(इन्कलाबी मजदूर केन्द्र के उपाध्यक्ष नगेन्द्र जी की 47 वर्ष की आयु में 10 जून को दिल्ली में मृत्यु हो गई।)
## शुद्ध लेनिनवादी (स्तालिन-ट्रॉट्स्की- माओ की भर्त्सना से आरम्भ करने वाले) संगठन, आर.एस.पी.आई.(एम-एल) से अलग हुआ आर.पी.पी. (इन्कलाबी सर्वहारा मंच) भी शुद्ध लेनिनवादी था। हिन्दी मुखपत्र “इन्कलाबी सर्वहारा” के सम्पादक जगदीश पाठक जी उत्तर प्रदेश में बस्ती से फरीदाबाद मिलने आने लगे थे। वे जोर दे कर कहते थे कि “मंच” संगठन नहीं है, चर्चा के लिये है। जगदीश पाठक जी ने 1983 में गोरखपुर में तीन दिन की चर्चा में आने पर जोर दिया। तब एक अपवाद के तौर पर मजदूर समाचार की तरफ से विजय शंकर और मैं गोरखपुर पर्यवेक्षक के तौर गये थे। चर्चा की पूर्व सँध्या पर भोजन के समय हम ने उनके पूर्व संगठन के नारे, “काम के घण्टे चार करो, बेरोजगारी दूर करो”, जिसे मंच ने भी अपना रखा था, उस पर प्रश्न उठाये। मार्क्स की कार्यदिवस की व्याख्या : एक मजदूर कितने घण्टे काम करे कि दिहाड़ी से परिवार का भरण-पोषण हो सके। 1880 के दौर में आठ घण्टे का कार्यदिवस की बात उठाई गई थी। इन सौ वर्षों के दौरान उत्पादन की तीव्रता में उल्लेखनीय वृद्धि और मजदूर परिवार की साइज सिकुड़ी है, फिर भी वर्तमान में फैक्ट्री मजदूर का कार्यदिवस 12-16- घण्टे की राह पर है। शिफ्ट आठ घण्टे की का अर्थ कार्यदिवस आठ घण्टे का नहीं है। इन बातों से बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि से आये लोगों का नेतृत्व असहज हो गया था।
— “चर्चा” के पहले दिन ही नेता लोगों ने कार्यकर्ताओं/काडर की क्लासें ली। बाद में पता चला कि यह पूर्व की प्रथा थी। पहले दिन थोड़ा देख कर हम ने रात को बातचीत का इन्तजार किया। तीन दिन इन्तजार। तीसरे दिन सामान समेटते समय गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्र नेता से माओवादी बने, फिर शुद्ध लेनिनवादी बने, बस्ती में युवा वकील कुलदीप से पूछा तो उन्होंने बताया : पूर्व सँध्या पर हुई बातचीत के बाद नेतृत्व ने तय किया कि बुला कर गलती की है; हमारा काडर कच्चा है; चर्चा नहीं करनी है। आठ सौ किलोमीटर की यात्रा और तीन दिन इन्तजार। वैसे, माओवादी दौर में इन्तजार के अनेक अनुभव हुये थे।
— तब गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर लाल बहादुर वर्मा से मिलना हुआ। सीपीआई(एम-एल) से अलग हो कर श्री रामनाथ द्वारा स्थापित सीएलआई (एम-एल) द्वारा प्रकाशित पुस्तक लाल बहादुर जी ने दी थी।
सीपीआई(एम-एल) के अनेक बँटवारों के पश्चात भी ग्रुपों की मूल प्रस्थापना : भारत एक अर्ध-उपनिवेशी अर्ध-सामन्ती देश; क्रान्ति का चरण जनवादी-नव जनवादी; मजदूर वर्ग की पार्टी का कार्यभार क्रान्ति के लिये किसानों को तैयार करना।
रूस में नरोदवाद के किसान क्रान्तिकारी के विरुद्ध लेनिन के मजदूर क्रान्तिकारी वाले पद्चिन्हों पर सीएलआई (एम-एल) की प्रस्थापना : भारत एक पूँजीवादी देश; क्रान्ति का चरण समाजवादी; क्रान्ति के लिये मजदूरों को तैयार करना। और, माओ पथप्रदर्शक बने रहे।
