जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। सैंतालिसवाँ अंश जून 2009 अंक से है।
◆ पहली मई। लखानी चप्पल फैक्ट्री (122 सैक्टर-24) में इंजेक्शन मोल्डिंग, हवाई, कोल मोल्डिंग (अपर वाली चप्पल) विभागों में चप्पलों का निर्माण। चौबीसों घण्टे कार्य। तीन मंजिल — कब्र में सोल कटाई व घिसाई। कार्टन। पैकिंग विभाग। रसायन ही रसायन चारों तरफ। इंजेक्शन मोल्डिंग बड़ा विभाग। कोल मोल्डिंग में ही 600 मजदूर … पूरी फैक्ट्री में 4500 होंगे। तीन महीने से कोल मोल्डिंग में कार्य कर रहे और पेट दर्द के कारण ड्युटी नहीं जाने से बचे मजदूर द्वारा बताई सँख्या क्या अतिश्योक्तिपूर्ण है? पता नहीं। कम्पनी चुप। सरकार चुप। कुछ मजदूर पक्षधर लोग सँख्या 1500 बताते हैं — आग लगी तब 425 या 600 कार्यरत थे तथा 150 लोग ओवर टाइम के पैसे लेने की पंक्तियों में। ज्यादातर मजदूरों की हाजिरी कागज के फर्रों पर। अधिकतर मजदूर पैदल फैक्ट्री पहुँचते थे। डेढ सौ जली साइकिलें। जो घायल अस्पतालों में पहुँचे वे आग लगने के समय कार्यस्थलों पर नहीं थे, पानी-पेशाब के लिये इधर-उधर फैक्ट्री की चारदीवारी में थे। अस्पताल पहुँचाये गये 38 में 5 के ही ई.एस.आई.आई.पी. नम्बर थे और एक बाहर से आया हुआ ड्राइवर … इस पर चौतरफा चुप्पी। फार्म 86 — पीछे की तारीख डालने के लिये। तीन कंकाल और 12 अस्पतालों में मरे। अधिकतर मजदूर दसवीं-बारहवीं कर दूरदराज से आये और किराये के कमरों में रहते लड़के। फरीदाबाद में रहते परिजनों ने 5 के लापता होने की शिकायत दर्ज करवाई। दो महीने यहाँ, चार महीने वहाँ के कारण दूर रहते परिजनों को पता ही नहीं होता कि उनके बच्चे किसी समय कहाँ काम कर रहे हैं। 21 मई को काम ढूँढने व्हर्लपूल जा रहे मोहन ने बताया : गाँव से आया हूँ — भाई रामपाल 3-4 महीने से उस फैक्ट्री में था, लौटा नहीं, पता ही नहीं लगा, कागज हैं और कम्पनी ने कहा है कि बाद में देखेंगे, बड़े भाई को यहाँ बुलाया है … 22 मई को ड्युटी जाते एक मजदूर : मेरे 5 मित्र वहाँ काम करते थे, उस दिन 3 ड्युटी नहीं गये थे तथा एक ओवर टाइम के पैसे ले कर लौट आया था पर जो ड्युटी पर था वह नहीं लौटा और अस्पतालों में भर्ती लोगों में भी नहीं था … मुजेसर में एक मकानमालिक : ड्युटी गये तीन लड़के नहीं लौटे, कमरों पर ताले लगे हैं …◆
गति, अधिक गति तथा चमक-दमक, अधिक चमक-दमक का उत्पादन ऐसी खतरनाक स्थितियाँ उत्पन्न करता है कि सुरक्षा के कोई प्रबन्ध हो ही नहीं सकते। और फिर, प्रतियोगिता का बोलबाला, बढता बोलबाला तथाकथित सुरक्षा प्रबन्धों का धड़ल्ले से उल्लंघन लिये है। मण्डी-मुद्रा के पक्षधर अपने स्वयं द्वारा निर्धारित “सुरक्षा” पैमानों के पालन में बुरी तरह असफल हैं — इनकी असफलता इनकी इच्छा से परे की चीज है, यह एक अनिवार्यता है।
● नियमों-कानूनों की वास्तविकता हिस्सा-पत्ती के लिये खींचातान और मजदूरों पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसाने के समय के लिये है।
— राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, दिल्ली-गुड़गाँव-फरीदाबाद-नोएडा स्थित फैक्ट्रियों में काम करते 70-75 प्रतिशत मजदूर दस्तावेजों में होते ही नहीं। कम्पनियों-मैनेजमेन्टों के मुताबिक और हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा केन्द्र सरकारों के अनुसार फैक्ट्रियों में काम कर रहे तीन-चौथाई मजदूर वहाँ काम नहीं कर रहे होते।
— फरीदाबाद स्थित फैक्ट्रियों में हर वर्ष हजारों मजदूरों की उँगलियाँ कटती हैं …
— राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सब फैक्ट्रियों में ओवर टाइम काम करवाया जाता है। कम्पनियाँ 98 प्रतिशत ओवर टाइम को दिखाती ही नहीं। और, कानून अनुसार दुगुनी दर से भुगतान तो अपवाद है।
