शब्द “आन्दोलन
सत्ता – राज सत्ता
● किसानी जाने को है ●
● किसानी जाने को है ●
## छुट्टे डाँगर-ढोर
24 दिसम्बर 2020 को हाँसी के निकट गढी गाँव में रात 9 बजे खेत की रखवाली से लौट रहे दो युवकों की दिल्ली-हिसार रोड़ पर किसी वाहन से लगी टक्कर में मृत्यु हो गई।
कुछ वर्ष से हरियाणा में खुले घूमते गाय-बछड़े-खागड़ फसलों के लिये बढती समस्या हैं। लोगों को रात को भी खेतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। और, हिंसक भी हो रहे पशुओं के कारण दो लोगों का तो रखवाली के लिये होना आवश्यक ही हो गया है।
## “बेट्टा, गा गई।” — दस वर्ष पहले गाँव में सिर पुचकारते हुये तीन दादियों की कही बात बहुत-कुछ कहती लगती है।
गाँव-अपने गाँव के काफी कम अनुभव के आधार पर कुछ बातें :
** हाल्ई-पाल्ई
पंजाब के समय और 1966 में हरियाणा बनने के बाद भी गाँव में जीवन की काफी व्याख्या हाल्ई-पाल्ई से हो जाती थी। हल चलाना और डाँगर चराना प्रमुख कार्य थे। सड़क गाँव से आठ कोस दूर।
गाय बहुत। ऊँट हल जोतने, सामान ढोने, यात्रा के वाहन। कुछ भेड़-बकरी। भैंस इक्की-दुक्की। बणी और गाँव के चारों तरफ जोहड़। फसलों के समय भी पशुओं को चरने-चराने के साधन व स्थान।
बणी और जोहड़ सब के थे। शामलात जमीन थी। Commons. सरकार ने “पंचायत” की आमदनी बढाने के नाम पर शामलाल जमीनें हड़प ली। जोहड़ों की जमीनें नीलामी के माध्यम से खेती की जमीन बनाई गई।
— फैक्ट्रियों द्वारा खुड्डेलाइन लगाये जा रहे दस्तकारों के पशु रखने के साधनों पर चोट। अन्य धन्धों में धकेले जाने की गति में वृद्धि। दस्तकारी की सामाजिक मौत की रफ्तार बढी।
— पाल्इयों की सामाजिक मृत्यु।
— जब-तब काफी बढ जाते चारे के भावों ने गाँवों में गायें रखना बहुत कम किया।
** सड़क
सड़क गाँव पहुँची। “दूध बेचा मानी पूत बेचा” की बात गई। भैंसें तेजी से बढी। गायें घटी और “गऊ माता” बातों में।
** ट्रैक्टर
खेत जोतने में ट्रैक्टर। वजन ढोने में ट्रैक्टर। यात्रा में भी ट्रैक्टर। बढते गये ट्रैक्टर।
— ऊँट आउट हुये। बैल गायब।
— गाय के बछड़ा जनने पर होती खुशी भी उड़ गई। और, गाँवों में घरों से स्थानीय गऊओं का विलोप। खागड़-साँड महत्वहीन हो जाने के संग-संग बढते सिरदर्द भी। कुछ शहरों में धकेले गये।
# और, इधर कुछ वर्षों से गाय-बछड़े-बैल लेने-ले जाने में डर।
गऊ परिवार हरियाणा में गाँवों में अन्तिम साँसें ले रहे लगते हैं। और तब तक वे, छुट्टे गाय-बछड़े-खागड़ के रूप में इधर से उधर खदेड़े जाने को अभिशप्त लगते हैं।
## किसानी की विदाई
— अस्सी वर्ष पहले, 1940 में ब्रिटिश इण्डिया आर्मी में सिपाही भर्ती होने पर किसान परिवार की आर्थिक स्थिति सुधर जाने की बात थी। 1947 के बाद सेना और पुलिस तथा केन्द्र व राज्य सरकार के अन्य विभागों में उल्लेखनीय विस्तार की प्रक्रिया। सरकारी नौकरियों में किसान परिवार के लोगों की सँख्या काफी बढी। लेकिन, यह ऊँट के मुँह में चार दाने जीरा।
— बढती दुर्गत ने 1960 के दशक में किसानों को बदहवासी वाले कदमों की तरफ फिर धकेला। बंगाल हो, पंजाब हो, चाहे आन्ध्र प्रदेश : सरकारों ने युवाओं और वृद्धों को पकड़ कर उनके कत्ल किये।
— स्थिति यह रही थी कि बढती दुरावस्था में भी 1980 तक यहाँ किसानी बड़े पैमाने पर बनी रही। तब तक सरकारी नौकरियों के अलावा नौकरियों से और अन्य धन्धों से किसान परिवारों के युवाओं ने दूरी-सी बनाये रखी थी। जबकि, गाँवों के पूर्व-दस्तकार गाँव के बाहर अथवा गाँव के अन्दर उल्लेखनीय तौर पर अन्य काम करने लगे थे। इससे पूर्व-दस्तकारों की स्थिति किसानों की स्थिति से “अच्छी” दिखने लगी थी। इसने गाँवों में जातियों के आधार पर टकराव बढाने का कार्य भी किया।
— 1990 में बड़े परिवर्तन आरम्भ हुये। सरकारों ने मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन पर लगाई लगामें ढीली करनी शुरू की। और, इन बीस वर्षों में किसान परिवारों के लोगों ने उल्लेखनीय सँख्या में सरकारी नौकरी से बाहर काम ढूँढने आरम्भ किये। इधर के दस वर्ष में तो उत्तरी हरियाणा के सींचित खेती वाले क्षेत्रों के किसान परिवारों के युवा, दक्षिणी हरियाणा के गुड़गाँव स्थिति आई. एम. टी. मानेसर की फैक्ट्रियों में बड़ी सँख्या में ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे मजदूरों के रूप में भी काम करने लगे हैं।
— इधर गाँव में किसानों की सँख्या बहुत तेजी से घटी है। जमीनें हैं, जमीनों के खाते हैं लेकिन अपने और परिवार के श्रम से खेती करने वाले गिने-चुने ही अब बचे हैं। और,आज गाँव में जो किसान हैं उनमें अधिकतर की स्थिति सबसे दयनीय है। ऐसे में आरक्षण-वारक्षण की बातें।
## मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली सामाजिक प्रक्रिया सवा सौ-डेढ सौ वर्ष से किसानी की बढती दुर्गत लिये है।
— किसानी की, किसानों की विदाई पर विलाप करने के लिये उचित कारण कोई बता सकते हैं क्या ?
## सत्ता की, सरकारों की धुरी : मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन, अधिकाधिक नाकारा हो रही है। विनाश वाली इस धुरी ने इधर पृथ्वी पर जीवन को दाँव पर लगा दिया है।
और, हमारे सम्मुख हैं इस धुरी की अँटशँट के संग-संग दुनिया-भर में सरकारों की तेजी से बढती लड़खड़ाहटें ।
मानव प्रजाति द्वारा नई समाज रचना की बढती सम्भावनाओं वाला समय है यह।
हम जीवन्त समय में हैं।
—— 29 जनवरी 2021
● A Note on Peasants in the Indian Subcontinent ●
In response to a mail from a friend in Europe :
# Victory of British East India Company in the 1757 Battle of Plassey can be seen as the beginning of the transfer of state power from feudal interests to that of market interests in the Indian subcontinent.
Feudal natural economy premised on the production of use values, with the right of feudal lords to gratis appropriation of a portion of the produce, was displaced by sales and purchases in the markets.
With increasing areas under the Company’s rule, rural landscape underwent massive transformations in the subcontinent. A corollary of the replacement of payments in kind by payments in money was the transformation of serfs into peasants. Use of personal and family labour for production for the market is the hallmark of peasants, be they landowning peasants or tenants of landowners. British East India Company auctioned agricultural land for which the biddings were by moneyed people in cities. Last quarter of the nineteenth century onwards, the British Government also gave agricultural land in canal irrigated areas to persons in appreciation of their services to the Empire.
# For expansion of market relations, British East India Company passed the first land acquisition act in the subcontinent in 1824. This underwent revisions. After the 1857 revolt, British Government took the reins of power in its hands. Final version of their land acquisition act came in 1894. In 1947, the Government of India adopted this act in totality and applied it to the whole of India. The land acquisition act of 1894 remained unaltered till 2013 in India.
# The earliest revolts against the imposition of market relations in place of feudal natural economy, led by the fakirs and sanyasis, were suppressed by the army of British East India Company. Such revolts unfolded in different parts of the subcontinent as the Company rapidly conquered the subcontinent.
A significant change in the global scenario of foodgrains and other farm produce, was the commencement of their exports from the USA to Europe in 1863. In the Indian subcontinent, building of canals for irrigation that began in the last quarter of the nineteenth century, made significant impact on peasant farming. The two together greatly increased exploitation of the peasants. Other dimensions of peasant conflicts became significant. Migrations of peasants from the subcontinent to other parts of the world became significant.
