यहाँ बीमारियों की बात नहीं करेंगे। बीमारियों के कारणों की चर्चा भी नहीं करेंगे। निगाह अँग्रेजी, यानी ऐलोपैथिक उपचार पर रखेंगे।
बात 1984-85 की है। तब मैं मेडिकल कॉलेज का छात्र था। मेरी इच्छा एक अच्छा चिकित्सक बनने की थी। इसके लिये आवश्यक ज्ञान व हुनर प्राप्त करना चाहता था। इसके साथ थोड़ा-सा धन कमाने की इच्छा भी जुड़ी थी। जरूरतमन्दों का उपचार करूँ और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन भी हो। मेरे अधिकतर सहपाठियों में भी यही भावनायें थी।
लेकिन, 1992-93 से बाजार का उपचार पर हावी होते जाना मुझे दिखने लगा। यहाँ दिखने लगा।
साधनहीनों को अति आवश्यक होने पर भी उपचार उपलब्ध नहीं होना। सम्पन्नों को आवश्यक नहीं होने पर भी पैसों की चाह में उपचार परोसना। एक तरफ मर रहों को अस्पताल में बिस्तर नहीं और दूसरी तरफ सामान्य-सी बीमारी, जैसे वायरल बुखार होने पर भर्ती कर लेना तथा 50-60 हजार रुपये का बिल बना देना।
— सरकारी अस्पताल 1980 से लगातार उपेक्षा के शिकार हैं। तब सरकारों के व्यय में स्वास्थ्य क्षेत्र का हिस्सा तीन प्रतिशत था जो घटते-घटते 2001 तक एक प्रतिशत से भी कम, 0.9% तक आ गया। अतः देख-रेख भी नहीं, वृद्धि की तो बात ही क्या करना।
— विश्व-भर से रोगियों को उपचार के लिये, सस्ते उपचार के लिये आमन्त्रित करना। अति विशेषज्ञता वाले महँगे अस्पतालों के निर्माण के लिये सस्ते में जमीन उपलब्ध कराना।
— 1980 में 160 सरकारी मेडिकल कॉलेज थे और आज 2008 में यह संँख्या 170 तक नहीं पहुँची है। इसी अवधि में निगमित क्षेत्र में 100 से अधिक नये मेडिकल कॉलेज खुले हैं। चिकित्सक बनने के लिये कई लाख रुपये खर्च करना आवश्यकता बन गया है।
— मेडिकल कॉलेज खोलने के लिये 500 बिस्तर का अस्पताल आवश्यक है। आज 70 करोड़ रुपये वार्षिक व्यय में 500 बिस्तर का अस्पताल तथा मेडिकल कॉलेज सहज ढंग से चल सकते हैं। भारत में 600 जिले हैं, प्रत्येक जिले में सरकारी मेडिकल कॉलेज … बाजार के प्रभाव में बाधा। सरकारें अति विशेषज्ञता के लिये एक संस्थान पर 200-250 करोड़ रुपये वार्षिक खर्च करती हैं।
— नर्स, फार्मासिस्ट, लैब टैक्नीशियन, फिजियोथेरेपिस्ट, ऑपरेशन थियेटर टैक्नीशियन की बीमार समाज में आवश्यकता लाखों में है। एक डॉक्टर के संग 3 नर्स। सरकारी क्षेत्र में इनके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये 1980 से उल्लेखनीय वृद्धि नहीं। जबकि, गली-गली में इनके संस्थान खुल गये हैं। इस समय फरीदाबाद में ही 16 हैं — सरकारी एक भी नहीं।
— सरकारी अस्पतालों में नर्सों व अन्य पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। मानक अनुसार 200 बिस्तर के अस्पताल में 200 नर्स होनी चाहियें। सरकारें 50-60 पद ही स्वीकृत करती हैं। और, वास्तव में 20-30 नर्स ही होती हैं। हाँ, भारत सरकार-हरियाणा सरकार नर्सों के निर्यात को प्रोत्साहित करती हैं।
— स्वास्थ्य बीमा नया, तेजी से बढ़ता धन्धा है। बीमा बीमारियों का नहीं किया जाता बल्कि राशि आधारित है। यह अस्पतालों को अनावश्यक उपचार के लिये प्रेरित करता है। यह बीमा कम्पनी को आवश्यक उपचार पर भी कैंची चलाने को प्रेरित करता है। अस्पतालों और बीमा कम्पनियों की खींचातान ने बिचौलिये (टी पी ए) को जन्म दिया है जो बीमा करवाने वाले के लिये अतिरिक्त व्यय व परेशानी लिये है।
— धर्मार्थ अस्पतालों में भी बाजार का दबदबा कायम हो गया है। दिल्ली में मूलचन्द, गंगाराम और यहाँ फरीदाबाद में सनफ्लैग, एस्कॉर्ट्स अस्पताल उदाहरण हैं। अब इन में उपचार बहुत महँगा हो गया है। गंगाराम अस्पताल की ही बात करें। मरीज से पहला प्रश्न : स्वास्थ्य बीमा है कि नहीं? है तो कितने का? तीन लाख रुपये का है तो कहीं और देखिये। दस लाख रुपये के बीमे से कम वालों को उपचार कहीं और करवाने की सलाह दी जाती है।
उपचार का बाजारआज भारत में एक लाख पचास हजार करोड़ रुपये वार्षिक का है। लोग प्रत्यक्ष तौर पर एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ रुपये और सरकारों के माध्यम से 35 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं।
उपचार पर बाजार के हावी होने का एक प्रतीक गुर्दे खरीदना और गुर्दे बेचना है।
— एक डॉक्टर (2008)
— (मजदूर समाचार, दिसम्बर 2008)