… दरारें … दरारें … दरारें …

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2″ तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का पाँचवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह अप्रैल 2003 अंक से है।

◆ अफ्रीका महाद्वीप के धुर उत्तर में मोरक्को, अल्जीरिया, ट्युनिशिया, लिबिया और मिश्र देश-राज-सरकार हैं। फ्रान्स सरकार के कब्जे को चुनौती देते और नई सरकार के गठन को प्रयासरत सशस्त्र संघर्ष ने 1960 में अल्जीरिया को गरम खबर बना रखा था। तुर्की और इन्डोनेशिया की तर्ज पर इस्लाम धर्म के क्षेत्र अल्जीरिया में 1964 में धर्मनिरपेक्ष-सेक्युलर सरकार की स्थापना हुई। शीघ्र ही जन-असन्तोष नई सरकार के भी नियन्त्रण से बाहर होने लगा। चुनावों में धर्मनिरपेक्ष दल धार्मिक दल से पराजित हो गया तो उसने चुनावों को रद्द कर दिया और सेना की आड़ में सत्ता पर काबिज रहा। धार्मिक दल ने सत्ता के लिये हथियारबन्द संघर्ष शुरू कर दिया। इन दस वर्षों में धर्मनिरपेक्ष-सेक्युलर गिरोह और धार्मिक गिरोह के बीच सत्ता के लिये मारामारी चल रही है और जब-जब कत्ल सैंकड़ों में होते हैं तब-तब खबर बनते हैं। धर्मनिरपेक्ष सरकार को बचाये रखने और इस्लामी सरकार स्थापित करने के लिये हो रहे खूनखराबे से परे बहुत कुछ हो रहा है परन्तु प्रचारतन्त्र इसकी चर्चा से परहेज करते हैं। एक छोटी-सी पत्रिका, “विलफुल डिसओबिडियन्स” में अल्जीरिया में दो वर्ष से जारी एक जन उभार का संक्षिप्त विवरण है। पुरानी-नई रुकावटों से जूझती-निपटती जन गतिविधियाँ वर्तमान समाज व्यवस्था में दरारें डालती लगती हैं। पिटी-पिटाई लकीरों को ठुकराती और नई राहें तलाशती जन गतिविधियाँ विकल्पों के लिये, नये समाज की सृष्टि के लिये रचना सामग्री उपलब्ध करवाती लगती हैं। “आप-हम क्या-क्या करते हैं” में एक सुखद ब्रेक, वर्तमान के सामान्य दैनिक जीवन के स्वाभाविक अगले चरण की रूपरेखा के लिये आईये अल्जीरिया में अपने बन्धुओं से संवाद स्थापित करें।
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● राजधानी अल्जीयर्स से 70 किलोमीटर दूर अल्जीरिया के कबिलिया क्षेत्र के तिजि औजौ इलाके के बेनी-दौला में 18 अप्रैल 2001 को पुलिस ने एक छात्र की हत्या कर दी। विरोध हुआ, फैला और आक्रोश के विस्फोट हुये। लोगों ने थानों और सैनिक दस्तों पर आक्रमण किये। पत्थर फेंकने और काँच की बोतलों को एक चौथाई पैट्रोल से भर कर उनके सिरे पर आग लगा कर फेंक मारने जैसे सरल शस्त्रों से जनता ने हमले किये और पुलिस की गाड़ियों, थानों, न्यायालयों में आग लगा दी। सामुहिक आक्रोश का विस्तार हुआ और हर प्रकार के सरकारी कार्यालय तथा राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर लपेट लिये गये।

जन विप्लव-विद्रोह-बगावत-जन उभार में दसियों लाख लोग शामिल हो गये, सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र में फैल गया।

● मई 2001 के आरम्भ में जन उभार ने स्वयं को संगठित करने के प्रयास आरम्भ किये। समितियाँ-सभायें-परिषदें-टोलियाँ और इन सब के बीच तालमेलों की समस्याओं से लोग रूबरु हुये। तालमेलों के लिये जरिये आवश्यक और जरिया बनते लोगों के प्रतिनिधि-नुमाइन्दे-नेता बनने-बनाने के लफड़ों से निपटने का सिलसिला चला।

