत गन्दगी में टट्टी जाना पड़ता है। फिर पानी की लाइन में लगता हूँ। मित्र भी कैजुअल वरकर है और ब्रेक के बाद इस समय रेहड़ी पर सब्जी बेचता है। वह उठते ही माल लेने सब्जी मण्डी भागता है। पानी भर कर मैं दोनों का खाना बनाता हूँ। स्टोव पर दो की दो टाइम की सब्जी-रोटी बनाने में एक घण्टा लग जाता है। भोजन बनाने के बाद नहाता हूँ और फिर खाना खाता हूँ।

साइकिल से 8 बजे ड्युटी के लिये चल पड़ता हूँ। फैक्ट्री गेट पर और फिर डिपार्टमेन्ट में, दो जगह हाजरी लगती है। साढे आठ बजे काम शुरू हो जाता है। चाय के लिये ब्रेक नहीं होता पर साढे नौ बजे कैन्टीन से चाय आती है और अपने पैसों से खरीद कर काम करते-करते चाय पीनी पड़ती है। बहुत मेहनत का काम है, हमेशा लगे रहो — तेल लगाना, गिनती कर डिब्बे में पैक करना, गाड़ी में लोड करना। सुपरवाइजर डाँटते, गाली देते रहते हैं।

पानी-पेशाब के लिये भी लखानी शूज में समय नहीं देते — छुप कर जाना पड़ता है। लन्च में कुछ राहत। साथ खाते हैं और बातें करते हैं। काम छोड़ने का मन करता है पर कहाँ जायें? सब के मन में विचार उठते रहते हैं। लेट के चक्कर में जिस दिन खाना नहीं बना पाता उस दिन कैन्टीन में खाता हूँ। दाल-चावल ही बनता है और 4 रुपये की आधा प्लेट देते हैं पर उससे पेट नहीं भरता, 8 रुपये के लेने पड़ते हैं। न घर पैसे भेज पा रहा हूँ और न अपना ही ठीक से चलता। लन्च के बाद हमें साढे पाँच घण्टे लगातार काम करना पड़ता है, चाय भी नहीं आती। ऐसे लगता है कि बन्ध गये हैं।

मेरा ओवर टाइम नहीं लगता, 5 बजे छूट कर सीधा कमरे पर आता हूँ और चाय बनाता हूँ। चाय पी कर थोड़ी देर इधर-उधर बैठता हूँ। साढे छह बजे पानी भरना, बर्तन धोना। सात बजे बाद खाना बनाता हूँ। मित्र के लौटने पर 9 बजे बाद भोजन करते हैं इसलिये खाना बना कर आसपास बैठता हूँ। कभी-कभार टी. वी. देख लेता हूँ। भोजन बाद बर्तन धोना और फिर साढे दस बजे तक हम सो जाते हैं।
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मैं बारहवीं की परीक्षा देने के बाद फैक्ट्री में लग गई थी। सुबह उठने को मन बिलकुल नहीं करता। माँ और पिताजी 5 बजे उठ कर सब्जी-रोटी बनाने में जुट जाते हैं। बार-बार आवाजें देने के बाद भी मैं सवा छह तक नहीं उठती और माँ की झिकझिक शुरू हो जाती है। कितनी ही अनिच्छा हो, साढे छह बजे तो उठना ही होता है। फिर ड्युटी की तैयारी की भागमभाग शुरू हो जाती है। माँ कुछ-न-कुछ बोलती-बोलती रोटी-सब्जी और चाय देती है। जल्दी-जल्दी खाती-पीती हूँ और टिफिन में रोटी-सब्जी रख कर सवा सात घर से निकल ही पड़ती हूँ। ऑटो के लिये दस मिनट पैदल चलना पड़ता है। एक ऑटो में हम दस लड़कियाँ फैक्ट्री जाती हैं। ऑटो वाला लेट होता है तब बहुत भगाता है और हमें डर लगता है — इन तीन वर्षों में मैंने काफी एक्सीडेन्ट देखे हैं। एक ऑटो के पलटने से मेरी बहन की सहेली को बहुत चोटें आई थी। ऑटो में सर्दी बहुत ज्यादा लगती है, गर्मी और बरसात में भी दुर्गत होती है।

हमारी ड्युटी सवा आठ बजे से है, हाजरी डिपार्टमेन्ट में लगती है। काम शुरू करने से पहले हमें भूतों वाली वर्दी पहननी पड़ती है। उत्पादन के लिये सुपरवाइजर बहुत डाँटते हैं और भद्दी-गन्दी भाषा इस्तेमाल करते हैं। कई लड़कियाँ तो रो पड़ती हैं। हम लड़कियों से ज्यादा उत्पादन करवा कर फिर लड़कों को डाँटते हैं और उन्हें भी उत्पादन बढाने को मजबूर करते हैं। कुछ लड़कियाँ डर से और कुछ लड़कियाँ इनसेन्टिव के लालच में काम में जुटी रहती हैं — कई दिन लन्च भी नहीं करती और घर लौटते समय ऑटो में रोटी खाती हैं। फैक्ट्री में ज्यादा और जल्दी काम करने के लिये हम पर भारी दबाव रहता है। कम्पनी में बात करना मना है। भारी घुटन होती है और अफसरों को हम खूब गालियाँ-बद्दुआयें देती हैं। हमारे हाथों का बुरा हाल हो जाता है। मेरी उँगलियों में हर रोज पाँच-छह बार तो सूइयाँ घुस ही जाती हैं। कभी-कभी तो बहुत ज्यादा खून निकलता है लेकिन कम्पनी उत्पादन-उत्पादन की रट लगाये रहती है। फैक्ट्री में लन्च के सिवा कोई ब्रेक नहीं होता — न सुबह और न शाम को चाय देते। पानी पीने के लिये भी पूछना पड़ता है, इन्ट्री करनी पड़ती है। हम लड़कियों को रोज आधा घण्टा ओवर टाइम करना पड़ता है — लड़कों का तो और भी बुरा हाल है। रविवार को भी हमें ड्युटी करनी पड़ती है। छुट्टी करने पर डाँटते-फटकारते तो हैं ही, महीने में पूर्ण उपस्थिति पर इनाम भी है। घर से सुबह सवा सात बजे की निकली मैं साढे छह बजे घर पहुँचती हूँ।

