जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इकतीसवाँ अंश सितम्बर 2008 अंक से है।
अगस्त 2008 में इलाहाबाद में रेलवे वरकर मित्र के बच्चों से मिलने का अवसर मिला। विद्यालय में तीन दिन की छुट्टी ने बातचीत को सहज बनाया। ऊँच-नीच की सीढी पर ऊपर चढने को प्रयासरत बच्चों की बातें आश्चर्य भी लिये थी। मित्र रेलवे वरकर के बड़े बेटे, केन्द्रीय विद्यालय में आठवीं कक्षा के 13 वर्षीय छात्र की बातें यहाँ प्रस्तुत हैं।
किसी से भी बात करने के लिये मेरे टाइम टेबल में समय नहीं है
(केन्द्रीय विद्यालय में आठवीं कक्षा में पढते 13 वर्षीय छात्र के लिये अगस्त माह में तीन दिन लगातार छुट्टी विशेष समय था। इलाहाबाद में इस बच्चे से हुई बातचीत के अंश देखिये और सोचिये।)
अध्यापक कहते हैं कि अब हम बड़े हो गये हैं, प्रतियोगिता बहुत है, लाखों-करोड़ों में अपनी जगह बनानी है इसलिये मेहनत करें। हमें समय के समुचित उपयोग वाली सी डी दिखाई गई और पुस्तकालय अध्यक्ष ने प्रत्येक को सलाह दी। टाइम टेबल हम ने स्वयं बनाये। अब हम बच्चे नहीं रहे, अपना भविष्य हम खुद देख सकते हैं।
मेरी समय-सारणी अनुसार सुबह 4 बजे उठना पर बिस्तर छोड़ने में साढे चार हो ही जाते हैं। पढ़ना साढे चार से साढे पाँच तक। फिर विद्यालय जाने के लिये तैयार होना। बस साढे छह बजे स्टॉप पर आती है और वहाँ पहुँचने में 5 मिनट लगते हैं। हमारे स्कूल में बस 7 बज कर 25 मिनट पर पहुँचती है। सुबेदारगंज से केन्द्रीय विद्यालय, मनौरी बीस किलोमीटर से अधिक दूर है और जाते समय बस अन्य स्कूलों में बच्चों को छोड़ते हुये अन्त में हमें उतारती है। हमारे स्कूल में छुट्टी अन्य विद्यालयों के बाद होती है इसलिये लौटते समय वहाँ से बच्चे पहले उठा कर बस हमें सीधे लाती है। विद्यालय में गुण्डागर्दी बहुत है — नौवीं से बारहवीं वालों द्वारा कुछ ज्यादा ही।
स्कूल सुबह साढे सात से दोपहर एक चालीस तक। बस दो दस पर आती है और मैं दो पचास पर घर पहुँचता हूँ। कपड़े बदल कर तीन-साढे तीन तक भोजन। अध्यापकों द्वारा दिया कार्य साढे तीन से साढे पाँच के दौरान करना। वैसे मेरे टाइम टेबल में यह समय ट्युशन के लिये है पर अभी उसका प्रबन्ध हुआ नहीं है।
साँय साढे पाँच से 7, डेढ घण्टा मैंने खेल अथवा विश्राम के लिये रखा है। *मैं खेलता नहीं क्योंकि हारने व जीतने में, दोनों में गड़बड़ है। जीतने पर दूसरे को चिढाना शुरू कर देते हैं। हारने वाले झगड़ा कर लेते हैं, लड़-मरने को तैयार हो जाते हैं। हारने पर टीम वाले ही एक-दूसरे को दोष देते हैं। खेल वाली मस्ती होती ही नहीं। एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं।*
7 से रात 9 बजे तक पढाई। अगर अध्यापकों द्वारा दिया काम पूरा हो गया है तो कक्षा से आगे चलने के लिये अतिरिक्त पढते हैं। अध्यापक के पढाने से पहले पढते हैं ताकि कक्षा में ठीक से समझ में आये।
फिर भोजन कर सो जाता हूँ — अगले रोज सुबह 4 बजे उठने के लिये।
माँ-पिता-बहन-भाई से बात करने का समय टाइम टेबल में है ही नहीं। बात कर ही नहीं पाते। घर में समय नहीं है, कक्षा में बात करो तो अध्यापक डाँटें। चुप रहने वाली बात ही रहती है। चुप रहते-रहते साइलेन्ट हो जाते हैं, लैटर बॉक्स में पड़ी चिट्ठियों की तरह हो जाते हैं जो साथ-साथ रहती हैं पर एक-दूसरे से बात नहीं करती, न ही एक-दूसरे से मतलब रखती, बस अपनी-अपनी मंजिल तक पहुँचने का इन्तजार करती रहती हैं।
(मजदूर समाचार, सितम्बर 2008)