महिला मजदूर : “पति यहाँ दिल्ली में काम करते थे और मैं परिवार के साथ गाँव में रहती थी। मेरे गले में गिल्टी हो गई जिसे गाँव में ऑपरेशन ने और बिगाड़ दिया। बीमारी की जाँच-उपचार कराने पति के पास दिल्ली आई थी। फैक्ट्री में काम करते मेरे पति की ई.एस.आई. नहीं थी — ऐसे में पहले यहाँ निजी चिकित्सकों को दिखाया। पति का ई.एस.आई. कार्ड बनने के बाद अगस्त 2002 से ई.एस.आई. अस्पताल में इलाज करवा रही हूँ। शुक्र मनाती हूँ कि ऑपरेशन नहीं होगा — इधर 6 महीने से लगातार दवा ले रही हूँ , 3 महीने और लेनी होगी। महीने में एक दिन ई.एस.आई. अस्पताल जाती हूँ — कम्पनी महीने में एक दिन ही छुट्टी देती है। पति बीच-बीच में ई.एस.आई. से दवा ला देते हैं।
“गले की गाँठ के अलावा कमर में भी दर्द रहता है फिर भी इन तीन वर्ष में मैं ओखला फेज-1 व 2 तथा बदरपुर में 7 फैक्ट्रियों में काम कर चुकी हूँ। पति के मना करने के बावजूद और बीमार होने व छोटे बच्चे के होते हुये भी नौकरी में जुटी हूँ क्योंकि पैसों के बिना आज इन्सान कुछ नहीं।
“औरत के काम करने में इज्जत नहीं है। महिलाओं को काम पर जाते देख लोग हँसते हैं, मजाक उड़ाते हैं। मैं भी पहले नौकरी करने जाती औरत को देख कर हँसती थी। महिला मजदूरों के लिये कोई कम्पनी अच्छी नहीं होती — एक्सपोर्ट लाइन तो हम औरतों के लिये कतई अच्छी नहीं है। पड़ोस से भी ज्यादा मजाक हमारा फैक्ट्रियों में उड़ाया जाता है।
“पहलेपहल मैंने कमरे पर ही चमड़े के जैकेटों पर फूल काढने का काम किया। ठेकेदार जैकेट दे जाता था। मैंने 3 महीने में 4-5 हजार रुपये का काम किया पर फिर काम कम हो गया। तब मैंने पहली नौकरी की — चमड़े की फैक्ट्री में जैकेट की हाथ से निर्देश अनुसार सिलाई। कम्पनी में बहुत मजदूर काम करते थे और एक महिला ठेकेदार के जरिये हम 30 महिला मजदूरों को रखा था। आठ घण्टे की हमारी दिहाड़ी 60 रुपये थी और फिर 4 घण्टे ओवर टाइम काम होता था — हम सब औरतों के ओवर टाइम के पैसे ले कर ठेकेदार शीला भाग गई। कम्पनी का नाम नहीं मालूम पर प्लॉट ओखला फेज-1 में एफ-40 था।
“किये काम के पैसे मारे जाने के बाद मैं सिलेसिलाये कपड़े निर्यात करने वाली कम्पनी में लगी। इसका भी नाम मुझे नहीं मालूम पर यह ओखला फेज-1 में डी-59 में थी। यहाँ भी मैं ठेकेदार के जरिये लगी थी — 8 घण्टे काम पर 1600 रुपये महीना तनखा थी और रोज 4 घण्टे ओवर टाइम काम होता था। मैं कपड़े पर तारे-मोती जड़ने का काम करती थी। यहाँ ठेकेदार ने तय पैसे दिये पर बीच-बीच में काम कम होने पर बैठा देता था। फैक्ट्री में करीब 500 मजदूर थे।
“दो बार बैठा दिये जाने पर मैंने नई जगह काम ढूँढा। फिर ठेकेदार के जरिये लगी — 8 घण्टे की दिहाड़ी 65 रुपये और रोज 2 घण्टे ओवर टाइम। यह फैक्ट्री ओखला फेज-1 में बी-64 में थी और यहाँ 1500 मजदूर काम करते थे पर मुझे कम्पनी का नाम नहीं मालूम। बच्चों के कपड़े बनते थे और मैं धागा काटने का काम करती थी। एक के कहने पर मुझे निकाल दिया।
“काम छूटने अथवा बैठा दिये जाने पर मैं
जगह-जगह कम्पनियों के गेटों पर जा कर काम ढूँढती हूँ — साथ काम कर चुकी औरतें भी काम दिलाने में सहायता करती हैं। औरतों को काम मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं है।
“ओखला फेज-2 में एक कम्पनी में लगी — प्लॉट और नाम, दोनों ही याद नहीं। यहाँ भी ठेकेदार के जरिये लगी — 1500 रुपये महीना तनखा और रविवार की छुट्टी। रोज 4 घण्टे तथा रविवार को ओवर टाइम लगता था। दो महीने वहाँ काम करने के बाद मैं पहली बार कम्पनी द्वारा स्वयं भर्ती की गई। ओखला फेज-2 में ए-55 में पैरामाउण्ट कम्पनी ने मुझे धागा काटने के लिये कैजुअल वरकर के तौर पर भर्ती किया। तनखा 1900 रुपये, रविवार को छुट्टी। रविवार को काम पर पैसे डबल रेट से देते थे। प्लॉट में 2 कम्पनी थी और 1500 से ज्यादा मजदूर काम करते थे जिनमें महिलाओं की बड़ी संँख्या भी। फैक्ट्री में रोज 12 घण्टे काम करना पड़ता था और तीन महीने बाद निकाल देते थे।