बहुत भूख लगी होती है और घर पहुँचते ही जो भोजन रखा होता है वह खाती हूँ। छोटे भाई पर अकसर अपनी भड़ास निकालती हूँ। रात का भोजन मुझे बनाना होता है — माँ भी ड्युटी करती है। रात के खाने के बर्तन धोती हूँ और फिर टी.वी.। सोने में 11 बज जाते हैं। (जारी)

(मजदूर समाचार, जनवरी 2003)

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… दरारें … दरारें … दरारें …

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2″ तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का पाँचवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह अप्रैल 2003 अंक से है।

◆ अफ्रीका महाद्वीप के धुर उत्तर में मोरक्को, अल्जीरिया, ट्युनिशिया, लिबिया और मिश्र देश-राज-सरकार हैं। फ्रान्स सरकार के कब्जे को चुनौती देते और नई सरकार के गठन को प्रयासरत सशस्त्र संघर्ष ने 1960 में अल्जीरिया को गरम खबर बना रखा था। तुर्की और इन्डोनेशिया की तर्ज पर इस्लाम धर्म के क्षेत्र अल्जीरिया में 1964 में धर्मनिरपेक्ष-सेक्युलर सरकार की स्थापना हुई। शीघ्र ही जन-असन्तोष नई सरकार के भी नियन्त्रण से बाहर होने लगा। चुनावों में धर्मनिरपेक्ष दल धार्मिक दल से पराजित हो गया तो उसने चुनावों को रद्द कर दिया और सेना की आड़ में सत्ता पर काबिज रहा। धार्मिक दल ने सत्ता के लिये हथियारबन्द संघर्ष शुरू कर दिया। इन दस वर्षों में धर्मनिरपेक्ष-सेक्युलर गिरोह और धार्मिक गिरोह के बीच सत्ता के लिये मारामारी चल रही है और जब-जब कत्ल सैंकड़ों में होते हैं तब-तब खबर बनते हैं। धर्मनिरपेक्ष सरकार को बचाये रखने और इस्लामी सरकार स्थापित करने के लिये हो रहे खूनखराबे से परे बहुत कुछ हो रहा है परन्तु प्रचारतन्त्र इसकी चर्चा से परहेज करते हैं। एक छोटी-सी पत्रिका, “विलफुल डिसओबिडियन्स” में अल्जीरिया में दो वर्ष से जारी एक जन उभार का संक्षिप्त विवरण है। पुरानी-नई रुकावटों से जूझती-निपटती जन गतिविधियाँ वर्तमान समाज व्यवस्था में दरारें डालती लगती हैं। पिटी-पिटाई लकीरों को ठुकराती और नई राहें तलाशती जन गतिविधियाँ विकल्पों के लिये, नये समाज की सृष्टि के लिये रचना सामग्री उपलब्ध करवाती लगती हैं। “आप-हम क्या-क्या करते हैं” में एक सुखद ब्रेक, वर्तमान के सामान्य दैनिक जीवन के स्वाभाविक अगले चरण की रूपरेखा के लिये आईये अल्जीरिया में अपने बन्धुओं से संवाद स्थापित करें।
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● राजधानी अल्जीयर्स से 70 किलोमीटर दूर अल्जीरिया के कबिलिया क्षेत्र के तिजि औजौ इलाके के बेनी-दौला में 18 अप्रैल 2001 को पुलिस ने एक छात्र की हत्या कर दी। विरोध हुआ, फैला और आक्रोश के विस्फोट हुये। लोगों ने थानों और सैनिक दस्तों पर आक्रमण किये। पत्थर फेंकने और काँच की बोतलों को एक चौथाई पैट्रोल से भर कर उनके सिरे पर आग लगा कर फेंक मारने जैसे सरल शस्त्रों से जनता ने हमले किये और पुलिस की गाड़ियों, थानों, न्यायालयों में आग लगा दी। सामुहिक आक्रोश का विस्तार हुआ और हर प्रकार के सरकारी कार्यालय तथा राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर लपेट लिये गये।

जन विप्लव-विद्रोह-बगावत-जन उभार में दसियों लाख लोग शामिल हो गये, सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र में फैल गया।

● मई 2001 के आरम्भ में जन उभार ने स्वयं को संगठित करने के प्रयास आरम्भ किये। समितियाँ-सभायें-परिषदें-टोलियाँ और इन सब के बीच तालमेलों की समस्याओं से लोग रूबरु हुये। तालमेलों के लिये जरिये आवश्यक और जरिया बनते लोगों के प्रतिनिधि-नुमाइन्दे-नेता बनने-बनाने के लफड़ों से निपटने का सिलसिला चला।

यह जन उभार सब सत्ताधारियों, सत्ता के दावेदारों, सत्ता के लिये आतुर लोगों के खिलाफ है।

● जन उभार को कुचलने में अल्जीरिया सरकार असफल रही। मध्य जून 2001 तक कबिलिया क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण का लगभग पूरी तरह सफाया हो गया। जन उभार को थामने-समेटने-भुनाने के वास्ते समाजवादी शक्तियों के मोर्चे (एफ.एफ.एस.) ने सैनिक राष्ट्रपति को “जनतान्त्रिक परिवर्तन” लाने में सहायता की पेशकश की।

● जनता द्वारा पुलिस का बहिष्कार : लोगों ने पुलिस को भोजन व अन्य सामग्री देने-बेचने से इनकार कर दिया। मजबूर हो कर सरकार को हैलिकॉप्टरों और भारी भरकम हथियारबन्द दस्तों की देखरेख में ट्रकों के काफिलों से कबिलिया क्षेत्र में अपने दस्तों को सामान भेजना पड़ा।