# In the first quarter of the twentieth century, factory production in some pockets in the subcontinent. Assertions of the representatives of wage-labour based commodity production for greater say in the affairs of the subcontinent became increasingly significant. The representatives of this new mode of production began presenting their interests as “demand for independence”. Like in other parts of the world, in the subcontinent also, increasing discontent of the peasants was channelised into “national liberation/struggle for independence”.
October 1917 revolution in Russia that led to the formation of state-capitalist Soviet Union, contributed significantly to the global dimension of the peasant question in the subcontinent. “Communist Party of India” formed in the 1920s became a representative of state-capitalist Soviet Union and acquired influence amongst peasants in some regions of the subcontinent. Up to the 1980s, “communist parties” in India have led significant numbers of peasants in Punjab, Andhra Pradesh/Telangana, Bengal, Tripura, Bihar into the swamps.
# Peasants were recruited in the British East India Company. Later, peasants became soldiers in British India Army and the police force. Post 1947, peasants in significant numbers have been employed in the Indian Army (now a million and three hundred thousand plus persons), central government paramilitary forces (now a million and two hundred thousand plus), in the stated armed police force plus routine police force, and Air Force, Navy…Peasants have also been employed in other central and state services. Numbers may look impressive but this employment is a handful of straw for a hungry camel. And, peasants for quite some time avoided other types of wage-work and hung-on to one-two-five-seven acres of land cultivation in the villages.
Whereas, post-1947 factory production and state takeover of commons land in the villages had forced large numbers of artisans out of the villages and into various kinds of urban employment. By 1960s, the conditions of peasants dependent on land alone had become so bad that the situation of artisans who had left the villages in dire straits, looked “good”. Visits of ex-artisans to their villages caused envy amongst peasants who were earlier their superiors. This was also expressed in conflicts. The slaughter of ex-artisans in a village in Tamil Nadu in 1968. It also finds expression in each peasant social grouping forming its own “socialist” party in Tamil Nadu and other states in the hope of raising their social status.
# Desperation of the peasant mode of production also gave rise to the maoist armed upsurge in the 1960s. This was ruthlessly crushed by the state, fake encounters was one of the modus operandi. A look at Punjab : after the maoists were crushed, the desperation of the peasants expressed itself in the Khalistan movement for an independent Sikh country. And, crushing of the Khalistani movement has provided some breathing space to “mass movement” maoists. Amongst the thirty plus peasants unions now agitating at Delhi borders, majority of them are self-proclaimed maoists.
# Incomparable leaps in the productive forces that began in the 1970s with the introduction of electronics in the production processes, have reconstituted the world. Wage-workers have come to the fore on the social stage throughout the globe. China is the new workshop of the world. Ten years after the state in China, the state in India adopted the path of the state in China. Now India is significant in global industrial production.
In the subcontinent, the state in Bangladesh has gone for rapid industrialisation but the state in Pakistan has lagged in this. The position of agriculture in the economy in India has fallen significantly in these thirty years. The situation of peasant farming has worsened during this period but significant numbers have found space in factory production related activities. Similar situation can be said to be in Bangladesh. And, in Pakistan, peasant desperation is significantly being expressed in the Taliban armed struggle and related activities.
In India, maoist armed struggles and other activities have shrunk to the levels of minor irritants. Peasant social groupings now are asking for reservations in employment etc. A sum-up of this could be the writings from jail of a leading theoretician of the CPI (Maoist), Kobad Ghandy’s six articles published in a mainstream magazine, “The Mainstream” from August 2012 to January 2013, titled “Questions of Freedom and People’s Emancipation” : ” …. Communism seems no longer an attraction for the youth, as it was for us in the 1960s and 1970s.” + “…. by the 1990s most communist/Left movements/organisations collapsed, and the few that remained existed, fighting with their backs to the wall. This is the harsh reality even today — a situation worse than ever before!! Never in this past one-and-a-half centuries of communist thought, has the situation been so pathetic.”
As to the Left in general, recently we wrote to a friend : “The left is irrelevant in India. All splinters of it have, since 2014, rapidly become parts of a tail of the Congress Party, which itself is in disarray.”
# During these ten years, wage workers in general and factory workers in particular in Bangladesh and India are engendering radical ruptures as a matter of routine. Activities of the radical social subject are significantly increasing the possibilities of radical social transformations. Yes, we are in vibrant times, in lively times.
A 2012 interaction between Primitive Anarchists and Majdoor Samachar/Kamunist Kranti
In early 1990s, a Maoist student leader interacted with Majdoor Samachar. Together with his friends he left the Maoist organisation and in the university they formed a Group Against Wage Slavery. Questions on representation and delegation were raised by the group. The student who had initiated the process, left for higher studies to Germany. The group in the university dispersed.
From Germany, he has maintained relations with Majdoor Samachar. He settled in Germany and is in academics. This friend has been attempting a synthesis between Primitive Anarchism and Majdoor Samachar. He arranged an interaction in Faridabad with Primitive Anarchist theoretician John Zerzen during his 2012 visit to India. What follows this introduction is Majdoor Samachar/Kamunist Kranti write-up that we presented during that interaction.
