जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तेतिसवाँ अंश नवम्बर 2008 अंक से है।
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व्यवस्था, संकट, मन्दी, महामन्दी भारी-भरकम शब्द हैं। इनकी व्याख्या का प्रयास हम यहाँ नहीं करेंगे। लेकिन इधर इन शब्दों की चर्चा कुछ ज्यादा ही है। और, जब-जब ऐसा हुआ है तब-तब इन सौ वर्षों में सत्ता ने, सरकारों ने हथियारों तथा सैनिकों की वृद्धि में अत्यन्त तीव्रता लाई है। नतीजे रहे हैं :
● 1914-1919 की महा मारकाट जिसे पहले महायुद्ध कहते थे और अब प्रथम विश्व युद्ध कहते हैं। ढाई करोड़ लोग तो युद्ध में ही मारे गये।
● 1939-1945 वाली और भी बड़ी मारकाट जिसे द्वितीय विश्व युद्ध कहते हैं। इसमें पाँच करोड़ लोग युद्ध में मारे गये।
ऊँच-नीच, लूट-खसूट, अमीर-गरीब की स्थितियों में युद्ध तो लगातार चलते ही रहे हैं। इधर 1890 से संकट की जो बातें आई उन्होंने युद्धों की संँख्या व तीव्रता को बढाया और शिखर था 1914-19 का महायुद्ध। और, 1929 की महामन्दी ले गई 1939-45 के दूसरे विश्वयुद्ध में। उन दौरानों में जो अनुभव हुये उन्हें जानने, समझने तथा उन पर मनन कर आज क्या-क्या करें और क्या-क्या नहीं करें यह तय करना आवश्यक है। इधर फिर संकट और मन्दी की हावी चर्चा ने इसे हमारे लिये अर्जेन्ट बना दिया है।
— मण्डी-मुद्रा के दबदबे में बेरोजगारी तो रहती ही है, संकट-मन्दी के दौर में बेरोजगारी बहुत बढ़ जाती है।
— मजदूरों-मेहनतकशों के लिये तो संकट-मन्दी सीधे-सीधे जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा कर देते हैं। असंतोष बहुत बढ़ जाता है। मजदूरों को, किसानों को बाँधे रखने के प्रचलित तौर-तरीके नाकाफी साबित होते हैं।
— सत्ता के इर्द-गिर्द के लोगों की अनिश्चितता-अस्थिरता के संग-संग असुरक्षा व उसकी भावना बढ़ जाती हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों पर “कुछ करो” के लिये दबाव तेजी से बढता है।
— जेलें बढ़ाई जाती हैं, पुलिस बल में भारी वृद्धि की जाती है और सेना सर्वोपरि स्थान लेने लगती है।
— सरकारें तथा कम्पनियाँ आज मण्डी-मुद्रा की प्रतिनिधि हैं। इसलिये संकट-मन्दी की मार से मण्डी-मुद्रा को बचाने के लिये सरकारें तथा कम्पनियाँ अनेकानेक हथकण्डे अपनाती हैं।
मजदूरों, किसानों, दस्तकारों को शिकार बनाने के लिये पापड़ बेले जाते हैं। मजदूरों-किसानों के विरोध-विद्रोह को दबाने के लिये निर्मम दमन के संग-संग लोक लुभावने नारे उछाले जाते हैं। मेहनतकशों में से ही कुछ को “अन्य” बताया जाता है, “शत्रु” कहा जाता है।
— सरकारें तथा कम्पनियाँ संकट-मन्दी की मार को अन्य सरकारों व कम्पनियों पर धकेलने के लिये गिरोह बनाती हैं। और, मजदूरों-मेहनतकशों को दबाने-पुचकारने में सफलता आगे ही दो महायुद्धों को जन्म दे चुकी है।
आज अन्तरिक्ष तक युद्ध-क्षेत्र और युद्ध के लिये क्षेत्र बन गया है। एटम बमों और प्रक्षेपास्त्रों के भण्डार तो हैं ही। ऐसे में हमारे लिये सर्वोपरि महत्व की बात तो यह है कि सरकारों के गिरोहों के बीच तीसरा विश्व युद्ध नहीं हो। इसके लिये जरूरी है कि मजदूरों-मेहनतकशों के असन्तोष, विरोध, विद्रोह हर जगह बढें।