— फैक्ट्रियों में कार्य करते मजदूरों में पेशेगत बीमारियों की भरमार है। फरीदाबाद में लाखों मजदूर इन बीमारियों से पीड़ित हैं …
दो और दो चार के संकीर्ण दायरे वाला विज्ञान भी यह गिनतियाँ कर सकता है पर मण्डी-मुद्रा का वाहक विज्ञान निहित स्वार्थवश यह करेगा नहीं। मन की बात करें तो प्रत्येक मजदूर का मन प्रतिदिन सौ बार तो मरता ही है और आज शायद ही कोई हों जिनके मन दिन में कई-कई बार नहीं मरते।
● भारत सरकार के क्षेत्र में ही सड़कों पर वाहनों की चपेट में आ कर ही हर वर्ष एक लाख लोग मर रहे हैं और आठ-दस लाख लोग बुरी तरह घायल हो रहे हैं …
कभी भी कुछ भी हो सकता है। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में हर समय हर कोई खतरे में है। प्रत्येक क्षण प्रत्येक का दाँव पर लगे होना वाले हालात हैं। अनिश्चितता और असुरक्षा का बोलबाला है। और, प्रत्येक बहुत-कुछ करती-करता है। किसलिये करते हैं? यह अधिक मूल प्रश्न है और इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे। आईये साँस लेने – साँस लेते रहने के बारे में यहाँ कुछ तात्कालिक बातें करें। एक की जहाँ माँग है वहाँ एक सौ उपस्थित हैं के हालात में चर्चा करें।
● अधिक हाथ ओवर टाइम के दौरान कटते हैं। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल साँस की तकलीफों और पेट के रोगों के घर हैं। एक स्थान, एक अवस्था में रहना तन की पीड़ा के संग मन के रोग लिये हैं। अत: ओवर टाइम किसी प्रकार की राहत पहुँचाने की बजाय परेशानियाँ बढाता है। जबरन रोकते हैं तब भी बचने के प्रयास करना बनता है। जहाँ कुछ छूट हो वहाँ दो पैसे अतिरिक्त के फेर में ओवर टाइम पर रुकना स्वयं अपने हाथ काटना है। और, ओवर टाइम प्राप्त करने के लिये चुगली व चमचागिरी करना अपना आज तथा कल, दोनों खराब करना है।
● देर से पहुंँचने पर डाँटेंगे, वापस कर देंगे, निकाल देंगे के डर से ट्रेन के आगे से भाग कर निकलना अथवा चलती ई एम यू में चढना अपने हाथ-पैर के संग जान को दाँव पर लगाना है। स्वयं इन से बचना और दूसरों को चेताना बनता है।
● अरजेन्ट कम्पनियों का सूत्र है। इसे अपना मन्त्र नहीं बनाना। माल जाना ही है — शिपमेन्ट के चक्कर में स्वयं को झौंक देना अपनी कब्र खोदना है। धमकी और पुचकार की काट में दिमाग लगाना चाहिये। अरजेन्ट का जाप करती कम्पनियाँ स्वयं दिवालिया हो रही हैं।
● थोड़े लाभ अथवा हानि कम करने के फेर में सहकर्मियों-पड़ोसियों के संग चालाकियों में बहुत समय व ऊर्जा व्यय की जाती है। यह चालाकियाँ हमारे आगे ही अत्याधिक सिमटे जीवन को और सिकोड़ती हैं। स्वयं नहीं करना और सहकर्मियों-पड़ोसियों की चालाकी को तूल नहीं देना हम सब के लिये राहत लिये होता है। छोटे नुकसान जानते हुये स्वीकार करना हँसने-बोलने के लिये जमीन बचाये रखता है, बढाता है।
● अच्छे, गहरे, व्यापक सम्बन्ध जीवन का रस हैं। रिश्ते हमें पगलाने से, अधिक पगलाने से बचाते हैं। सम्बन्धों के लिये प्राथमिक आवश्यकता पैसे नहीं बल्कि समय है। अपने स्वयं के लिये समय, अपने बनाने के लिये समय निकालने के जुगाड़ करना हमारी बुद्धि के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होना चाहिये। पैसा हमारे समय को निगलता है।
● अपने को इक्कीस और दूसरों को उन्नीस दिखाने के लिये हम कितना-कुछ करते हैं। इन सब से बचना बोझ तो घटायेगा ही, हमें बेहतरी की राह पर बढायेगा भी।
मनहूस माहौल में आईये अपनी बेवकूफियों पर हँसें। आईये हँसे ताकि मनहूसियत कम हो।
(मजदूर समाचार, जून 2009)