व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों -V | गति के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका पाँचवाँ अंश, गति के सम्बन्ध में।

व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों का आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।
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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## “यह हम क्या कर रहे हैं? यह हम क्यों कर रहे हैं? आओ रोकें इसे…… पेरिस में ड्राइवरों ने काम करना बन्द कर दिया – ट्रेनें बन्द, मैट्रो बन्द, बसें बन्द, ट्रक बन्द, टैक्सियाँ बन्द….. न्यू यॉर्क में पायलेटों ने वायुयान उड़ाने से इनकार कर दिया….. मुम्बई बन्दरगाह में गोदी मजदूरों ने आवागमन रोक दिया….. चीन में कारखानों में हर प्रकार के वाहन का उत्पादन मजदूरों ने बन्द कर दिया…. तीन वर्ष पहले दुनिया में जगह-जगह पहिये थामने का सिलसिला आरम्भ हुआ और पृथ्वी पर शोर-शराबा थमता गया । पहियों के थमने के बाद वसन्त ऋतु और सुहावनी होती गई । वसन्त 2016 में चारों तरफ शान्ति है और लोगों के तन-मन खिले हैं……..

गुड़गाँव में यह मारुति सुजुकी फैक्ट्री थी। आज फुरसत में कई लोग यहाँ मुड़ कर देख रहे हैं और गति के उत्पादन, गति के उपभोग, यातायात पर चर्चायें कर रहे हैं…..

गति, तीव्र से तीव्रतर गति — बढती भागमभाग में हम कहाँ जा रहे थे? हम किससे भाग रहे थे? हम स्वयं से आँख मिलाने से बचने के लिये भाग रहे थे……

प्रकृति में मानव योनि को जो गति प्राप्त थी उससे अधिक गति के लिये प्रयास तन को तानने और मन को मारने के संग-संग प्रकृति से छेड़छाड़ लिये थे…. पिछले दो सौ वर्ष के दौरान तो फैक्ट्री-पद्धति से गति का उत्पादन होने लगा था । और, सौ-सवा सौ वर्ष पहले तो तीव्रतर गति के फेर में सब मानव मशीनों के, तन्त्रों के, संस्थानों के छोटे-बड़े पुर्जे बनने लगे थे….. कोयला, तेल, बिजली, न्यूक्लियर पावर, इलेक्ट्रोनिक्स द्वारा बढती मात्रा में गति का उत्पादन करना तथा गति को तीव्र से तीव्रतर करना पृथ्वी की सतह के संग पृथ्वी के गर्भ की दुर्गत करना लिये था….. बढती संख्या में तथा बढती रफ्तार के साथ प्रतिदिन मानवों को इधर से उधर लाने-ले जाने और बढती मात्रा में तीव्र से तीव्रतर गति से माल को इधर से उधर लाने-ले जाने के लिये अनेकों प्रकार के वाहनों की नित लम्बी होती कतारें रुटीन में एक्सीडेन्ट लिये थी….. गति का उत्पादन और उपभोग वायु-जल-मिट्टी का प्रदूषण, पृथ्वी का बढता तापमान, वायुमण्डल में ओजोन की परत में छेद भी लिये थी जो कि प्राकृतिक तौर पर पृथ्वी पर जीवन का विनाश लिये थे । पहियों को थाम कर मजदूरों ने पृथ्वी पर जीवन की रक्षा की राहें खोल दी हैं…..

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