## We had received a review copy of Michael Seidman’s, “Workers Against Work” (1991). The book is a study of workers activities in Spain and France during 1936. The conclusion of the book is bizarre :
Workers are against work. So, as long as work is necessary, the need for the state is indispensable.
The book has interesting details of anarchist ministers in the Republican Government in Spain. An anarchist was Minister of Labour in the government. 1936 decrees of the anarchist Labour Minister against workers in Spain are similar to the decrees of the Bolsheviks against workers in Russia during 1918-23 period.
Anarchists glorify their role in Spain in 1936. In interactions, when the role of the anarchist Labour Minister has been brought up, silence has been the response of anarchists, that we have come across.
## After publication of our, “a ballad against work” in 1996, we have had interactions with different strands of anarchists. Majdoor Samachar/Kamunist Kranti reading of anarchism is :
Anarchism does not seem to have a reading of the social process. Anarchism does not seem to have a social subject, a radical social subject. So, anarchists seem to be doomed to endless preach-teach and/or propaganda by actions.
छुट-पुट धमकियाँ और मार-पीट -3
## कम्युनिस्ट क्रान्ति के हिन्दी और अँग्रेजी में 1986 तथा 1988 में छपने ने दुनिया में हमारे सम्पर्क बढाये थे। इतालवी वाम में जड़ों वाले इंग्लैण्ड में कम्युनिस्ट वरकर्स ऑरगैनाइजेशन के दो सदस्य फरीदाबाद आये थे। विश्व में राजसत्ता तथा हिरावल विरोधी वाम धाराओं के लिये मंच के तौर पर अमरीका में डिस्कशन बुलेटिन छापते बुजुर्ग फ्रैन्क जिरार्ड फरीदाबाद आये थे। और, a ballad against work (1996), Reflections on Marx’s Critique of Political Economy (1997), Self-Activity of Wage-Workers : Towards a Critique of Representation & Delegation (1998) छपने के बाद विश्व में सम्पर्क अधिक बढे थे। फ्रांस से शॉफ जोड़ी, कनाडा से परेश चट्टोपाध्याय, अमरीका से लोरेन गोल्डनर, आस्ट्रेलिया से विन्सेंट, इंग्लैंड से जोह्न क्लेग, अमरीका से टॉड गुडनाव फरीदाबाद आये थे। इस सिलसिले में 2000 में लय-ताल में दक्षिण अफ्रीका में जन्मी और लन्दन में रह रही नारीवादी जिग्गी मेलामेड और जर्मनी में जन्मे लड़ाकू अन्तर्राष्ट्रीयवादी मारको साथ-साथ फरीदाबाद आये थे ।
2005 में होण्डा मानेसर फैक्ट्री मजदूरों पर पुलिस लाठीचार्ज दुनिया में खबर बनी थी। जर्मन भाषा में कॉल सेन्टर में काम के लिये तीन महीने के वर्क वीजा पर 2007 में मारको गुड़गाँव आये थे। हर सप्ताह वे फरीदाबाद आने लगे। पाँच हजार प्रतियाँ प्रतिमाह फरीदाबाद और ओखला फैक्ट्री मजदूरों के बीच ले जाने से हम संतुष्ट थे। मारको ने हमें गुड़गाँव खींचा। उनके लौटने पर एक दिन सुबह मजदूर समाचार की 500 प्रतियाँ ले कर हम पीर बाबा रोड़, उद्योग विहार फेज-1, गुड़गाँव पहुँचे। नदी की तरह बहते स्त्री-पुरुष मजदूरों को देखा। सात हजार प्रतियाँ प्रतिमाह एक अनिवार्य आवश्यकता बनी। महीने के 7000 प्रतियाँ छापना आरम्भ किया।
■ 7 मार्च 2008 को भूपेन्द्र अकेले मजदूर लाइब्रेरी में बैठे थे जब उद्योग विहार, गुड़गाँव से एक कम्पनी के गुस्से से भरे दो डायरेक्टर धमकाने पहुँचे थे। मजदूर समाचार के अप्रैल 2008 अंक में विवरण दिया है।
■ उद्योग विहार, गुड़गाँव स्थित रादनिक गारमेन्ट एक्सपॉर्ट्स फैक्ट्री मैनेजमेन्ट के लोग धमकाने मजदूर लाइब्रेरी आये थे।
## मजदूर समाचार की कुछ प्रतियाँ डाक से भी भेजते रहे हैं। इलाहाबाद में भारत की क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी, R.S.P.I.(M-L), के कार्यालय डाक से पहुँचता था। पार्टी ऑफिस सम्भाले मणि भूषण मजदूर समाचार पढते थे।
2009 में मणि भूषण गुड़गाँव पहुँचे। एक फैक्ट्री में नौकरी करने लगे। मणि भूषण जी ने इन्डस्ट्रियल मॉडल टाउन, मानेसर में मजदूर समाचार बाँटना आरम्भ किया। महीने में आठ हजार प्रतियाँ छापने लगे। जून 2011 में मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री में मजदूरों की गतिविधियों ने महीने में मजदूर समाचार की दस हजार प्रतियाँ आवश्यक बनाई।
■ जून 2011 के बाद मारुति मजदूरों के बीच हर महीने मजदूर समाचार बाँटने के संग-संग मणि भूषण जी और मैं मारुति मजदूरों से मिलने उनके अलियर गाँव में निवासों पर नियमित तौर पर जाने लगे थे। मारुति मैनेजमेन्ट के मजदूरों पर अगस्त-अंत में आक्रमण के बाद पूरे सितम्बर माह 1500-1500 मजदूर फैक्ट्री गेट के बाहर 12-12 घण्टे की दो शिफ्टों में बैठे। राजनीतिक पार्टियों के लोग, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के कर्मी, दिल्ली से छात्र-छात्रायें वहाँ पहुँचते रहे। फैक्ट्री गेट के सामने लगे तम्बू में माइक लगे थे और आने वाले वहाँ जाते, नेतृत्व से मिलते, प्रमुख लोग भाषण देते-नारे लगवाते। यह दिन-भर चलता। हम लोग सितम्बर में शायद हर रोज ही वहाँ जाते थे परन्तु तम्बू की बजाय, काफी दूरी तक पसर कर बैठे मजदूरों के बीच बैठते थे। अलियर-ढाणा में जून से कमरों पर जा कर मिलने के कारण कई मारुति मजदूरों से परिचय था। सितम्बर में उनके बीच नियमित बैठने ने परिचय बढाये। एक दिन दिल्ली की दो छात्राओं के साथ मजदूरों के बीच बैठे थे जब तैश में दो-तीन वरकर आये और धमकाने के लहजे में सवाल पूछने लगे थे : “कौन हो? यह लड़कियाँ यहाँ क्यों बैठी हैं? यह लड़कियाँ हँगामा कर के हमें फँसायेंगी।”
■ आई एम टी मानेसर में ऑटो डेकॉर फैक्ट्री मैनेजर ने तनखा में देरी आदि की बातें छपने पर फोन पर लल्लो-पच्चो की। फिर फैक्ट्री यूनियन प्रेसिडेंट ने फोन किया :
“यह बातें आपने किसके कहने पर छाप दी?”
“ऑटो डेकॉर मजदूरों की बातें हैं।”
“फैक्ट्री के बारे में आप मैनेजमेन्ट अथवा यूनियन की बातें ही छाप सकते हैं। यूनियन एक्शन लेगी। यूनियन के जिला नेताओं से बात कर हम आप पर केस करेंगे।”
■ जुलाई 2012 में मारुति मजदूरों के विद्रोह के बाद। आई एम टी मानेसर सैक्टर-3 में एक सुबह मजदूर समाचार बँट रहा था। निकट के खोह गाँव से दो-तीन अधेड़ आये और धमकाते हुये बोले थे : “यहाँ नहीं बाँटोगे। फैक्ट्रियाँ बन्द करवाओगे। यहाँ हम नहीं बाँटने देंगे।”
■ आई एम टी मानेसर में सुबह बाँटने के बाद दोपहर दो बजे से मारुति सुजुकी गुड़गाँव फैक्ट्री मजदूरों की बी-शिफ्ट में जून 2011 के बाद से मजदूर समाचार बाँटने जाते हैं। मारुति मैनेजमेन्ट द्वारा गार्डों के जरिये रुकावट डालने के कारण फैक्ट्री गेट से बहुत दूर, मुल्लाहेड़ा रोड़ पर बाँटते हैं जहाँ से बड़ी सँख्या में मारुति मजदूर पैदल फैक्ट्री पहुँचते हैं। दो वर्ष पहले एक दिन वहाँ पहुँचे ही थे कि फोन आया कि मिलने फरीदाबाद जा रहे हैं। उन्हें बताया और स्थान के बारे में जानकारी दी। कार में तीन लोग पहुँचे। बी-शिफ्ट वरकर ड्युटी जा रहे थे। इन्तजार करने को कहा और इस दौरान पढने को मजदूर समाचार दिया तब उनका गुस्सा साफ दिख रहा था।
“बड़े अखबार भी फैक्ट्री का नाम नहीं छापते। आपने इतनी कम्पनियों के नाम छापे हैं।”
“कोई गलत बात छपी है क्या?”
“सब गलत छापा है।”
ऐसे लहजे में बात कर रहे थे, धमका रहे थे कि फैक्ट्री में ऑफिस में बुला कर अकेले मजदूर पर डाले जाते दबाव का कुछ अहसास हुआ।
आई एम टी मानेसर से आये थे पर बार-बार पूछने पर भी फैक्ट्री का नाम नहीं बताया।
■ मजदूर समाचार के अप्रैल 2017 अंक के दूसरे पन्ने पर सामग्री : “फ्रिक इण्डिया (एन एच पी सी चौक, फरीदाबाद) फैक्ट्री में 30-40 परमानेन्ट मजदूर और 550 टेम्परेरी वरकर। सौ-सवा सौ हैल्परों को तीन महीने बाद ब्रेक और फिर उन्हीं को तीन महीने नहीं रखते। चार सौ से ज्यादा कारीगरों को 6 महीने, फिर 6 महीने, फिर एक-एक साल रखने का सिलसिला।”
