व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों- III | निवास के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका तीसराअंश निवास के सम्बन्ध में।

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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## गुड़गाँव में इतनी ऊँची-ऊँची इमारतें तथा भूजल का इतने बड़े पैमाने पर दोहन युवा आर्किटेक्टों को भूगर्भ में हलचलों को निमन्त्रण देना लगता था। उन्हें डर था कि विज्ञान-इंजीनियरिंग-टैक्नोलॉजी द्वारा प्रदान की गई मजबूती वाली यह ऊँची इमारतें कभी-भी ताश के पत्तों के महल की तरह ढह सकती थी। प्राकृतिक हलचलों से पहले ही सामाजिक हलचलों ने निवास के मसले को व्यवहार में हल करना आरम्भ कर दिया…… कापसहेड़ा, डुण्डाहेड़ा, मुल्लाहेड़ा में किराये के कमरों से मजदूर निकले और दस-बीस मंजिल वाली खाली पड़ी इमारतों में रहने लगे। मण्डी-मुद्रा के, रुपये-पैसे के चलते शहरों में बड़ी संख्या में मकान खाली रहते थे। नगरों-महानगरों में खाली पड़े मकानों में जा कर लोगों द्वारा मिल कर डेरा जमाना शहरों में निवास की समस्या का एक तात्कालिक समाधान था। तीन वर्ष पहले दुनिया में जगह-जगह खाली पड़े मकानों को मजदूरों द्वारा निवास-स्थल बनाने की लहरें आरम्भ हुई थी। इस प्रकार प्राप्त हुई तत्काल राहत ने उचित-समुचित निवास के बारे में विश्व-व्यापी आदान-प्रदान बढाये। इधर वसन्त 2016 में निवास-सम्बन्धी चर्चायें और भी विस्तृत हो गई हैं….

मकान साँस लेते हैं। लन्दन में साठ प्रतिशत आबादी साँस की तकलीफों से पीड़ित थी। निर्माण-सज्जा में सीमेन्ट, स्टील, पेन्ट का प्रयोग इन तकलीफों का एक बड़ा कारण था। निवास की निर्माण सामग्री कौन-कौन सी…. पक्के मकान शिशुओं के प्रतिकूल…. ..दिल्ली महानगर की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये इर्द-गिर्द के एक सौ मील क्षेत्र का दोहन….. लॉस एंजेल्स महानगर के मल शोधन संयन्त्र के ब्रेक डाउन पर समुद्र का पूरा खाड़ी क्षेत्र प्रदूषित……

और फिर, नगर-महानगर से जुड़ा डर तथा लालच प्रत्येक को अकेलेपन में, समुदायहीनता में तो धकेलता ही था, संग-संग सुरक्षा-संचालन-नियन्त्रण का एक कठोर-निर्मम-विशाल तन्त्र भी लिये था। जबकि गाँव विकृत-बिगड़े-डिफोरम्ड समुदायकम्युनिटी वाली पीड़ा-कुण्ठा के अड्डे थे। नगरों में, गाँवों में नये समुदाय बनाने के अनेकों प्रयोग-प्रयास होते थे। इन तीन वर्षों में बहुत तेजी से नये-नये समुदाय उभरे हैं जो पृथ्वी पर निवास की इकाई के तौर पर गाँव और नगर, दोनों को नकारने लगे हैं…..

बेशक जबरन जोड़ी गई थी, पर पूरी मानव योनी जुड़ गई थी। जबरन के स्थान पर स्वेच्छा से जुड़ने की काफी कोशिशें होती रही थी। इन तीन वर्षों के दौरान विश्व-भर में स्वेच्छा से जुड़ने के प्रयास बहुत बढे हैं। वसन्त 2016 में तो तालमेलों की, मन माफिक जोड़ बनाने की बाढ-सी आई हुई है। अनेकों प्रयोग हो रहे हैं। सामाजिक इकाई का आकार….. व्यक्ति और सामाजिक इकाई के बीच सम्बन्ध….. सामाजिक इकाइयों द्वारा गठित मानव निवास का विश्व-स्वरूप…

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व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों-II — भोजन के बारे में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।
ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका दूसरा अंश जो भोजन के बारे में है।

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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## आश्चर्य होता है कि तीन वर्ष पहले तक काफी कही-सुनी जाती “पापी पेट का सवाल है नहीं तो….” वाली बातें 2016 की वसन्त ऋतु में प्राचीन-सी लगने लगी हैं | मण्डी-मुद्रा को, रुपये-पैसे को बन्द करते ही सब को भोजन की प्राप्ति सहज हो गई थी…..

