●●जाना है मैं के पार●●

●लगता है कि समाज में विभाजन ने, ऊँच-नीच ने “मैं” को जन्म दिया। सिर-माथों से बनते पिरामिडों वाले सामाजिक गठनों के विस्तार के साथ “मैं” फैलता गया।
●ऊँच-नीच की धुरी, साम-दाम-दण्ड-भेद ने समय के साथ “एक मैं” में “कई मैं” उत्पन्न किये हैं, व्यापक बनाये हैं।
●इधर पचासेक वर्षों में “मैं” सार्विक हुआ है। प्रत्येक को आज “मैं” का वाहक कह सकते हैं।
●”मैं” के सार्विक बनने के साथ-साथ लगता है कि “मैं” के विलुप्त होने की स्थितियाँ बलशाली होती आई हैं। यह आज सात अरब से अधिक लोगों के लिये एकमेव और एकमय का, unique and together का समय लगता है।
●और, प्रत्येक चीज बहुत जटिल-उलझी हुई है। एक-दूसरे पर असर डालती अनेक गतियाँ/गतिविधियाँ  प्रत्येक को प्रभावित करती हैं। सरल से सरल के बारे में अनुमान का चूक जाना स्वभाविक लगता है।
●ऐसे में अत्यन्त जटिल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषयों में वामपंथी से दक्षिणपंथी तक के प्रभाव में : “मैं कुछ भी करूँ। मैं कहीं भी रहूँ। मुझे कुछ नहीं होगा। मैं तो मैं ही रहूँगा। मैं कमल हूँ। कीचड़ में भी कमल ही रहूँगा।” स्वयं के लिये ऐसी धारणायें पालना उचित नहीं लगता, हानिकारक लगता है।
●व्यक्ति/पन्थ (दक्षिण हो, मध्य हो, चाहे वाम) की बजाय सामाजिक प्रक्रिया पर, सामाजिक सम्बन्धों पर केन्द्रित रहते हुये दुनिया-भर में अधिक से अधिक लोगों से आदान-प्रदान के प्रयास आज प्रत्येक के लिये प्राथमिक स्तर की अनिवार्य आवश्यकता लगते हैं।
— 20 मई 2021 मजदूर समाचार
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