सरकार के हथियारबन्द दस्तों को घेरे, सामने डटे खड़े लोगों के हाथों में गत्तों पर लिखा था : “तुम हमारी हत्या नहीं कर सकते, हम तो पहले से ही लाशें हैं।”

● मौकापरस्तों ने जन उभार में घुसपैठ कर इसे अपने-अपने हितों में इस्तेमाल करने की कोशिशें की। जून 2001 के अन्त में जन समूहों की तालमेल समिति ने सरकार के प्रतिनिधि से मिलने से इनकार कर दिया। जुलाई 2001 के मध्य में तिजी औजौ के तालमेल-आर्च ने तालमेलों में जरिया बनते लोगों के लिये इज्जत-आबरू-प्रतिष्ठा-निष्ठा की एक प्रतिज्ञा तय की जिसके कुछ अंश यह हैं :

— किन्हीं भी ऐसी गतिविधियों अथवा कार्यों में लिप्त नहीं होना जिनका लक्ष्य सत्ता और उसके दलालों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष जोड़ बनाना हो।

— जन उभार को गुटीय हित में इस्तेमाल नहीं करना। इसे चुनावी प्रतियोगिताओं अथवा सत्ता पर कब्जे की अन्य किसी प्रक्रिया के लिये इस्तेमाल नहीं करना।

— सत्ता की संस्थाओं में किसी राजनीतिक नियुक्ति को स्वीकार नहीं करना।

सरकार-सत्ता मध्यस्थ, बिचौलिये ढूँढती-रचती है।

● वामपंथियों और यूनियनवालों द्वारा जन उभार में घुसपैठ कर उसका अपहरण कर अपने हितों में इस्तेमाल करने के प्रयासों को लोगों ने विफल कर दिया। 26 जुलाई 2001 को कबिलिया बन्द के दौरान “गद्दारों को भगाओ! यूनियनों को भगाओ!” व्यापक स्तर पर चर्चा में थे।

● सरकारी अधिकारियों ने तालमेलों के जरिये बने लोगों में से ऐसे लोगों से गुपचुप सम्पर्क करने आरम्भ कर दिये जो कि सरकार से समझौते के विचार का समर्थन करते थे। इस पर अगस्त 2001 के मध्य में सौमामा घाटी से लोगों ने सब सरकारी अधिकारियों को निकाल दिया। फिर शीघ्र ही सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र से समस्त सरकारी अधिकारियों को जनता ने निकाल बाहर किया। मुजाहीदीन मन्त्री को तिजी औजौ का दौरा रद्द करना पड़ा और गृहमन्त्री जब नये राज्यपाल को स्थापित करने पहुंँचा तो पत्थरों की बौछारों से उसका स्वागत हुआ।

● अक्टूबर 2001 के आरम्भ में बन्दियों की रिहाई, मुकदमें खत्म करने और पूरे क्षेत्र से पुलिस हटाने की डिमाण्डें राष्ट्रपति को देने के लिये आयोजित प्रदर्शन पर सरकार ने पाबन्दी लगा दी। प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिये सरकार ने भारी संँख्या में बगावत-विरोधी सशस्त्र दस्तों का प्रयोग किया। 11 अक्टूबर 2001 को तालमेल-आर्च और अन्य स्वयं-संगठित सभाओं तथा समितियों के अन्तर-क्षेत्रिय तालमेल ने निर्णय किया कि आगे से किसी भी सरकारी प्रतिनिधि को कोई भी डिमाण्ड-पत्र नहीं दिया जायेगा। यह भी फैसला हुआ कि मामला सौदेबाजी से पूर्णतः परे था तथा जो कोई भी सरकार से वार्ता करना स्वीकार करेंगे उनका बहिष्कार कर दिया जायेगा।

● जनता ने टैक्स देने और बिल भरने बन्द कर दिये। सेना में अनिवार्य भर्ती को लोगों ने अनदेखा कर दिया।

● 6 दिसम्बर 2001 को कुछ तालमेलों के जरियों ने तालमेल-आर्च के प्रतिनिधि-नुमाइन्दे होने का दावा कर सरकार के मुखिया से मिलने की योजना बनाई। विरोध में सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र बन्द। पुलिस बैरकों को घेर कर लोग बैठ गये और हिंसक भिड़न्तें हुई। अमिजौर में गैस कम्पनी, कर विभाग और मुजाहीदीन के राष्ट्रीय संगठन के कार्यालयों को जला दिया गया। एल कस्युर में न्यायालय और न्यायाधीशों के घरों पर हमले हुये।

समझौता मायने वर्तमान ही!

● ‘सड़क रोको’ जारी। 7 फरवरी 2002 को राजधानी में राष्ट्र संघ कार्यालय के बाहर तालमेल-आर्च के लोग गिरफ्तार। जनता ने पुलिस को बैरकों में सीमित कर रखा था। पुलिस फिर सड़कों पर निकलने लगी तो 12 फरवरी 2002 को सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र बन्द। लोग जगह-जगह पुलिस बैरकों के सामने जमा हुये और जगह-जगह पुलिस से झड़पें हुई।

● फरवरी 2002 के अन्त में राष्ट्रपति ने 30 मई को चुनावों की घोषणा की। जवाब में लोगों ने मतपेटियों और प्रशासनिक दस्तावेजों को कब्जे में ले कर जलाया। पुचकारने के लिये राष्ट्रपति ने क्षेत्र के दो प्रमुख शहरों से पुलिस हटा ली और समझौते की पेशकश की।

● जनता की “कोई समझौता नहीं” की बात पर सरकार द्वारा फिर बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के लिये अभियान। 25 मार्च 2002 को तिजी औजौ में सरकारी दस्तों ने उस थियेटर पर हमला बोला जिसे लोक तालमेल के कार्यालय के तौर पर प्रयोग किया जा रहा था। सरकार ने 400 “प्रतिनिधियों” के खिलाफ गिरफ्तारी वारन्ट जारी किये।

● बढते दमन का बढता विरोध : 20 मई 2002 को राष्ट्रपति अल्जीयर्स विश्वविद्यालय में गया तो छात्रों ने बन्दियों की रिहाई डिमाण्ड करते हुये पत्थरों की बौछारों से राष्ट्रपति का स्वागत किया। अगले दिन छात्रों ने विश्वविद्यालय पर कब्जा कर लिया।