फरीदाबाद में यह गुडईयर टायर फैक्ट्री थी। इसे घेरे काँटेदार तार अब नहीं हैं | गार्ड नहीं हैं, मजदूर नहीं हैं, मैनेजर नहीं हैं अब यहाँ। रेत पर, घास में शिशु किलकारियाँ मार रहे हैं | लड़के-लड़कियाँ उछल-कूद रहे हैं, नीम के पेड़ों पर चढ रहे हैं | जोड़ियों में, समूहों में युवक-युवतियाँ हँस-बोल रहे हैं, नाच-गा रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं। अधेड़ प्रसन्नचित हैं, शिशुओं-बच्चों-युवाओं को निहार रहे हैं । मदमस्त करती वसन्त ऋतु में वृद्धजन जीवन का आनन्द ले रहे हैं…..

भौतिक दायरे में सुरक्षा, प्राण यानी वायु , जल के पश्चात जीवन के लिये भोजन एक अनिवार्य आवश्यकता है। प्रकृति में उपलब्ध भोजन, प्रकृति द्वारा प्रदत भोजन….. पशुओं को नाथना प्रस्थान-बिन्दु बना था मानव द्वारा प्रकृति से परे जा कर, प्रकृति के विरुद्ध जा कर भोजन उत्पन्न करने का । जमीन को जोतने ने इसे बढाया था। पशुओं को नाथना, जमीन को जोतना मण्डी के विस्तार के साथ तेजी से बढा था और पिछले डेढ सौ वर्ष के दौरान दूध उत्पादन, माँस उत्पादन, अनाज उत्पादन बढते पैमाने पर फैक्ट्री-पद्धति से होने लगा था। कम से कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन मण्डी के चरित्र में है और फैक्ट्री-पद्धति भोजन सामग्री के उत्पादन में रसायनिक खाद, कीटनाशक दवायें, संकर बीज, जेनेटिकली मोडिफाइड (जी एम) बीज, शीघ्र और अधिक माँस के लिये मुर्गियों-गायों-सुअरों को नई खुराकें तथा दवाइयाँ, अधिक दूध के लिये नई खुराकें-दवा-इंजेक्शन, बीस-पच्चीस हजार एकड़ के फार्म, हजारों गायें बाड़ों में, दसियों हजार मुर्गियाँ बन्द स्थानों पर, पशुओं के क्लोन तैयार करना आदि अपने संग लिये थी । मानव योनि प्रतिवर्ष अरबों टन अनाज, करोड़ों टन माँस, करोड़ों टन दूध, लाखों टन मक्खन का उत्पादन करने लगी थी । अनाज से भरे गोदाम, भण्डारण एक समस्या, नष्ट होता अनाज – मण्डी में भाव के फेर में मारी जाती हजारों गायें, नष्ट किया जाता अनाज, खाली छोड़ी जाती जमीन….. और संसार में करोड़ों लोग भूखे रहते थे। बर्ड फ्लू को फैलने से रोकने के लिये मार कर दफनाई जाती दसियों हजार मुर्गियाँ, गायों में-सुअरों में बीमारियों को फैलने से रोकने के लिये हजारों को काट कर दफना देना-भस्म कर देना…..

