●जानते हुये गलत करना●

## जर्मन भाषा में दर्शनशास्त्री पीटर स्लोटरजिक की पुस्तक का अँग्रेजी अनुवाद, “क्रिटीक ऑफ सिनिकल रीजन” (Peter Sloterdijk, Critique of Cynical Reason), पच्चीसे-क वर्ष पहले पढा था। पुस्तक में जर्मनी में 1920 के दशक का एक अध्ययन था।
   कुछ शब्द :
National Socialism – राष्ट्रीय समाजवाद – नाजीवाद (फासीवाद)। हिटलर की पार्टी का जर्मन भाषा में नाम : Nationalsozialistische Deutsche Arbeiterpartei। नाजी पार्टी का अँग्रेजी में नाम : National Socialist German Workers’ Party। और हिन्दी में हिटलर की पार्टी का नाम : जर्मन मजदूरों की राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी।
कुछ जानकारी :
— 1888 में द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय (सैकेण्ड इन्टरनेशनल) का गठन। जर्मनी की पार्टी धुरी और कार्ल काउत्स्की इन्टरनेशनल के सिद्धान्तकार।
— 1891 से जर्मनी की पार्टी स्वघोषित मजदूरों की मार्क्सवादी पार्टी। काउत्स्की सम्पादित मुखपत्र के अतिरिक्त जर्मन भाषा में अस्सी के लगभग प्रकाशन जिनमें चालीसेक अलग-अलग नगरों से छपते दैनिक अखबार। युद्ध आरम्भ होने से पहले, 1913 में पार्टी के दस लाख पिचासी हजार से अधिक सदस्य। स्थानीय नगर प्रशासन के लिये चुने हुये लोगों में पार्टी के 13 हजार सदस्य। 1912 में हुये संसदीय चुनावों में पैंतीस प्रतिशत वोट के साथ पार्टी पार्लियामेन्ट में सब से बड़ा दल। विज्ञान और वैज्ञानिक समाजवाद के खूब प्रचार के लिये पार्टी द्वारा संचालित पुस्तकालय, स्कूल, उत्सव, स्वास्थ्य केन्द्र, खेल क्लब, संगीत और नाटक मण्डलियाँ। पार्टी की ट्रेड यूनियनों में पच्चीस लाख लोग।
— सैकेण्ड इन्टरनेशनल द्वारा अपने सम्मेलनों में बीस वर्ष से पारित एक प्रस्ताव : आने वाला युद्ध पूँजीवादी युद्ध है; हर देश के मजदूरों को लुटेरों के बीच लड़ाई को अपने-अपने देश में लुटेरों के खिलाफ युद्ध में बदलना है।
— 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ तब पार्टी की यूनियनों के नेतृत्व ने युद्ध में जर्मनी में सरकार का समर्थन करने की घोषणा की। और, संसद में 3 अगस्त 1914 को युद्ध में सरकार के समर्थन के प्रस्ताव के पक्ष में पार्टी के 96 सदस्यों ने वोट दिया। जिन 14 सांसदों ने सरकार के विरोध में मत दिया वो पार्टी से निकाल दिये गये। जेल।
— जर्मनी की ही तरह हर देश में सैकेण्ड इन्टरनेशनल की सदस्य पार्टी ने युद्ध में अपनी-अपनी सरकार का समर्थन किया। परन्तु काउत्स्की के विचारों को 1903 में “क्या करें?” पुस्तक में लोकप्रिय रूप में प्रस्तुत करने वाले लेनिन को 1914 में इससे ऐसा सदमा पहुँचा कि उन्होंने तत्काल “गद्दार काउत्स्की” पुस्तक लिखी।
