● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।
● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।
● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का ग्यारहवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह नवम्बर 2003 अंक से है।
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47 वर्षीय डॉक्टर : सामान्यतः अच्छी-गहरी नींद आती है। स्वाभाविक तौर पर उठता हूँ और अच्छा लगता है उठना — ऐसा नहीं होता कि लो एक और दिन आ गया। इसका कारण? शायद मेरे दो फैसले — रिश्वत नहीं लेना और ड्युटी के बाद पैसों के लिये कोई धन्धा नहीं करना।
ड्युटी के समय से दो घण्टे पहले उठता हूँ। दाँत साफ कर दाढी बनाता हूँ तब तक पत्नी चाय बना लाती है। चाय के संग हम मिल कर हिन्दी अखबार पढते हैं। फिर टॉयलेट में मैं अंग्रेजी अखबार पढता हूँ — सुर्खियों पर नजर भर दौड़ाता हूँ, रुचि समीक्षा-विश्लेषण वाले आर्थिक-सामाजिक लेख में (अगर स्वास्थ्य सम्बन्धी नहीं है तो सम्पादकीय नहीं पढता)। स्नान कर ड्युटी से आधा घण्टा पहले तैयार हो जाता हूँ। एक महिला आ कर घर की सफाई करती है और नाश्ता बनाती है। हम पति-पत्नी इकट्ठा नाश्ता करते समय टी.वी. पर समाचार लगा देते हैं। सुबह अगर कोई मिलने आ जाये तो दिक्कत होती है।
चिकित्सकों की सुबह-सुबह अनौपचारिक सभा का रिवाज है। दुआ-सलाम और सामान्य आदान-प्रदान होते हैं। पहले इसमें सट्टा बाजार (शेयर मार्केट) पर चर्चायें होती थी पर शुक्र मनाता हूँ कि 1992 के घोटाले में डॉक्टरों द्वारा भी काफी रकम डुबो देने के बाद से सुबह-सुबह निन्यानवे की चर्चा का यह चक्कर बन्द हो गया है।
सभा के बाद सब अपने-अपने विभाग में। सामान्य कार्य-दौरा। सरकारी स्वास्थ्य संस्थान अपर्याप्त तो हैं ही, चिकित्सकों व अन्य कर्मियों पर बहुत-ही अधिक कार्य का भार भी है। अप्रत्यक्ष ढंँग से वेतन में कटौती का सिलसिला भी जारी है — तनखा बढना तो गये जमाने की बात हुई, अब तो जो है उसे (उसकी कीमत को) बचाने का प्रश्न है। इधर प्रशासन ने हमें दिन के 24 घण्टे, महीने के तीसों दिन सरकार के नौकर के तौर पर लेना बढ़ा दिया है। ग्रामीण व शहरी गरीबों के लिये आज जीने की जगह तो है ही नहीं, कम से कम शान्ति से मरने की जगह तो हो परन्तु राजनेता नाटक करते हैं। सरकार की नीति ही स्वांग करना, साँग करना है — “स्वास्थ्य आपके द्वार” — और हमें कठपुतलियाँ बनाने पर जोर है। स्थानान्तरण की तलवार प्रत्येक सरकारी कर्मचारी पर हर समय लटकती ही रहती है — मैंने भी भुगता है और मैनेज किया है। वैसे, सत्ता के निकट होने का रुतबा मैंने भी कुछ महसूस किया है परन्तु मेरे सचेत प्रयास रहे हैं कि निज हित में उसका कोई उपयोग नहीं करूँ।
सरकारी नौकरी में विशेषज्ञता का सामान्य तौर पर कोई अर्थ नहीं है — सन् 1940 वाला ढर्रा ही चल रहा है। कहीं भी ड्युटी लगा देते हैं। शिफ्टों में ड्युटी मुझे बिलकुल रास नहीं आती पर करनी पड़ी है। हालाँकि काम के घण्टे बढाने की कसरत चल रही है पर शुक्र मनाता हूँ कि अभी अस्पतालों में सामान्य तौर पर चिकित्सकों की ड्युटी 6 घण्टे की है। सैंकड़े की सँख्या में मरीजों को निपटाना …
पुराना अथवा बूढा हो गया हूँ शायद। सहकर्मी चिकित्सकों में हिसाब लगाने की बढती प्रवृति से दुख होता है — मरीज 100-200-500 दे अन्यथा टालना-झिड़कना! दस साल पहले ऐसे पैसे लेने को गलत मानने वाले चिकित्सक 30-40 प्रतिशत थे पर अब मात्र 10-15 प्रतिशत रह गये हैं। मेडिकल कालेज में सोचता था कि जहाँ रहूँगा वहाँ मिल कर ऐसी प्रवृति को रोकेंगे लेकिन अब स्वयं को कमजोर, असहाय पाता हूँ। इन हालात में मुखरता से विरोध करने का कोई मतलब नहीं लगता।