यह जन उभार सब सत्ताधारियों, सत्ता के दावेदारों, सत्ता के लिये आतुर लोगों के खिलाफ है।

● जन उभार को कुचलने में अल्जीरिया सरकार असफल रही। मध्य जून 2001 तक कबिलिया क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण का लगभग पूरी तरह सफाया हो गया। जन उभार को थामने-समेटने-भुनाने के वास्ते समाजवादी शक्तियों के मोर्चे (एफ.एफ.एस.) ने सैनिक राष्ट्रपति को “जनतान्त्रिक परिवर्तन” लाने में सहायता की पेशकश की।

● जनता द्वारा पुलिस का बहिष्कार : लोगों ने पुलिस को भोजन व अन्य सामग्री देने-बेचने से इनकार कर दिया। मजबूर हो कर सरकार को हैलिकॉप्टरों और भारी भरकम हथियारबन्द दस्तों की देखरेख में ट्रकों के काफिलों से कबिलिया क्षेत्र में अपने दस्तों को सामान भेजना पड़ा।

सरकार के हथियारबन्द दस्तों को घेरे, सामने डटे खड़े लोगों के हाथों में गत्तों पर लिखा था : “तुम हमारी हत्या नहीं कर सकते, हम तो पहले से ही लाशें हैं।”

● मौकापरस्तों ने जन उभार में घुसपैठ कर इसे अपने-अपने हितों में इस्तेमाल करने की कोशिशें की। जून 2001 के अन्त में जन समूहों की तालमेल समिति ने सरकार के प्रतिनिधि से मिलने से इनकार कर दिया। जुलाई 2001 के मध्य में तिजी औजौ के तालमेल-आर्च ने तालमेलों में जरिया बनते लोगों के लिये इज्जत-आबरू-प्रतिष्ठा-निष्ठा की एक प्रतिज्ञा तय की जिसके कुछ अंश यह हैं :

— किन्हीं भी ऐसी गतिविधियों अथवा कार्यों में लिप्त नहीं होना जिनका लक्ष्य सत्ता और उसके दलालों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष जोड़ बनाना हो।

— जन उभार को गुटीय हित में इस्तेमाल नहीं करना। इसे चुनावी प्रतियोगिताओं अथवा सत्ता पर कब्जे की अन्य किसी प्रक्रिया के लिये इस्तेमाल नहीं करना।

— सत्ता की संस्थाओं में किसी राजनीतिक नियुक्ति को स्वीकार नहीं करना।

सरकार-सत्ता मध्यस्थ, बिचौलिये ढूँढती-रचती है।

● वामपंथियों और यूनियनवालों द्वारा जन उभार में घुसपैठ कर उसका अपहरण कर अपने हितों में इस्तेमाल करने के प्रयासों को लोगों ने विफल कर दिया। 26 जुलाई 2001 को कबिलिया बन्द के दौरान “गद्दारों को भगाओ! यूनियनों को भगाओ!” व्यापक स्तर पर चर्चा में थे।

● सरकारी अधिकारियों ने तालमेलों के जरिये बने लोगों में से ऐसे लोगों से गुपचुप सम्पर्क करने आरम्भ कर दिये जो कि सरकार से समझौते के विचार का समर्थन करते थे। इस पर अगस्त 2001 के मध्य में सौमामा घाटी से लोगों ने सब सरकारी अधिकारियों को निकाल दिया। फिर शीघ्र ही सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र से समस्त सरकारी अधिकारियों को जनता ने निकाल बाहर किया। मुजाहीदीन मन्त्री को तिजी औजौ का दौरा रद्द करना पड़ा और गृहमन्त्री जब नये राज्यपाल को स्थापित करने पहुंँचा तो पत्थरों की बौछारों से उसका स्वागत हुआ।

