जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं।
इस सन्दर्भ में अंश भेजते रहेंगे। पैंतालिसवाँ अंश में सन्दर्भ गति और मन का स्वास्थ्य है। यह सितम्बर 2009 अंक से है।
जल्दी का आज बोलबाला है। गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति का महिमामण्डन सामाजिक पागलपन का स्वरूप ग्रहण कर चुका है। थल, जल, नभ और इन सब के पार अन्तरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से भी परे के लिये तीव्र से तीव्रतर वाहनों का निर्माण आज मानवों की प्रमुख गतिविधियों में है। शीघ्र तैयार होती फसलें और पशु-पक्षियों का माँस जल्दी बढाना आम बात बन गये हैं … मानव अपने स्वयं के शरीरों की रफ्तार बढ़ाने में जुटे हैं। और मस्तिष्क की गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति ने मुक्ति-मोक्ष का आसन ग्रहण कर लिया है।
प्रकृति के पार जा कर हम गति के उत्पादन में जुट गये हैं। रफ्तार की कई किस्में हैं। हर प्रकार की गति का उत्पादन एक अनन्त तांडव है। रफ्तार बढाना तांडवों की वीभत्सता बढाना लिये है। गति के उत्पादन पर विचार करने की अति आवश्यकता को महसूस करने के लिये स्वास्थ्य पर पड़ते रफ्तार के प्रभावों के कुछ पहलू देखें। यहाँ कुछ बातें मानसिक स्वास्थ्य की।
● निर्णय लेना। कई निर्णय लेना। प्रतिदिन अनेक प्रकार के अनेक निर्णय लेना। यह प्रत्येक की आज जीवनचर्या बन गई है। हर क्षेत्र में गति, तीव्रतर गति शीघ्र निर्णय को क्षण के विभाजन (अंग्रेजी में स्प्लिट सैकेण्ड) के चरण में ले आई है। और गति बढ़ रही है …
अनगिनत चीजें आपस में जुड़ी हैं। और, गतिशील हैं। किसी भी समय एक अत्यन्त अस्थिर संतुलन बनता है। ऐसे में व्यक्ति हो चाहे संस्थान, निर्णय तुक्के की श्रेणी में आते हैं। इसलिये स्पष्टीकरणों की भरमार रहती है।
यह गति, तीव्रतर गति द्वारा रची-बुनी सामाजिक हालात हैं कि प्रत्येक को प्रतिदिन हजारों निर्णय करने होते हैं। ऐसे में आशा और निराशा का स्थान अति आशा और अति निराशा ने ले लिया है। कभी-कभार की बजाय प्रत्येक एक ही दिन में कई-कई बार इन दो अतियों के बीच झूलता-झूलती है। एक तरफ “मैं ही बेवकूफ हूँ” तो दूसरी तरफ “मेरे सिवा सब पागल हैं” दो छोर बने हैं।
गति, तीव्रतर गति ने सूचनाओं-जानकारियों की बाढ ला दी है। व्यक्ति को कुछ का ही पता रहता है, कुछ को ही ध्यान में रख सकती है। और फिर आंकलन, तुलनात्मक आंकलन, महत्व के प्रश्न। जल्दी-जल्दी हजारों फैसले रोज लेने की मजबूरियाँ ही हैं कि “गलती किस से नहीं होती?” आज इतना प्रचलित वाक्य है। परन्तु बात इतनी ही नहीं है।
निर्णय-दर-निर्णय। तुक्के-दर-तुक्के। गलतियाँ-दर-गलतियाँ। आज की यह अनन्त प्रोसेस प्रत्येक को प्रतिदिन अनेक भूमिकाओं में धकेलती है। रोज ही हम अनेक मुखौटे लगाने को अभिशप्त हैं। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति अनेक व्यक्तित्वों का अखाड़ा बना है। एक “मैं” में पचासों “मैं” हैं। और, ज्ञानी लोग व्यक्तित्व में एक विभाजन को मनोरोग कहते हैं।
● बच्चे जल्दी बड़े हों। यानी, वर्तमान में गति की तीव्रता के अनुरूप बच्चे स्वयं को शीघ्र ढालें। विद्यालय। मस्तिष्क की गति बढायें। परिणाम है दस वर्ष के बच्चों में भी चिड़चिड़ापन, सुस्ती व उदासी … आत्महत्या तक।
मानसिक रोगों ने महामारी का रूप ले लिया है। ऐसे में मनोचिकित्सकों में एक प्रवृति यह भी उभरी है कि 15 प्रतिशत मानसिक रोगों को मनोरोग मानना ही बन्द करो।
भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य प्रोग्राम का आंकलन है कि भारत में 10-20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगी है। चिकित्सकों के अनुसार भारत में 50-60 प्रतिशत लोग मनोरोगी हैं। स्वयं डॉक्टरों में आधे से अधिक रोगी हैं और 6-7 प्रतिशत तो गम्भीर रूप से मनोरोगी हैं। भारत में तीव्रतर गति के व्यापक ताण्डव को अधिक समय नहीं हुआ। यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया में गति, तीव्र गति, तीव्रतर गति की उपज अकेलापन की भयावहता का अन्दाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अन्य विषयों के विशेषज्ञों पर अनेक पाबन्दियाँ लगाती यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया की सरकारों ने भारत से मनोचिकित्सकों के लिये दरवाजे पूरे खोल रखे हैं।