फ्रिक इण्डिया मैनेजमेन्ट ने इस सामग्री को कम्पनी की मानहानि वाली पाया। फ्रिक इण्डिया कम्पनी की मानहानि करने के लिये फ्रिक मैनेजमेन्ट ने 18 अप्रैल 2017 को हमें दस लाख रुपये का लीगल नोटिस भेजा था।
## 1982-84 के दौरान दो पन्ने वाले मजदूर समाचार की एक प्रति पच्चीस पैसे में बिकती थी। 1986 से चार पन्ने के मजदूर समाचार की नई सीरीज आरम्भ हुई और पहले पन्ने पर “1/” छपा होता था परन्तु फ्री बँटता था। 1993 के बाद पाँच हजार प्रतियाँ हर महीने छापने लगे तब भी पहले पन्ने पर “1/” छपता था लेकिन साल-भर “सैम्पल कॉपी, फ्री” की मोहर लगाई थी। फिर पहले पन्ने पर “फ्री” छापने लगे थे। पोस्टल रेजिस्ट्रेशन करवाया था इसलिये डाक से मजदूर समाचार भेजने में कम खर्च लगता था। डाक विभाग ने मजदूर समाचार के फ्री वितरण पर ऑडिट ऑब्जेक्शन का हवाला देते हुये 2007 में हमें 72 हजार 499 रुपये जमा करने के लिये पत्र भेजा था। तब से पहले पन्ने पर फिर से “1/” छापने लगे परन्तु मजदूर समाचार फ्री बाँटना जारी रखा। चिन्तामणि जी की 2015 में मृत्यु के बाद डाक से मजदूर समाचार भेजना बन्द कर दिया।
2011 में मारुति मानेसर फैक्ट्री मजदूरों की हलचलों ने दस हजार प्रतियाँ आवश्यक बनाई। फिर बढते-बढते पन्द्रह हजार पर सँख्या ठहर-सी गई थी। शिफ्टों के समय मजदूर समाचार दिल्ली में ओखला औद्योगिक क्षेत्र, नोएडा फेज-2, उद्योग विहार गुड़गाँव, आई एम टी मानेसर, और फरीदाबाद में फैक्ट्री मजदूरों के बीच हर महीने बँटता रहा। मजदूर समाचार के साथी ही बाँटने का कार्य मुख्यतः करते रहे हैं। वर्षों से सड़कों पर बाँटने वालों से दो-चार-दस प्रतियाँ सहकर्मियों के लिये कुछ मजदूर लेते रहे थे। ऐसे वरकरों की सँख्या बढती आई थी और 2018 में बहुत उल्लेखनीय परिवर्तन आरम्भ हुये। नोएडा, ओखला, उद्योग विहार गुड़गाँव, आई एम टी मानेसर, फरीदाबाद में मजदूर समाचार के पाठक बहुत तेजी से मजदूर समाचार के वितरक बनने लगे। ठहराव टूटा। छलाँगें लगने लगी। मजदूर समाचार की 15 से 18 हजार, बीस हजार, पच्चीस हजार, 28 हजार, तीस हजार… 35-36 हजार प्रतियाँ हर महीने। और, मजदूर समाचार निशुल्क-मुफ्त-फ्री बँटता रहा है।
## एक मोड़ के लिये प्रयोग के वास्ते मजदूर समाचार का मार्च 2020 अंक नहीं छापा। “मजदूर समाचार पुस्तिका एक” मार्च में छापी और इसे ले कर आई एम टी मानेसर तथा फरीदाबाद में फैक्ट्री के मजदूरों में जाना आरम्भ किया। पहली रेसपोन्स उत्साहवर्धक। और, सरकार ने 23 मार्च से लॉकडाउन-पूर्णबन्दी आरम्भ की। पुस्तिकायें तैयार करना लॉकडाउन में चला है और इनकी पीडीएफ का ऑनलाइन प्रसारण जारी है।
मार्च से अक्टूबर के दौरान व्हाट्सएप पर हिन्दी में हुये आदान-प्रदानों वाली 180 पन्ने की पुस्तक की पीडीएफ ऑनलाइन की। इधर हमारे पहले प्रकाशन के तौर पर इसकी छपाई आरम्भ हो गई है।
● छुट-पुट धमकियाँ और मार-पीट -2
## 1982 में गेडोर हैण्ड टूल्स फैक्ट्री में यूनियन का चुनाव करवाने के लिये बस्ती-बस्ती जा कर साथियों ने हस्ताक्षर करवाये। तीनों प्लान्टों के डेढ हजार के करीब मजदूरों के दस्तखत ले कर लन्च ब्रेक में फस्ट प्लान्ट के भूपेन्द्र यूनियन ऑफिस में प्रेसिडेंट को देने गये थे। वहाँ बैठे यूनियन पदाधिकारी बोले थे : “कम्युनिस्ट देशों में कहीं चुनाव होते हैं क्या?” मजदूरों के हस्ताक्षर वाले कागज फाड़ दिये थे। और, भूपेन्द्र के पेट में घूँसे मारे थे। फिर, फस्ट प्लान्ट के एक लम्बे-तगड़े वरकर द्वारा कम कद-काठी के भूपेन्द्र के खिलाफ शिकायत, “भूपेन्द्र ने फैक्ट्री में उससे जबरन दस्तखत करवाये” को आधार बना कर मैनेजमेन्ट ने भूपेन्द्र को सस्पेंड कर दिया था।
गढवाल में एक गाँव में जन्मे भूपेन्द्र ने एम.ए. तक पढाई की थी। नौकरी नहीं लगी। बारहवीं पास बता कर 1978 में गेडोर फैक्ट्री में हैल्पर लगे थे।
## आन्तरिक आपातकाल में सरकार ने फरीदाबाद में बड़े पैमाने पर झुग्गियाँ तोड़ी थी। पहले फैक्ट्री से कुछ दूरी पर रहते गेडोर फैक्ट्री के वरकर चिन्तामणि तब से आठ किलोमीटर दूर से ड्युटी के लिये आने-जाने लगे थे। आठ-आठ घण्टे की तीन शिफ्टों में उत्पादन होता था। 1982 में नौकरी छोड़ो वाली बात पर फैक्ट्री में यूनियन लीडरों का विरोध बढने का समय। चिन्तामणि बी-शिफ्ट से छूटने पर रात बारह बजे बाद मथुरा रोड़ पर साइकिल से घर जा रहे थे। अचानक मोटरसाइकिल पर दो लोग चिन्तामणि जी पर हाकियों से हमला कर चले गये थे।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में एक गाँव में जन्मे चिन्तामणि की हाई स्कूल पास करने के बाद सरकारी नौकरी लग गई थी। जाति के आधार पर अपमान करने वाले की पिटाई कर चिन्तामणि जी सरकारी नौकरी छोड़ कर फरीदाबाद पहुँचे थे। यहाँ कई फैक्ट्रियों में नौकरी करने के बाद वे गेडोर फैक्ट्री में 1972 में लगे थे।
## गेडोर मजदूरों में यूनियन लीडरों के प्रति बढते विरोध के दौरान विजय शंकर ने एक साँय मुजेसर रेलवे फाटक पार ही किया था कि घात लगाये दस-बारह लोग उन्हें पीट कर गेडोर फैक्ट्रियों की तरफ चले गये थे।
सरकार द्वारा 1977 में आन्तरिक आपातकाल हटाये जाने के बाद फरीदाबाद में हड़तालों की बाढ-सी आई थी। कुछ ठहराव-सा 1979 में केन्द्रिय रिजर्व पुलिस बल (सी आर पी) द्वारा की गोलीबारी में कई मजदूरों के मारे जाने पर आया था।
हड़तालों की उस लहर में मथुरा रोड़ पर स्थित दिल्ली फरीदाबाद टैक्सटाइल फैक्ट्री में हड़ताल का नेतृत्व विजय शंकर ने किया था। नौकरी से निकाले गये थे।
विजय शंकर बातों को जोड़ कर रखने में बहुत कुशल थे। प्रखर वक्ता थे। हिन्दी में पढते बहुत थे। वे उस माओवादी समूह से जुड़े जिसमें मैं भी था। विजय शंकर ने मुजेसर फाटक पर पान का खोखा लगाया और उसे राजनीति का अड्डा बनाया था। कई फैक्ट्रियों के मजदूर बगल की झुग्गियों में विजय शंकर के इर्द-गिर्द मार्क्स, लेनिन की पुस्तकों के अध्ययन में शामिल होते थे। बाहर से आने वाले ग्रुप के लीडर गोपनीयता बरतते थे और विजय शंकर के माध्यम से आयोजित बैठकों में मजदूरों से बात करते थे।
विजय शंकर से मेरा मिलना जनवरी 1982 में हुआ था। ग्रुप लीडरों ने उन्हें मना किया परन्तु विजय शंकर ने मिलना जारी रखा। ग्रुप ने उन्हें अलग कर दिया और विजय शंकर खुल कर मजदूर समाचार से जुड़ गये थे। कुछ समय बाद उन्होंने पान का खोखा छोड़ दिया था और पूरा समय मजदूर समाचार में लगाने लगे थे।
## बात बाटा फैक्ट्री की। अखिल भारतीय एटक सम्मेलन में पारित प्रस्ताव : “टेम्परेरी वरकरों को परमानेन्ट मजदूर बनवाने के लिये संघर्ष करो” का हवाला दे कर यूनियन ने 1983 में वर्षों से टेम्परेरी 300 वरकरों को फैक्ट्री गेट पर बैठा दिया। यूनियन ने तम्बू लगवाया और प्रतिदिन लीडरों के भाषण। तीन महीने बाद अचानक एक दिन सुबह शिफ्ट आरम्भ होने से पहले परमानेन्ट मजदूरों को भाषण देते हुये बाटा यूनियन महासचिव ने कहा था कि धरने से यूनियन का कोई लेना-देना नहीं है। अगले रोज बाटा फैक्ट्री में लन्च ब्रेक से कुछ पहले गेट के बाहर यूनियन के सूचना पट पर हमने हाथ से लिखा पर्चा चिपकाया और हरि लाल तथा मैं वहाँ बगल में खड़े हो गये थे। लन्च का हूटर बजते ही अन्य दिनों की तरह बाटा मजदूरों की भीड़ दौड़ती हुई गेट से निकली। कुछ ही मजदूरों ने पर्चा पढा था कि उसे नोच लिया गया। “हमारे बोर्ड पर पर्चा क्यों चिपकाया?” “मजदूरों का बोर्ड है।” कुछ लोग हमें धक्के मारने लगे और कुछ लोग हमें बचाने लगे। खींचा-खींची में बाटा गेट से बाटा चौक पर पहुँच गये थे।
पर्चा पढा नहीं जा सका था इसलिये 100 प्रति छपवा कर अगले दिन सुबह सात बजे से हरि लाल और मैंने बाटा गेट के दो तरफ बाँटा था। और, बाटा मैनेजमेन्ट ने लकड़ी का वह सूचना पट हटा कर लोहे के फ्रेम वाला नोटिस बोर्ड बनाया था। नये सूचना पट पर एक तरफ बाटा यूनियन लिखा था, दूसरी तरफ बाटा कम्पनी लिखा था और सुरक्षा के लिये स्टील के महीन तारों की जाली तथा ताला लगाया था।