— जनवरी 1918 में स्वघोषित मजदूरों की मार्क्सवादी पार्टी जर्मनी में सरकार का महत्वपूर्ण हिस्सा बनी। और, जर्मनी में सत्ता को चुनौती देने के स्तर पर पहुँचे मजदूरों के उभार को दबाने में सेना के संग स्वघोषित मजदूरों की मार्क्सवादी पार्टी तथा उसकी ट्रेड यूनियनों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। मजदूरों के उभार को कुचलने के लिये पार्टी ने दशकों तक अपने उल्लेखनीय नेता रहे लीबनेख्त और रोजा लक्जेमबर्ग का कत्ल तक किया था।
— फिर, युद्ध में पराजय के पश्चात बनी “जर्मन मजदूरों की राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी” के सदस्य बन अनेक स्वघोषित मार्क्सवादी/कम्युनिस्ट सहायक बने थे हिटलर के।
●1932-33 में जर्मनी में राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी सत्ता में। हिटलर सत्ता शिखर पर। सरकार विरोधी एक्टिविस्ट/क्रान्तिकारी जर्मनी से बाहर चले गये थे या फिर जेल में। युद्ध की स्थिति और देशभक्ति का प्रचार उफान पर। दूसरा विश्व युद्ध 1939 में आरम्भ। ऐसे में … हाँ, ऐसे में जर्मनी में मजदूरों ने उत्पादन तीस प्रतिशत गिरा दिया था। और, कोई टारगेट ही नहीं! गुप्तचरों, पुलिस, मैनेजमेन्टों, सेना अधिकारियों, और हिटलर सरकार में उच्च पदों पर आसीन के दस्तावेजों में  छाई चिन्ता पर एक इतिहासकार बस आश्चर्यचकित ही हुये। जबकि, मजदूरों का यह होना होता है, होना ही होता है, their very being जो 100 वरकरों को ग्लोब कैपेसिटर फैक्ट्री में 2015 में; बाटा शू फैक्ट्री में 1983-85 में 1500 मजदूरों को; जर्मनी में 1938-45 के दौरान अनेक नगरों में कार्य करते दसियों लाख मजदूरों को; … असम्भव को सम्भव करने में ले जाता है।
●●स्मृति में स्लोटरजिक की पुस्तक की कुछ बातें :
यह समय-काल-दौर-पीरियड जानते हुये गलत करने का है। जबकि, उन्नीसवीं सदी में मुखर धारणायें थी :
1). समस्यायें अज्ञान के कारण हैं।
2). जानकारियों का प्रचार-प्रसार, ज्ञान का विस्तार समाधान कर देगा।
स्लोटरजिक के अनुसार उन्नीसवीं सदी की यह धारणायें सही नहीं थी। बल्कि गलत थी। बात अनजाने में नहीं बल्कि जानते हुये गलत करने की थी।
और फिर, पुस्तक में स्लोटरजिक सामाजिक विषयों के सामाजिक समाधान से कन्नी काटते दिखे थे। वे सामाजिक विषयों के निजी समाधान की भूलभुलैया में खो गये लगे थे।
## चालीस वर्ष पहले, 1982 में फरीदाबाद मजदूर समाचार का प्रकाशन आरम्भ हुआ। और, आरम्भ होने के साथ ही मजदूर समाचार के मूल आधारों पर ही फैक्ट्री मजदूर प्रश्न उठाने लगे थे।
मजदूर समाचार का एक आधार था : “फैक्ट्री में यूनियन मजदूरों का संगठन है। गलत यूनियन नेतृत्व को हटाने और मजदूर-पक्ष के नेतृत्व को यूनियन में स्थापित करने के प्रयास करना।”
और, यूनियनों के चरित्र पर, यूनियनों के सार पर ही फैक्ट्री मजदूरों द्वारा उठाये कुछ सवाल यह  थे :
* अगर आपने यूनियन चलानी है तो :
 1. सरकार में हैसियत वाले किसी का हाथ आपकी पीठ पर होना चाहिये।