● 30 मई 2002 के चुनाव में कबिलिया क्षेत्र में दो प्रतिशत से कम मतदान हुआ। लोगों ने गलियों में-सड़कों पर अवरोध लगाये, नगरपालिकाओं-शासकीय इमारतों-निर्वाचन कार्यालयों पर कब्जे किये और सड़कों पर जली हुई मतपेटियाँ बिखेर दी।

● जन उभार को पटरी से उतारने के लिये 19 जून 2002 को दो “नुमाइन्दों” की मध्यस्थता से सरकार ने एक प्रस्ताव तैयार कर बन्दियों को मिल कर उस पर चर्चा करने की अनुमति दी। जनता-जनार्दन ने उन “प्रतिनिधियों” को ठुकरा दिया। बन्दियों ने समझौते के लिये कैदियों की सशर्त रिहाई वाले उस प्रस्ताव पर चर्चा करने से इनकार कर दिया।

कोशिश-दर-कोशिश प्रतिनिधि-नुमाइन्दे-नेता पैदा करने की, बनने की।

● जन उभार के जारी रहने पर अगस्त 2002 में बन्दियों को रिहा कर अल्जीरिया सरकार ने अक्टूबर 2002 में फिर चुनाव करवाने की घोषणा की। फिर जगह-जगह जनता के पुलिस से टकराव हुये। समाजवादी शक्तियों के मोर्च (एफ.एफ.एस.) की चुनावों में शिरकत के बावजूद कबिलिया क्षेत्र में मात्र दस प्रतिशत मतदान हुआ।

● वर्ष में दूसरी बार चुनाव से भी सरकार की नैया पार नहीं हुई। अक्टूबर 2002 के अन्तिम सप्ताह से सरकार ने फिर जनता पर भारी आक्रमण आरम्भ किया हुआ है। सरकार के सशस्त्र दस्ते उन जगहों पर छापे मार रहे हैं जहाँ जनता सभायें करती है और तालमेल समूह मिलते हैं। गिरफ्तारियों और यातनाओं का रथ घूम रहा है। बन्दियों ने भूख हड़तालें की हैं।

जनता में से और सरकारी पक्ष में से सैंकड़ों मारे गये हैं और हजारों जख्मी हुये हैं। इसके बावजूद कबिलिया क्षेत्र में जन उभार थमा नहीं है। दो वर्ष से जारी जन उभार ने अपना अपहरण नहीं होने दिया है। इसलिये प्रचारतन्त्र इस पर चुप्पी साधे हैं। लेकिन इस जन उभार पर जन साधारण द्वारा चर्चायें करना बनता है। नई भाषा, नये शब्द, नये मुहावरे, नये अर्थ आवश्यक लगते हैं — जारी विश्वव्यापी मन्थन इन्हें अनिवार्य बना रहा है।

इस जन उभार में कोई नेता नहीं, कोई पार्टियाँ नहीं, कोई करिश्माई प्रवक्ता नहीं। इस जन उभार के पीछे कोई सीढीनुमा ऊँच-नीच वाला संगठन नहीं, कोई पिरामिडनुमा प्रतिनिधियों का संगठन नहीं। ऊपर से नियन्त्रित-निर्देशित किये जाने की बजाय इस जन उभार ने स्वयं को संगठित करने के प्रयास किये हैं। नीचे से ऊपर की ओर अथवा ऊपर से नीचे की ओर के उल्ट, यहाँ नीचे वालों द्वारा अपने जैसों को अपने जैसे ही बनाये रखते हुये तालमेलों की कोशिशें की गई हैं। तालमेलों के लिये आवश्यक जरियों के तौर पर लोग तय किये गये हैं परन्तु उन्हें नुमाइन्दगी-प्रतिनिधित्व-नेतृत्व के अधिकार नहीं दिये गये हैं। सब कोई एक जैसे, हर कोई बराबर वाली बात नहीं है बल्कि … बल्कि “गैर-बराबरी नहीं” वाली बात रही है। इसलिये दो वर्ष से यह जन उभार जारी है और पार्टियाँ, यूनियनें, राजनीतिज्ञ अथवा अन्य अवसरवादी तत्व इसका अपहरण नहीं कर सके हैं, इसका दोहन नहीं कर सके हैं।

(मजदूर समाचार, अप्रैल 2003)

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बातें … ज्यादा बातें … लेकिन कौनसी बातें? (4)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का चौथा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जून 2002 अंक से है।

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● काट-कूट-पीट-पुचकार कर बच्चों को मण्डी की आवश्यकताओं के मुताबिक ढालने में सहायक होना विद्यालय-रूपी संस्था का आज ध्येय है।

● विद्यालय फैक्ट्री-पद्वति के अनुसार ढल गये हैं। स्कूल फैक्ट्री है और इसमें बच्चे कच्चा माल, अध्यापक मशीन ऑपरेटर तथा इमारत-पुस्तकें-अन्य कर्मचारी सहायक सामग्री हैं।

● शिक्षा के बाद तैयार माल के रूप में जो नौजवान बिक नहीं पाते उन्हें बेरोजगार-बेकार कहते हैं और जिनके मण्डी में अच्छे भाव लग जाते हैं उनकी वाह-वाह होती है।

बच्चों को मण्डी में बिकने के लिये तैयार करने के वास्ते हम बच्चों को स्कूल भेजते हैं।
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“बच्चों की जिन्दगी बनाना” एक ब्रह्मसूत्र है। “जिन्दगी बनाने” के लिये बच्चों की तथा माता-पिता द्वारा स्वयं अपनी दुर्गत करने में आमतौर पर कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती। जो अध्यापक “बच्चों की जिन्दगी बनाने” को गम्भीरता से लेते हैं वे कई बार बच्चों की दुर्गत करने में माता-पिता से भी बाजी मार ले जाते हैं।