## नीलम पुल की बगल में एस्कॉर्ट्स यूनियन का कार्यालय है और उसी में एच.एम.एस का जिला कार्यालय भी है। आन्तरिक आपातकाल में जेल में रहे श्री दलीप सिंह एडवोकेट, एच.एम.एस. जिला प्रधान के तौर पर वहाँ बैठते थे। एच.एम.एस. का पदाधिकारी बनने पर सतीश कुमार भी वहाँ बैठते थे। सी.पी.आई.(एम)-सीटू में सक्रिय सतीश कुमार गुडईयर टायर फैक्ट्री में यूनियन के प्रेसिडेंट भी रहे थे। आपातकाल हटते ही बहुत तेज हुई मजदूरों की हलचलों के दौरान बनाई गई मजदूर संघर्ष समिति में केन्द्रीय यूनियनों से नाते तोड़ कर शामिल होने वाली अस्सी यूनियनों के नेताओं में सतीश कुमार भी थे। 1979 में पुलिस फायरिंग के बाद मजदूर संघर्ष समिति गायब हो गई थी। गुडईयर टायर फैक्ट्री में नौकरी से निकाले जाने के बाद सतीश कुमार एच.एम.एस. पदाधिकारी बने थे।
1983 में जब-तब दलीप जी और सतीश जी से मिलने जाते थे। संयोग से एक बार इंग्लैण्ड में ट्राट्स्किवादियों की मिलिटेन्ट टेन्डेन्सी के एक नेता, उनका नाम शायद सिलवरमैन था, वहाँ मिले थे। मजदूर समाचार के बारे में जान कर वो बहुत प्रसन्न हुये और फिर मिलने का समय तय किया।
बलविन्द्र और मैं समय पर पहुँच गये। “मीटिंग में व्यस्त” की बात का अर्थ हम नादानों को समझ में नहीं आया था। हम इन्तजार में बैठे ही रहे। अन्ततः ट्राट्स्किवादियों की मिलिटेन्ट टैन्डेन्सी के नेता एस्कॉर्ट्स यूनियन नेताओं के संग हमारे पास आ कर बैठे और “मीटिंग में व्यस्त” का अर्थ हमें समझ में आया।
एस्कॉर्ट्स यूनियन प्रेसिडेंट श्री सुभाष सेठी कर्ताधर्ता थे। एच.एम.एस. उन पर निर्भर थी। मिलिटेन्ट नेता उन पर निर्भर थे। जबकि मजदूर समाचार में उनकी गतिविधियों की तीखी आलोचना होती थी। लगता है कि एस्कॉर्ट्स नेता ने हमारे बारे में मिलिटेन्ट नेता को बताया था और इस ने गुड़-गोबर किया था। हमें बुलाया था इसलिये पहले टालने के प्रयास किये गये। असफल। आड़ू से पाला पड़ा था। अन्ततः अन्तर्राष्ट्रीय नेता अपने “तेज” से हमें ध्वस्त करने…
बातचीत शुरू हुई। मिलिटेन्ट नेता ने एस्कॉर्ट्स नेता की हमारे द्वारा आलोचना की आलोचना की। हम ने तथ्यों को रखा। हमारे द्वारा यह बताने पर कि एक फैक्ट्री में मजदूरों और मैनेजमेन्ट के बीच विवाद में जिला पुलिस प्रमुख को पंच बनाया है…. मिलिटेन्ट नेता हम पर पिल पड़े थे : “क्या गलत है इसमें? फरीदाबाद में अस्सी यूनियनें चलाते हैं! मजदूर तुम्हें पीटेंगे….”
1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय में माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों और संस्कृति कर्मियों के कार्यक्रम में मजदूर समाचार ले कर गया था। एक अधेड़ गम्भीर मुद्रा में मिले। धमकाने के लहजे में बोले थे :”एस्कॉर्ट्स यूनियन की आलोचना बन्द करो।” उनका नाम याद नहीं है।
बलविन्द्र दिल्ली में अपने पिताजी से विद्रोह कर कानपुर चले गये थे। केश कटवाये। कानपुर में विश्व-भर के वामपंथी साहित्य के केन्द्र, करन्ट बुक डिपो पर जाते थे। उस माओवादी ग्रुप के सम्पर्क में आये जिसमें मैं भी था। फरीदाबाद आ गये और ओरियन्ट स्टील फैक्ट्री में सुपरवाइजर लगे। एक बार मध्य प्रदेश से दिल्ली में ग्रुप लीडर से मिलने आया तब बलविन्द्र के सीही गाँव में कमरे पर रुका था। 1982 में बलविन्द्र मजदूर समाचार के अतिसक्रिय लोगों में थे। कानपुर गये तब करन्ट बुक डिपो से इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट (आई सी सी) संगठन का साहित्य भी लाये थे।
## आई.डी.बी.आई. से ढाई करोड़ रुपये का ऋण ले कर गेडोर फैक्ट्री में इलेक्ट्रोप्लेटिंग विभाग में ऑटोमेशन पूरा हो गया था। मजदूरों के विरोध ने बड़े पैमाने पर मजदूरों की छँटनी करने की कम्पनी योजना को अटका दिया था।
नई योजना बनी। मैनेजमेन्ट ने तनखा में देरी करनी आरम्भ की और सीटू ने लड़ाकू यूनियन का लिबास पहना। 1983 में यूनियन ने तीनों प्लान्टों में टूल डाउन स्ट्राइक की घोषणा की। शिफ्टों में वरकर ड्युटी जाते और आठ घण्टे फैक्ट्री में बैठ कर लौटते। टूल डाउन को एक महीना हो गया तब गेट मीटिंग में प्रेसिडेंट ने समझौता सुनाया परन्तु मजदूरों ने उसे ठुकरा दिया। टूल डाउन जारी। उत्पादन बन्द हुये दो महीने हो गये तब मीटिंग में यूनियन प्रेसिडेंट ने फिर एक समझौता सुनाया और मजदूरों ने उस समझौते को भी ठुकरा दिया। साढे तीन हजार मजदूरों द्वारा टूल डाउन जारी। कम्पनी और यूनियन फँस गई थी। उत्पादन बन्द को तीन महीने हो रहे थे तब फिर मीटिंग। योजना अनुसार अन्य फैक्ट्रियों से भी लोग लाये गये थे। यूनियन प्रेसिडेंट द्वारा समझौते की घोषणा को मजदूरों द्वारा ठुकराने की परवाह किये बगैर प्लान्टों में भाग कर कुछ लोगों ने मशीनें चालू कर दी थी। प्रेसिडेंट और महासचिव यह करने सैकेण्ड प्लान्ट में कूदे थे। कोसते हुये अपने-अपने प्लान्टों में जाने की बजाय हजारों मजदूर सैकेण्ड प्लान्ट में प्रधान और महासचिव के पीछे दौड़े। उन्हें पकड़ा। पिटाई की। दोनों लीडर भाग गये। टूल डाउन जारी रही थी।
साथियों ने अगले दिन, साप्ताहिक अवकाश के दिन राजदूत फैक्ट्री के सामने पार्क में आम सभा बुलाई। हजारों मजदूरों के बीच यूनियन लीडरों से इस्तीफा लेने के लिये कमेटी बनाने पर सहमति बनी। यूनियन ऑफिस पर साथियों का नियन्त्रण। टूल डाउन जारी। तीन दिन बाद यूनियन प्रेसिडेंट ने मीटिंग बुलाई। भारी पुलिस बल की उपस्थिति में प्रधान ने इस्तीफे की घोषणा की और नया नेतृत्व चुनने को कहा। साथियों की संघर्ष समिति बनाने की योजना असफल हो गई। पहले महासचिव रहे बन्दे ने नये नाम पेश किये और वो नये नेता मान लिये गये। मीटिंग के तत्काल बाद जिन दो साथियों के नाम यूनियन बॉडी में दिये गये थे उन्होंने मजदूरों के विरोध के बावजूद अपने इस्तिफों की जानकारी तीन पोस्टरों में दे दी थी। तीनों प्लान्टों में मशीनें चालू हो गई।
परन्तु लटकी छँटनी लटकी ही रही थी। 1984 आ गया। मैनेजमेन्ट ने नये सिरे से जाल बुना। मेन्टेनेन्स के नाम पर सबसे नये प्लान्ट, थर्ड प्लान्ट वरकरों की छुट्टियाँ करने और बाकी दो में उत्पादन जारी रखने की बात। साथियों द्वारा थर्ड प्लान्ट गेट पर अनशन करने पर लफड़ा बढता देख मैनेजमेन्ट ने तत्काल कदम उठाया। सीटू प्रेसिडेंट के दादा लोग लन्च ब्रेक से पहले अचानक थर्ड प्लान्ट पर पहुँचे और धक्कामुक्की कर साथियों को वहाँ से खदेड़ दिया था।
नये वाले यूनियन लीडरों को लाठियों से भगा कर सीटू प्रेसिडेंट की कमेटी ने कमान अपने हाथों में ली। प्लान्टों के अन्दर घेर कर। ड्युटी आते-जातों को रास्ते में पीट कर। मजदूरों से इस्तीफे लिये। सैक्टर-11की पुलिस चौकी और गेडोर फैक्ट्री के अन्दर तम्बुओं में पुलिस। साथियों को सुनाते रहते : आज रात इसके हाथ-पैर तोड़ेंगे। डेढ हजार मजदूरों को निकालने में डेढ वर्ष लगा था।
गेडोर हैण्ड टूल्स का नाम बदल कर झालानी टूल्स। और, मैनेजमेन्ट के शब्द : कम्पनी की छह फैक्ट्रियों से 2300 मजदूरों ने वालेन्ट्री सेपेरेशन लिया।
## हमारे अनुभव यूनियनों की भूमिका पर प्रश्न उठा रहे थे। बलविन्द्र कानपुर से इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट (आई.सी.सी.) के प्रकाशन लाये थे। जर्मन-डच वाम और इतालवी वाम की यूनियनों की आलोचना हमें ठीक लगने लगी थी।डाक द्वारा आई.सी.सी. से सम्पर्क किया। उनके प्रकाशन मिलने लगे थे। मजदूर समाचार के अप्रैल 1984 अंक में हम ने आई.सी.सी. की प्रस्थापनायें छापी। और अंक 26, मई 1984 अंक में कुछ समय तक मजदूर समाचार छापना बन्द करने की सूचना दी थी।
प्रश्न आधार का बना था। लेनिन की साम्राज्यवाद की धारणायें नहीं तो उनके स्थान पर क्या?