● अकेलापन। भीड़ में अकेलापन। यह तीव्र से तीव्रतर गति की विशेष फसल है, खास उपज है।
आज कामकाजी रिश्तों का बोलबाला है। और, इतनी तेजी के होते हुये भी कामकाजी सम्बन्धों के लिये भी किसी के पास पर्याप्त समय नहीं है। वैसे, यह कहना बनता है कि गति इतने काम पैदा कर देती है — बढा देती है कि समय कम पड़ता है। ऐसे में आमतौर पर “समय नहीं है” का रोना कामकाजी रिश्तों के लिये समय कम पड़ने का रोना होता है।
जबकि, कामकाजी रिश्तों से परे वाले सम्बन्ध ही वह सम्बन्ध हैं जो जीवन को रस देते हैं, जीवन्तता प्रदान करते हैं। कामकाजी रिश्तों में परिचित बनते हैं और इन से परे वाले सम्बन्धों में … मित्र-दोस्त-फ्रेन्ड बनते हैं (शब्दों के अर्थों में भारी उलट-फेरें हुई हैं और परिचित को मित्र कहना चलन में है फिर भी मजबूरी में यह शब्द पुराने अर्थ में यहाँ प्रयोग किये जा रहे हैं)।
किसी भी सम्बन्ध के लिये समय प्राथमिक आवश्यकता है। आज कामकाजी रिश्ते ही सब समय हड़प रहे हैं। इसलिये परिचित बहुत हैं, दोस्त शायद ही कोई। यह स्थिति मानसिक रोगों का एक आधार तो बनती ही है, यह मनोरोंगों के उपचार को असम्भव भी बना देती है।
● थोड़ा मुड़ कर देखें। डर, गुस्सा, असहायता, जलन, कुंठा, लालच व्यापक थे। परन्तु फिर भी मानसिक रोगों को रोकने, उनका उपचार करने के लिये झाड़-फूंक, मन्दिर-दरगाह-थान के अलावा एक प्रकार की सामाजिकता भी थी। रफ्तार, बढती रफ्तार उसे पूरी तरह निगल गई है अथवा उसका बाजारीकरण कर दिया गया है।
उपमहाद्वीप में इन सौ वर्षों में व्यक्ति की मृत्यु पर उससे सम्बन्धित गतिविधियों का एक महीने से 13 दिन, फिर 3 दिन और अब एक घण्टे की होना। एक महीने की होली 6-8 घण्टे की हो गई है। सावन का महीना दो दिन का बन गया है — तीज का दिन और रक्षाबन्धन का दिन। ब्रज में भी कृष्ण जन्माष्टमी से बलदेव छठ वाला 20 दिन का भादों मास मात्र जन्माष्टमी रह गया है। दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, गरबा, ओणम, बिहू, दिवाली का बाजारीकरण वीभत्स रूप ग्रहण कर चुका है। दादा, नानी, दोस्त, गली-मोहल्ले के रिश्ते अब गायब हो रहे हैं और निजता-प्राइवेसी की माँग मुखर हो रही है।
इसलिये भारत में भी मानसिक रोगों का उपचार एक बहुत बड़ा धन्धा बनने की राह पर है।
● गति की पहली दस्तक आमतौर पर सेना में होती है। गति और दूर-दूर प्रस्थान व निवास स्थाई सेना को मानसिक रोगों के लिये उपजाऊ स्थान बनाते हैं। उपमहाद्वीप की ही बात करें तो पहला पागलखाना 1787 में कोलकाता में खोला गया था। फिर 1794 में चेन्नई में, 1795 में रांची में, 1806 में मुम्बई में, 1858 में आगरा में, 1862 में बरेली में पागलखाने बनाये गये। यह सब पागलखाने छावनियों के निकट बनाये गये थे। पहले इन पागलखानों में यूरोप में जन्मे मनोरोगी सैनिकों को रखा जाता था और फिर मानसिक रोग से ग्रस्त भारत में जन्मे सिपाहियों को भी। मनोरोगियों को पागलखानों में बन्द करने का कानून 1858 में बना और यह जेल अधीक्षकों के तहत थे — 1920 में इनके नाम में चिकित्सालय शब्द लाया गया और यह डॉक्टरों के तहत हुये।
सेनाओं के बाद गति का अगला अखाड़ा आमतौर पर उत्पादन क्षेत्र बनता है। डेढ-दो सौ वर्ष पूर्व की गति तथा परिजनों से दूर निवास सैनिकों को मनोरोगी बना रहे थे। आज मजदूर उससे बहुत अधिक गति तथा परिजनों से दूर बदतर निवास स्थानों पर रहते व कार्य करते हैं। मजदूरों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में … क्या कहें?
और, बूढों में मानसिक रोगों की स्थिति … यह बात ही मत करो!
(मजदूर समाचार, सितम्बर 2009)