कई तरह की पेट की बीमारियों, विभिन्न प्रकार के उदर रोगों की भरमार है। “पापी पेट” का जिक्र और बहुत कुछ को व्यक्त करने के लिये किया जाता है परन्तु यहाँ हम स्वयं को उदर रोगों तक ही सीमित रखेंगे। व्यापक और सामान्य बन चुकी पेट की बीमारियों के उपचार के लिये किन्हीं गोलियों, घोलों, व्यायामों, प्रार्थनाओं-प्रवचनों का भी यहाँ जिक्र नहीं होगा हालाँकि पेट दर्द से राहत-छुटकारे के लिये इनका बहुत-ही ज्यादा प्रयोग हो रहा है। “मर्ज बढता गया ज्यों-ज्यों दवा की” का सन्दर्भ अन्य था परन्तु पेट की बीमारियों पर यह अक्षरशः लागू होता है। ऐसे में आइये उदर रोगों को कुछ हट कर देखने का प्रयास करें।
*भोजन का पेट से सीधा-सरल-सहज रिश्ता है। तो, टेढापन कहाँ-कहाँ से उपजता है?*
● भोजन का अभाव। भोजन खरीदना पड़ता है और पैसे नहीं हैं तो भूखे रहो। दुनियाँ में ऐसे लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही है जिनके पास पैसे नहीं हैं, कम पैसे हैं। पर्याप्त पौष्टिक भोजन का नहीं मिलना उदर रोगों का, इनके बढ़ने का एक बड़ा कारण है।
● जल और मछली जैसा ही पेट और पानी का रिश्ता है। कल-कारखानों का विस्तार, नगरों का बढ़ना, कृषि में रसायनों का प्रयोग सम्पूर्ण पृथ्वी पर जल के प्रदूषण को बढ़ा रहा है। संसार में प्रदूषित पानी पीने वाले मनुष्य तीव्र गति से बढ़ रहे हैं। दुनियाँ में आज शायद ही कोई हो जो प्रदूषित जल पीने से बचा है। जल-जनित पेट की बीमारियों ने महामारी का रूप ले लिया है।
● निश्चित समय पर भोजन। आधे घण्टे से कम समय में निगलना। खानपान निर्धारित अन्तराल पर। भूख-प्यास लगी होना अथवा नहीं लगी होना का बेमानी होते जाना। विश्व-भर से इच्छा पर भोजन का लोप-विलोप हो रहा है। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल द्वारा शौच का समय फिक्स! विद्यालय का एक अर्थ बचपन में ही पेट के रोगों के बीज बोने वाला स्थल भी है। फैक्ट्री-दफ्तर-स्कूल का विस्तार, समय-सारणी उर्फ टाइम टेबल की बढती जकड़ उदर रोगों को बढाना लिये है।
● नींद का अभाव। रात की नींद का अभाव। शिफ्टों में ड्युटी और शिफ्ट परिवर्तन के संग भोजन-शौच का समय बदलना। कार्यस्थल पर लगातार खड़े रहना अथवा लगातार बैठे रहना। उत्पादन व वितरण का अधिकाधिक विश्वव्यापी आधार पर होना दिन और रात के भेद मिटा कर भोजन-पाचन के हमारे जैविक वृत को तहस-नहस कर रहा है। इसलिये रात को जागना थोपने वाली बिजली को पेट की बीमारियों की एक जननी कह सकते हैं। और, इलेक्ट्रोनिक्स-कम्प्युटर-सैटेलाइट उदर रोगों के रक्तबीज हैं, पौराणिक रक्तबीज के क्लोन हैं।
*तन और मन का निकट का रिश्ता है। और आज जैसे समाज में निकट जन का प्रिय जन होना नहीं रहा है वैसे ही मन में तन के प्रति कड़वाहट बढ़ रही है। मन द्वारा तन को हाँकना, मन द्वारा मन को मारना, तन द्वारा मन को नकारना हर व्यक्ति की नियति-सी बन गये हैं। मन की पीड़ा पेट को पेट नहीं रहने देती, मन की पीड़ा उदर रोगों की एक पूरी जमात लिये है। पैसे वाले भी मन की पीड़ा जनित पेट की बीमारियों से मुक्त नहीं हैं। संसार में सर्वत्र व सार्विक हैं मन से जुड़े उदर रोग :*
● खुशी का, मस्ती का अकाल पूरी पाचन-क्रिया को बिगाड़ने के लिये काफी है। पूरी दुनियाँ में भड़ास निकालना खुशी-मस्ती का स्थान ले रहा है। दिखावटी खुशी-मस्ती जटिल उदर रोग उत्पन्न करती है।
● वास्तविक प्रेम और आदर को दिखावटी प्रेम व आदर द्वारा प्रतिस्थापित करना। कदम-कदम पर अनादर, अपमान का सामान्य बात बनना। ऐसे में गुस्से का हर व्यक्ति में हर समय उपजना और
सामान्यतः गुस्से को दबाना-छिपाना, गुस्से को पी जाना तथा जब-तब गुस्से का विस्फोट पेट के लिये बमों की श्रृंँखला समान है।
● इच्छाओं व अनिच्छाओं के अनन्त दमन को वर्तमान की एक चारित्रिकता कह सकते हैं। तनाव हर जगह छाया है और तनाव से भूख ही नहीं लगना अथवा इसके विपरीत ज्यादा खा जाना वाली स्थितियाँ बनती हैं — उदर रोगों के लिये यह दोनों ही उपजाऊ जमीन प्रदत करती हैं।
● अवसाद उर्फ डिप्रेशन … पेट बेचारा क्या करे?
क्या खाते हैं? कैसे खाते हैं? किसके साथ खाते हैं? इन प्रश्नों का भोजन की पौष्टिकता, शरीर की आवश्यकता, मन की इच्छा के साथ रिश्ते कम ही बचे हैं। बल्कि, समाज में स्तर दर्शाते डण्डे-डँके इन्हें अधिकाधिक लोगों पर थोप रहे हैं। और, औपचारिकता का बोलबाला पेट का दिवाला निकाल देता है …
—(मजदूर समाचार, मार्च 2007 अंक)