भोजन सामग्री का उत्पादन आस्ट्रेलिया, अमरीका, कनाडा, यूरोप में फैक्ट्री-पद्धति से, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन था। भारत, मिश्र, ब्राजील आदि-आदि स्थानों पर दो-चार-दस-बीस-पचास एकड़ के खेतों में निजी व परिवार के श्रम से मण्डी के लिये उत्पादन उल्लेखनीय था। लेकिन विश्व में हर जगह भोजन सामग्री के उत्पादन में रसायनिक खाद, कीटनाशकों आदि का प्रयोग अधिकाधिक हो रहा था। साग-सब्जी में, फलों में, अनाज में, माँस में, दूध में कीटनाशक आदि पहुँच गई थी – माँ के दूध में भी कीटनाशक प्रवेश कर गये थे…. घुल कर-रिस कर भूजल में पहुँचते रसायनिक खाद, कीटनाशक….. कैंसर-कैंसर-कैंसर….. भोजन सामग्री का उत्पादन जहर का उत्पादन बन गया था। भोजन का उपभोग, रोटी खाना-पानी पीना रोगों का उत्पादन बन गया था……

“यह हम क्या कर रहे हैं? हम क्यों कर रहे हैं ? कैसे रोकें इसे?” चहुंओर गूंज रहे इन प्रश्नों के उत्तर तीन वर्ष पहले जगह-जगह से धड़ाधड़ आने लगे थे। मीट फैक्ट्रियों में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया — अमरीका में मीट फैक्ट्रियों से सर्वग्रासी लाइन सिस्टम आरम्भ हुआ था….. विशाल फार्मों पर माँस के लिये पाली जा रही गायों को, सुअरों को, मुर्गियों को वहाँ काम करते मजदूरों ने खुले में छोड़ दिया…. कीटनाशक बनाने वाली फैक्ट्रियों को मजदूरों ने ठप्प कर दिया….. रसायनिक खाद बनाने वाले कारखानों में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया….. भटिण्डा में, पलवल में किसानों ने और आस्ट्रेलिया, अमरीका, कनाडा में फार्म वरकरों ने कीटनाशक, रसायनिक खाद, संकर बीज, जी एम बीज प्रयोग करने बन्द कर दिये….. कृषि विश्वविद्यालयों में – बीज फार्मों पर काम करते मजदूर आराम फरमाने लगे और अनुसन्धान में लगे वैज्ञानिकों ने हाथ खड़े कर मुक्ति की साँस ली थी।

यह सब बन्द करना तो ठीक पर…. पर रोटी कहाँ से आयेगी? लगता था कि यह प्रश्न उठेगा लेकिन यह अन्दाजा नहीं था कि भोजन के बारे में बहुत मन्थन हो चुका था और उससे भी अधिक मन्थन इतनी तेजी से होगा…….

भूख लगे तब भोजन करना । बहुत ठीक है पर एक भूख तन की होती है और एक भूख मन की होती है । मनुष्य तन की आवश्यकता से अधिक भोजन कर रहे थे जो कि हानिकारक था । अधिक भोजन करने का कारण सामाजिक था, मन भूखे थे…..

तन की पूर्ति के लिये कितना भोजन चाहिये? कितना से पहले कैसा भोजन की बात आती है। कबाड़-जंक फुड की चर्चा तो पहले भी व्यापक थी पर इसका त्याग आश्चर्यजनक गति से हुआ । इन तीन वर्षों में अनाज, माँस, दूध की खपत में भारी कमी आई है। रसायनिक खाद-कीटनाशकों के प्रयोग के बिना अनाज का जो उत्पादन हुआ है उसने पुराने भण्डारों से निकास कम ही होने दिया है। भोजन सामग्री पकी हुई अथवा कच्ची-अंकुरित……..