● अक्टूबर 2001 के आरम्भ में बन्दियों की रिहाई, मुकदमें खत्म करने और पूरे क्षेत्र से पुलिस हटाने की डिमाण्डें राष्ट्रपति को देने के लिये आयोजित प्रदर्शन पर सरकार ने पाबन्दी लगा दी। प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिये सरकार ने भारी संँख्या में बगावत-विरोधी सशस्त्र दस्तों का प्रयोग किया। 11 अक्टूबर 2001 को तालमेल-आर्च और अन्य स्वयं-संगठित सभाओं तथा समितियों के अन्तर-क्षेत्रिय तालमेल ने निर्णय किया कि आगे से किसी भी सरकारी प्रतिनिधि को कोई भी डिमाण्ड-पत्र नहीं दिया जायेगा। यह भी फैसला हुआ कि मामला सौदेबाजी से पूर्णतः परे था तथा जो कोई भी सरकार से वार्ता करना स्वीकार करेंगे उनका बहिष्कार कर दिया जायेगा।

● जनता ने टैक्स देने और बिल भरने बन्द कर दिये। सेना में अनिवार्य भर्ती को लोगों ने अनदेखा कर दिया।

● 6 दिसम्बर 2001 को कुछ तालमेलों के जरियों ने तालमेल-आर्च के प्रतिनिधि-नुमाइन्दे होने का दावा कर सरकार के मुखिया से मिलने की योजना बनाई। विरोध में सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र बन्द। पुलिस बैरकों को घेर कर लोग बैठ गये और हिंसक भिड़न्तें हुई। अमिजौर में गैस कम्पनी, कर विभाग और मुजाहीदीन के राष्ट्रीय संगठन के कार्यालयों को जला दिया गया। एल कस्युर में न्यायालय और न्यायाधीशों के घरों पर हमले हुये।

समझौता मायने वर्तमान ही!

● ‘सड़क रोको’ जारी। 7 फरवरी 2002 को राजधानी में राष्ट्र संघ कार्यालय के बाहर तालमेल-आर्च के लोग गिरफ्तार। जनता ने पुलिस को बैरकों में सीमित कर रखा था। पुलिस फिर सड़कों पर निकलने लगी तो 12 फरवरी 2002 को सम्पूर्ण कबिलिया क्षेत्र बन्द। लोग जगह-जगह पुलिस बैरकों के सामने जमा हुये और जगह-जगह पुलिस से झड़पें हुई।

● फरवरी 2002 के अन्त में राष्ट्रपति ने 30 मई को चुनावों की घोषणा की। जवाब में लोगों ने मतपेटियों और प्रशासनिक दस्तावेजों को कब्जे में ले कर जलाया। पुचकारने के लिये राष्ट्रपति ने क्षेत्र के दो प्रमुख शहरों से पुलिस हटा ली और समझौते की पेशकश की।

● जनता की “कोई समझौता नहीं” की बात पर सरकार द्वारा फिर बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के लिये अभियान। 25 मार्च 2002 को तिजी औजौ में सरकारी दस्तों ने उस थियेटर पर हमला बोला जिसे लोक तालमेल के कार्यालय के तौर पर प्रयोग किया जा रहा था। सरकार ने 400 “प्रतिनिधियों” के खिलाफ गिरफ्तारी वारन्ट जारी किये।

● बढते दमन का बढता विरोध : 20 मई 2002 को राष्ट्रपति अल्जीयर्स विश्वविद्यालय में गया तो छात्रों ने बन्दियों की रिहाई डिमाण्ड करते हुये पत्थरों की बौछारों से राष्ट्रपति का स्वागत किया। अगले दिन छात्रों ने विश्वविद्यालय पर कब्जा कर लिया।

● 30 मई 2002 के चुनाव में कबिलिया क्षेत्र में दो प्रतिशत से कम मतदान हुआ। लोगों ने गलियों में-सड़कों पर अवरोध लगाये, नगरपालिकाओं-शासकीय इमारतों-निर्वाचन कार्यालयों पर कब्जे किये और सड़कों पर जली हुई मतपेटियाँ बिखेर दी।

