● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।
● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।
● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का छठा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जनवरी 2003 अंक से है।
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# अपने स्वयं की चर्चायें कम की जाती हैं। खुद की जो बात की जाती हैं वो भी अक्सर हाँकने-फाँकने वाली होती हैं, स्वयं को इक्कीस और अपने जैसों को उन्नीस दिखाने वाली होती हैं। या फिर, अपने बारे में हम उन बातों को करते हैं जो हमें जीवन में घटनायें लगती हैं — जब-तब हुई अथवा होने वाली बातें। अपने खुद के सामान्य दैनिक जीवन की चर्चायें बहुत-ही कम की जाती हैं। ऐसा क्यों है?
# सहज-सामान्य को ओझल करना और असामान्य को उभारना ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं के आधार-स्तम्भों में लगता है। घटनायें और घटनाओं की रचना सिर-माथों पर बैठों की जीवनक्रिया है। विगत में भाण्ड-भाट-चारण-कलाकार लोग प्रभुओं के माफिक रंग-रोगन से सामान्य को असामान्य प्रस्तुत करते थे। छुटपुट घटनाओं को महाघटनाओं में बदल कर अमर कृतियों के स्वप्न देखे जाते थे। आज घटना-उद्योग के इर्दगिर्द विभिन्न कोटियों के विशेषज्ञों की कतारें लगी हैं। सिर-माथों वाले पिरामिडों के ताने-बाने का प्रभाव है और यह एक कारण है कि हम स्वयं के बारे में भी घटना-रूपी बातें करते हैं।
# बातों के सतही, छिछली होने का कारण ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति गौण होना लगता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति इस कदर गौण हो गई है कि व्यक्ति का होना अथवा नहीं होना बराबर जैसा लगने लगा है। खुद को तीसमारखाँ प्रस्तुत करने, दूसरे को उन्नीस दिखाने की महामारी का यह एक कारण लगता है।
# और अपना सामान्य दैनिक जीवन हमें आमतौर पर इतना नीरस लगता है कि इसकी चर्चा स्वयं को ही अरुचिकर लगती है। सुनने वालों के लिये अकसर “नया कुछ” नहीं होता इन बातों में।
# हमें लगता है कि अपने-अपने सामान्य दैनिक जीवन को “अनदेखा करने की आदत” के पार जा कर हम देखना शुरू करेंगे तो बोझिल-उबाऊ-नीरस के दर्शन तो हमें होंगे ही, लेकिन यह ऊँच-नीच के स्तम्भों के रंग-रोगन को भी नोच देगा। तथा, अपने सामान्य दैनिक जीवन की चर्चा और अन्यों के सामान्य दैनिक जीवन की बातें सुनना सिर-माथों से बने स्तम्भों को डगमग कर देंगे।
# कपडे बदलने के क्षणों में भी हमारे मन-मस्तिष्क में अक्सर कितना-कुछ होता है। लेकिन यहाँ हम बहुत-ही खुरदरे ढंँग से आरम्भ कर पा रहे हैं। कुछ मित्रों के सामान्य दैनिक जीवन की मोटा-मोटी झलक प्रस्तुत है।
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19 वर्ष का हूँ। 1999 से नौकरी कर रहा हूँ। इस समय लखानी शूज में कैजुअल वरकर हूँ। मित्र और मैं 250 रुपये किराये की झुग्गी में रहते हैं। बिजली नहीं है, छापों के डर से बगल वाले देते नहीं, दीये से काम चलाते हैं। ड्युटी जनरल शिफ्ट में है। सुबह साढे पाँच बजे उठता हूँ। बाहर बहुत गन्दगी में टट्टी जाना पड़ता है। फिर पानी की लाइन में लगता हूँ। मित्र भी कैजुअल वरकर है और ब्रेक के बाद इस समय रेहड़ी पर सब्जी बेचता है। वह उठते ही माल लेने सब्जी मण्डी भागता है। पानी भर कर मैं दोनों का खाना बनाता हूँ। स्टोव पर दो की दो टाइम की सब्जी-रोटी बनाने में एक घण्टा लग जाता है। भोजन बनाने के बाद नहाता हूँ और फिर खाना खाता हूँ।
साइकिल से 8 बजे ड्युटी के लिये चल पड़ता हूँ। फैक्ट्री गेट पर और फिर डिपार्टमेन्ट में, दो जगह हाजरी लगती है। साढे आठ बजे काम शुरू हो जाता है। चाय के लिये ब्रेक नहीं होता पर साढे नौ बजे कैन्टीन से चाय आती है और अपने पैसों से खरीद कर काम करते-करते चाय पीनी पड़ती है। बहुत मेहनत का काम है, हमेशा लगे रहो — तेल लगाना, गिनती कर डिब्बे में पैक करना, गाड़ी में लोड करना। सुपरवाइजर डाँटते, गाली देते रहते हैं।