तीन सफेद, नमक-चीनी-दूध और मानव शरीर के बीच सम्बन्धों पर चर्चायें बहुत बढी । मानव शिशु के लिये माँ का दूध पर्याप्त है वाली बात तो ठीक है पर गाय-भैंस-बकरी का दूध मानव शरीर के माफिक नहीं है वाली चर्चायें 2016 में भी जारी हैं।

पशुओं को नाथना-दुहना अच्छा नहीं है और ऐसा करना जरूरी नहीं है वाली बात काफी समय से विचारणीय थी। लेकिन बिना हल चलाये, बिना धरती को चीरे, बिना काम किये भोजन का उत्पादन करना काल्पनिक नहीं है जैसी बातें इधर बहुत रोचक हो गई हैं।

काल के पहिये को हम पीछे की ओर नहीं घुमा सकते लेकिन प्रकृति से मेल खाते भोजन सामग्री के उत्पादन के तौर-तरीकों की अनिवार्य आवश्यकता……. ऐसे कई तौर-तरीके प्राचीन थे और अनेक स्थानों पर अनेक लोगों द्वारा नये-नये प्रयोग-परीक्षण भी किये जा रहे थे पर वे छिटपुट-छुटपट ही रहे थे… इन तीन वर्षों में प्रकृति से मेल खाते, प्रकृति की सहायता से भोजन सामग्री उत्पादन के तौर-तरीके बहुत तेजी से प्रयोगों के, व्यवहार के केन्द्र बने हैं।

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व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों -I

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका एक अंश।

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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे-हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## इतना-कुछ इतनी तेजी से और एकसाथ-सा हुआ कि सही-सही कहना कठिन है पर शुरुआत शायद टेक्सास, अमरीका में एटम बम बनाने के कारखाने में मजदूरों द्वारा काम बन्द करने से हुई। इस फैक्ट्री में सन् 2005 में निर्माण के दौरान एक एटम बम फटते-फटते रह गया था । जापान में हीरोशिमा नगर पर साठ वर्ष पहले गिराये एटम बम से वह बम एक सौ गुणा अधिक शक्तिशाली था। “मैं यह क्या कर रहा हूँ ? हम यह क्यों कर रहे हैं ? कैसे रोकें इस सब को ?” विश्व-भर में सिर चढ कर बोलते प्रश्न । जमीन पर, समुद्र में, अन्तरिक्ष में एटम बमों के भण्डार – इतने एटम बम कि पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीवन को कई बार इनके प्रयोग से नष्ट किया जा सकता था। सुरक्षा सर्वोपरि ……

टेक्सास एटम बम फैक्ट्री में मजदूरों ने काम बन्द किया….. रूस में…..चीन में….फ्रान्स में…. इंग्लैण्ड में…… भारत में….. पाकिस्तान में….. उत्तरी कोरिया में…. इजराइल में… … ईरान में…… एटम बम बनाने वाले कारखानों में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया । हर जगह सुपरवाइजर-मैनेजर चुप और खुश रहे थे। सिपाही-गार्ड शान्त और मस्त रहे थे। डायरेक्टर-जनरल चुप और प्रसन्न रहे थे । वैज्ञानिकों- इंजीनियरों-समाजशास्त्रीयों को अपने वैज्ञानिक-इंजीनियर-विद्वान होने पर शर्म आने लगी थी। मारकाट के लिये, युद्ध के लिये कार्य करना भी भला कोई करने की चीज है ? जानते हुये गलत करने वालों में मैनेजर-जनरल-विद्वान तो बहुत-कुछ जानने के कारण इन्तजार-सा कर रहे थे कि मजदूर कुछ करें ताकि वे भी मन पर बहुत भारी बोझ से मुक्त हो सकें……

जैविक हथियारों की प्रयोगशाला-निर्माणशाला…. पाँच सौ वर्ष पहले उपहार-संस्कृति वालों को खरीद-बिक्री, मण्डी-मुद्रा के विस्तार में लगे लोगों द्वारा “उपहार” में प्लेग का कम्बल दे कर सामुदायिक जीवन जी रहे अनेक लोगों का संहार मन को मथता रहा था. …… 1975 में जैविक युद्ध की तैयारी में प्रयोगशालाओं में आँख की पुतली-बाल की बनावट के आधार पर आक्रमण करने वाले जैविक हथियारों के अनुसन्धान की प्रक्रिया में रेट्रो वायरस की सृष्टि-रचना दुनिया में एड्स बीमारी की वाहक बनी….. “यह मैं क्या कर रही हूँ ? यह हम क्यों कर रहे हैं ? कैसे रोकें इसे ?” …. जैविक युद्ध की प्रयोगशालाओं-निर्माणशालाओं में साइन्टिफिक वरकरों ने काम बन्द कर दिया, विश्वविद्यालयों और रिसर्च संस्थानों में प्रयोगशाला सहायकों तथा अनुसन्धानकर्ताओं ने खोज-रचना बन्द कर दी। प्रोफेसर-डायरेक्टर-कुलपति चुप रहे थे और चैन की साँस लेने लगे थे।

