रफ्तार और स्वास्थ्य

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। चवालिसवाँ अंश अगस्त 2009 अंक से है।

जल्दी का आज बोलबाला है। गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति का महिमामण्डन सामाजिक पागलपन का स्वरूप ग्रहण कर चुका है। थल, जल, नभ और इन सब के पार अन्तरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से भी परे के लिये तीव्र से तीव्रतर वाहनों का निर्माण आज मानवों की प्रमुख गतिविधियों में है। शीघ्र तैयार होती फसलें और पशु-पक्षियों का माँस जल्दी बढाना आम बात बन गये हैं … मानव अपने स्वयं के शरीरों की रफ्तार बढ़ाने में जुटे हैं। और मस्तिष्क की गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति ने मुक्ति-मोक्ष का आसन ग्रहण कर लिया है।

प्रकृति के पार जा कर हम गति के उत्पादन में जुट गये हैं। रफ्तार की कई किस्में हैं। हर प्रकार की गति का उत्पादन एक अनन्त तांडव है। रफ्तार बढाना तांडवों की वीभत्सता बढाना लिये है। गति के उत्पादन पर विचार करने की अति आवश्यकता को महसूस करने के लिये स्वास्थ्य पर पड़ते रफ्तार के प्रभावों के कुछ पहलू देखें।

● अपनी देखभाल के लिये मानव शरीर में एक जटिल ताना-बाना है। शरीर में अनेक रक्षा-प्रणालियाँ हैं। उत्तेजना की ही बात करें तो एडरीनल ग्रन्थी में इस पर नियन्त्रण के लिये दो भाग होते हैं — एक तत्काल के लिये तो दूसरा दीर्घ अवधी के लिये रसायन (स्ट्रेस होरमोन) उपलब्ध कराता है। आम बात है कि उत्तेजना मानव शरीर की सामान्य अवस्था नहीं रही है। लेकिन इधर समय पर पहुँचना, निर्धारित समय सीमा में कार्य पूरा करना दैनिक जीवनचर्या बन गई है। इसके लिये आवश्यक तन तथा मस्तिष्क की गति प्रत्येक के लिये जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में उपस्थित है। आवश्यक गति का निर्धारण श्रृंँखला, सामाजिक श्रृंँखला करती है। यह गति बढती रहती है और श्रृंँखला से छिटक दिये जाने, नाकारा बना दिये जाने का डर चाबुक का कार्य करता है। ऐसे में प्रत्येक का तन तथा मस्तिष्क हर रोज बहुत समय तक उत्तेजना की स्थिति में रहते हैं। इससे होता यह है कि शरीर की पूरी ऊर्जा दैनिक उत्तेजना के नियन्त्रण पर केन्द्रित हो जाती है। इस कारण शरीर की अन्य रक्षा-प्रणालियों को आवश्यक ऊर्जा-साधनों की पूर्ति शरीर नहीं कर पाता। रक्षा-प्रणालियों का कमजोर होना बीमारियों की सम्भावना बढ़ा देता है। इसलिये जो जीवाणु सहज रूप से शरीर में रह रहे होते हैं और हमारे जीने के लिये आवश्यक हैं, उन्हीं जीवाणुओं से कई प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। घड़ी, जी हाँ घड़ी, स्वास्थ्य की कब्र खोदती है।

● हमारी माँसपेशियाँ और जोड़ अनेक प्रकार की गतिविधियों के अनुरूप हैं। पेड़ पर अठखेलियाँ करते बन्दर के बच्चे को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन गति का उत्पादन, तीव्रतर गति का उत्पादन एक ही क्रिया का बार-बार दोहराना लिये है। हम में से किसी की माँसपेशियों व जोड़ों पर हर रोज काफी समय तक अत्याधिक दबाव होता है तो किसी की माँसपेशियाँ व जोड़ सामान्य तौर पर शिथिल रहने को अभिशप्त हैं। लगातार खड़े-खड़े बारम्बार एक जैसा कार्य हो चाहे बैठे-बैठे मात्र हाथ चलाना, पसीने में भीगे रहना हो या फिर पसीना ही नहीं आना, हम में से अधिकतर का दैनिक जीवन इन दो धुरियों के इर्द-गिर्द घूमता है (ठहरा रहता है कहना अधिक सटीक होगा)। परिणाम है जोड़ों की बीमारियों और माँसपेशियों के दर्द की बाढ। जाँघों, घुटनों, पिण्डलियों, हाथ, कँधा, कमर के दर्द की महामारी रफ्तार, ज्यादा रफ्तार की उपज है।

