युवा मजदूर : छह महीने में तो ब्रेक कर ही देते हैं। नई जगह लगने में कई बार महीना बीत जाता है। खाली बैठे दस दिन हो जाते हैं तो निराशा बढ़ने लगती है। मरने को मन करता है … “आत्महत्या पाप है” कह कर अपने को रोकता हूँ।
मारुति सुजुकी को पार्ट्स सप्लाई करने वाली फैक्ट्री का मैनेजर : पावर प्रेस का ज्यादा काम है। उँगलियाँ कटने की तो कोई गिनती ही नहीं। इन दो वर्ष में पहुँचे से 18 मजदूरों के हाथ कटे हैं। दस्तावेजों में दिखाना नहीं होता है इसलिये निजी चिकित्सकों से उपचार करवाया जाता है। यह सब देख कर बहुत दुख होता है। अपनी असहायता मुझे और भी पीड़ा पहुँचाती है।
सत्तर वर्षीय सेवानिवृत्त प्रोफेसर : सुबह-सुबह अखबार मन खराब कर देते हैं। इतनी घिनौनी बातें। मन कहता है कि नेताओं और अफसरों को गोली से उड़ा दो।
जो कभी गाँववाले थे : मुजेसर के एक और नौजवान ने इधर आत्महत्या कर ली। जिन गाँवों की जमीनों पर फरीदाबाद में कारखाने खड़े हैं उन गाँवों के निवासियों की बड़ी संँख्या नशे की गिरफ्त में है। कमरों से किराया बहुतों की आमदनी का मुख्य स्रोत है। दम्भ और नशे में चूर नौजवान अपने बड़े-बूढों की बात भी नहीं सुनते।
बीस वर्षीय मजदूर : रोज 12 घण्टे ड्युटी है। माल की ज्यादा माँग होने पर प्रतिदिन 16 घण्टे काम। सप्ताह में, महीने में कोई छुट्टी नहीं। जबरन है, 12-16 घण्टे नहीं रुको तो नौकरी नहीं है। पैसे घण्टे के हिसाब से। घण्टा दूसरा हो चाहे पन्द्रहवाँ, दर एक ही। उत्पादन प्रतिघण्टा अनुसार निर्धारित करते हैं। नये पीस के लिये आरम्भ में अगर 10 मिनट समय रखते हैं तो उसे घटा-घटा कर 9-8-7-6 मिनट कर देते हैं। फिर प्लस-माइनस हैं, निर्धारित से कम उत्पादन पर पैसे काटते हैं … लाइन इनचार्ज और मास्टर बात-बात पर डाँटते-फटकारते हैं। हम इसका विरोध क्यों नहीं करते? हम टारगेट हासिल करने, पार करने में क्यों भिड़ जाते हैं? लोग सोचते क्यों नहीं? मुझे बहुत गुस्सा आता है। मन करता है साहबों को उड़ा दूंँ। मन करता है आतंकवादी बन जाऊँ।
● जो है उस से खुश नहीं हैं। बदलाव चाहते हैं।
— अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिये हम में से प्रत्येक बहुत पापड़ बेलता-बेलती है। तन को तानने से मन को मारने तक क्या-क्या हम नहीं करते। चन्द लोग, इक्का-दुक्का व्यक्ति अपनी इच्छाओं में से कई को प्राप्त भी कर लेते हैं। लेकिन, मुड़ कर देखने पर वे बातें जिन्हें बहुत महत्वपूर्ण मानते थे वे वास्तव में गौण मिलती हैं। चौतरफा हालात बद से बदतर मिलते हैं … हमारे प्रयास विफल हो रहे हैं।
— “व्यवस्था ही खराब है” एक सामान्य समझ बन गई है। अलग-अलग व्यक्ति की समस्याओं का समाधान नहीं निकल सकता की बात भी एक आम समझ बन गई है। बात समाज बदलने से ही बनेगी की बात भी एक सामान्य समझ बन गई है।
और, लगता है कि समाज बदलने के हमारे प्रयास एक ठहराव की स्थिति में आ गये हैं।
● वर्तमान से असन्तोष की अभिव्यक्ति जलसे-जुलूस, हड़ताल, पुलिस से टकराव, सशस्त्र विद्रोह में उल्लेखनीय तौर पर होती थी। यह तथ्य है कि दुनियाँ-भर में सौ वर्ष के दौरान सभा-हड़ताल-विद्रोह की सफलता ही इनकी असफलता साबित हुई। पूरे विश्व में कारखाने बढते आये हैं, मजदूरों की सँख्या बढती आई है, परिवार का आकार सिकुड़ता आया है, परिवार के पालन-पोषण के लिये पुरुष के संग स्त्री द्वारा नौकरी करना बढता आया है, मजदूरों के काम के घण्टे बढ़ रहे हैं, कार्य की तीव्रता बढती आई है, असुरक्षा बढ़ रही है …
असन्तोष बढता आया है, गुस्सा विस्फोटक हो गया है। लेकिन, संसार-भर में इनकी अभिव्यक्ति मीटिंग-हड़ताल-टकराव में बहुत ही कम हो रही है। नेताओं के पीछे मजदूर कम ही दिखाई देते हैं।
● आज हमारा गुस्सा काफी-कुछ आत्मघाती राहों में फूट रहा है। अकसर हम खुद को काटते हैं, अपने निकट वालों को काटते हैं। और, हम में से इक्का-दुक्का आतंकवादी भी बन रहा-रही है।
क्या करें? कहाँ जायें?
अपने स्वयं के कदमों के निजी महत्व से हम अच्छी तरह परिचित हैं। कार्यस्थलों तथा निवास स्थानों वाले अपने जोड़ों-तालमेलों के व्यवहारिक महत्व हम सब के जाने-पहचाने हैं। इस विकट परिवेश में, हमारे विचार से, अपने स्वयं के और अपने जोड़ों के व्यापक महत्व के बारे में सोचने-विचारने की आवश्यकता है।
— एक व्यक्ति अनेक तालमेलों में शामिल होता-होती है। पुराने किस्म के कुछ तालमेल ढीले हो रहे हैं, टूट रहे हैं पर व्यक्ति के लिये नये तालमेलों में शामिल होना आसान हो रहा है। परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं, ऐसी अधिकाधिक बनती जा रही हैं कि एक जोड़ सहजता से कई जोड़ों से तालमेल बैठा सकता है। यह हमें मैं से, विभाग से, फैक्ट्री से, मोहल्ले से पार ले जा कर बड़े क्षेत्र प्रदान कर सकते हैं। सहजता से हम विश्व-व्यापी तालमेलों तक जा सकते हैं।
— व्यवहारिक हित के दायरों के बाहर वाले तालमेल आवश्यक हैं और इन्हें बनाना मुश्किल भी नहीं है। हमारे ऐसे तालमेल जो हो रहा है उसे सहज ही जब-तब ठप्प कर सकते हैं। यह हमें साँस लेने की फुरसत प्रदान करेंगे। यह हमें बदहवासी से बचायेंगे।
— मण्डी और मुद्रा ने दुनियाँ को जबरन जोड़ा है। जबकि अपने तालमेलों के जरिये हम संसार के पाँच-छह अरब लोगों से अपनी इच्छा वाले जोड़ बना सकते हैं। वर्तमान से पार पाने के लिये अनुभवों और विचारों के आदान-प्रदान तो एक-दूसरे को मदद करेंगे ही करेंगे। विश्व में नई समाज रचना के लिये जारी मन्थन को हमारे यह जोड़-तालमेल गति प्रदान करेंगे।
— (मजदूर समाचार, मार्च 2008)