डॉक्टरों में धन्धेबाजी बढती जा रही है। जानबूझ कर गलत फैसले लेना — ऑपरेशन की जरूरत नहीं है फिर भी ऑपरेशन करना क्योंकि ज्यादा पैसे मिलेंगे! कार, मकान, कम्प्युटर, बच्चे महँगे विद्यालयों में, सम्पत्ति की ख्वाहिशें … बेइमानी करके भी किस्तों में दिक्कत। आपसी रिश्तों में तनातनी और टकराव बढे हैं।
2 अथवा 3 बजे ड्युटी समाप्त। बाई भोजन तैयार किये रहती है — पत्नी और मैं इकट्ठे खाना खाते हैं। गर्मियों में भोजन उपरान्त दो-ढाई घण्टे सोता हूँ। अपनी स्वयं की दिनचर्या नियमित करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती परन्तु जहाँ अन्य का संग आवश्यक होता है वहाँ चीजें अनियमित हो ही जाती हैं। मैं अकेला तैर लेता हूँ पर वालीबाल तो अकेला नहीं खेल सकता! सहकर्मी चिकित्सक ड्युटी के बाद किसी न किसी धन्धे में जुट जाते हैं। काफी लोग कोशिश करते रहते हैं कि मैं भी कोई कारोबार करूँ परन्तु मैंने समझा व तय किया हुआ है कि समय मुझे खुद को चाहिये। ड्युटी के बाद के समय को मैं पैसे कमाने में लगाने से साफ-साफ इनकार करता हूँ।
मेरा बचपन अभावों से घिरा था। सर्दियों में स्वेटर नहीं होती थी — सर्दियों में स्वेटर तो होनी ही चाहिये, मुझे गरीब नहीं होना चाहिये! परन्तु कार-बँगले-नौकर की कभी ख्वाहिश नहीं रही। मेडिकल कालेज के खर्चे के लिये परिवार को जमीन गिरवी रखनी पड़ी थी। अब वाले खर्चे होते तो मेडिकल कालेज जाता ही नहीं। और, नौकरी के लिये डॉक्टरों से अब वाली 5 लाख रुपये रिश्वत ली जा रही होती तो मैं सरकारी नौकरी में नहीं होता।
मेरी प्रेरणा मेरी माँ रही हैं। लड़कियों-महिलाओं का जमघट लगा रहता था माँ के इर्द-गिर्द और वे कपड़ा बुनने, अच्छा भोजन बनाने, नृत्य … में सहयोग-सहायता-सुझाव देती रहती थी। दुनियाँ में बहुत कुछ हो रहा है जिसमें मैं योगदान दे सकता हूँ। मेरी दिली इच्छा सकारात्मक योगदान की रहती है। चीजें सुधरती हैं तो मुझे अच्छा लगता है। लोगों को सहायता करने में मुझे मजा आता है हालाँकि दुनियादारी के उलट मेरी यह प्रवृति पत्नी को पसन्द नहीं है। एक सहृदय-समझदार व्यक्ति वाली पहचान प्राप्त करने की मेरी चाहत है। किसी का मुझ पर दया दिखाना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है। मैं कमजोरी के आधार पर नहीं बल्कि अपनी खूबियों के आधार पर पहचान चाहता हूँ।
मेडिकल कालेज में ही मैंने स्वास्थ्य की समस्याओं पर अध्ययन आरम्भ कर दिया था। मेरा जोर सामुदायिक स्वास्थ्य पर रहा है जिसमें उपचार एक अंश है। स्वास्थ्य की देखभाल में समुदाय की भागीदारी द्वारा भ्रष्टाचार, लापरवाही आदि से आसानी से निपटा जा सकता है। इन वर्षों के अनुभव के दृष्टिगत इसमें मुझे अब खतरा यह नजर आता है कि समुदाय की भागीदारी का अर्थ समुदाय में दबदबे वालों की भागीदारी बन कर कमजोर लोगों के लिये फिर कोई स्थान नहीं बचता। स्वास्थ्य पहले अथवा समाज परिवर्तन पहले? समाज परिवर्तन … लेकिन जो समाज बदलने के ठेकेदार बने हैं वे मुझे ऐसा करने में अक्षम लगते हैं। ये मठ हैं, अपने ढाँचे को बनाये रखना इनकी प्राथमिकता है। इसलिये समाज परिवर्तन के क्षेत्र में यह महत्वहीन हैं — पार्टियों से लड़ाई करने अथवा दोस्ती करने में कोई तुक नहीं है। इन्हें अनदेखा करना ही मुझे उचित लगता है। विवेक अनुसार व्यवहार नई राहें खोलेगा।
तैराकी-टहलने-खेलने के बाद शाम साढे छह बजे चाय-नाश्ता करता हूँ। फिर कुछ देर टी.वी. और जरूरत हुई तो बाजार जाना। रात के भोजन से पहले पड़ोसियों के साथ एक घण्टा बैठता, बातचीत करता हूँ। रात का भोजन पत्नी तैयार करती हैं और 9 बजे खाना खा कर साढे दस तक टी.वी.। ग्यारह बजे हम सो जाते हैं।