जानते हैं, मन्त्र माफिक दोहरा देते हैं कि कुल्हाड़ी का घाव भर जाता है पर कटु वचन का घाव सदा हरा रहता है। लेकिन … लेकिन बच्चों के खिलाफ व्यापक शारीरिक हिंसा से भी हजारों गुणा अधिक शाब्दिक हिंसा का ताण्डव जारी है। जहर बुझे शब्द-बाणों से बच्चों के मन-मस्तिष्क को छलनी करने में आमतौर पर रत्ती-भर परहेज नहीं किया जाता क्योंकि “बच्चों की जिन्दगी बनाने” का कवच जो हम धारण किये रहते हैं।

लगभग हर बड़े की ही तरह लगभग प्रत्येक बच्चा-बच्ची प्रतिदिन सैंकड़ों बार मरता-मरती है। यह खबर नहीं है।

खबरें भी देख लीजिये : जापान में बढती सँख्या में बच्चे आत्महत्यायें कर रहे हैं; अमरीका में विद्यालयों के अन्दर बच्चों द्वारा सामुहिक हत्यायें करने की घटनायें बढ़ रही हैं; बच्चों के मन-मस्तिष्क के “सुधार” के लिये दवाओं तथा मनोचिकित्सकों का प्रसार हो रहा है।

ऐसे में जिन्दगी बनाने, सफल जीवन के प्रचलित अर्थों को निगलने-दोहराने की बजाय इन पर आलोचनात्मक ढंँग से व्यापक चर्चायें जरूरी लगती हैं।

कुफल है सफलता

● अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने को सफलता मानना बहुत व्यापक होने के संग-संग दैनिक जीवन की सामान्य गतिविधियों तक पसर गया है। बहन से, भाई से, पड़ोसी से, सहकर्मी से, सहपाठी से किस-किस बात में इक्कीस होने के लिये क्या-क्या प्रयास हम सब की दिनचर्या के अंग बन गये हैं : मकान का गेट-दरवाजा; कपड़े की-जूते की कीमत; लड़के का कद; लड़की का रँग; जान-पहचान वाले की हस्ती; कक्षा में लड़की के नम्बर; जन्मदिन पार्टी में खर्चा; दारू पीने की क्षमता; तम्बू-रौशनी-बाजे पर खर्च; औकात में; ज्ञान में-बात में-पहुँच में; दामाद के गुण; … अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने के लिये छिछले-दर-छिछले स्तर में उतरते जाने को ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में व्यक्ति के अधिकाधिक गौण होते जाने की अभिव्यक्ति के तौर पर ले सकते हैं। ऊँच-नीच वाली वर्तमान व्यवस्था में अब व्यक्ति के होने-नहीं होने के बराबर-से हो जाने ने अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने को मनोरोग की स्थिति में ला दिया है, सामाजिक मनोरोग।

● ऊँच-नीच की सीढी के डंँके चढना वास्तव में कम होता है, बहुत-ही कम होता है पर इसके सपने बहुत व्यापक हैं। जो डँके चढ जाते हैं उनके सफलता के लिये झूठे-सच्चे प्रयास निचले तबकों के लिये किस्से बन जाते हैं। सिर-माथों के पिरामिड पर ऊपर चढने को वास्तविक सफलता कहने का भी प्रचलन है।

● ऊँच-नीच की सीढी के ऊपर वाले हिस्से में अपने को टिकाये रखने को भी सफलता कहा जाता है। नीचे वालों द्वारा लगातार मारे जाते हाथ-पैरों से अस्थिर होते और ऊपर चढने के लिये होती मारा-मारी किन्हीं को भी अधिक समय तक ऊँचे टिके नहीं रहने देते।

अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होना-रहना हर समय टँगड़ी का डर लिये होता है। तनाव, चौकसी-चौकन्नापन, दिखावटीपन इक्कीस होने के सिक्के का दूसरा पहलू है। और, अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने में सफलता देखना अपने आस-पास वालों से तालमेलों में बाधक होता है। इक्कीस होने के प्रयास सम्बन्ध सहज नहीं रहने देते।

ऊँच-नीच की सीढी चढने के प्रयास तन-मन को अत्याधिक तानना लिये हैं। अपने ताबेदारी अखरती है और दूसरों पर ताबेदारी लादने के प्रयास करने पड़ते हैं जो कि व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करते हैं। जोड़-तोड़,  तिकड़मबाजी, चापलूसी, झूठ-फरेब सामान्य क्रियायें बन जाती हैं। वास्तविक भाव को छिपाना, छवि को ओढे रखना ऊँच-नीच की सीढी चढने के अनिवार्य अंग हैं। जितना ऊपर चढते जाते हैं उतना ही अधिक सामाजिक समस्याओं के निजी समाधानों के प्रयास करने को अभिशप्त होते हैं। आज से 2300 वर्ष पूर्व सुरक्षा वास्ते सम्राट चन्द्रगुप्त हर रात कमरा बदल कर सोने को मजबूर था, अभिशप्त था।

सफलता के लिये प्रयास बाँधते-बीन्धते हैं। सफलता के लिये प्रयास तन-मन को छलनी करते हैं। मनुष्यों के बीच सम्बन्धों को सफलता के लिये प्रयास लहुलुहान करते हैं। और, आज सफलता की प्राप्ति पर उपलब्ध क्या है? सम्राट चन्द्रगुप्त के शक-शंका-कुटिलता-क्रूरता से सिमटे-सिकुड़े-संकीर्ण जीवन से भी बदतर जीवन।

*सफलता कुफल है के दृष्टिगत ऊँच-नीच की सीढी चढना स्वयं में समस्या है। सिर-माथों पर बैठना खुद में प्रोब्लम है। नियन्त्रण-प्रबन्धन को समस्याओं के स्रोत के रूप में चिन्हित करना नई समाज रचनाओं के लिये प्रस्थान-बिन्दू है।*

लौटते हैं विद्यालय पर।

अपहरण किसका?

