●आज एक मैटल पॉलिश वरकर से इधर डर की महामारी पर बातचीत हुई।●

कोरोना की बीमारी लग जाने के डर से माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चों, पड़ोसियों, दोस्तों की देखभाल से मुँह चुराने की इतनी चर्चायें देखने-सुनने पर अचरज होता है। मरने पर लाश की दुर्गति!!
बातें 2003 की हैं। फरीदाबाद में बुढिया नाले पर झुग्गी में रहता था और ओखला में एक फैक्ट्री में स्टील पर पॉलिश करता था। फरीदाबाद से ओखला साइकिल से आता-जाता था।
पत्नी के टी.बी. होने का पता चला। टी.बी. छूत वाली बीमारी है। तो क्या?
सुबह-सुबह बेटे को साइकिल के हैंडल पर और पत्नी को पीछे बैठा कर ओखला में ई.एस.आई. अस्पताल पहुँचता। उपचार और फिर आराम के लिये उन्हें वहाँ छोड़ कर फैक्ट्री जाता। साँय साढे पाँच बजे छूटने पर अस्पताल से पत्नी और बच्चे को साइकिल पर बैठा कर फरीदाबाद आता। यह महीनों चला।
झुग्गी में एक कमरा। रहना, खाना, सोना साथ-साथ। तो क्या टी.बी. होने पर किनारा करता? मैंने लगन और प्यार के साथ पत्नी का इलाज करवाया। दूरी की बात तो दिमाग में ही नहीं आई। कोई दूरी नहीं बनाई। पत्नी बिल्कुल स्वस्थ हो गई।
इस कोरोना से ज्यादा मौतें हर साल टी.बी. से होती हैं पर टी.बी. से ऐसा डर नहीं देखा। प्लेग की महामारी के समय भी एक-दूसरे की सहायता की बातें सुनी हैं।
परेशानी के समय दूर भागे उस साथ का, उस साथी का कोई अर्थ नहीं है।
— 16 मई 2021
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