“पैरामाउण्ट से निकाल दिये जाने के बाद मुझे कई दिन खाली बैठना पड़ा। एक परिचित महिला मजदूर ने ओखला फेज-1 में बी-139 में अमन फैक्ट्री में कम्पनी की तरफ से भर्ती करवाया। यहाँ 12 घण्टे काम के 110 रुपये देते थे — रविवार को छुट्टी नहीं। अमन में ब्रेक करने पर इधर मैं बदरपुर में एक फैक्ट्री में कम्पनी द्वारा भर्ती की गई हूँ। यहाँ 12 घण्टे रोज काम पर 26 दिन के 2863 रुपये देते हैं। रविवार को 12 घण्टे काम के 60 रुपये अलग से। रात 11 बजे बाद छोड़ते हैं तब कम्पनी की गाड़ी छोड़ कर जाती है। दो घण्टे फालतू काम के कोई पैसे नहीं देते। रात को देर तक काम से बहुत परेशानी है।
*”मुझे कहीं भी ई.एस.आई. कार्ड नहीं दिया गया। कहीं भी पी.एफ. नहीं। हर जगह हमें खड़े-खड़े काम करना पड़ता है — कम्पनियाँ बैठ कर काम करने की अनुमति नहीं देती। 12-14-16 घण्टे खड़े-खड़े काम करने से पाँव सूज जाते हैं — इधर मैं कमजोर हो गई हूँ और मेरे पैर काँपने लगते हैं तब बाथरूम में जा कर बैठती हैं क्योंकि विभाग में बैठने नहीं देते। गर्दे के कारण कई औरतों के साँस की तकलीफ मैंने देखी है। निकालते हैं तब पहले नहीं बताते — काम खत्म होने पर कहते हैं कि कल से मत आना।*
*”आमतौर पर हम महिला मजदूरों में आपस में अच्छा व्यवहार बन जाता है — कोई इक्की-दुक्की तनाव भी पैदा करती है। हम सब मिल कर बराबर उत्पादन करती हैं — किसी का कम होता है तो हम मिल कर उसका पूरा कर देती हैं। दस-बारह दिन में ही हम आपस में तालमेल बना लेती हैं। जितना कम काम करेंगी उतना ही अच्छा है इसलिये हम सब बराबर काम करती हैं। साथ खाना खाती हैं, एक-दूसरे का बाँट कर खाती हैं — जाति नहीं पूछती, जाति से क्या फर्क पड़ता है। फैक्ट्री में हमारे बीच तालमेल ज्यादा रहते हैं और जलन कम रहती है।*
“रोज सुबह 6 बजे उठती हूँ। खाना बनाती हूँ। साढे आठ-पौने नौ पर ड्युटी के लिये निकल ही पड़ती हूँ — बहुत तेज पैदल चलती हूँ , बस लेती हूँ तो भारी भीड़ में सफर करती हूँ। फैक्ट्री में रात 9 बजे बाद रोकते हैं और पति भी जिस रोज 16 घण्टे ड्युटी कर रात 2 बजे आते है उस दिन तो बहुत ही ज्यादा दिक्कत होती है। नींद पूरी नहीं होती — फैक्ट्री में टेबल पर कार्य करते समय 11 बजे और फिर दोपहर बाद 3-4 बजे खड़े-खड़े नींद आती है। पति भी रोज 12 घण्टे ड्युटी करते हैं पर वे रविवार को कम्पनी बुलाती है तब भी काम करने नहीं जाते — कहते हैं कि हफ्ते में एक दिन तो आराम के लिये चाहिये ही। मैं हफ्ते के सातों दिन 12-16 घण्टे काम करती हूँ — पति की इच्छा रहती है कि मैं भी रविवार को छुट्टी करूँ पर ऐसा करने पर नौकरी से निकाल देंगे की धमकी रहती है। जब से ड्युटी कर रही हूँ , हम पति-पत्नी को एक-दूसरे के लिये समय मिलता ही नहीं।
“हमारा बड़ा बेटा अपने मामा के पास है। हमारे ड्युटी जाने के बाद छोटा बेटा अकेला रहता है। इधर हम ने उसे एक निजी विद्यालय में भर्ती करवा दिया है। दाखिले के 500 रुपये, 120 रुपये महीना फीस, 100 रुपये प्रति माह ट्युशन… *बच्चा सुबह अकेला स्कूल जाता है। घर लौट कर एक घण्टे ट्युशन। फिर रात 9 बजे तक अकेला रहता है। भूख लगती है तो अपनेआप खाना निकाल कर खा लेता है। छोटा और अकेला रहने के बावजूद आमतौर पर परेशान कम ही करता है पर इधर कुछ दिन से गुस्सा दिखाने लगा है — नहाता नहीं, कपड़े जानबूझ कर गन्दे करता है, खाना नहीं खाता, आटा फेंक देता है, मिलने आई सहकर्मी मिठाई लाई थी उसे उनके सामने फेंक दिया, आज रोटी छत पर फेंक दी … बच्चे को क्या पता कि किराये का कमरा है और मकानमालिक के नियम-कानून के दायरे में नहीं रहो तो झाड़ सुननी पड़ेगी। मकानमालिक शिकायत करता है … गुस्से में कभी-कभी बेटे को मार देती हूँ। बच्चे को मारना कोई अच्छी बात नहीं … मार देती हूँ तब पड़ोस के बच्चे के साथ खेलता भी नहीं। जब ड्युटी नहीं करती थी तब मेरा बेटा ऐसा नहीं था।”*