● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।
● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।
● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का नौवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह मई 2003 अंक से है।
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50 वर्षीय बिजली बोर्ड कर्मचारी : शिफ्टों में ड्युटी है। इस समय रात 11 बजे से सुबह 7 बजे तक की ड्युटी है लेकिन 9 बजे तक ही छूट पाता हूँ क्योंकि सुबह-सुबह लाइन पर लोड पड़ता है और कोई-न-कोई फाल्ट आ जाती है। हर शिफ्ट में स्टाफ कम है। पूरे आदमी हो नहीं पाते, मिल कर करना पड़ता है — इसलिये देरी से छूटते हैं।
थका होता हूँ इसलिये घर पहुँचने पर किसी चीज को मन नहीं करता। शारीरिक थकान तो इस आयु में स्वाभाविक है पर इधर तो दिमागी थकान ज्यादा होती है।
आजकल परिवार साथ है इसलिये अब घर आने पर चाय मिल जाती है। चाय पीने के बाद एक-दो घण्टा आराम करता हूँ। फिर नहा-खा कर एक बजे के करीब सो जाता हूँ।
बेशक मन नहीं करता पर 3-4 बजे उठना ही पड़ता है। कभी घर का शोर, कभी बाहर का शोर — नींद तो पूरी होती ही नहीं। इस कारण भी दिल-दिमाग दोनों अशान्त रहते हैं।
उठने के बाद कभी सब्जी ले आता हूँ तो कभी घर का अन्य सामान। इधर-उधर निकल गया 6 बजे तो लौटने में 8 तो बज ही जाते हैं। रात 8 बजे से ड्युटी की चिन्ता लग जाती है। रोटी तो आजकल बनी मिलती हैं इसलिये बनाने का अतिरिक्त झंझट नहीं है। लेकिन कभी कुछ तो
कभी कुछ लगा ही रहता है — कभी अपनी तबीयत खराब हो गई, कभी बच्चों की तबीयत खराब हो गई, डॉक्टर के पास जाना है। मौसम के लिहाज से कुछ न कुछ होता ही रहता है। जिस दिन इनमें समय देना पड़ता है उस दिन सब चीजों में कटौती करनी पड़ती है, आराम नहीं मिलता।
समय की पाबन्दी है। लाइन का कोई काम आयेगा तो जाना पड़ता है अन्यथा शिकायत केन्द्र पर हर समय उपस्थित रहना। ब्रेक डाउन होते ही अफसरों को सूचना देनी पड़ती है।
गर्मियों में रात में ज्यादा ब्रेक डाउन होते हैं।
आँधी-तूफान तो होते ही हैं, लोड भी ज्यादा होता है। रात एक-दो बजे भी जनता पहुँच जाती है। और यह तो जनता सहयोग देती है अन्यथा स्टाफ इतना कम है कि हम काम कर ही नहीं पायें।
सर्दियों में ब्रेक डाउन कम होते हैं लेकिन जब होते हैं तब ढूँढना मुश्किल होता है। धुन्ध से अतिरिक्त परेशानी होती है — दस मिनट का काम भी आधा घण्टे से ज्यादा ले लेता है और कभी-कभी तो रात-भर फाल्ट मिलता ही नहीं।
बरसात में ट्रान्सफार्मर जल जाते हैं। केबल फुँक जाते हैं। पेड़ गिर जाते हैं, तारें टूट जाती हैं। एक्सीडेन्ट का ज्यादा ही खतरा रहता है।
ज्यादातर वरकर व्यस्त रहते हैं। चर्चायें कम होती हैं — चर्चायें तो तब हों जब लोग खुश हों।
जब परिवार साथ नहीं होता तब रात शिफ्ट में जीवन बहुत-ही कठिन हो जाता है। सुबह आ कर सबसे पहले सफाई अभियान : झाडू, बर्तन, कपड़ा। पानी भरना। चाय दुकान पर पी कर आता हूँ।
सफाई के बाद खाना बनाने की तैयारी। रोटी के साथ कभी सब्जी बना ली तो कभी दुकान से दही ले आया। कभी खिचड़ी बना ली। इस सब में एक-डेढ बज जाते हैं। फिर एक-दो घण्टे आराम। उठ कर बर्तन साफ करना, सब्जी लाना। कभी साइकिल खराब है, कभी तबीयत खराब। इन्हीं चक्करों में 8 बज जाते हैं और फिर रात की ड्युटी की तैयारी।
अकेला जीवन बहुत मुश्किल से व्यतीत होता है — चाहे कोई शिफ्ट हो।
सुबह 7 बजे की शिफ्ट के लिये 5 बजे उठ जाता हूँ। अकेला होता हूँ तब हफ्ते में आधे दिन रोटी नहीं बना पाता। बिना चाय या नाश्ता या लन्च लिये ड्युटी जाना पड़ता है। इसका एक कारण उमर के साथ शरीर में आलस्य आ जाना है।
ड्युटी तो करनी पड़ती है, बेशक रोटी न मिले। होटल में खाना अथवा साथी लोग ले आये तो उनके साथ। परिवार साथ होता है तब रोटी मिल जाती है। दिन में काम ज्यादा होता है। तीन बजे की बजाय 4-5-6 बजे छूटते हैं। कोई-न-कोई ऐसा काम आ जाता है कि छोड़ नहीं सकते। (जारी)
(मजदूर समाचार, मई 2003)