● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।
● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।
● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का चौथा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जून 2002 अंक से है।
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● काट-कूट-पीट-पुचकार कर बच्चों को मण्डी की आवश्यकताओं के मुताबिक ढालने में सहायक होना विद्यालय-रूपी संस्था का आज ध्येय है।
● विद्यालय फैक्ट्री-पद्वति के अनुसार ढल गये हैं। स्कूल फैक्ट्री है और इसमें बच्चे कच्चा माल, अध्यापक मशीन ऑपरेटर तथा इमारत-पुस्तकें-अन्य कर्मचारी सहायक सामग्री हैं।
● शिक्षा के बाद तैयार माल के रूप में जो नौजवान बिक नहीं पाते उन्हें बेरोजगार-बेकार कहते हैं और जिनके मण्डी में अच्छे भाव लग जाते हैं उनकी वाह-वाह होती है।
बच्चों को मण्डी में बिकने के लिये तैयार करने के वास्ते हम बच्चों को स्कूल भेजते हैं।
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“बच्चों की जिन्दगी बनाना” एक ब्रह्मसूत्र है। “जिन्दगी बनाने” के लिये बच्चों की तथा माता-पिता द्वारा स्वयं अपनी दुर्गत करने में आमतौर पर कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती। जो अध्यापक “बच्चों की जिन्दगी बनाने” को गम्भीरता से लेते हैं वे कई बार बच्चों की दुर्गत करने में माता-पिता से भी बाजी मार ले जाते हैं।
जानते हैं, मन्त्र माफिक दोहरा देते हैं कि कुल्हाड़ी का घाव भर जाता है पर कटु वचन का घाव सदा हरा रहता है। लेकिन … लेकिन बच्चों के खिलाफ व्यापक शारीरिक हिंसा से भी हजारों गुणा अधिक शाब्दिक हिंसा का ताण्डव जारी है। जहर बुझे शब्द-बाणों से बच्चों के मन-मस्तिष्क को छलनी करने में आमतौर पर रत्ती-भर परहेज नहीं किया जाता क्योंकि “बच्चों की जिन्दगी बनाने” का कवच जो हम धारण किये रहते हैं।
लगभग हर बड़े की ही तरह लगभग प्रत्येक बच्चा-बच्ची प्रतिदिन सैंकड़ों बार मरता-मरती है। यह खबर नहीं है।
खबरें भी देख लीजिये : जापान में बढती सँख्या में बच्चे आत्महत्यायें कर रहे हैं; अमरीका में विद्यालयों के अन्दर बच्चों द्वारा सामुहिक हत्यायें करने की घटनायें बढ़ रही हैं; बच्चों के मन-मस्तिष्क के “सुधार” के लिये दवाओं तथा मनोचिकित्सकों का प्रसार हो रहा है।
ऐसे में जिन्दगी बनाने, सफल जीवन के प्रचलित अर्थों को निगलने-दोहराने की बजाय इन पर आलोचनात्मक ढंँग से व्यापक चर्चायें जरूरी लगती हैं।
कुफल है सफलता
● अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने को सफलता मानना बहुत व्यापक होने के संग-संग दैनिक जीवन की सामान्य गतिविधियों तक पसर गया है। बहन से, भाई से, पड़ोसी से, सहकर्मी से, सहपाठी से किस-किस बात में इक्कीस होने के लिये क्या-क्या प्रयास हम सब की दिनचर्या के अंग बन गये हैं : मकान का गेट-दरवाजा; कपड़े की-जूते की कीमत; लड़के का कद; लड़की का रँग; जान-पहचान वाले की हस्ती; कक्षा में लड़की के नम्बर; जन्मदिन पार्टी में खर्चा; दारू पीने की क्षमता; तम्बू-रौशनी-बाजे पर खर्च; औकात में; ज्ञान में-बात में-पहुँच में; दामाद के गुण; … अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने के लिये छिछले-दर-छिछले स्तर में उतरते जाने को ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में व्यक्ति के अधिकाधिक गौण होते जाने की अभिव्यक्ति के तौर पर ले सकते हैं। ऊँच-नीच वाली वर्तमान व्यवस्था में अब व्यक्ति के होने-नहीं होने के बराबर-से हो जाने ने अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने को मनोरोग की स्थिति में ला दिया है, सामाजिक मनोरोग।
● ऊँच-नीच की सीढी के डंँके चढना वास्तव में कम होता है, बहुत-ही कम होता है पर इसके सपने बहुत व्यापक हैं। जो डँके चढ जाते हैं उनके सफलता के लिये झूठे-सच्चे प्रयास निचले तबकों के लिये किस्से बन जाते हैं। सिर-माथों के पिरामिड पर ऊपर चढने को वास्तविक सफलता कहने का भी प्रचलन है।