● मानवों पर जीवाणुओं के आक्रमणों का बढना तथा व्यापक स्तर पर फैलना गति की, तीव्र गति की एक और महिमा है। एक शरीर के आवागमन के दायरे में सामान्य तौर पर जो जीवाणु पाये जाते हैं उनसे निपटने की क्षमता शरीर में प्राकृतिक तौर पर विकसित हुई। बल्कि, यह कहना चाहिये कि मानव शरीर का अपने इर्द-गिर्द वाले तथा स्वयं शरीर में निवास करते जीवाणुओं के साथ समन्वय रहा है। शरीर के अन्दर वाले जीवाणुओं से समन्वय टूटने की चर्चा कर चुके हैं। बढती गति द्वारा पृथ्वी को एक गाँव में बदल देने की बात देखिये। वाहनों में वायुयान को ही लें। फरीदाबाद जिले के एक गाँव में रहते व्यक्ति का शरीर वहाँ के जीवाणुओं के संग सहज जीवन आमतौर पर व्यतीत करता है। उस व्यक्ति का सिंगापुर या अमरीका जाना उसके शरीर को ऐसे जीवाणुओं के सम्पर्क में लाता है जिनके साथ समन्वय स्थापित करने की क्षमता उसके शरीर में नहीं है। वह गति, तीव्र गति द्वारा उत्पन्न बीमारी का शिकार बनती-बनता है। परन्तु बात इतनी ही नहीं है। यहाँ से अमरीका गया व्यक्ति अपने संग यहाँ के जीवाणु ले जाता है और अमरीका से यहाँ आती व्यक्ति अपने संग वहाँ के जीवाणु लाती है।

दोनों जगह नई-नई बीमारियों के बीज बोना, बल्कि बीज फैलाना। गति का, तीव्रतर गति का उत्पादन अपने में नगर-महानगर लिये है। गति, तीव्र गति अपने में विद्यालय-महाविद्यालय, मैट्रो-बस-रेल-वायुयान से अनेकों द्वारा संग-संग यात्रा, बड़ी इमारतों में निवास तथा कार्यालय, और मॉल-बाजार में भीड़ लिये है। इन सब ने छींक अथवा खाँसी से फैलने वाली बीमारियों की अपार सम्भावनायें पैदा कर दी हैं।

● तीव्रतर गति के उत्पादन के लिये नये रसायनो की आवश्यकता पड़ती है। गति के प्राप्त स्तर को बनाये रखने के लिये भारी मात्रा में रसायनों की जरूरत रहती है। मानव निर्मित रसायनों की एक पूरी नई दुनियाँ है। इन डेढ-दो सौ वर्षों में बहुत बड़ी संँख्या में नये रसायन पैदा किये गये हैं। और, कैन्सर पैदा करने में इन रसायनों की प्रमुख भूमिका है। जल्दी और अधिक फसल के लिये बीजों में परिवर्तन, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक कैन्सर तथा अन्य नये रोगों को गाँव-गाँव तक फैला रहे हैं।

● शरीर स्वयं समर्थ है अपनी मरम्मत करने में। छिल जाने, कटने, चोट लगने का उपचार करना शरीर की सामान्य क्रिया है। लेकिन, लेकिन गति, तीव्रतर गति के संग जो चोट जुड़ी हैं उनके सम्मुख शरीर लाचार-सा हो जाता है। शरीर के पास स्वयं को ठीक करने के लिये समय भी नहीं छोड़ा जाता। पाँच हजार वर्ष में विश्व-भर के सब युद्धों में जितने लोग मरे हैं उन से ज्यादा इन सौ वर्षों में सड़कों पर वाहनों की चपेट में मरे हैं। भारत की ही बात करें तो 1948, 1962, 1965, 1971, 1999 के युद्धों और 60 वर्ष की सब “आतंकवादी” कार्रवाइयों में जितने लोग मरे हैं उन से ज्यादा लोग पिछले वर्ष सड़क “दुर्घटनाओं” में मरे। भारत सरकार के क्षेत्र में 2008 में सड़कों-वाहनों ने एक लाख की जान ली, दस लाख लोग अपंग किये, चालीस लाख लोग कुछ समय के लिये नाकारा किये। परन्तु कार्यस्थलों (ड्राइवर वाले से विलग) को देखते हैं तो सड़कें भी कम लहू बहाती नजर आती हैं। गति द्वारा कार्यस्थलों पर हत्या करना, घायल करना, बीमार करना के आँकड़े छिपाये जाते हैं, बहुत ज्यादा घटा कर बताये जाते हैं। कृषि क्षेत्र में गति का बढ़ना, थैशर-ट्रैक्टर-ट्युबवैल-बिजली स्वयं में एक गाथा लिये हैं, तांडव की गाथा लिये हैं।

(जारी)

 (मजदूर समाचार, अगस्त 2009)

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