आई.सी.सी. ने रोजा लुक्जेमबर्ग की पुस्तक, The Accumulation of Capital का जिक्र किया। और, रोजा की पुस्तक के आरम्भ में ही मार्क्स के enlarged reproduction (वृहत्तर पुन: उत्पादन) के विशलेषण को गलत कहा गया है! जबकि, आई.सी.सी. ने रोजा और मार्क्स के, दोनों के विशलेषण को सही कहा!! और, यूरोप से आये आई.सी.सी. के एक सदस्य वैन तो बहुत-ही भोले लगे जब वे हमें बोले की मार्क्स की पूँजी और रोजा की Accumulation पढने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु बात यह लगती है, समस्या यह लगती है कि काफी समय से यूरोप-अमरीका में कई लोगों में ऐसी धारणायें गहरे बैठी हुई हैं कि दुनिया के बाकी क्षेत्रों में कुछ गड़बड़ है।
मजदूर समाचार छापना बन्द करने के बाद बल्लबगढ़ में मिल्क प्लान्ट रोड़ पर लाला राम जी के बगीचे में रहने का किया था। सुबह से साँय, मच्छरों के आक्रमण आरम्भ होने तक, मार्क्स-रोजा-लेनिन-बुखारिन-सोलिडेरिटी पैम्फलेट-मैटिक आदि को पढना और मनन-मन्थन करना।
1985 में यूरोप से आई.सी.सी. का तीन सदस्यीय दल मिलने आया था। चर्चाओं में भाग लेने विजय शंकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सुलतानपुर जिले में बबरीपुर गाँव से आये थे। चिन्तामणि, दूधनाथ, भूपेन्द्र, हरि लाल, मण्डकोला गाँव (पलवल) से महेन्द्र, ओरियन्ट स्टील फैक्ट्री में बलविन्द्र के साथी सुपरवाइजर एन्थनी बातचीतों में रहे थे। भाषा की दिक्कत थी।
अन्तिम चर्चा एक नम्बर(एन एच 1) में बलविन्द्र के कमरे पर हुई। आई.सी.सी. दल ने हमें उनके संगठन से जुड़ने को कहा। बलविन्द्र सहमत थे पर मेरे एतराज थे। अन्ततः आई.सी.सी. वालों ने मुझे धमकी दी थी कि उनसे नहीं जुड़ेंगे तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जायेंगे।
बलविन्द्र आई.सी.सी. से जुड़ गये थे।
रात को सुनसान सड़क पर एक नम्बर से जवाहर कॉलोनी पैदल जाते समय विजय शंकर, भूपेन्द्र और मेरे बीच बहुत बातें हुई थी। विजय शंकर और भूपेन्द्र की सोची-विचारी राय थी कि हम आई.सी.सी. से दूर ही रहें।
यहाँ से नया आधार बनने लगा। नये धरातल की राह बनने लगी थी।
लाला राम आर्य समाज में भजनी से सी.पी.आई. में शामिल हुये थे और फिर सी.पी.आई.(एम), सी.पी.आई. (एम-एल) के सक्रिय समर्थक रहे थे। बल्लबगढ़ में पंचायती जमीन पर मुजारे थे। बहुत मेहनत से उन्होंने बाग लगाया था। मेरे फरीदाबाद-मेवात दौर में लाला राम जी ने मुझे अपने साथ बाग मे रखा था। उनकी पत्नी का व्यवहार बहुत अच्छा था। पैसों की बहुत अधिक दिक्कत हुई तब फिर 1984-85 में मैं लाला राम जी के बाग में रहा।
## 1986 में हिन्दी और अँग्रेजी में कम्युनिस्ट क्रान्ति का पहला अंक प्रकाशित। और फिर मजदूर समाचार की नई सीरीज छापना शुरू।
एक से दो पन्ने हुये थे पर प्रतियाँ हजार-दो हजार ही रही। अन्त-1993 में चार हजार प्रतियाँ छापी। चारों पन्नों में फैला था, “एस्कॉर्ट्स मजदूरों से कुछ गपशप”। अन्य स्थानों के साथ-साथ एस्कॉर्ट्स समूह की फैक्ट्रियों के गेटों पर भी हर महीने की तरह बँट रहा था। एस्कॉर्ट्स मोटर साइकिल डिवीजन(राजदूत प्लान्ट) पर बी-शिफ्ट में बाटा वरकर दूधनाथ और मैं बाँट रहे थे। चालीस-पचास प्रतियाँ बची थी जब फैक्ट्री की तरफ से चार-पाँच युवा वरकर आये और हम से उलझे। खींचा-तान कर दूधनाथ जी और मेरे से प्रतियाँ छीन कर धमकियाँ देते हुये वापस गये थे।
“एस्कॉर्ट्स मजदूरों से कुछ गपशप” में सामग्री मैनेजमेन्ट और यूनियन के बीच 1982 से 1992 के दौरान के समझौतों पर थी। इसे बहुत रोचक ढँग से दिल्ली में युवा मित्रों ने तैयार किया था। वह युवा मित्र जीबेश बागची, मोनिका नरूला, शुद्धब्रत सेनगुप्ता, मोनिका भसीन, अमित महाजन थे।
फरीदाबाद में महीने में कम से कम पाँच हजार प्रतियों की अनिवार्य आवश्यकता उत्पन्न हो गई थी। पाँच हजार छापने लगे। फरीदाबाद से लगते-से दिल्ली के ओखला औद्योगिक क्षेत्र में भी मजदूर समाचार बँटने लगा।
## मजदूर समाचार में हर महीने बीस-पच्चीस फैक्ट्रियों के मजदूरों की बातें सामान्य तौर पर छपती हैं। ऐसे में एक फैक्ट्री के मजदूरों की बातें अधिक फैक्ट्रियों के मजदूरों में फैलने लगी।
■ एक रिपोर्ट पर मथुरा रोड़ और इन्डस्ट्रियल एरिया में फैक्ट्रियों वाली नूकेम लिमिटेड मैनेजमेन्ट ने हमें मानहानि का नोटिस भेजा था।
■ एक दिन छरहरे बदन का एक युवा मजदूर लाइब्रेरी में आया और बोला “मैं इस इलाके का बाप हूँ।”
“बैठिये।”
बगल में ईस्ट इण्डिया कॉटन मिल के सामने एक फैक्ट्री का नाम(छोटी फैक्ट्री, नाम ध्यान में नहीं है) ले कर : “इसकी रिपोर्ट किस मजदूर ने लिखवाई है?”