## सरकारों और कम्पनियों पर भरोसा बर्बादी की राह है। कुर्बानी की घातकता दर्शाने के लिये उदाहरणों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। आज उँगली माँगने वाले कल पहुँचा माँगेंगे, परसों पूरा हाथ और फिर धड़। शहीद को दूर से सलाम! हर कदम पर और जहाँ तक हो सके – जिस प्रकार का हो सके विरोध करना बनता है। ताकत के बल पर इस-उस जगह कम्पनियाँ अपनी शर्तें थोप देती हैं तो भी हमारी सहानुभूति अधिक चोट खाये मेहनतकशों के प्रति होनी बनती है। छंँटनी जैसी चीजों के लिये मौन सहमति-स्वीकृति खतरनाक है। पीट दिये अथवा पिट गये पर हँसना, मजाक उड़ाना अपनी बारी नजदीक लाना है। सरकार और बैंकों पर भरोसा करके अमरीका में जो डूब गये, सड़क पर आ गये उन से यह सीख लेना बनता है कि जहाँ तक हो सके बैंकों से अपने पैसे निकाल लें, बैंकों में पैसे जमा नहीं करायें। पेट काट कर दो पैसे बचाना और उन्हें कम्पनियों के शेयरों में लगा कर डुबाना … दरअसल समस्या पैसों पर भरोसे में है। अनेकानेक समस्याओं से पार लगाने के लिये पैसों पर भरोसा किया जाता है। इस सन्दर्भ में यह याद रखने की आवश्यकता है कि साठे-क वर्ष पहले जर्मनी में, जापान में थैला भर कर पैसे ले जाना और मुट्ठी में सब्जी लाना सामान्य हो गया था। इधर विश्व के कई क्षेत्रों में स्थानीय मुद्रा थैले-मुट्ठी वाली स्थिति में आ गई है। आज की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा, डॉलर के साथ कब यह हो जाये किसी को पता नहीं — विशेषज्ञ मौन हैं। वास्तव में रुपयों-पैसों पर भरोसा करना सरकारों पर भरोसा करना है। और, विश्व-भर में सरकारें डगमगा रही हैं … इसलिये भरोसा आपस में! थोड़ा ठहर कर देखिये कि इतनी सारी जलन-चुगली के बावजूद हम अभी भी एक-दूसरे पर कितना भरोसा करते हैं, कितनी प्रकार के भरोसे करते हैं। हाँ, भरोसे तो चाहियें ही चाहियें — आपस में भरोसा बढाना बनता है।
## बढती बेरोजगारी बढती संँख्या में सेक्युरिटी गार्ड, पुलिसकर्मी, सैनिक की नौकरी लाती है। इनकी भर्ती मेहनतकशों की कतारों से होती है। मेहनतकशों में से किसी को “अन्य-दूसरे-शत्रु” बना कर अपने गुस्से का टारगेट बनाना गर्त की राह है। गार्ड का रुख और गार्ड के प्रति रुख महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। बढिया गार्ड बनने के फेर में नहीं पड़ना … सिपाही को शत्रु नहीं लेना। दोनों तरफ से खानापूर्ति, महज खानापूर्ति और आपस में टकराव से बचना बनता है। सशस्त्र संघर्ष और विद्रोह की स्थिति में भी आपस में मरने-मारने से बचना बनता है। वर्दी वाले मेहनतकश बच कर निकलना खूब जानते हैं, इसे बढाने की आवश्यकता है। प्रेरणा 1914-19 और 1939-45 के सैनिकों से लेनी चाहिये। बरसों खन्दकों-मोर्चों पर रहे 95 प्रतिशत सैनिकों ने गोली ही नहीं चलाई या फिर गोली हवा में चलाई और बमों को निर्जन स्थानों पर डाला। हक्की-बक्की सरकारों और जनरलों ने वीरों के, शहीदों के किस्से गढे तथा चन्द सिरफिरों को महिमामंडित किया। और फिर, युद्ध के दौरान 1917 में रूस में सिपाहियों ने बन्दूकें जनरलों की
ओर मोड़ कर नई समाज रचना के लिये हालात बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इस समय संकट-मन्दी की बात हो रही है पर यह प्रक्रिया इधर हर समय चल रही है। बात डर-भय की नहीं है, डर को बढाने की नहीं है। हम तो यूँ भी दिन में सौ बार मन को मारते हैं, रोज ही कई-कई बार मरते हैं । पर फिर भी जीवन की लालसा है! इसलिये जीवन को सिकोड़ती-संकीर्ण बनाती-दुखदायी बनाती ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, मण्डी-मुद्रा को दफा करना है …
(मजदूर समाचार, नवम्बर 2008)