शिक्षा, विद्यालय और शिक्षक-गुरू के प्रति संस्कार-किस्से-कहानियाँ ऐसे भाव उभारते हैं कि वर्तमान में इनसे रूबरू होने पर अकसर कहा-सुना जाता है कि शिक्षा अब व्यापार बन गई है; विद्यालय धन्धा करने के लिये लाइसेन्सशुदा अहाते हो गये हैं; गुरू के स्थान पर अध्यापकों के रूप में नौकर दे दिये गये हैं। व्यथा शब्दों में फूट पड़ती है : “आज की व्यवस्था में शिक्षा का अपहरण कर लिया गया है।”

जबकि, शिक्षा-विद्यालय-गुरू का आगमन ही ऊँच-नीच वाली व्यवस्थाओं के आगमन से जुड़ा है। आश्रम में स्वामी-पुत्रों को ऋषि-गुरू शिक्षा देते थे — वह शिक्षा दासों को नियन्त्रण में रखना और स्वामियों में इक्कीस होना सिखाती थी। निषेध का उदाहरण एकलव्य का अंगूठा है। वास्तव में विद्यालय, गुरू और उनकी शिक्षा ने समुदाय में पीढियों के परस्पर सहज रिश्तों का अपहरण किया था। शिक्षा और विद्यालय सारतः समुदाय-विरोधी हैं तथा ऊँच-नीच के पोषक हैं।

और, यह तो मण्डी की आवश्यकता के अनुसार अक्षर-ज्ञान को व्यापक बनाने की अनिवार्यता रही है कि बहुत बड़ी संँख्या में विद्यालय खोले गये हैं। ऋषियों-गुरूओं का रूपान्तरण विशेषज्ञों-जानेमाने प्रोफेसरों में हुआ है और यह लोग ऊँच-नीच को बनाये रखने के लिए तर्को-सिद्धान्तों की नित नई रचना करते हैं। हाँ, बहुत बड़ी संँख्या में अध्यापक एजुकेशनल वरकर बन गये हैं, शिक्षा-क्षेत्र के मजदूर बन गये हैं। यह कोई अफसोस करने की बात नहीं है बल्कि यह तो समुदाय-विरोधी शिक्षा-विद्यालय के पर्दे उघाड़ने की क्षमता लिये बड़े समूह के आगमन का सुसमाचार है।

“मजदूर कामचोर हैं”, “सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते”, “अध्यापक पढाते नहीं” को विलाप-रूप के पार चल कर आईये देखें। ऐसा करने पर वर्तमान ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था का खोखलापन साफ-साफ नजर आयेगा। इस सकारात्मक बिन्दू से शिक्षा-विद्यालय-शिक्षक-छात्र वाली चर्चा को आगे बढाने का प्रयास करेंगे। (जारी)

  (मजदूर समाचार, जून 2002)

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बातें … ज्यादा बातें … लेकिन कौनसी बातें?(3)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का तीसरा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह मार्च 2002 अंक से है।

◆ “40-50 वर्ष पहले गढवाल में 5 वर्ष की आयु के बच्चों को गाँव में इकट्ठे कर वसन्त पँचमी के शुभ दिन गाजे-बाजे के साथ विद्यालय में नाम लिखाने ले जाते थे। हल चलाने वाले पिता की इच्छा होती थी कि उसका बच्चा हल चलाने वाला नहीं बने — इसलिये पढे। छुट्टियों में नौकरी से लौटने वालों के तामझाम बच्चों को स्कूल जाने को प्रेरित करते थे।”

“अपने बच्चों को पहले कहते थे कि सच्चा-ईमानदार होना चाहिये लेकिन अब कहते हैं कि वैसे चल ही नहीं सकते, चालाक होना ही चाहिये। इस समाज में जिन्दा रहने के लिये स्कूलों में चालाकी भी एक विषय के तौर पर पढाई जानी चाहिये।”

वर्तमान समाज व्यवस्था की पवित्रतम गऊओं में है विद्यालय — चर्चा में अत्यन्त धीरज के लिये अनुरोध है।
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शहर पर चर्चायें अकसर समस्याओं, सुधार के लिये सुझावों और इस-उस शहर के बारे में बातचीत में सिकुड़ जाती हैं। यह बहुत-ही कम होता है कि स्वयं “नगर” पर, सिटी एज सच पर बातचीत केन्द्रित होती हो। यही हाल नौकरी पर बातचीतों का है। विद्यालय के बारे में बात करना, स्कूल एज सच पर चर्चा तो हमें और भी कठिन लगी है।

जबकि, नगर, नौकरी, फैक्ट्री, दफ्तर, प्रतियोगिता, सेना, स्कूल आदि स्वयंसिद्धों-एग्जियम्स पर सवाल उठाना वर्तमान समाज व्यवस्था पर सवाल उठाना है। इन स्वयंसिद्धों पर बातचीत दुर्गत की जननी वर्तमान समाज व्यवस्था से छुटकारे के लिये प्राथमिक आवश्यकताओं में एक है।

थोड़ा इतिहास

स्वामी और दास, सामन्त और भूदास वाली ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में अक्षर-ज्ञान सीमित था, सीमित रखा जाता था। पुरोहित-पादरी-मौलवी तक पढाई-लिखाई समेटे रखने के लिये आम जन की भाषा से अलग भाषा, संस्कृत-लैटिन, का भी प्रयोग किया जाता था। स्वामी-पुत्रों, राजकुमारों, पुजारी-पुत्रों तक विद्यालय सीमित थे। जाहिर है कि ऊँच-नीच वाली उन व्यवस्थाओं को बनाये रखने में अक्षर-ज्ञान का महत्व था। लेकिन यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि मशहूर मगना कार्टा दस्तावेज पर इंग्लैण्ड के राजा ने मोहर इसलिये लगाई थी कि उसे दस्तखत करने नहीं आते थे, इंग्लैण्ड का राजा अनपढ़ था। और, बादशाह अकबर अँगूठाटेक था।

विगत में अक्षर-ज्ञान सीमित रखने के प्रयास और आज हर एक को साक्षर बनाने की कोशिशें … एक गुत्थी लगती है। क्या है यह गुत्थी? फोकस करते हैं भारतीय उपमहाद्वीप पर।