— लाल बहादुर जी के घर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध छात्र रविन्द्र गोयल भी मिले थे। रविन्द्र जी की एक सलाह जो याद है : जो कर रहे हैं वह छोड़ें; विश्वविद्यालय में पी.एचडी. करें; सरकार से छात्रवृति लें; छात्रों में से क्रान्तिकारी तैयार करें। दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों को क्रान्तिकारी बनाने में जुटे रविन्द्र जी ने समय के साथ क्रान्ति से दूरी बनाई और दिल्ली में एक कॉलेज में अध्यापक बने।
## सन् 2000 आते-आते लगभग सभी माओवादी संगठन फैक्ट्री मजदूरों में काम करने को महत्व देने लगे थे। वैसे, 1983 से मजदूरों पर केन्द्रित होने की बात कर रही सीएलआई भी 2000 के बाद तक किसानों-छात्रों में जुटी रही थी और प्रवृत्ति के तौर पर तीन-चार ग्रुपों में बँट चुकी थी। फरीदाबाद/गुड़गाँव में 2004 के बाद सीएलआई के इन्कलाबी मजदूर केन्द्र और मजदूर बिगुल धड़ों से कुछ वास्ता पड़ा।
माओ की शिक्षा घुट्टी में पिला कर किसानों को जाग्रत कर, सचेत कर, क्रान्तिकारी बना चुके क्रान्तिकारियों ने मजदूरों को जगाने, वर्ग चेतना से लैस करने, क्रान्तिकारी बनाने का नया कार्यभार ग्रहण किया।
लेनिन की 1903 की पुस्तक “क्या करें?” के आधार पर फैक्ट्री मजदूरों को पहली घुट्टी के तौर पर माओवादी ग्रुपों ने फैक्ट्री में यूनियन बनाने की शिक्षा देनी आरम्भ की। 1903 के समय ट्रेड, क्राफ्ट, शिल्प के आधार पर फैक्ट्रियों में यूनियनों का चलन था। पहला विश्व युद्ध आरम्भ हुआ तब यूरोप में हर देश की ट्रेड यूनियनों ने अपनी-अपनी सरकार का समर्थन किया था। युद्ध समर्थन का अर्थ मजदूरों के लिये शोषण में बहुत भारी वृद्धि। ऐसे में तब ट्रेड यूनियनों के गढ, जर्मनी में 1919 में युद्ध समाप्त होते ही मजदूरों ने ट्रेड यूनियनों के विरुद्ध विद्रोह किया और वह मजदूर उभार स्वयं सत्ता के लिये चुनौती बन गया था। तब स्वघोषित मजदूरों की मार्क्सवादी पार्टी और ट्रेड यूनियनों ने उस मजदूर उभार को कुचलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उस समय ट्रेड-शिल्प यूनियन के विकल्प के तौर पर मजदूरों ने इन्ड्स्ट्रियल यूनियनें उभारी परन्तु शीघ्र ही वे भी ट्रेड यूनियनों जैसी ही साबित हुई।
फरीदाबाद में 1982 में लेनिन की पुस्तक “क्या करें?” के आधार पर मजदूर समाचार के प्रयास फैक्ट्री मजदूरों ने नकार दिये थे। मजदूर समाचार का प्रकाशन रोक कर वर्ष-भर के मनन-मन्थन के पश्चात नये आधार पर मजदूर समाचार की नई सीरीज आरम्भ हुई थी। 1982 में फैक्ट्रियों में अधिकतर मजदूर परमानेन्ट मजदूर थे।
— सन् 2000 के बाद बहुत तेजी से टेम्परेरी वरकर फैक्ट्रियों में बढे। जब माओवादी क्रान्तिकारियों ने फैक्ट्री मजदूरों को यूनियन बनाने का ज्ञान देना आरम्भ किया तब अधिकतर फैक्ट्री मजदूर टेम्परेरी वरकर हो गये थे।
भारत सरकार के संविधान के तहत बना औद्योगिक विवाद अधिनियम मुख्य श्रम कानून रहा है। इस कानून के अनुसार फैक्ट्रियों में ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे जाते मजदूर और फैक्ट्री द्वारा स्वयं भर्ती किये जाते 6-7 महीने वाले कैजुअल वरकर, फैक्ट्री यूनियन के सदस्य नहीं बन सकते। मुख्य श्रम कानून अनुसार टेम्परेरी वरकर, “मजदूर-वर्कमैन” ही नहीं थे। इसलिये अधिकतर फैक्ट्री मजदूर कानून अनुसार भी यूनियन के दायरे से बाहर हो गये थे। ऐसे में मजदूरों को नियन्त्रण में रखने में यूनियनों की भूमिका कम्पनियों-मैनेजमेन्टों के लिये भी सामान्य तौर पर पूरी तरह नाकारा हो गई थी। फैक्ट्री यूनियनें असंगत, irrelevant हो गई थी।