2. स्थानीय प्रशासन में महत्वपूर्ण किसी अधिकारी का आपको समर्थन होना चाहिये।
 3. फैक्ट्री की मैनेजमेन्ट के एक गुट से आपके मधुर रिश्ते होने चाहियें।
 4. आपको कुछ दादा-पहलवान-लठैत पालने होंगे।
* — “हाथ में गंगाजल दे कर प्रतिज्ञा करवाई थी।”
   — “लौटे में नमक डाल कर और उस पर हाथ रखवा कर कसम खिलवाई थी।”
   — “बेटे के सिर पर हाथ रखवा कर प्रतिज्ञा …”
और, लाल-पीले-सफेद-काले-तिरंगे झण्डे वाले यूनियन लीडर मैनेजमेन्टों के सेवादार बनते रहे थे।
* “यूनियन लीडर खाते हैं। कोई बात नहीं। नेता खायें, आटे में नमक बराबर खायें। परन्तु यह क्या कि यूनियन लीडर तो पूरा आटा ही हड़पने में लगे हैं।”
●●उन्नीसवीं सदी में यान्त्रिकी विज्ञान (mechanistic sciences) का बोलबाला कह सकते हैं। “निश्चित-सटीक-यही है” का दबदबा। सीधी-सी बात है : दो और दो चार।
 “दो और दो चार” को यान्त्रिकी विज्ञान का सार कह सकते हैं।
कागज पर दो और दो चार होते हैं। विज्ञान और टैक्नोलॉजी में इस दो और दो चार द्वारा उत्पन्न चमत्कार हमारे सम्मुख हैं।
और, शोषण तथा दमन को नई ऊँचाइयों पर ले जाने में विज्ञान-टैक्नोलॉजी की भूमिका भी हमारे सम्मुख है।
 विज्ञान-टैक्नोलॉजी को मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन का वाहक वाहन कह सकते हैं। आधुनिक ऊँच-नीच के ईश्वर-अल्लाह-गॉड लगते हैं विज्ञान और टैक्नोलॉजी।
●धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक पंथों के लिये निश्चितता एक अनिवार्य आवश्यकता लगती है। “यह था। यह है। यह होगा” — इसको पंथ का, sect का सार कह सकते हैं। अनुयायी और शत्रु  पन्थों की धुरी लगते हैं।
●● विभाजित समाज में, ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठन में दो और दो कभी-कभार ही चार होते हैं। कभी दो और दो पैंतीस हो जाते हैं। कभी दो और दो  माइनस छब्बीस हो जाते हैं। कभी दो और दो शून्य हो जाते हैं। ऊँच-नीच वाले समाजों में तुक्के के तौर पर ही दो और दो चार होते हैं।
इधर कई वर्ष से मजदूर समाचार द्वारा फैक्ट्री मजदूरों के बीच यह दो और दो वाली बातें ले जाना सामान्य हो गया था। और, स्लोटरजिक की पुस्तक पढने के कई वर्ष बाद, संयोग से एक मित्र से मिला रूसी भाषा के साहित्यकार दोस्तोवस्की की उन्नीसवीं सदी की रचना का अँग्रेजी अनुवाद, “नोट्स फ्रोम अन्डरग्राउण्ड” (Dostoyevsky, “Notes from Underground”)। इस पुस्तक में दो और दो चार वाली बात की सुन्दर व्याख्या मिली।
## और उन्नीसवीं सदी में ही, यान्त्रिकी विज्ञान को आत्मसात-सा किये कार्ल मार्क्स ने बड़े सामाजिक परिवर्तनों के सन्दर्भ में निश्चितता की बजाय यह अथवा वह की बात की, either or की बात की। मार्क्स का यह अनुमान उन्हें आज भी संगत बनाये है, relevant रखे है।
— जहाँ तक मार्क्स का नाम रटते सैकेण्ड इन्टरनेशनल की, थर्ड इन्टरनेशनल (कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल) की बात है, या फिर आज मार्क्स का नाम लेते संगठनों की बात है, वो सामाजिक क्षेत्र में दो और दो चार वाली बात लिये रहे हैं, लिये हैं।