“नाम नहीं बताये जाते।”
“बताना ही होगा।”
“नाम नहीं बताये जाते भाई।”
“आपके ऐसा करने से कुछ नहीं होगा। यहाँ कुछ नहीं बदलेगा।”
“करना तो बनता है।”
“आप मेरे पिता समान हो। मैं मुजेसर गाँव का हूँ। (नाम शायद पवन चौधरी बताया था।) आगे से इस फैक्ट्री की बातें नहीं छापना।”
दस-पन्द्रह मिनट ऐसी बातें हुई थी और मोटरसाइकिल पर वह चला गया था। बाद में पता चला कि वह तीन-चार चक्कर पहले काट गया था।
■ सामने की झुग्गी में गेडोर सैकेण्ड प्लान्ट के रमेश(लम्बू) रहते थे। 1988 में ऑटोपिन झुग्गियों में मजदूर लाइब्रेरी के लिये कमरा ढूँढ रहे थे तब रमेश जी ने ही जगह दिलवाई थी। आपस में सौ-सौ रुपये और कुछ मित्रों के पाँच सौ रुपये के योगदान से पाँच हजार में बन्द पड़ा एक कमरा खरीद ही लिया था। रमेश जी अनपढ थे, रहने को कच्चे कमरे बनाये थे, भोजन बहुत मन से बनाते थे, रविवार को दाल-भरे पराँठे मुझे प्रेम से खिलाते थे। बी-शिफ्ट वाली ड्युटी में रमेश मजदूर समाचार बँटवाने में भी रहते थे। एक रोज नाइट ड्युटी समाप्त होते ही रमेश जी को पकड़ कर यूनियन लीडर सैक्टर-11 पुलिस चौकी ले गये थे और रमेश जी के नाम से मेरे खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई थी कि मैं उन से जबरन मजदूर समाचार बँटवाता हूँ।
■ सैक्टर-25 में बाबा शूज फैक्ट्री में बाटा शू कम्पनी का काम होता था। मजदूरों की छपी बातों पर क्रोध से भरे मैनेजमेन्ट के तीन लोग हमें धमकाने मजदूर लाइब्रेरी आये थे।
■ राजनारायण के पिता गेडोर सैकेण्ड प्लान्ट के सामने यूनियन ऑफिस की बगल में मिलहार्ड झुग्गियों में रहते थे। वे गेडोर फैक्ट्री में वरकर थे, ऑफिस की सफाई करते थे, यूनियन लीडरों के चाय-पानी का काम करते थे। यूनियन प्रेसिडेंट ने उनके बेटे को फैक्ट्री में लगवा दिया था। और, नेताओं के निर्देश पर राजनारायण सीटू के लठैतों के साथ मुँह ढँक कर मारपीट करने जाते थे। तनखाओं में कटौतियाँ, कई-कई महीनों की तनखायें बकाया, और वर्षों गेडोर साथियों के व्यवहार को देखने के बाद युवा राजनारायण मजदूर समाचार बाँटने आने लगे थे। 1999 में बाटा रेलवे क्रासिंग पर पुल बन रहा था। एक दिन सुबह की शिफ्ट में निर्माण की बगल में मजदूर समाचार बाँटने वालों में राजनारायण भी थे। हम लोग एक-दूसरे से दूर-दूर थे और आपस में दिखते भी कम थे। अचानक शोर पर मैं दौड़ा और राजनारायण को घिरे पाया। धक्का-मुक्की में मैं नीचे गिर गया था और राजनारायण को पीटने आये पन्द्रह-सोलह लोग गेडोर फैक्ट्रियों की तरफ वापस चले गये थे।
राजनारायण ने सीटू लीडरों की कुछ अन्दरूनी बातें बताई। 1983 में हड़ताल करवा कर लखानी फैक्ट्री के 500 मजदूरों को नौकरी से निकलवाने का ठेका सीटू प्रेसिडेंट ने 37 हजार रुपये में लिया था।
● छुट-पुट धमकियाँ और मार-पीट – 1
इन पैंतालिस वर्ष की बातें हैं, अधिकतर स्मृति से बातें हैं। अपना पक्ष इनमें होगा ही।
1975 में आन्तरिक आपातकाल के विरोध में पढाई छोड़ी। बिना तैरना जाने समुद्र में कूदने जैसी बात थी। असली विरोधी माओवादी-नक्सवादी वाली बात थी। आहिस्ता-आहिस्ता पता चला की सी.पी.आई (एम-एल) 32 गुटों में बँटी थी। बहसें भर्त्सना वाली थी। जब-तब दो-तीन ग्रुपों में एकता भी होती थी और विभाजनों का सिलसिला चलता रहता था। माओ की 1976 में मृत्यु ने और विभाजनों को जन्म दिया था।
सुरक्षा के दृष्टिगत परिवार से सम्बन्ध तोड़ना, नाम बदलना, गोपनीय ढँग से ज्ञान बाँटना।राजस्थान में श्रीगंगानगर के गाँव-गाँव घूमने के पश्चात राजस्थान-गुजरात सीमा पर भीलों और रैबारियों के बीच समय। लगा कुछ गड़बड़ है। तीन-चार महीने के अन्तराल से ग्रुप लीडर से मिलने दिल्ली आना।
दिल्ली में पढाई छोड़ी तब बिड़ला इन्सटीट्यूट पिलानी में साइन्स फैकल्टी में सहपाठी गोविन्द राम गुप्ता (सेठ) के पास अपनी पुस्तकें रख गया था। बजाज इन्टरनेशनल में नौकरी कर रहा गोविन्द यमुना पार सीलमपुर में किराये के कमरे में रहता था। दिल्ली कुछ दिन पहले पहुँच कर गोविन्द के कमरे में मार्क्स की पूँजी पुस्तक का पहला भाग पढा। बातें ठीक लगी।
ग्रुप लीडर से मिलने के बाद कुछ समय कार्यक्षेत्र मेवात-फरीदाबाद। नये सिरे से जुनूनी गतिविधियाँ। फिर मध्य प्रदेश में कूनो-कँवारी नदियों के बीच सहरिया समुदाय में रहा। अचानक 1979 में ग्रुप की दिशा में परिवर्तन : माओ नहीं, लेनिन की राह पर चलने और देहात में गरीबों की बजाय शहरों में फैक्ट्री मजदूरों के बीच केन्द्रित होने की बातें।
## ग्वालियर में जियाजिराव कॉटन मिल में 1940 के दशक से श्री सुमेर लाल मुरार में और श्री किसन लाल ग्वालियर में रहते थे। सुमेर लाल जी के मुरार में नदी सन्तर स्थित घर में निवास तथा भोजन का प्रबन्ध। जे सी मिल और ग्वालियर रेयन फैक्ट्री मजदूरों के बीच गतिविधियों के संग-संग लश्कर में छात्रों के बीच चर्चायें। उस समय वहाँ एस.एफ.आई. छात्रों में बहुत सक्रिय थी, श्री शैलेन्द्र शैली संगठन के प्रमुख थे। ग्वालियर में मेडिकल कॉलेज छात्रों के साथ बातचीत होती थी। लगता है कि एस.एफ.आई. को इससे परेशानी हुई थी। चालाकी से श्री शैलेन्द्र शैली को एक बैठक में बुलाया गया। मैं उन्हें पहचानता नहीं था। इस बीच मार्क्स और लेनिन को पढना चल रहा था। चर्चा में एक कुछ ज्यादा ही मुखरता से विरोध कर रहा था। परन्तु चर्चा ऐसे बढ रही थी कि बाकी को मेरी बातों में वजन लग रहा था। ऐसे में विरोध करने वाला भर्त्सना पर उतरा था और फिर सीधे-सीधे धमकियों पर उतर आया था। परन्तु अन्य छात्रों के कारण बात धमकी से आगे नहीं गई थी। विरोध-भर्त्सना-धमकी देने वाले श्री शैलेन्द्र शैली थे जो कि बाद में सी.पी.आई.(एम) पार्टी के उल्लेखनीय नेता बने थे।
## मध्य प्रदेश में इन्दौर प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र कहा जाता था। ग्वालियर से इन्दौर जाना। परन्तु वहाँ उस समय सब कपड़ा मिलें बन्द-सी मिली। परदेसिपुरा में सी.पी.आई. पार्टी में एक समय सक्रिय रहे कपड़ा मिल मजदूरों के परिवार में एक भाई, श्री ताराचन्द के घर रहने और भोजन का प्रबन्ध। वे घर पर ही टेलर का काम करते थे और सी.पी.आई.(एम) पार्टी के सदस्य थे। ताराचन्द जी ने मेरे साथ बहुत-ही अच्छा व्यवहार किया। ढर्रे वाली गतिविधियों के संग नये बन रहे छोटी फैक्ट्रियों वाले औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों से बातचीतें। परिवार के बुजुर्ग मुझे देवास ले कर गये थे। सी.पी.आई. में बहुत सक्रिय रहे और उस समय देवास में स्टील पाइप फैक्ट्री में जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत पुराने साथी से मिलवाने। बहुत आदर से मिले थे पर जब मुझे बोले कि क्रान्ति-वरान्ति की बातें छोड़ो और मजदूरों की भलाई के काम करो, तब साथ ले कर गये बुजुर्ग को बहुत दुख हुआ था।
बी.एच.ई.एल. फैक्ट्री भोपाल से बुजुर्ग के मित्र आये। उन्होंने मुझे भोपाल चलने का सुझाव दिया। रहने, भोजन, मिलवाने, चर्चाओं का प्रबन्ध वे करेंगे। बड़ी फैक्ट्री, उस समय बी.एच.ई.एल. भोपाल फैक्ट्री में उन्नीस हजार मजदूर थे। लेनिनवादी फ्रेम में बहुत आकर्षक। उनके साथ भोपाल पहुँचा। इन्टक, एटक, एच.एम.एस., सीटू से सम्बन्धित यूनियनों को कम्पनी से मान्यता प्राप्त थी। हर यूनियन को कार्यालय के लिये बी.एच.ई.एल. ने फ्लैट के साथ फोन दिये थे। यूनियन अध्यक्ष केन्द्रीय नेता और महासचिव आदि बी.एच.ई.एल. मजदूरों में से। बी.एच.ई.एल. सम्बंधित महत्वपूर्ण वार्तायें दिल्ली में कम्पनी मुख्यालय में होती थी। तमिलनाडु में त्रिचनापल्ली में फैक्ट्री, हरिद्वार में फैक्ट्री, भोपाल में फैक्ट्री में यूनियनों के अध्यक्ष केन्द्रीय नेताओं को वायुयान से यात्रा का और फैक्ट्री मजदूरों में से यूनियन नेताओं को रेल से दिल्ली की यात्रा का खर्च कम्पनी देती थी। भोपाल से दिल्ली की उस रेल यात्रा में पाँच सौ रुपये की बचत होती थी, 1981 में यह उल्लेखनीय राशि थी, कौन जायेगा पर खींचातान होती थी। 51-51 सदस्यों वाली कार्यकारिणी यूनियनों ने बना रखी थी। और, यूनियनों से बी.एच.ई.एल. मजदूर इतनी दूर थे कि यूनियनों के संयुक्त प्रदर्शन में 300 लोग भी नहीं होते थे। लड़ाकू संघर्षों में अग्रणी रहे मजदूर जो कि 1981में यूनियनों में पदाधिकारी भी थे, वे बहुत दुखी थे।