● ऊँच-नीच की सीढी के ऊपर वाले हिस्से में अपने को टिकाये रखने को भी सफलता कहा जाता है। नीचे वालों द्वारा लगातार मारे जाते हाथ-पैरों से अस्थिर होते और ऊपर चढने के लिये होती मारा-मारी किन्हीं को भी अधिक समय तक ऊँचे टिके नहीं रहने देते।
अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होना-रहना हर समय टँगड़ी का डर लिये होता है। तनाव, चौकसी-चौकन्नापन, दिखावटीपन इक्कीस होने के सिक्के का दूसरा पहलू है। और, अपने इर्द-गिर्द वालों से इक्कीस होने में सफलता देखना अपने आस-पास वालों से तालमेलों में बाधक होता है। इक्कीस होने के प्रयास सम्बन्ध सहज नहीं रहने देते।
ऊँच-नीच की सीढी चढने के प्रयास तन-मन को अत्याधिक तानना लिये हैं। अपने ताबेदारी अखरती है और दूसरों पर ताबेदारी लादने के प्रयास करने पड़ते हैं जो कि व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करते हैं। जोड़-तोड़, तिकड़मबाजी, चापलूसी, झूठ-फरेब सामान्य क्रियायें बन जाती हैं। वास्तविक भाव को छिपाना, छवि को ओढे रखना ऊँच-नीच की सीढी चढने के अनिवार्य अंग हैं। जितना ऊपर चढते जाते हैं उतना ही अधिक सामाजिक समस्याओं के निजी समाधानों के प्रयास करने को अभिशप्त होते हैं। आज से 2300 वर्ष पूर्व सुरक्षा वास्ते सम्राट चन्द्रगुप्त हर रात कमरा बदल कर सोने को मजबूर था, अभिशप्त था।
सफलता के लिये प्रयास बाँधते-बीन्धते हैं। सफलता के लिये प्रयास तन-मन को छलनी करते हैं। मनुष्यों के बीच सम्बन्धों को सफलता के लिये प्रयास लहुलुहान करते हैं। और, आज सफलता की प्राप्ति पर उपलब्ध क्या है? सम्राट चन्द्रगुप्त के शक-शंका-कुटिलता-क्रूरता से सिमटे-सिकुड़े-संकीर्ण जीवन से भी बदतर जीवन।
*सफलता कुफल है के दृष्टिगत ऊँच-नीच की सीढी चढना स्वयं में समस्या है। सिर-माथों पर बैठना खुद में प्रोब्लम है। नियन्त्रण-प्रबन्धन को समस्याओं के स्रोत के रूप में चिन्हित करना नई समाज रचनाओं के लिये प्रस्थान-बिन्दू है।*
लौटते हैं विद्यालय पर।
अपहरण किसका?
शिक्षा, विद्यालय और शिक्षक-गुरू के प्रति संस्कार-किस्से-कहानियाँ ऐसे भाव उभारते हैं कि वर्तमान में इनसे रूबरू होने पर अकसर कहा-सुना जाता है कि शिक्षा अब व्यापार बन गई है; विद्यालय धन्धा करने के लिये लाइसेन्सशुदा अहाते हो गये हैं; गुरू के स्थान पर अध्यापकों के रूप में नौकर दे दिये गये हैं। व्यथा शब्दों में फूट पड़ती है : “आज की व्यवस्था में शिक्षा का अपहरण कर लिया गया है।”
जबकि, शिक्षा-विद्यालय-गुरू का आगमन ही ऊँच-नीच वाली व्यवस्थाओं के आगमन से जुड़ा है। आश्रम में स्वामी-पुत्रों को ऋषि-गुरू शिक्षा देते थे — वह शिक्षा दासों को नियन्त्रण में रखना और स्वामियों में इक्कीस होना सिखाती थी। निषेध का उदाहरण एकलव्य का अंगूठा है। वास्तव में विद्यालय, गुरू और उनकी शिक्षा ने समुदाय में पीढियों के परस्पर सहज रिश्तों का अपहरण किया था। शिक्षा और विद्यालय सारतः समुदाय-विरोधी हैं तथा ऊँच-नीच के पोषक हैं।
और, यह तो मण्डी की आवश्यकता के अनुसार अक्षर-ज्ञान को व्यापक बनाने की अनिवार्यता रही है कि बहुत बड़ी संँख्या में विद्यालय खोले गये हैं। ऋषियों-गुरूओं का रूपान्तरण विशेषज्ञों-जानेमाने प्रोफेसरों में हुआ है और यह लोग ऊँच-नीच को बनाये रखने के लिए तर्को-सिद्धान्तों की नित नई रचना करते हैं। हाँ, बहुत बड़ी संँख्या में अध्यापक एजुकेशनल वरकर बन गये हैं, शिक्षा-क्षेत्र के मजदूर बन गये हैं। यह कोई अफसोस करने की बात नहीं है बल्कि यह तो समुदाय-विरोधी शिक्षा-विद्यालय के पर्दे उघाड़ने की क्षमता लिये बड़े समूह के आगमन का सुसमाचार है।
“मजदूर कामचोर हैं”, “सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते”, “अध्यापक पढाते नहीं” को विलाप-रूप के पार चल कर आईये देखें। ऐसा करने पर वर्तमान ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्था का खोखलापन साफ-साफ नजर आयेगा। इस सकारात्मक बिन्दू से शिक्षा-विद्यालय-शिक्षक-छात्र वाली चर्चा को आगे बढाने का प्रयास करेंगे। (जारी)
(मजदूर समाचार, जून 2002)
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