निरुद्देश्य बनाम उद्देश्यवान

अपने से भिन्न उद्देश्य रखने वाले को बिना उद्देश्य का, निरुद्देश्य कहने का चलन है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्लासी के युद्ध में विजय के साथ इस उपमहाद्वीप में राजसत्ता पर कब्जा करना आरम्भ किया। यहाँ मौजूद ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था को निरुद्देश्य और बर्बर करार दे कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपना विजय अभियान बढाया।

असभ्यों को सभ्य व उद्देश्यवान बनाने के लिये किये गये सुधारों की फेहरिस्त आज भी बच्चों को रटनी पड़ती है : सती-प्रथा का उन्मूलन, शिक्षा का प्रचार-प्रसार … कुछ देशभक्त विद्वान लॉर्ड मैकाले की क्लर्क पैदा करने की शिक्षा-नीति पर तीखे एतराज करते थे/हैं।

लेकिन यह निर्विवाद है कि भारतीय उपमहाद्वीप में स्कूलों के, शिक्षा के, अक्षर-ज्ञान के व्यापक फैलाव की बुनियाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने रखी। क्या यह तथ्य गुत्थी के पेंच ढीले करने के लिये पर्याप्त नहीं है?

चौथ वसूली लूट

नब्बे प्रतिशत कानूनसम्मत

राजा-बादशाह द्वारा प्रजा द्वारा पैदा किये में से छठे हिस्से को लेने को न्यायसंगत कहा जाता था। नये राजा बनने को अग्रसर द्वारा उपज के चौथे हिस्से को लेने को चौथ वसूली कहा जाता था, लूट कहा जाता था। आमतौर पर ऊँच-नीच की सामन्ती पद्धति मेहनतकशों की उपज के छठे और चौथे हिस्से को हड़पने के दायरे में रहती थी क्योंकि इससे अधिक हड़पना उस व्यवस्था को बनाये रखते हुये सम्भव नहीं था।

सभ्यता के नये पैरोकारों की दृष्टि में मात्र चौथ-छठ वसूली के दायरे में सिमटी पद्धति निरुद्देश्य पद्धति थी। प्रजा से, मेहनतकशों से अधिक वसूली के लिये नई समाज रचना की, ऊँच-नीच वाली नई समाज व्यवस्था की आवश्यकता उन्होंने प्रस्तुत की।

मुड़ कर देखने पर हम पाते हैं कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप में ऊँच-नीच वाली नई समाज व्यवस्था के लिये आधार तैयार करने वाली की रही है। यहाँ मण्डी के लिये उत्पादन की टिकाऊ बुनियाद के निर्माण में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसानों-दस्तकारों के उत्पादन को मण्डी के लिये उत्पादन में बदलने ने मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली वर्तमान समाज व्यवस्था के लिये जमीन तैयार की।

मण्डी व्यवस्था का अधिक वसूली सम्भव बनाने के लिये मूल मन्त्र : व्यापार बढाओ! उत्पादकता बढाओ!! भौगोलिक व सामाजिक विविधता के दोहन के लिये दूर-दूर से व्यापार और व्यक्ति की उत्पादकता बढाने में स्कूली-शिक्षा, अक्षर-ज्ञान की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा, फिर ब्रिटिश सरकार द्वारा, और फिर देशी सरकार द्वारा स्कूली-शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर विशेष ध्यान को इस सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है कि आज मजदूर जो उत्पादन करते हैं उसका 95-98 प्रतिशत हड़प लिया जाता है। चौथ ही नहीं बल्कि छठा हिस्सा भी लूट थी, इसलिये हमारे द्वारा किये जाते उत्पादन के 98 प्रतिशत को हड़प जाती वर्तमान समाज व्यवस्था की पवित्रतम गऊओं पर चर्चायें करना जरूरी है।

पट्टी पवित्रता की

विद्यालय पर, स्कूली-शिक्षा पर चर्चा आरम्भ करने तक के लिये कितनी कसरत जरूरी लगती है! आशा है कि काट-कूट-पीट कर बच्चों को मण्डी के माफिक ढालने का ध्येय लिये
विद्यालय-रूपी संस्था पर आपस में अधिक सहज बातचीत “बच्चों का भविष्य” वाली पवित्र पट्टी को ढीली कर, खोल कर सम्भव होगी। कैसा है भविष्य? वर्तमान समाज व्यवस्था की भाषा घटनाओं की भाषा है और इसकी भाषा में कहें तो गुजरात में कत्लेआम पटाखा है, आने वाले बम धमाकों की तुलना में जो कि वर्तमान समाज व्यवस्था के बनी रहने पर अनिवार्य दिखते हैं।

बच्चे कच्चा माल, अध्यापक ऑपरेटर, अन्य कर्मचारी हैल्पर, स्कूल फैक्ट्री … कैसी तस्वीर है? हम अपने बच्चों को मण्डी में बिकने के लिये तैयार करते हैं … कैसी बात है यह? आईये विद्यालय पर, वर्तमान समाज व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्ह लगायें। (जारी)

(मजदूर समाचार, मार्च 2002)

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बातें … ज्यादा बातें … लेकिन कौनसी बातें?(2)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का दूसरा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह फरवरी 2002 अंक से है।

◆ पिताजी की कूल्हे पर से हड्डी टूट गई। हम चार भाई उनके इलाज के लिये भाग-दौड़ करने लगे तो लोग बोले कि बुजुर्ग हैं, इनके लिये इतना परेशान मत हो। हमें लोगों की यह बातें बुरी लगी। हमारे पिताजी थे, हमें पाला-पोसा था, हमें स्नेह-प्यार दिया था — बूढे हो गये तो उन्हें भूल जायें?