● जन उभार को पटरी से उतारने के लिये 19 जून 2002 को दो “नुमाइन्दों” की मध्यस्थता से सरकार ने एक प्रस्ताव तैयार कर बन्दियों को मिल कर उस पर चर्चा करने की अनुमति दी। जनता-जनार्दन ने उन “प्रतिनिधियों” को ठुकरा दिया। बन्दियों ने समझौते के लिये कैदियों की सशर्त रिहाई वाले उस प्रस्ताव पर चर्चा करने से इनकार कर दिया।

कोशिश-दर-कोशिश प्रतिनिधि-नुमाइन्दे-नेता पैदा करने की, बनने की।

● जन उभार के जारी रहने पर अगस्त 2002 में बन्दियों को रिहा कर अल्जीरिया सरकार ने अक्टूबर 2002 में फिर चुनाव करवाने की घोषणा की। फिर जगह-जगह जनता के पुलिस से टकराव हुये। समाजवादी शक्तियों के मोर्च (एफ.एफ.एस.) की चुनावों में शिरकत के बावजूद कबिलिया क्षेत्र में मात्र दस प्रतिशत मतदान हुआ।

● वर्ष में दूसरी बार चुनाव से भी सरकार की नैया पार नहीं हुई। अक्टूबर 2002 के अन्तिम सप्ताह से सरकार ने फिर जनता पर भारी आक्रमण आरम्भ किया हुआ है। सरकार के सशस्त्र दस्ते उन जगहों पर छापे मार रहे हैं जहाँ जनता सभायें करती है और तालमेल समूह मिलते हैं। गिरफ्तारियों और यातनाओं का रथ घूम रहा है। बन्दियों ने भूख हड़तालें की हैं।

जनता में से और सरकारी पक्ष में से सैंकड़ों मारे गये हैं और हजारों जख्मी हुये हैं। इसके बावजूद कबिलिया क्षेत्र में जन उभार थमा नहीं है। दो वर्ष से जारी जन उभार ने अपना अपहरण नहीं होने दिया है। इसलिये प्रचारतन्त्र इस पर चुप्पी साधे हैं। लेकिन इस जन उभार पर जन साधारण द्वारा चर्चायें करना बनता है। नई भाषा, नये शब्द, नये मुहावरे, नये अर्थ आवश्यक लगते हैं — जारी विश्वव्यापी मन्थन इन्हें अनिवार्य बना रहा है।

इस जन उभार में कोई नेता नहीं, कोई पार्टियाँ नहीं, कोई करिश्माई प्रवक्ता नहीं। इस जन उभार के पीछे कोई सीढीनुमा ऊँच-नीच वाला संगठन नहीं, कोई पिरामिडनुमा प्रतिनिधियों का संगठन नहीं। ऊपर से नियन्त्रित-निर्देशित किये जाने की बजाय इस जन उभार ने स्वयं को संगठित करने के प्रयास किये हैं। नीचे से ऊपर की ओर अथवा ऊपर से नीचे की ओर के उल्ट, यहाँ नीचे वालों द्वारा अपने जैसों को अपने जैसे ही बनाये रखते हुये तालमेलों की कोशिशें की गई हैं। तालमेलों के लिये आवश्यक जरियों के तौर पर लोग तय किये गये हैं परन्तु उन्हें नुमाइन्दगी-प्रतिनिधित्व-नेतृत्व के अधिकार नहीं दिये गये हैं। सब कोई एक जैसे, हर कोई बराबर वाली बात नहीं है बल्कि … बल्कि “गैर-बराबरी नहीं” वाली बात रही है। इसलिये दो वर्ष से यह जन उभार जारी है और पार्टियाँ, यूनियनें, राजनीतिज्ञ अथवा अन्य अवसरवादी तत्व इसका अपहरण नहीं कर सके हैं, इसका दोहन नहीं कर सके हैं।

(मजदूर समाचार, अप्रैल 2003)

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