— लगता है कि बँटे हुये समाज में, सामाजिक क्षेत्र के लिये भी निश्चितता, सटीकता “मार्क्सवादियों” के अनुकूल है। और जो स्वयं को “मार्क्सवादी” संगठन कहते हैं वो “क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों” के संगठन लगते हैं।  यह इस अथवा उस व्यक्ति की बात नहीं लगती।
— एक्टिविस्टों/क्रान्तिकारियों के संगठन भी एक सामाजिक समूह की अभिव्यक्ति लगते हैं :
* बराबरी की प्राप्ति के लिये सब कुछ को सरकारी करने की धारणा को प्रचारित करना।
* सत्ता हासिल करने तक सरकारी को सार्वजनिक  क्षेत्र, public sector घोषित करना। सरकारी की रक्षा की आवश्यकता की बातें।
* येन-केन-प्रकारेण सत्ता के शिखर पर पहुँचना। और, शिखर पर बने रहने के वास्ते सब कुछ का सरकारीकरण करने के संग-संग कैप्टन-कर्नल-जनरल वाली सेना का, शक्तिशाली सेना का गठन तथा संचालन करना।
 “राज्य पूँजीवाद” को रंग-बिरंगे “मार्क्सवाद” का सार कह सकते हैं।
## इधर 1970 से आरम्भ हुई उत्पादक शक्तियों में छलाँगों ने पाँच पोथी पढ पण्डित बनने वालों की ठेकेदारी पर घातक चोटें की हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स-इन्टरनेट की चोटें एक्टिविस्टों/क्रान्तिकारियों के लिये प्राणलेवा बनती आई हैं।
— 1982 से मजदूर समाचार के माध्यम से फैक्ट्री मजदूरों के बीच रहने ने हमें इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष अनुभव दिये हैं। इस दौरान विश्व भर में “बुद्धिजीवियों” को आमतौर पर, और “क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों” को विशेषकर, नाकारा बनते देखा है। ज्ञानियों और वैज्ञानिकों को  असंगत-irrelevant बनते देखा है।
— कारण? इन तीस-चालीस वर्षों के दौरान दुनिया-भर में लोगों द्वारा आपस में सम्पर्क करना अधिक आसान बनता आया है। अनेक भाषाओं में जो है उस तक सब की पहुँच, सम्भव के संग सरल होती जा रही है। वर्तमान के संग-संग हजारों वर्ष पीछे तक के, अपनी अनेकों पीढियों के अनुभवों तथा मनन-मन्थन तक पहुँच सहज बनती आई है। मजदूर समाचार की तरफ से ऑनलाइन पर जब-तब अँग्रेजी में भेजी जाती सामग्री के गूगल हिन्दी अनुवाद इस क्षेत्र के फैक्ट्री मजदूरों ने हमें भी भेजने आरम्भ कर दिये हैं।
●● बीसवीं सदी में विज्ञान में क्वान्टम फीजिक्स उभरी। इलेक्ट्रोन/पार्टिकल जैसे सरलतम के सन्दर्भ में भी निश्चित, सटीक वाली अवधारणाओं को नाकारा पाया गया है। सम्भावना, घनत्व वाली धारणायें अणु स्तर पर प्रयोग के लिये बनी हैं। Instead of the conceptual framework of definiteness, for atomic and sub-atomic levels a new conceptual framework of possibilities, probabilities, densities emerged.