बस से सम्भव नहीं था, हम ने जीप की। गाँव से छपरा ले गये, पटना ले गये। हमारी पत्नियों द्वारा नाक-भौं सिकोड़ने पर हम ने टट्टी-पेशाब साफ किये। बत्तीस हजार रुपये खर्च हुये। हड्डी जुड़ गई, पिताजी चलने-फिरने लगे।

हम तीन भाई फिर कारखानों में खटने लगे और एक गाँव में रहा। ज्यादातर फैक्ट्रियों में 8 घण्टे के महीने में 1200 रुपये देते हैं और रोज 12 घण्टे काम नही करो तो गुजारा नहीं। तनखा महीने की बजाय दो महीने में जा कर देते हैं। पेट काट कर हम जो मनीआर्डर भेजते हैं वह पहुँचने में चार महीने लगा देते हैं। परिवारवाले सोचते हैं कि नौकरी में हम गुलछर्रे उड़ाते हैं।

पिताजी की उपेक्षा हुई। उनके साथ अनादरपूर्ण व्यवहार हुआ। गुस्से में एक दिन पिताजी खेत में गये और वहाँ मिट्टी का तेल छिड़क कर आत्महत्या कर ली।

“क्या फायदा?” वाले सम्बन्ध, दुकानदारी वाले रिश्ते, मण्डी जनित आचार-विचार … गोरा अन्धेरा …
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बच्चों के बारे में, बुजर्गों के बारे में चर्चा करते हों चाहे स्वयं के बारे में, मण्डी की भाषा हमारी बोलचाल में सरक आती है। आज दुर्गत की जननी मण्डी है और यह अकसर होता है कि दिल से जिनका भला चाहते हैं उन्हें हम मण्डी की दलदल में हाथ-पैर मारने की सलाह देते हैं। नेक कर रहे हैं की धारणा लिये बुरा करने की त्रासदी बहुत ही व्यापक है। बच्चों का भविष्य बनाने के नाम पर वर्तमान व्यवस्था की पोषक बातें घर-घर में होती हैं। हम पीडितों के अन्दर तक धंसी है मण्डी की पैनी छुरी। इस जहर की काट बाहर मण्डी से निपटने जितनी ही महत्वपूर्ण है — बल्कि, अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि मण्डी के सफलता के पैमानों के विपरीत जीवन की सफलता के पैमानों की रचना के बिना मण्डी से पार नहीं पाया जा सकता।

इन्सान की “वैल्यू”

बहुत सामान्य हो गया है एक तरफ यह कहना कि आज इन्सान की वैल्यू नहीं है और दूसरी तरफ परिचय देते समय व्यक्ति का भाव-मोल दर्शाना। यह मनुष्य के मण्डी में माल बन जाने की अभिव्यक्ति है। और, यह हम सब के दो कौड़ी के हो जाने का ही परिणाम है कि व्यक्ति की विशेषताओं का महिमामण्डन फूहड़ता के नित नये प्रतिमान स्थापित कर रहा है।

दरअसल, ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में वास्तविकता के स्थान पर छवि का बोलबाला होता है। छवि के लिये सामान्य की बजाय अति की आवश्यकता होती है, रोजमर्रा के स्थान पर घटना की जरूरत होती है। स्वामी राम, स्वामी रावण, सम्राट अशोक, बादशाह अकबर के किस्से-कहानियाँ प्रचारित-प्रसारित हैं जबकि दासों, भूदासों की बातें बहुत ढूँढने पर भी छिट-पुट ही मिलेंगी।

समानता की, बराबरी की दुहाई देती मण्डी व्यवस्था वास्तव में ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की पराकाष्ठा है। कम्पनियों-संस्थाओं के रूप में आज चेहराविहीन अवस्था में पहुँची मण्डी व्यवस्था में चेहरों की चाह ने हवस का रूप अख्तियार कर लिया है। “कुछ कर दिखाना” मूलमन्त्र-सा बन गया है। नेता-अभिनेत्री-खिलाड़ी-कलाकार-अधिकारी-डायरेक्टर-चीफ बनने की सार्विक-सी चाह प्रत्येक द्वारा स्वयं के तन-मन के साथ अत्याचार करना लिये है। और, मीडिया द्वारा प्रचारित विशेष व्यक्तियों के हाव-भाव व मोल-तोल की जुगाली करना हमारी दैनिक क्रियाओं में घुल-मिल गया है। इन्सान की “वैल्यू” के स्थान पर इन्सानियत पर विचार-चर्चा हमें अपने इन नासूरों को पहचानने में मदद करेगी। छवि-प्रपंच से छुटकारे के प्रयास मानवीय व्यवहार की राह पर कदम हैं।

भविष्य बनाना

कौन है जो यह नहीं जानती कि मण्डी में प्रतियोगिता अनन्त है? कौन है जो यह नहीं जानता कि मण्डी में भाव बदलते रहते हैं? कौन नहीं जानती कि असुरक्षा मण्डी की जीवन-क्रिया है?

सतही, दिखावटी, क्षणिक और इस्तेमाल-उपयोग वाले सम्बन्ध मण्डी के चरित्र में हैं। इन्सानों के बीच ऐसे रिश्तों के लिये प्रयासों को “भविष्य बनाना” कहना उचित है क्या?

आइये बच्चों से शुरू करें।

“अच्छे” विद्यालय, महँगी शिक्षा, स्कूल के बाद ट्युशन — यह सब बच्चे के मण्डी में भाव बढाने के लिये प्रयास हैं। अपना पेट काटने और बच्चों की दुर्गत करने को उनका भविष्य बनाने के नाम पर जायज ठहराया जाता है। बच्चों के लिये ही सही, क्या इस पर पुनः सोचना-विचारना जरूरी नहीं है?

मजबूरी का रोना रोने की बजाय स्कूल पर प्रश्न उठाना हमें आवश्यक लगता है। यह मण्डी पर सवाल उठाने का अंग है। पीढियों के बीच सहज सम्बन्धों और समुदाय – समाज में बच्चों के पलने-बढ़ने की आवश्यकता के लिये व्यवहार दस्तक दे रहा है — सोचिये, विचारिये, बातें कीजिये क्योंकि इस तन्दूर में हम सब भुन रहे हैं।(जारी)

(मजदूर समाचार, फरवरी 2002)

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