व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों – IV | पीढियों के बीच के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका चौथा अंश, पीढियों के बीच के सम्बन्ध में।

व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों का आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।
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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## शिकागो, अमरीका में ऊर्जा से भरे बच्चे स्कूलों से निकले और उत्साहित अध्यापक संग-संग थे….. दिल्ली में नर्सरी, प्री-नर्सरी में ढाई-तीन वर्ष के शिशुओं को ले जाने से माता-पिता ने इनकार कर दिया….. बीजिंग, चीन में विश्वविद्यालय छात्रों ने ज्ञान उत्पादन की इन फैक्ट्रियों के ताले लगा दिये… तीन वर्ष पहले यह सब एक बवण्डर की तरह आया। बचपन – पीढियों के बीच सम्बन्ध – विद्यालय की भूमिका – ज्ञान के मतलब की चर्चाओं-व्यवहार को नये धरातल पर ले जाने की यह शुरुआत थी। वसन्त 2016 के आते-आते विश्व-भर में स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय बन्द कर दिये गये हैं, वृद्धाश्रम बन्द…..

पीढियों के बीच सम्बन्ध आनन्ददायक होते हैं और हर जीव योनि के बने रहने की प्राथमिक आवश्यकता हैं | जन्म से ले कर मृत्यु तक फैले जीवन के हर चरण का अपना आनन्द होता है। मानवों में यह सब उलट-पलट गया था और मण्डी-मुद्रा के, रुपये-पैसे के ताण्डव ने तो पूरी पृथ्वी को रौंध डाला था। मण्डी-मुद्रा का, रुपये-पैसे का विस्तार अपने संग अक्षर ज्ञान का विस्तार लिये था, बड़ी संख्या में विद्यालय लिये था। फैक्ट्री-पद्धति में, मजदूरी-प्रथा में तो अनुशासन का पाठ पढाते विद्यालय कारखानों के वास्ते मजदूर तैयार करने के महत्वपूर्ण स्थल थे। स्कूलों में प्रवेश करते ही बच्चों को बैठना सिखाना, यानी, बचपन खत्म करना। अध्यापक बने रहने के लिये अध्यापकों का अपने स्वयं के प्रति, विद्यार्थियों के प्रति निर्मम होना। और, छात्र-अध्यापक सम्बन्ध दादा-दादी, नाना-नानी को फालतू बनाते थे। वृद्धजनों द्वारा मृत्यु का इन्तजार करना, आयु के एक मोड़ पर वृद्धाश्रम……

मानेसर में यह इन्डस्ट्रीयल मॉडल टाउन थी। यहाँ पर होण्डा मोटरसाइकिल एण्ड स्कूटर फैक्ट्री थी। वसन्त 2016 में यहाँ चिड़िया चहचहा रही हैं और बच्चों-युवाओं-वृद्धजनों के बीच ज्ञान पर मजेदार बातें हो रही हैं…… शास्त्रों ने, ज्ञान ने मनुष्यों को नाथने-पालतू बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। नियन्त्रण-दमन-शोषण बढाना ज्ञान का सार था….. लेकिन शास्त्रों को, ज्ञान को दमन-शोषण के खिलाफ भी लोगों ने इस्तेमाल किया था….. कौशल की ही तरह, ज्ञान एक संचित स्वरूप ही तो है हमारी गतिविधियों का….. कैसा ज्ञान – यह महत्वपूर्ण है…… मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों के लिये विरासत में मिले अधिकतर ज्ञान को दफनाना आवश्यक है….. क्या-क्या नहीं करें यह तय करने के लिये विरासत वाला ज्ञान उपयोगी हो सकता है….. नये सम्बन्ध नये ज्ञान की माँग करते हैं….

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