## 1982-1992
तब दिल्ली बॉर्डर से मथुरा की ओर बाइस किलोमीटर तक सड़क के दोनों तरफ फैली फैक्ट्रियों के कारण फरीदाबाद उत्तर भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर था।
मार्च 1982 में मासिक फरीदाबाद मजदूर समाचार का प्रकाशन आरम्भ हुआ। छब्बीस अंक बाद जून 1984 में प्रकाशन रोका गया। जनवरी 1987 से मजदूर समाचार की नई सीरीज छपनी आरम्भ हुई। 1982-1992 के दौरान एक/दो पन्ने की एक/दो हजार प्रतियाँ छापी जाती थी।
मार्च 1993 में 200 पन्ने की पुस्तक छापी। यह मजदूर समाचार में 1982 से जनवरी 1993 के दौरान छपी सामग्री का संकलन था। पाँच भागों वाली पुस्तक के भाग दो में फरीदाबाद, भारत, विश्व में मजदूरों की गतिविधियों की बातें थी। भाग दो के फरीदाबाद अंश में : गेडोर-झालानी टूल्स, एस्कॉर्ट्स, ईस्ट इंडिया कॉटन मिल, थॉमसन प्रैस, केल्विनेटर, ऑटोपिन, हितकारी पॉट्रीज, अमेटीप मशीन टूल्स, स्टेरिवेयर, यूनिवर्सल इंजीनियरिंग, ओसवाल स्टील, विक्टोरा टूल्स, कटलर हैमर, क्लच ऑटो, के. जी. खोसला कम्प्रेसर, डेल्टन केबल्स, एवरी इंडिया, अल्फा टोयो, ओरियन्ट फैन, थर्मल पावर हाउस, हिन्दुस्तान वायर, आयशर ट्रैक्टर, सोवरिन निटवर्क्स, कमला सिनटैक्स, बम्पी शूज, लखानी फुटवियर, मैटल बॉक्स, जी.जी. टैक्सटाइल्स, बेलमोन्ट रबड़, ट्रुव्हील्स, महिन्द्रा स्टीलर, प्लाइकॉस्ट, खेतान फैन, सनफ्लैग टैक्सटाइल्स, ओसवाल-जैन ग्रुप, एलोफिक इन्डस्ट्रीज, बेलसन उद्योग, के-स्ट्रीट लाइट, हिन्दुस्तान इन्डस्ट्रीज, कृषि टैक्नोक्रेट्स, सुरभी इन्डस्ट्रीज, बाटा फरीदाबाद-बाटानगर कलकत्ता फैक्ट्रियों की 1982-92 के दौरान की सामग्री।
पुस्तक का नाम “मजदूर आन्दोलन की एक झलक” रखा था।
फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में 1992 में उत्पादन में इलेक्ट्रॉनिक्स का प्रवेश आरम्भ हो ही रहा था। तब आठ-आठ घण्टे की शिफ्टें सामान्य तौर पर थी। प्रोडक्शन में अधिकतर मजदूर परमानेन्ट थे। पुस्तक ले कर बड़ी फैक्ट्रियों के गेटों पर गये। सब्जी मंडी जैसे स्थानों पर पुस्तक प्रदर्शित की। “आन्दोलन” शब्द ने एक समवेत स्वर उभारा था : यह नेताओं के काम की है।
इस अनुभव के बाद मजदूर समाचार में “आन्दोलन” शब्द फिर नहीं आया।
## उत्पादन में इलेक्ट्रॉनिक्स का प्रयोग तेजी से बढा। लेथ-खराद का स्थान सी एन सी मशीनों ने लिया। उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन के संग फैक्ट्री मजदूरों के स्वरूप में बदलाव आये।
फैक्ट्रियों से बड़ी सँख्या में मजदूरों को निकालने का सिलसिला चला। यूनियनों ने मैनेजमेन्टों का साथ दिया। फर्जी हड़तालों और तालाबन्दियों के जरिये मजदूरों को निकालने की कोशिशें हुई। मजदूरों और लीडरों में टकराव बढे। कई फैक्ट्रियाँ बन्द हो गई। कई कम्पनियाँ नीचे खिसक गई। और, सन् 2000 तक फरीदाबाद में यह प्रक्रिया पूरी-सी हो गई। विवरण मजदूर समाचार में देखे जा सकते हैं — दिसम्बर 1993 से हर महीने 5000 प्रतियाँ छपने लगी थी।
फरीदाबाद में फैक्ट्री यूनियनें मर गई। संविधान-विधान अनुसार टेम्परेरी वरकर फैक्ट्री यूनियन के सदस्य नहीं बन सकते। फैक्ट्रियों में अस्थाई मजदूरों की बढती सँख्या ने यूनियनों की कब्रों पर मिट्टी डालने का कार्य किया है। होण्डा मानेसर फैक्ट्री में 2005 में और मारुति मानेसर फैक्ट्री में 2011 में यूनियनें कंकाल सिद्ध हुई। इस सन्दर्भ में 2016 में होण्डा टपूकड़ा फैक्ट्री की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं लगती।
## 2000 से 2010 के दौरान फैक्ट्रियों में प्रोडक्शन में टेम्परेरी वरकरों की वृद्धि बहुत तेजी से हुई। मारुति हो चाहे होण्डा, एस्कॉर्ट्स हो चाहे केल्विनेटर-व्हर्लपूल, गुडईयर टायर हो चाहे जे सी बी, उत्पादन का अधिकतर कार्य टेम्परेरी वरकर करने लगे। आज नोएडा, ओखला औद्योगिक क्षेत्र, उद्योग विहार गुड़गाँव, आई एम टी मानेसर, और फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में नब्बे प्रतिशत के आसपास मजदूर अस्थाई हैं। ऐसी फैक्ट्रियांँ हैं जहाँ मात्र स्टाफ के लोग परमानेन्ट हैं। टेम्परेरी वरकरों में से अधिकतर ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे जाते हैं। कम्पनी रोल पर छह महीने में ब्रेक वाले कम होते आये हैं। कई मैनपावर सप्लाई करने वाली ठेकेदार कम्पनियाँ उन कम्पनियों से बहुत बड़ी हैं जिन्हें वे मजदूर सप्लाई करती हैं।
फैक्ट्रियों में आज उत्पादन में मुख्य भूमिका निभाने वाले मजदूरों के बीच लीडरों/यूनियनों की बातें ना के बराबर हैं। फैक्ट्रियों में गेट मीटिंगों के गायब हो जाने की ही तरह “आन्दोलन” शब्द का विलोप हो गया है।
## विश्व-भर में हर रूप-रंग के नेता को, सब प्रतिनिधि प्रणालियों को नकारने का, ठुकराने का जीवन्त समय है।
और “आन्दोलन” शब्द हवा में है। आन्दोलनों की भरमार है। राजनीति ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में लगता है कि नेता बनने, नेता बने रहने, बड़ा नेता बनने के वास्ते आन्दोलन शब्द और क्रिया एक अनिवार्य आवश्यकता है।
—- 11 फरवरी 2021