……..संसार में अनेकानेक अस्त्र-शस्त्र और इनके निर्माण-उत्पादन के कारखानों की भरमार थी। “क्या-क्यों कर रहे हैं ? कैसे रोकें ?” की विश्व-व्यापी लहरों में रसायनिक हथियारों की फैक्ट्रियों में मजदूरों ने उत्पादन रोक दिया…. प्रक्षेपास्त्र-मिसाइल निर्माण कारखानों में वरकरों ने काम बन्द कर दिया…. लड़ाकू और बमवर्षक विमानों को बनाने वाली फैक्ट्रियों में मजदूरों ने उत्पादन रोक दिया….. शिपयार्डों में जल सेनाओं के लिये जहाजों और पनडुब्बियों का निर्माण मजदूरों ने बन्द कर दिया…. बन्दूकों-तोपों-टैंकों-बख्तरबन्द गाड़ियों की फैक्ट्रियों में मजदूरों ने लाइनें थाम दी….. गोला-बारूद के कारखानों में वरकरों ने काम बन्द कर दिया…. राडार-कम्प्युटर-इन्टरनेट-टेलीफोन-उपग्रह से साइबर युद्ध की तैयारी तथा प्रैक्टिस वरकरों ने बन्द कर दी… नासा-इसरो-डी आर डी ओ आदि-आदि में, सब जगह सुपरवाइजर-मैनेजर-डायरेक्टर-जनरल चुप रहे थे और प्रसन्न थे।

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कुछ बातें किसानी-दस्तकारी की

“कुछ बातें किसानी-दस्तकारी की” यहाँ मजदूर समाचार के मई 2015 अंक से दे रहे हैं। इससे पहले यह मई 2010 अंक में छापी धी। सम्भव है कि इसमें आपको कुछ प्रस्थान बिन्दु मिलें।

कुछ बातें किसानी-दस्तकारी की

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छात्रों से संवाद जो हुआ नहीं

2011-12 के दौरान मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री मजदूरों की गतिविधियों ने दुनिया-भर में जारी मन्थन के श्रेष्ठ निष्कर्षों में से एक की झलक दिखाई थी। मजदूर समाचार के तब के अंकों में उन गतिविधियों का नियमित विवरण है।

वर्तमान परिस्थितियों में महत्व, वैश्विक महत्व के दृष्टिगत मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री वरकरों की उन गतिविधियों तथा बाद में उनसे जुड़ी बातों का विवरण एवं उन पर मनन-मन्थन मजदूर समाचार में अभिव्यक्त होते रहे हैं।

सितम्बर 2013 में इस सन्दर्भ में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में छात्रों से संवाद का एक अवसर मिला था। अध्यक्ष के काफी देर से पहुँचने के कारण अधिकतर छात्र चले गये थे। मजदूर समाचार की वहाँ प्रस्तुति को हम ने फिर “छात्रों से संवाद जो हुआ नहीं” शीर्षक से घुमाया था। सम्पादित करके उसे मजदूर समाचार के अक्टूबर 2013 अंक में छापा भी था।

इधर संसार-भर में सरकारों द्वारा पूर्णबन्दी। उल्लेखनीय समय के लिये साहब लोगों द्वारा लाखों फैक्ट्रियाँ बन्द करने। इस सन्दर्भ में 2013 की प्रस्तुति में सम्भव है कि कुछ प्रस्थान बिन्दु मिलें।

इस बीच हमारा फोन नम्बर तथा ईमेल बदले हैं। अब हैं :
9643246782
majdoorsamachartalmel@gmail.com

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मजदूर समाचार पुस्तिका चार

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