फैक्ट्री के एक गेट की बगल में एक क्षेत्र में चाय आदि की दुकानों में मित्र, श्री मनोहर लाल वर्मा (मास्टरजी) की टेलर शॉप चर्चाओं का अड्डा था। मार्क्स और एंगेल्स के 1848 के “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” को शिक्षित और सक्रिय मजदूरों ने बार-बार बहुत कठिन बताया तो लगा कि अनुवाद की भाषा से बड़ी समस्या यूरोप के इतिहास-संस्कृति के सन्दर्भ हैं। उपमहाद्वीप के सन्दर्भ ले कर बी.एच.ई.एल. परिसर में बनी “मजदूर का क-ख-ग” तैयार हुई। ग्वालियर से पचास पन्ने की पुस्तिका के तौर पर छपी। वरकरों ने पसन्द की। कुछ मजदूरों ने पुस्तिका एटक के केन्द्रीय महासचिव होमी दाजी को दी। उन्होंने पुस्तिका की भर्त्सना की थी। 1981 में बी.एच.ई.एल. के एक युवा मजदूर की बात : “हमारी मर्जी के बिना मैनेजमेन्ट हम से उत्पादन नहीं करवा सकती। मशीन चलती रहेगी। आठ घण्टे खड़े रहेंगे। हवा में कट लगते रहेंगे।”
बी.एच.ई.एल. भोपाल में लेनिन की रचनाओं का बहुत अध्ययन किया। पार्टी कार्यक्रम के महत्व पर लेनिन के जोर के दृष्टिगत “मार्क्सवादी-लेनिनवादी मजदूर पार्टी का ड्राफ्ट कार्यक्रम” तैयार किया। दिसम्बर 1981 में दिल्ली में ग्रुप लीडर से मिलने पहुँचा था। पूर्व में तय स्थान-समय पर, दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने पार्क में श्री आर पी सराफ से मुलाकात। उन्हें ड्राफ्ट दिया। इस पर उनका सन्तुलन खो-सा देना मेरे लिये बहुत-ही आश्चर्य की बात थी। वे 1940 के दशक से सक्रिय थे, जम्मू-कश्मीर में राजा के शासन के समय डेमोक्रेटिक कॉन्फ्रेंस, फिर सी पी आई, सी पी आई (एम), सी पी आई (एम-एल) में उल्लेखनीय नेता और …. [भावार्थ : और यह कल का छोकरा काउन्टर ड्राफ्ट लाया है!!!]। श्री सराफ के अलग पार्टी बनाने, मध्य प्रदेश के सम्पर्क उन्हें नहीं बताने, घर-परिवार में वापस जाने की तैयारी जैसे आरोप मेरे लिये स्तब्धकारी थे। फिर उनका ब्रह्मास्त्र : वहीं और उसी समय मेरे से सम्बन्ध-विच्छेद।
इस पर मैं भोपाल वापस नहीं गया। वर्षों मध्य प्रदेश नहीं गया। दिल्ली के गले पर औद्योगिक शहर फरीदाबाद को कार्यक्षेत्र बनाने का तय किया। यह एक प्रस्थान-बिन्दु बना। जनवरी 1982 की सर्दी अब भी याद है।
दिल्ली में पिलानी के सहपाठी गोविन्द से चर्चा की। अपनी योजना बताई और दस हजार रुपये देने को कहा। गोविन्द ने दस हजार रुपये दिये। और, मार्च 1982 में “मार्क्सवादी-लेनिनवादी मजदूर पार्टी का ड्राफ्ट कार्यक्रम” के आधार पर मासिक “फरीदाबाद मजदूर समाचार” का प्रकाशन आरम्भ हुआ।
## एक पन्ने की एक हजार प्रतियाँ 165 रुपये में छपती थी। बहुत तेजी से कुछ फैक्ट्रियों के 15-20 मजदूरों का अतिसक्रिय समूह बन गया था। दिल्ली बदरपुर बॉर्डर से बल्लबगढ़ के बीच दस-बारह स्थानों पर सुबह की शिफ्टों के समय आठ-दस की टोलियाँ सड़कों पर पच्चीस पैसे में एक प्रति बेचती थी। सक्रिय साथी हर महीने पच्चीस रुपये का योगदान देते थे। 1982 में दिवाली पर मिले बोनस के समय प्रत्येक ने 100 रुपये का योगदान दिया था। उस समय यह उल्लेखनीय राशि थी।
जर्मनी में मुख्यालय, भारत में छह फैक्ट्रियों में उत्पादन, और अमरीका में वाहन निर्माता कम्पनियों को टूल किट निर्यात करती गेडोर हैण्ड टूल्स फैक्ट्रियों में तनखायें अन्य फैक्ट्रियों से काफी अधिक थी।
फरीदाबाद में गेडोर हैण्ड टूल्स कम्पनी के तीन प्लान्टों के साढे तीन हजार मजदूरों की गेट मीटिंग। यूनियन प्रधान ने तीन बातों में से एक को चुनने को कहा था : 600 मजदूर नौकरी छोड़ दें, या 25 प्रतिशत वेतन में कटौती स्वीकार करें, या फिर 6 महीने की स्पेशल लीव पर जायें। मजदूरों ने तीनों को ठुकरा दिया था। यूनियन प्रधान फरीदाबाद सीटू का प्रेसिडेंट भी था। विरोध में हर प्लान्ट के दो-दो मजदूरों के नाम से पर्चा छापा था। इन छह नामों में सैकेण्ड प्लान्ट के हरि लाल का भी नाम था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के गाँव में जन्मे हरि लाल पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर ईंट-भट्ठों पर काम कर, बनारस में रिक्शा चला कर, बाँस बरेली में लोहा तोड़ कर, दिल्ली में बोरी लादना-उतारना कर, साइकिल फैक्ट्री में काम कर, 1973 में गेडोर फैक्ट्री में लगे थे। ए-शिफ्ट में लन्च ब्रेक में हरि लाल जी ने यूनियन प्रेसिडेंट से मैनेजमेन्ट द्वारा साबुन आदि नहीं देने की बात कही तो उन्होंने नाम पूछा। और, हरि लाल नाम सुनते ही धक्का-मुक्की शुरू कर दी थी।
## सैक्टर-22 में शिव कॉलोनी में किराये के कमरे के पते से मजदूर समाचार छपना आरम्भ हो चुका था। फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में साप्ताहिक अवकाश के दिन अलग-अलग होना तब काफी था। एक फैक्ट्री वरकरों के समूह में एंगेल्स की पुस्तक, ” परिवार, निजी सम्पत्ति, और राज्य की उत्पत्ति” पढने का सिलसिला चल रहा था। स्कूटर पर एक बन्दा आया। अपना परिचय दिया : फरीदाबाद का इन्टेलिजेन्स ब्यूरो (आई बी) प्रमुख। और चला गया था।
मुजेसर रेलवे फाटक के निकट किराये के कमरे में मजदूर लाइब्रेरी/कार्यालय बनाने के बाद दो-तीन महीने में नियमित से वे “मिलने” आने लगे। दुखी मन से आसाम ट्रान्सफर की बात बताई और फरीदाबाद के नये आई बी प्रमुख को “मिलवाने” लाये थे। नये आई बी प्रमुख का मुख पान से लाल रहता था, नाम शायद आर के सिंह बताया था, और एक बार यूँही बोले थे : आई आई टी कानपुर में एम टेक छात्र था बेचारा (नाम शायद लाहिड़ी लिया था)। अब नहीं रहा…. एक बार फरीदाबाद आई बी चीफ, रोहतक आई बी चीफ के साथ आये थे। एक परिचित प्रशासनिक अधिकारी का पोस्ट कार्ड डाक से उठाया गया था जिसमें “आओ कभी। चाय पर गपशप करेंगे।” जैसा कुछ लिखा होगा। दो जिलों के इन्टेलिजेन्स ब्यूरो चीफ यह पूछने आये थे कि चाय पर क्या गपशप करने वाले थे…….
आप-हम क्या-क्या करते हैं..
# अपने दैनिक जीवन की बातें।
# सहज को, सामान्य को सामने लाना।
# हर व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करना।
# जीवन में आनन्द की, उल्लास की असीम क्षमता के दर्शन।
2002 से 2012 के दौरान मजदूर समाचार के 19 अंकों में “आप-हम क्या-क्या करते हैं….” छापे हैं। यहाँ अप्रैल 2007 के अंक में एक 26 वर्षीय मजदूर की बातें प्रस्तुत हैं।
मजदूर समाचार पुस्तिका पन्द्रह
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जनवरी 2007 से दिसम्बर 2007
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