व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों- III | निवास के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका तीसराअंश निवास के सम्बन्ध में।

व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों का आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।
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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## गुड़गाँव में इतनी ऊँची-ऊँची इमारतें तथा भूजल का इतने बड़े पैमाने पर दोहन युवा आर्किटेक्टों को भूगर्भ में हलचलों को निमन्त्रण देना लगता था। उन्हें डर था कि विज्ञान-इंजीनियरिंग-टैक्नोलॉजी द्वारा प्रदान की गई मजबूती वाली यह ऊँची इमारतें कभी-भी ताश के पत्तों के महल की तरह ढह सकती थी। प्राकृतिक हलचलों से पहले ही सामाजिक हलचलों ने निवास के मसले को व्यवहार में हल करना आरम्भ कर दिया…… कापसहेड़ा, डुण्डाहेड़ा, मुल्लाहेड़ा में किराये के कमरों से मजदूर निकले और दस-बीस मंजिल वाली खाली पड़ी इमारतों में रहने लगे। मण्डी-मुद्रा के, रुपये-पैसे के चलते शहरों में बड़ी संख्या में मकान खाली रहते थे। नगरों-महानगरों में खाली पड़े मकानों में जा कर लोगों द्वारा मिल कर डेरा जमाना शहरों में निवास की समस्या का एक तात्कालिक समाधान था। तीन वर्ष पहले दुनिया में जगह-जगह खाली पड़े मकानों को मजदूरों द्वारा निवास-स्थल बनाने की लहरें आरम्भ हुई थी। इस प्रकार प्राप्त हुई तत्काल राहत ने उचित-समुचित निवास के बारे में विश्व-व्यापी आदान-प्रदान बढाये। इधर वसन्त 2016 में निवास-सम्बन्धी चर्चायें और भी विस्तृत हो गई हैं….

मकान साँस लेते हैं। लन्दन में साठ प्रतिशत आबादी साँस की तकलीफों से पीड़ित थी। निर्माण-सज्जा में सीमेन्ट, स्टील, पेन्ट का प्रयोग इन तकलीफों का एक बड़ा कारण था। निवास की निर्माण सामग्री कौन-कौन सी…. पक्के मकान शिशुओं के प्रतिकूल…. ..दिल्ली महानगर की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये इर्द-गिर्द के एक सौ मील क्षेत्र का दोहन….. लॉस एंजेल्स महानगर के मल शोधन संयन्त्र के ब्रेक डाउन पर समुद्र का पूरा खाड़ी क्षेत्र प्रदूषित……

और फिर, नगर-महानगर से जुड़ा डर तथा लालच प्रत्येक को अकेलेपन में, समुदायहीनता में तो धकेलता ही था, संग-संग सुरक्षा-संचालन-नियन्त्रण का एक कठोर-निर्मम-विशाल तन्त्र भी लिये था। जबकि गाँव विकृत-बिगड़े-डिफोरम्ड समुदायकम्युनिटी वाली पीड़ा-कुण्ठा के अड्डे थे। नगरों में, गाँवों में नये समुदाय बनाने के अनेकों प्रयोग-प्रयास होते थे। इन तीन वर्षों में बहुत तेजी से नये-नये समुदाय उभरे हैं जो पृथ्वी पर निवास की इकाई के तौर पर गाँव और नगर, दोनों को नकारने लगे हैं…..

बेशक जबरन जोड़ी गई थी, पर पूरी मानव योनी जुड़ गई थी। जबरन के स्थान पर स्वेच्छा से जुड़ने की काफी कोशिशें होती रही थी। इन तीन वर्षों के दौरान विश्व-भर में स्वेच्छा से जुड़ने के प्रयास बहुत बढे हैं। वसन्त 2016 में तो तालमेलों की, मन माफिक जोड़ बनाने की बाढ-सी आई हुई है। अनेकों प्रयोग हो रहे हैं। सामाजिक इकाई का आकार….. व्यक्ति और सामाजिक इकाई के बीच सम्बन्ध….. सामाजिक इकाइयों द्वारा गठित मानव निवास का विश्व-स्वरूप…

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