लेकिन, नई फैक्ट्रियों में परमानेन्ट मजदूरों को भी काम करना पड़ता है और उनकी तनखायें भी अधिक नहीं होती। ऐसे में फैक्ट्री चलते पाँचेक वर्ष में, परमानेन्ट और टेम्परेरी मजदूरों में तालमेल इतने बढ जाते हैं कि कम्पनी-मैनेजमेन्ट और सरकार के लिये मजदूरों के तालमेलों को तोड़ना एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। और तब, औद्योगिक क्षेत्रों से मिट-सी गई एटक, सीटू , एचएमएस केन्द्रीय यूनियनों से बहुत अधिक प्रचार माओवादी ग्रुप यूनियन बनाने का करते हैं।
दो उदाहरण :
— 2007 में मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री में उत्पादन आरम्भ हुआ था। जून 2011 में मजदूरों के तालमेलों ने 13 दिन फैक्ट्री पर से कम्पनी और सरकार का नियन्त्रण हटा दिया; तीन हजार मजदूर दिन-रात फैक्ट्री के अन्दर रहे; मण्डी में भारी माँग और उत्पादन बन्द। मारुति मानेसर में यूनियन बनाने की वकालत करने वालों में माओवादी ग्रुप अन्य से अधिक सक्रिय रहे थे। युवा मारुति मजदूरों ने सुनी सब की पर किया अपने आंकलनों के अनुसार। इस कारण मजदूरों पर नियन्त्रण स्थापित करने में मारुति मैनेजमेन्ट और सरकार असफल रही।
तब योजना बना कर मैनेजमेन्ट ने एक महीने, सितम्बर 2011 में, सब मजदूरों को फैक्ट्री के बाहर किया तथा पुलिस के पहरे में नये वरकरों को फैक्ट्री में ही रख कर उत्पादन के प्रयास किये थे। फिर असफलता मिलने पर मारुति मैनेजमेन्ट ने मैनेजर चण्डीगढ़ भेज कर नई यूनियन का रजिस्ट्रेशन करवा कर दिया था।
एक कार 45 सैकेण्ड की बजाय एक मिनट में बनाने, वेतन-भत्तों में काफी वृद्धि जैसी उल्लेखनीय रियायतें कम्पनी ने मजदूरों को दी। लेकिन फिर भी मारुति मानेसर वरकर मैनेजमेन्ट के नियन्त्रण में नहीं आये। “मजदूर चाहते क्या हैं?” यह सरकार, कम्पनी, पार्टी-यूनियन नेताओं के लिये एक अबूझ पहली बन गई थी।
किसी आवेश में नहीं बल्कि एक सामान्य-सी स्थिति में 18 जुलाई 2012 को साँय दो शिफ्टों के मारुति मानेसर फैक्ट्री वरकरों ने, हजारों मजदूरों ने मजदूरी-प्रथा के दो प्रतीकों, फैक्ट्री बिल्डिंग तथा मैनेजरों पर आक्रमण किया। नई यूनियन के नये नेताओं को 18 जुलाई को क्रान्तिकारी संगठनों के लोग सलाह देते रहे थे : मजदूरों को रोको! और फैक्ट्री के अन्दर से नये यूनियन नेता कह रहे थे कि रोकने की कोशिश की तो मजदूर पहले नेताओं को निपटा देंगे।
मारुति मानेसर मजदूरों के उभार से घबराई सरकार ने छह सौ कमाण्डो स्थाई तौर पर मानेसर में तैनात किये। जिला अदालत, हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तार 147 मजदूरों को जमानत देने से इनकार किया। मारुति मैनेजमेन्ट ने ढाई-तीन हजार टेम्परेरी वरकर तत्काल निकाले और 546 परमानेन्ट मजदूर डिस्चार्ज किये। मानेसर में मजदूरों के उस उभार से फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में भी मैनेजरों में दहशत फैल गई थी।