पानी-पेशाब के लिये भी लखानी शूज में समय नहीं देते — छुप कर जाना पड़ता है। लन्च में कुछ राहत। साथ खाते हैं और बातें करते हैं। काम छोड़ने का मन करता है पर कहाँ जायें? सब के मन में विचार उठते रहते हैं। लेट के चक्कर में जिस दिन खाना नहीं बना पाता उस दिन कैन्टीन में खाता हूँ। दाल-चावल ही बनता है और 4 रुपये की आधा प्लेट देते हैं पर उससे पेट नहीं भरता, 8 रुपये के लेने पड़ते हैं। न घर पैसे भेज पा रहा हूँ और न अपना ही ठीक से चलता। लन्च के बाद हमें साढे पाँच घण्टे लगातार काम करना पड़ता है, चाय भी नहीं आती। ऐसे लगता है कि बन्ध गये हैं।
मेरा ओवर टाइम नहीं लगता, 5 बजे छूट कर सीधा कमरे पर आता हूँ और चाय बनाता हूँ। चाय पी कर थोड़ी देर इधर-उधर बैठता हूँ। साढे छह बजे पानी भरना, बर्तन धोना। सात बजे बाद खाना बनाता हूँ। मित्र के लौटने पर 9 बजे बाद भोजन करते हैं इसलिये खाना बना कर आसपास बैठता हूँ। कभी-कभार टी. वी. देख लेता हूँ। भोजन बाद बर्तन धोना और फिर साढे दस बजे तक हम सो जाते हैं।
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मैं बारहवीं की परीक्षा देने के बाद फैक्ट्री में लग गई थी। सुबह उठने को मन बिलकुल नहीं करता। माँ और पिताजी 5 बजे उठ कर सब्जी-रोटी बनाने में जुट जाते हैं। बार-बार आवाजें देने के बाद भी मैं सवा छह तक नहीं उठती और माँ की झिकझिक शुरू हो जाती है। कितनी ही अनिच्छा हो, साढे छह बजे तो उठना ही होता है। फिर ड्युटी की तैयारी की भागमभाग शुरू हो जाती है। माँ कुछ-न-कुछ बोलती-बोलती रोटी-सब्जी और चाय देती है। जल्दी-जल्दी खाती-पीती हूँ और टिफिन में रोटी-सब्जी रख कर सवा सात घर से निकल ही पड़ती हूँ। ऑटो के लिये दस मिनट पैदल चलना पड़ता है। एक ऑटो में हम दस लड़कियाँ फैक्ट्री जाती हैं। ऑटो वाला लेट होता है तब बहुत भगाता है और हमें डर लगता है — इन तीन वर्षों में मैंने काफी एक्सीडेन्ट देखे हैं। एक ऑटो के पलटने से मेरी बहन की सहेली को बहुत चोटें आई थी। ऑटो में सर्दी बहुत ज्यादा लगती है, गर्मी और बरसात में भी दुर्गत होती है।
हमारी ड्युटी सवा आठ बजे से है, हाजरी डिपार्टमेन्ट में लगती है। काम शुरू करने से पहले हमें भूतों वाली वर्दी पहननी पड़ती है। उत्पादन के लिये सुपरवाइजर बहुत डाँटते हैं और भद्दी-गन्दी भाषा इस्तेमाल करते हैं। कई लड़कियाँ तो रो पड़ती हैं। हम लड़कियों से ज्यादा उत्पादन करवा कर फिर लड़कों को डाँटते हैं और उन्हें भी उत्पादन बढाने को मजबूर करते हैं। कुछ लड़कियाँ डर से और कुछ लड़कियाँ इनसेन्टिव के लालच में काम में जुटी रहती हैं — कई दिन लन्च भी नहीं करती और घर लौटते समय ऑटो में रोटी खाती हैं। फैक्ट्री में ज्यादा और जल्दी काम करने के लिये हम पर भारी दबाव रहता है। कम्पनी में बात करना मना है। भारी घुटन होती है और अफसरों को हम खूब गालियाँ-बद्दुआयें देती हैं। हमारे हाथों का बुरा हाल हो जाता है। मेरी उँगलियों में हर रोज पाँच-छह बार तो सूइयाँ घुस ही जाती हैं। कभी-कभी तो बहुत ज्यादा खून निकलता है लेकिन कम्पनी उत्पादन-उत्पादन की रट लगाये रहती है। फैक्ट्री में लन्च के सिवा कोई ब्रेक नहीं होता — न सुबह और न शाम को चाय देते। पानी पीने के लिये भी पूछना पड़ता है, इन्ट्री करनी पड़ती है। हम लड़कियों को रोज आधा घण्टा ओवर टाइम करना पड़ता है — लड़कों का तो और भी बुरा हाल है। रविवार को भी हमें ड्युटी करनी पड़ती है। छुट्टी करने पर डाँटते-फटकारते तो हैं ही, महीने में पूर्ण उपस्थिति पर इनाम भी है। घर से सुबह सवा सात बजे की निकली मैं साढे छह बजे घर पहुँचती हूँ।
बहुत भूख लगी होती है और घर पहुँचते ही जो भोजन रखा होता है वह खाती हूँ। छोटे भाई पर अकसर अपनी भड़ास निकालती हूँ। रात का भोजन मुझे बनाना होता है — माँ भी ड्युटी करती है। रात के खाने के बर्तन धोती हूँ और फिर टी.वी.। सोने में 11 बज जाते हैं। (जारी)
(मजदूर समाचार, जनवरी 2003)