उगता सूर्य मेरे मन को उल्लास से भर देता है। सुबह सैर करने को मिल जाता है तब मन विचारमग्न हो जाता है। ताज्जुब होता है कि 1987 तक भारत सरकार की कोई औषधी नीति ही नहीं थी। मात्र एक अधिनियम था जिसके तहत दस्तावेज में दर्ज दवाइयों की बिक्री का प्रावधान था। दवाइयों के मूल्यों पर कोई नियन्त्रण नहीं था और 1987 के औषधी मूल्य नियन्त्रण आदेश का देशी-विदेशी, राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कम्पनियों ने मिल कर विरोध किया। कम्पनियों के विरोध के कारण 1987 में सिर्फ 260 दवाइयों पर ही आदेश लागू हुआ और हर दो वर्ष में समीक्षा के चलते आज मात्र 80 दवाइयाँ ही इसके दायरे में हैं। जानते हैं आदेश का दायरा? उत्पादन के खर्च से 50 से 500 प्रतिशत अधिक तक ही दवा पर मूल्य अंकित करना! और, उत्पादन खर्च में थे : दवा के उत्पादन का वास्तविक खर्च + अनुसन्धान के खर्च + पेटेन्ट करने के खर्च + ब्राण्ड नाम के खर्च। जेनरिक नाम और ब्राण्ड नाम का भेद अपने आप में अजूबा है। ज्वर-हरारत की दवा पैरासिटामोल की टिकिया का मूल्य 16 पैसे है। पैरासिटामोल दवा का जेनरिक नाम है। इसी पैरासिटामोल की गोली क्रोसिन के ब्राण्ड नाम से 56 पैसे की हो जाती है! ब्राण्ड नाम प्रचारित करने वाले फिल्मी सितारों, क्रिकेट स्टारों के लटके-झटके जनता को बहुत महँगे पड़ते हैं।
उत्पादन तो उत्पादन रहा, वितरण भी देख लीजिये। पन्द्रह वर्ष पहले दवा कम्पनियों के प्रतिनिधि चिकित्सकों को सैम्पल देते थे जिनकी परख दवा की बिक्री का एक आधार बनती थी। अब मेडिकल रिप्रेजेन्टिव दवाइयों के सैम्पल नहीं बाँटते बल्कि डॉक्टरों को मैनेज करते हैं — गाड़ी चाहिये तो वर्ष में इतने लाख की दवा बिकवाइये, विदेश सैर-सपाटे के लिये इतनी दवा बिकवाइये, मोबाइल और उसका खर्चा, नकद! डॉक्टरों के सम्मेलनों की प्रायोजक दवा कम्पनियाँ होती हैं और प्रत्येक डॉक्टर को भोजन, मद्य एवं अन्य पेय, उपहार देने के संग-संग चुने हुये डॉक्टरों के होटल व परिवहन का प्रबन्ध भी करती हैं। परिणामस्वरूप 40 से 50 प्रतिशत दवायें जो निजी चिकित्सक अथवा प्रेरित सरकारी डॉक्टर लिखते हैं उनकी उपचार में आवश्यकता ही नहीं होती। मरीज को दी जाती आधी दवाइयाँ फालतू होती हैं! आप इस पर भी ताज्जुब करोगे कि एक हजार पेटेन्ट दवाइयाँ अंकित मूल्य के एक तिहाई पर थोक में उपलब्ध हैं — लोकल दवाओं का जिक्र नहीं है यह। अंकित मूल्य के एक तिहाई पर सप्लाई के बाद भी पेटेन्ट दवा निर्माता कम्पनियाँ आर्डर दिलवाने के लिये कमीशन देने को तैयार रहती हैं! जनता की जेब पर डाका … डाका छोटा शब्द लगता है। और, स्वास्थ्य की मुफ्त देखभाल की अवधारणा को ही धराशायी करने के लिये यूरोपियन यूनियन ने हरियाणा सरकार को 20 करोड़ रुपये दिये हैं। लोगों में यह भावना पैदा करो कि चिकित्सा के लिये लोग पैसे दें, फ्री कुछ भी नहीं है, मरने के लिये भी पैसे देने होंगे …
बीमारियाँ क्यों हो रही हैं? इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ध्यान बस उपचार पर है … जेब पर है।टेक्नोलॉजी, कम्प्युटरों को देखता हूँ तो सब के लिये पर्याप्त चिकित्सा प्रबन्ध व स्वास्थ्य की देखभाल सम्भव लगती हैं। परन्तु समाज व्यवस्था को देखता हूँ तो … तो भी सुधार की मेरी इच्छा दम नहीं तोड़ती : लोग चैन से जी तो नहीं सकते फिर भी शान्ति से लोग मर तो सकें इसके प्रबन्ध में मैं आज के कर्णधारों को सहयोग देने को तैयार रहता हूँ, इनके स्वांग-साँग को भी झेल लेता हूँ। (जारी)
(मजदूर समाचार, नवम्बर 2003)