और … और दो दर्जन क्रान्तिकारी संगठनों ने पचास-साठ हजार पर्चे छपवा कर बँटवाये जिनमें बेचारे और पीड़ित मजदूर वाली कहानी गढी गई थी। क्रान्तिकारियों के अनुसार मजदूरों की स्वयं की कोई पहलकदमी नहीं थी; मारुति मैनेजमेन्ट ने षड्यंत्र रचा था; बाउन्सरों से आक्रमण करवाया था; मजदूरों ने तो प्रतिक्रिया में अपना बचाव मात्र किया था …
कम्पनी और सरकार द्वारा उल्लेखनीय रियायतें दे दिये जाने के बावजूद मारुति मानेसर के युवा मजदूरों ने मजदूरी-प्रथा पर चोट मार कर विश्व महत्व का कार्य किया था। और, रंग-बिरंगे यूनियन-पार्टी नेताओं ने दलदल की रचना का कार्य तेज किया था।
मानेसर से गुड़गाँव और फिर दूर देहात में, कैथल ले जाने ने साल-भर में यह स्थिति उत्पन्न की : 18 जुलाई 2013 के दिन, दो दर्जन क्रान्तिकारी संगठनों ने पुलिस की अनुमति व छत्रछाया में गुड़गाँव के लैजर वैली पार्क में दिन में मोमबत्तियाँ जला कर और मारुति के मृत मैनेजर का चित्र उठा कर क्रान्तिकारी संगठनों की तेरहवीं की रस्म पूरी की।
यह जिक्र कर देना उचित रहेगा : 18 जुलाई 2012 को मारुति मानेसर फैक्ट्री में जो हुआ उससे अच्छी तरह परिचित एक क्रान्तिकारी संगठन का सदस्य, “निजी तौर पर तो बताऊँगा कि हाँ, मजदूरों ने यह किया। लेकिन सार्वजनिक तौर पर कहूँगा कि मारुति मैनेजमेन्ट ने षड्यंत्र किया और बाउन्सरों से मजदूरों पर हमला करवाया …”
— राजस्थान के अलवर जिले में टपुकड़ा स्थित होण्डा दुपहिया फैक्ट्री में 2011 में उत्पादन आरम्भ हुआ था। चार सौ परमानेन्ट मजदूरों और चार हजार टेम्परेरी वरकरों के बीच 2016 आते-आते ऐसे तालमेल बन गये थे कि मजदूरों ने फैक्ट्री पर से कम्पनी का नियन्त्रण हटा दिया। पुलिस ने हमला कर फैक्ट्री से मजदूरों को बाहर निकाला।
और एक बार फिर, यूनियनों वाले और क्रान्तिकारी संगठनों ने यूनियन बनाने के संविधानिक अधिकार का राग अलापा। जबकि, फैक्ट्री के चार हजार टेम्परेरी मजदूर संविधान के तहत बने कानून के अनुसार फैक्ट्री यूनियन के सदस्य ही नहीं बन सकते थे। यूनियन लीडरों और क्रान्तिकारी संगठनों ने होण्डा टपुकड़ा मजदूरों को पहले गुड़गाँव, फिर जयपुर, फिर अलवर, और फिर दिल्ली में जन्तर मन्तर पर बैठा कर – भूख हड़ताल करवा कर ऐसी स्थिति में पहुँचाया कि होण्डा टपुकड़ा के कुछ मजदूरों ने ट्रक से काँवड़ यात्रा की और भोले से अनुरोध किया कि वे होण्डा मैनेजमेन्ट को सद्बुद्धि दें …
## स्मृति में नगेन्द्र जी की छवि इन्कलाबी मजदूर केन्द्र के प्रवक्ता की है। बात फिर गोरखपुर की।
— जुलाई 2010 में मजदूर बिगुल ने गोरखपुर में “इक्कीसवीं सदी में भारत का मजदूर आन्दोलन ” विषय पर तीन दिवसीय आयोजन किया था। मजदूर समाचार उसमें भी पर्यवेक्षक था। पन्थ में विभाजन पर धड़ों में असल के लिये जो विवाद होते हैं वैसा ही गोरखपुर में हुआ। पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश से बिगुल वाले अपने आयोजन में पूरी शक्ति के साथ आये थे। और, इन्कलाबी मजदूर केन्द्र की तरफ से मोर्चा नगेन्द्र जी ने सम्भाला था। तीन दिन तक एक के बाद दूसरा बिगुल वाला आक्रमण करता रहा और तीनों दिन नगेन्द्र जी इन्कलाबी मजदूर केन्द्र का पक्ष रखते रहे थे। इक्कीसवीं सदी में मजदूर … का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था।
— 13 जून 2021, मजदूर समाचार