 ## लेकिन … परन्तु सामाजिक क्षेत्र में शासकों के लिये इक्कीसवीं सदी में भी निश्चित-सटीक-पक्का अनुकूल बने रहे हैं। चौतरफा ऊँच-नीच की लड़खड़ाहट, हर क्षेत्र में ऊँच-नीच के ढहने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो रही लगती है। ऐसे में पृथ्वी के हर क्षेत्र में सत्ता की बढती बदहवासी अभिव्यक्त हो रही है :
 — सत्तासीन/सत्ता के लिये आतुर दलों/लोगों का विश्व-भर में, सामाजिक मृत्यु/सामाजिक हत्या से रूबरू सामाजिक समूहों को एक-दूसरे से भिड़ाने में जुट जाने में। पहचान की राजनीति को खुराकें बढाने के माध्यम से आधुनिक ऊँच-नीच को टिकाये रखने के यह प्रयास दुख-दर्द बढाने के अलावा और कुछ लिये नहीं लगते।
## और, लगता है कि नई समाज रचना की अवधारणाओं के लिये क्वान्टम फिजिक्स की धारणायें कुछ प्रस्थान-बिन्दु उपलब्ध करवा सकती हैं।
## ऊँच-नीच में चन्द ज्ञानियों के सर्वोपरि  स्थान के तेजी से सिमटते जाने और सात अरब लोगों में बढते आदान-प्रदानों वाले जीवन्त समय में हम हैं।
●● नोएडा, ओखला, उद्योग विहार गुड़गाँव, आई.एम.टी. मानेसर, और फरीदाबाद में इन बीस वर्षों के दौरान ड्युटी आने-जाने के समय मजदूर समाचार लेते फैक्ट्री मजदूरों में से किसी वरकर द्वारा किसी संगठन का पक्ष लेना अपवाद रहा है।
— कुछ मित्रों के लगातार दबावों के कारण जनवरी 2016 से मजदूर समाचार ऑनलाइन हुआ। फैक्ट्री मजदूरों ने उत्साहपूर्वक स्वागत किया और प्रसारण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। छपी हुई प्रतियों की सँख्या भी, ठहर-सी गई पन्द्रह हजार प्रतियाँ प्रतिमाह से तेज गति से बढी :
मध्य-2018 से फरवरी 2020 के दौरान बढती सँख्या में, 18-20-25-28-30-32-35-36 हजार प्रतियाँ प्रतिमाह मजदूर समाचार के पाठक स्वयं नोएडा, ओखला, उद्योग विहार गुड़गाँव, आईएमटी मानेसर, और फरीदाबाद में फैक्ट्री मजदूरों के बीच ले जाने लगे थे। हर अंक में व्हाट्सएप नम्बर छापने की वजह से फैक्ट्री वरकरों के इतर भी कुछ संगठन ऑनलाइन अपनी बातें हमें भेजने लगे।
●●दुनिया-भर में मृत्यु-भय से ग्रस्त साहबों की सरकारों द्वारा मार्च 2020 में लाखों फैक्ट्रियों में उल्लेखनीय समय तक उत्पादन बन्द करने ने रंगत ही बदल दी है। इस दौरान वरकरों से ऑनलाइन आदान-प्रदानों ने जीवन्तता और बढाई है।
लेकिन, रंग-बिरंगे वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यपंथी  अपनी बातें मजदूर समाचार को बढती मात्रा में भेजने लगे हैं। हम ने ब्लॉक किसी को नहीं किया है और भेजी जाती सामग्री को व्हाट्सएप से दिन में दो-तीन बार हटाना एक अतिरिक्त आवश्यकता बन गई है। वामपंथी-मध्यपंथी-दक्षिणपंथी ऐसी सामग्री प्रतिदिन भेजते हैं कि पच्चीसे-क वर्ष पहले पढी Critique of Cynical Reason की यादें ताजा हो गई हैं।
पन्थों में जानते हुये गलत करना ने एक महामारी का रूप धारण कर लिया लगता है। और, राजनीतिक पन्थों में यूँ तो विश्व-भर में ही, परन्तु विशेषकर भारत (और नेपाल, पाकिस्तान …) में राजनीति का स्तर उन्नीसवीं सदी के उतरार्ध के इन अनुमानों को सामने लाया है :
 # मजदूर लगा कर मण्डी वाली ऊँच-नीच को बनाये रखने के लिये जनतन्त्र श्रेष्ठ सत्ता तन्त्र है । डेमोक्रेसी-जनतन्त्र भी एक राजसत्ता है।
# जहाँ लोग ज्यादा राजनीतिक हो जाते हैं वहाँ वे अपना बेड़ा गर्क करते हैं।
यह अनुमान-आंकलन किसी देश-विशेष के लिये नहीं थे।
आज सत्ता की बढती लड़खड़ाहट, सत्ता के बढते बिखराव के समय में तो डेढ सौ वर्ष पहले के यह आंकलन अधिक विचारणीय लगते हैं।
— 17 जून 2021,  मजदूर समाचार
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