बातें … ज्यादा बातें … लेकिन कौनसी बातें?(2)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का दूसरा अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह फरवरी 2002 अंक से है।

◆ पिताजी की कूल्हे पर से हड्डी टूट गई। हम चार भाई उनके इलाज के लिये भाग-दौड़ करने लगे तो लोग बोले कि बुजुर्ग हैं, इनके लिये इतना परेशान मत हो। हमें लोगों की यह बातें बुरी लगी। हमारे पिताजी थे, हमें पाला-पोसा था, हमें स्नेह-प्यार दिया था — बूढे हो गये तो उन्हें भूल जायें?

बस से सम्भव नहीं था, हम ने जीप की। गाँव से छपरा ले गये, पटना ले गये। हमारी पत्नियों द्वारा नाक-भौं सिकोड़ने पर हम ने टट्टी-पेशाब साफ किये। बत्तीस हजार रुपये खर्च हुये। हड्डी जुड़ गई, पिताजी चलने-फिरने लगे।

हम तीन भाई फिर कारखानों में खटने लगे और एक गाँव में रहा। ज्यादातर फैक्ट्रियों में 8 घण्टे के महीने में 1200 रुपये देते हैं और रोज 12 घण्टे काम नही करो तो गुजारा नहीं। तनखा महीने की बजाय दो महीने में जा कर देते हैं। पेट काट कर हम जो मनीआर्डर भेजते हैं वह पहुँचने में चार महीने लगा देते हैं। परिवारवाले सोचते हैं कि नौकरी में हम गुलछर्रे उड़ाते हैं।

पिताजी की उपेक्षा हुई। उनके साथ अनादरपूर्ण व्यवहार हुआ। गुस्से में एक दिन पिताजी खेत में गये और वहाँ मिट्टी का तेल छिड़क कर आत्महत्या कर ली।

“क्या फायदा?” वाले सम्बन्ध, दुकानदारी वाले रिश्ते, मण्डी जनित आचार-विचार … गोरा अन्धेरा …
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बच्चों के बारे में, बुजर्गों के बारे में चर्चा करते हों चाहे स्वयं के बारे में, मण्डी की भाषा हमारी बोलचाल में सरक आती है। आज दुर्गत की जननी मण्डी है और यह अकसर होता है कि दिल से जिनका भला चाहते हैं उन्हें हम मण्डी की दलदल में हाथ-पैर मारने की सलाह देते हैं। नेक कर रहे हैं की धारणा लिये बुरा करने की त्रासदी बहुत ही व्यापक है। बच्चों का भविष्य बनाने के नाम पर वर्तमान व्यवस्था की पोषक बातें घर-घर में होती हैं। हम पीडितों के अन्दर तक धंसी है मण्डी की पैनी छुरी। इस जहर की काट बाहर मण्डी से निपटने जितनी ही महत्वपूर्ण है — बल्कि, अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि मण्डी के सफलता के पैमानों के विपरीत जीवन की सफलता के पैमानों की रचना के बिना मण्डी से पार नहीं पाया जा सकता।

इन्सान की “वैल्यू”

बहुत सामान्य हो गया है एक तरफ यह कहना कि आज इन्सान की वैल्यू नहीं है और दूसरी तरफ परिचय देते समय व्यक्ति का भाव-मोल दर्शाना। यह मनुष्य के मण्डी में माल बन जाने की अभिव्यक्ति है। और, यह हम सब के दो कौड़ी के हो जाने का ही परिणाम है कि व्यक्ति की विशेषताओं का महिमामण्डन फूहड़ता के नित नये प्रतिमान स्थापित कर रहा है।

दरअसल, ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं में वास्तविकता के स्थान पर छवि का बोलबाला होता है। छवि के लिये सामान्य की बजाय अति की आवश्यकता होती है, रोजमर्रा के स्थान पर घटना की जरूरत होती है। स्वामी राम, स्वामी रावण, सम्राट अशोक, बादशाह अकबर के किस्से-कहानियाँ प्रचारित-प्रसारित हैं जबकि दासों, भूदासों की बातें बहुत ढूँढने पर भी छिट-पुट ही मिलेंगी।

समानता की, बराबरी की दुहाई देती मण्डी व्यवस्था वास्तव में ऊँच-नीच वाली समाज व्यवस्थाओं की पराकाष्ठा है। कम्पनियों-संस्थाओं के रूप में आज चेहराविहीन अवस्था में पहुँची मण्डी व्यवस्था में चेहरों की चाह ने हवस का रूप अख्तियार कर लिया है। “कुछ कर दिखाना” मूलमन्त्र-सा बन गया है। नेता-अभिनेत्री-खिलाड़ी-कलाकार-अधिकारी-डायरेक्टर-चीफ बनने की सार्विक-सी चाह प्रत्येक द्वारा स्वयं के तन-मन के साथ अत्याचार करना लिये है। और, मीडिया द्वारा प्रचारित विशेष व्यक्तियों के हाव-भाव व मोल-तोल की जुगाली करना हमारी दैनिक क्रियाओं में घुल-मिल गया है। इन्सान की “वैल्यू” के स्थान पर इन्सानियत पर विचार-चर्चा हमें अपने इन नासूरों को पहचानने में मदद करेगी। छवि-प्रपंच से छुटकारे के प्रयास मानवीय व्यवहार की राह पर कदम हैं।

भविष्य बनाना

कौन है जो यह नहीं जानती कि मण्डी में प्रतियोगिता अनन्त है? कौन है जो यह नहीं जानता कि मण्डी में भाव बदलते रहते हैं? कौन नहीं जानती कि असुरक्षा मण्डी की जीवन-क्रिया है?

सतही, दिखावटी, क्षणिक और इस्तेमाल-उपयोग वाले सम्बन्ध मण्डी के चरित्र में हैं। इन्सानों के बीच ऐसे रिश्तों के लिये प्रयासों को “भविष्य बनाना” कहना उचित है क्या?

आइये बच्चों से शुरू करें।

“अच्छे” विद्यालय, महँगी शिक्षा, स्कूल के बाद ट्युशन — यह सब बच्चे के मण्डी में भाव बढाने के लिये प्रयास हैं। अपना पेट काटने और बच्चों की दुर्गत करने को उनका भविष्य बनाने के नाम पर जायज ठहराया जाता है। बच्चों के लिये ही सही, क्या इस पर पुनः सोचना-विचारना जरूरी नहीं है?

मजबूरी का रोना रोने की बजाय स्कूल पर प्रश्न उठाना हमें आवश्यक लगता है। यह मण्डी पर सवाल उठाने का अंग है। पीढियों के बीच सहज सम्बन्धों और समुदाय – समाज में बच्चों के पलने-बढ़ने की आवश्यकता के लिये व्यवहार दस्तक दे रहा है — सोचिये, विचारिये, बातें कीजिये क्योंकि इस तन्दूर में हम सब भुन रहे हैं।(जारी)

(मजदूर समाचार, फरवरी 2002)

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