इधर दुनिया-भर में प्रतिनिधि-प्रणाली की स्थिति के दृष्टिगत , लगता है कि 1998 में प्रकाशित हमारी पुस्तिका , “Self-Activity of Wage-Workers : Towards A Critique of Representation & Delegation” पढना उचित रहेगा। सम्भव है कुछ प्रस्थान-बिन्दु मिलें।
यह पुस्तिका मुख्यतः फरीदाबाद में 1982-1997 के दौरान फैक्ट्री मजदूरों के अनुभवों और विचारों पर आधारित है। यह पुस्तिका मजदूर समाचार (और कम्युनिस्ट क्रान्ति) द्वारा अपने विचार-व्यवहार की एक आत्म-आलोचना भी है।
जिस दौर के फैक्ट्री मजदूरों की बातें पुस्तिका में हैं उस दौर में फैक्ट्रियों में अधिकतर मजदूर परमानेन्ट थे। इधर स्थिति यह बनी है कि फैक्ट्रियों में आज अधिकतर मजदूर टेम्परेरी हैं। परन्तु लगता है कि इसने पुस्तिका को अधिक संगत-रेलेवेन्ट बना दिया है।
1914-1919 के युद्ध में मारे गये ढाई करोड़ लोगों ने ऊँच-नीच , खरीद-बिक्री , रुपये-पैसे की वह वीभत्सता दिखाई थी कि मानव प्रजाति
की कार्यसूची पर नई समाज रचना प्रथम स्थान ग्रहण करे।
यह नहीं हो सका। विश्व में ऊँच-नीच , मण्डी-मुद्रा , मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन जारी रहे। परिणाम स्वरूप 1939-45 के युद्ध में पाँच करोड़ लोग मरे। नई समाज रचना….
ऊँच-नीच , खरीद-बिक्री , मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली समाज व्यवस्था अपनी बढती वीभत्सता लिये जारी रही। इधर इलेक्ट्रोनिक्स के कन्धों पर सवार प्रोडक्शन तो पृथ्वी पर जीवन को ही अधिकाधिक दाँव पर लगाने लगा है।
ऐसे में संसार के कई क्षेत्रों में अब यह लॉकडाउन । फैक्ट्रियों में उत्पादन बन्द। नई समाज रचना को गति देने का सुअवसर लगता है।
अनुरोध है कि पुस्तिका को भी आदान-प्रदान बढाने के लिये प्रयोग करें।
Self-activity of Wage Workers: Towards A Critique of Representation and Delegation